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किस्सागोई की कला और हिंदी बालसाहित्य

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साहित्य चाहे वह किसी भी देश अथवा भाषा का हो, वह अपने लोकसाहित्य और उसमें मौजूद जनसंवादन की कला का सदैव ऋणी रहा है। अपनी मुख्य प्रेरणाओं के लिए आधार-सामग्री वह श्रुति परंपरा से ग्रहण करता है। सामाजिक कर्तव्यों-दायित्वों के संहिताकरण का कार्य भले ही विद्वतवर्ग करता रहा हो किंतु उसके पालन, संरक्षण तथा देश-देशांतर तक फैलाव का कार्य लोक के हिस्से ही आता है। अतः जिस देश का लोकसाहित्य समृद्ध है वहां संस्कृति और परंपराओं को बचाने-निखारने के साथ-साथ नए ज्ञान को आत्मसात करने में अपेक्षाकृत कम समय लगता है। भारत में तो शिक्षा की परंपरा ही गुरुकुलों से निकली है। सत्य की खोज के लिए न जाने कितने नचिकेताओ ने इस देश में राज-पाट छोड़े हैं। यह बात अलग है कि विधिवत शिक्षार्जन की सुविधा पहले समाज के विशिष्ट वर्गों तक ही सीमित थी। जिसके दुष्परिणामवश कर्ण और एकलव्य जैसे जिज्ञासुओं की ज्ञान की तलाश अंततः अभीप्सा ही सिद्ध होती रही है। शिक्षा-वंचित वर्ग के लिए जनसंवादन की कला का महत्त्व समाज के बाकी लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक था। विशेषकर सामंती दौर में जब प्रकाशन की दुनिया आज जितनी बड़ी और सामथ्र्यवान नहीं थी, सामाजिक संबंधों, वर्गीय जटिलता के चलते जनसंख्या के बहुलांश को संसाधनों से वंचित कर दिया जाता था। तब जनसामान्य की मनोरंजन-संबंधी आवश्यकता को पूरा करने, अनुभव तथा ज्ञान की परंपराओं को अगली पीढ़ी तक ले जाने और उन्हें सहेजकर रखने के लिए जनसंवादन की कला का सहारा लिया जाता था। कहा जा सकता है कि इतिहास, परंपरा, व्यवहार, सांस्कृतिक प्रतीकों एवं मिथकों को संग्रहणीय बनाने तथा उनका अन्वेषण-विश्लेषण करने के लिए बौद्धिकों ने एक ओर जहां शास्त्राीय गं्रथों की रचना की, वहीं उन्हें लोकमानस तक पहुंचाने और जनजीवन का हिस्सा बनाने के साथ-साथ लोकरंजन के लिए किस्सागोई की कला का विकास हुआ।

किस्सागोई की शुरुआत कब और कहां पर हुई इसके बारे में ठीक-ठीक बता पाना तो संभव नहीं है। केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। सभ्यता के आरंभिक दौर में जब मनुष्य ने किसी अनोखी वस्तु, प्राणी या घटना के बारे में कुछ बढ़ा-चढ़ाकर, कतिपय रोचक अंदाज में और लोकरंजन की वांछा के साथ बयान करने की कोशिश की होगी; तो स्वाभाविक रूप में बाकी लोगों में उसके कहन के प्रति ललक पैदा हुई होगी। परिणामतः उन अनुभवों के प्रति सामूहिक जिज्ञासा तथा उनको रोचक अंदाज में, बार-बार सुने-कहे जाने की परंपरा का विकास हुआ। उसमें कल्पना का अनुपात भी उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया। इसी से लोकसाहित्य और किस्सागोई की कला का विकास हुआ। अब सवाल उठता है कि किस्सा और किस्सागोई हैं क्या?

कहानी का बड़ा स्वरूप ऐसा जो अपेक्षाकृत लंबे समय तक चले, जिसके कथानक में कई मोड़, चरित्रों के टकराव, भावनाओं के उतार-चढ़ाव, मानसिक उद्वेलन और विचारों का संघर्ष हो, वह किस्सा की कोटि में आता है। इसे बात अथवा बतकही के नाम से भी जाना गया है। किस्सा एकल कथानक प्रधान भी हो सकता है और बहुकथानकों का समुच्चय भी। कभी-कभी प्रधान कथानक के इर्द-गिर्द विविध भाव-भंगिमाओं से भरपूर कई लघु कहानियां लपेट दी जाती हैं। छोटी-छोटी कहानियों को गुंफित कर बड़े कथानक का रूप देने और उन्हें किस्सागोई में ढालने की परंपरा दुनिया के प्रायः सभी देशों में, न केवल मौजूद बल्कि लोकप्रिय भी रही है। उनका स्वरूप भी समय और परिस्थतियों के अनुसार अदलता-बदलता रहता था। किस्सागो अपनी योग्यता और कल्पनाशक्ति के दम पर उन्हें और अधिक रोचक तथा स्मरणीय बनाने के लिए आवश्यकतानुसार फेरबदल करता रहता था।

बंधे-बंधाए शब्दों में कहें तो किस्सागोई कल्पना के रसात्मक कहन की कला है। जिससे हम सभी का वास्ता पड़ता रहता है। मां की लोरी के साथ-साथ...जब बालक शब्दों का अर्थ पहचानना शुरू करता है, शायद तभी से। किस्सागोई को लेकर बचपन से शुरू हुआ सम्मोहन ताजिