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कलाल (अहलूवालिया)

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  • कलाल अहलूवालिया दक्षिण भारत केे महान क्षत्रिय "कलचूूरि राजवंंश" के शुद्ध रक्त क्षत्रिय वंशज हैं। कलचूूरि चन्द्रवंशी हैहय क्षत्रियों की एक शाखा है।

इन्हे "कल्यापाल", "कल्पपाल" या ,"कलचूरि" भी कहते हैं।

विभिन्न अभिलेखों में इस राजवंश के नामकरण के अलग-अलग प्रमाण देखने को मिलते हैंं -

जैसे- हैहय, चेदि, कटच्चुरी, कलत्सुरि, कलाल, कल्चुरी आदि। इतिहासकार इन शब्दों की उत्पति संस्कृत भाषा से न मानकर तुर्की भाषा के "कुल्चुर" शब्द से मानते हैं जिसका अर्थ है- उच्च उपाधियुक्त।

कल्चुरी का शाब्दिक अर्थ है- "काल को चूर चूर करने वाला।" और कलाल का शाब्दिक अर्थ है- "काल का भी काल।" इस संदर्भ में राजपुताने में एक कहावत प्रचलित है- "काळ‌ टल ज्यावे पण कलाळ कोनि टले।" अर्थात् काल या मृत्यु टल सकती है परन्तु कलाल नहीं। यह कहावत भी कल्चुरी और कलाल शब्दों के समान अर्थ की पुष्टि करती है। कलचूरियों को किसी विशेष कला के संरक्षक होने के कारण "कल्यापाल" कहा गया जो कालान्तर में "कल्यपाल" से "कलाल" में परिवर्तित हो गया। कालांतर में पंजाब से जो राजपुताने में स्थानांतरित हुए, उन्हें राजपुताने के शेखावाटी क्षेत्र, जयपुुर, सांभर और बीकानेर रियासत के ठिकानों में "चोपदार अहलूवालिया" कहा जाता है क्योंकि वहाँ पर ये राजपूत जागीरदारों के यहां चौब नामक चांदी या सोने से बनी विशेष छड़ी धारण करते थे और वर्ण से क्षत्रिय थे। चौबदार अहलूवालिया राजपूत राजाओं के प्रति हमेशा से ही वफादार रहें हैं, आज भी शेखावाटी क्षेत्र, जयपुुर, सांभर और बीकानेर रियासत के ठिकानों में यह एक उच्च कुलीन प्रतिष्ठित जाति मानी जाती है। कलाल राजपुताने में उन्ही क्षेत्रों में पाये जाते हैं जहां पर राजपूतों के किले और राजपरिवार विद्यमान हैं। इसके अलावा त्रिपुरी(छतीसगढ़),जबलपुर(मध्यप्रदेश), अहलु गाँव(पंजाब), कपूरथला रियासत(पंजाब) और हरियाणा के कुछ ही क्षेत्रों में कलाल समाज के लोग निवास करते हैं। कलाल वंश के कुलदेवता राजराजेश्वर भगवान सहस्रबाहु अर्जुन हैं।

उत्पत्ति[सम्पादन]

भगवान परशुराम जी ने 21 बार क्षत्रियों का संहार किया। उस समय हैहय वंश के पराक्रमी राजा सहस्रबाहु अर्जुन ने वीरता के साथ परशुराम जी से युद्ध किया। सहस्रबाहु को भगवान शिव‌ से कई वरदान‌ प्राप्त थे। जब सहस्रबाहु रणभुमि में अपनी एक हजार भुजाओं में शस्त्र लेकर शत्रुओं का संहार करते तो तीनों लोक थर-थर काँप उठते। जब रणभूमि में भगवान परशुराम ने सहस्रबाहु से अंतिम युद्ध किया तो भगवान् शिव की आज्ञा से भगवान् सहस्त्रबाहु शिवलिंग में समाहित हो गए। इससे भयभीत होकर उनके वंशज जंगलों की ओर भाग गए। कई वर्षों तक जंगलों में रहने के बाद जब वे बाहर आए तो उनके नाखून और काले बाल बहुत बढ़ गए थे और वे कलचुरि कहलाए।

कलचुरि राजवंश ने त्रिपुरी, जबलपुर आदि अनेक दक्षिण भारतीय क्षेत्रों में अपनी रियासते स्थापित की। कलचुरियों को कला संरक्षक होने के कारण कल्यापाल नाम से भी जाना गया। इस महान राजवंश ने 12 वीं शताब्दी तक भारत के कई भागों में शासन किया किन्तु 12 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इस महान राजवंश का पतन आरम्भ हो गया और कलचुरि या कल्यपाल कुल के वंशज इधर उधर जाकर बसने लगे। अधिकांश वंशज अहलू गांव (पंजाब) में जाकर बस गए और इनका नाम कलचुरि या कल्यापाल से अपभ्रंश होकर कलाल हो गया।

इसके अलावा एक मत यह भी है कि हैहय ब्राह्मण युद्ध के समय कुछ हैहय क्षत्रिय काबुल गजनी की ओर चले गए थे जो कालांतर में पंजाब आए और महान् अहलूवालिया कौम के नाम से विख्यात हुए। इन्हीं में से जागीरदार बदर सिंह कलाल के पुत्र जस्सा सिंह कलाल ने खालसा राज्य की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन्होंने ही नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली जैसे लुटेरे आक्रमणकारियों से कई बार युद्ध किए। अब्दाली को पराजित कर 2200 हिंदू कन्याओं को उसकी कैद से मुक्त करवाया और 1762 ई. में कपूरथला रियासत की नींव रखी। अहलू गांव से होने के कारण यह राजवंश "अहलुवालिया राजवंश" के नाम से जाना गया। तब से लेकर 1947 तक इस राजवंश ने कपूरथला रियासत पर राज किया। 1765 में बाबा जस्सा सिंह अहलूवालिया के जयपुर कूच के समय जो अहलूवालिया सिपाही राजपुताने में स्थानांतरित हुए वो कालांतर में हिंदू धर्म में चले गए और राजपूत जागीरदारों के छोटे गढ़ के दुर्ग- रक्षक नियुक्त हो गए। ये अपने हाथ में चौब नामक चांदी या सोने से बनी विशेष छड़ी धारण करते थे। इसलिए इन्हे " अहलूवालिया चोपदार" कहा जाता है।

वर्तमान समय में हिन्दू अहलुवालिया(कलाल) और सिक्ख अहलुवालिया(कलाल) ही क्षत्रिय कलचूरि राजवंश के वंशज हैं।

कपूरथला रियासत का अहलुवालिया(कलाल) राजवंश -[सम्पादन]

कपूरथला रियासत का राजघराना स्वयं को कलचूरि क्षत्रियों का वंशज मानता है जिनके पूर्वज कालान्तर में गुरु गोविन्द सिंह के शिष्य बन गए थे। महाराजा जस्सा सिंह कलाल ने खालसा राज्य की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन्होंने ही नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली जैसे लुटेरे आक्रमणकारियों से कई बार युद्ध किए। अब्दाली को पराजित कर 2200 हिंदू कन्याओं को उसकी कैद से मुक्त करवाया और 1762 ई. में कपूरथला रियासत की नींव रखी। अहलू गांव से होने के कारण यह राजवंश "अहलूवालिया राजवंश" के नाम से जाना गया। तब से लेकर 1947 तक इस राजवंश ने कपूरथला रियासत पर राज किया। ब्रितानी काल में भारत की एक देशी रियासत थी जिसकी राजधानी कपूरथला था। इसका शासन पंजाब के आहलूवालिया शासकों के द्वारा होता था। इसका क्षेत्रफल 352 वर्ग मील (910 कि॰मी2) था। सन 1901 की जनगणना के अनुसार इस राज्य की जनसंख्या 314,341 थी और इसके अन्तर्गत 167 गाँव थे। सन 1930 में यह राज्य पंजाब स्टेट एजेन्सी का भाग बना तथा भारत की स्वतन्त्रता के उपरान्त सन 1947 में भारत में विलीन हो गया।

कपूरथला रियासत के शासक -

  1. अहलूवालिया (कलाल) राजाओं का राज्य चिह्न
    सुल्तान-उल-कौम महाराजा जस्सा सिंह अहलुवालिया (1718-1783)
  2. महाराजा बाघ सिंह अहलुवालिया (1783-1801)
  3. महाराजा फतेह सिंह अहलुवालिया (1801-1837)
  4. महाराजा निहाल सिंह अहलुवालिया (1837-1852)
  5. महाराजा रणधीर सिंह अहलुवालिया (1852-1870)
  6. महाराजा खड़ग सिंह अहलुवालिया (1870-1877)
  7. महाराजा जगजीत सिंह अहलुवालिया (1877-1949)
  • चित्र:PicKingRaja.jpg
    महाराजा जस्सा सिंह अहलूूूूवालिया (कलाल)
    नवाब जस्सा सिंह ने 1762 में रखी कपूरथला रियासत की नींव
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ब्रिटिश राज में तोपों की सलामी वाली रियासतें

भ्रांतियाँ -[सम्पादन]

भारतीय समाज में इनकी जनसंख्या अत्यंत कम होने कारण कुछ लोग इन्हें जाट समझ लेते हैं क्योंकि जाट जाति में भी कलाल गोत्र पाया जाता है। कुछ इनकी तुलना कुआल, कुलाल या कलोल, वैश्य- बनिया, शराब के कारोबारी आदि समानार्थक जातियों से करते हैं जो गलत है। ये सिर्फ कुछ ही स्थानों पर राजपूत शासकों के लिए मद्य बनाते थे सभी के लिए नहीं। यह विशुद्ध क्षत्रिय जाति है।

सन्दर्भ-[सम्पादन]

1.Kapurthala state The Imperial Gazetteer of India, 1909, v. 14, p. 408.[सम्पादन]

2. "छत्तीसगढ़ वृहद् इतिहास " और " प्राचीन छत्तीसगढ़" ग्रन्थ।

3. कलचुरी राजवंंश कालीन अभिलेख और हरिवंंश पुुराण।

4. डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक "अशोक का फूल" में‌ कलालों को हैहयवंशी क्षत्रिय माना गया है।

5. मेदिनी कोष में (कल्पपाल) शब्द का प्रयोग हुआ है इसका अर्थ न्यायाधिपति प्रजापति। कल्हण कृत राज तरंगिणी संस्कृत ग्रन्थ में जो काश्मीर के प्राचीन महाराजाओं का इतिहास है, राज्यक्रम का वर्णन करते हुए आचार्य ने करकोटि राज्यवंश के पश्चात कल्पपाल राज्यवंश का वर्णन किया है। कल्पपाल के वंशज अपने आगे वरमन उपाधि का प्रयोग करते हैं। वरमन की उपाधि केवल क्षत्रिय के लिए प्रचलित थी। आज भी कलवार जाति के लोग इस उपाधि का पयोग करते हैं। (इस उपनाम के लोग बंगाल में बहुतायत में हैं और आज भी खुद को क्षत्रिय ही मानते हैं) कल्पपाल शब्द का ही अपभ्रंश कलवार है।

6. पद्मभूषण आचार्य डॉ हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है -

फिर हमारे गाँव में कलवार या प्राचीन " काल्यपाल" लोगों की बस्ती है जो एकदम भूल गए हैं की उनके पूर्वज कभी राजपूत सैनिक थे और सेना में पिछले हिस्से में रहकर क्लीवरत या कलेऊ की रक्षा करते थे।

साभार - मेरी जन्मभूमि पृष्ठ 38

7. राजपूती सेना का वह अंग जो कलेवा की रक्षा करता था, आगे चलकर कलवार के रूप इ बदल गया। राजपूतों के कलेवा में मादक द्रव्य भी होता था और आगे चलकर इस मादक द्रव्य ने कलवार की सामाजिक मर्यादा घटा दी।

साभार - प्रायश्चित की घडी पृष्ठ 21-22  अशोक के फूल से

8. आचार्य क्षितिमोहन सेन शास्त्री ने भारत वर्ष में जाति भेद" नामक पुस्तक के पृष्ठ 153 में लिखा है -

"गुरु गोविन्द सिंह के खालसा धर्म में जाति धर्म निर्विशेष सभी सादर स्वीकृत हुए हैं उनमे कलवार यानी कलाल जाति भी क्रमशः अभिजात हो सकी है।"

इन्हें‌ भी देखें[सम्पादन]

1.कपूरथला राज्य[सम्पादन]

2.जस्सा सिंह अहलुवालिया[सम्पादन]

3.कलचुरि राजवंश[सम्पादन]

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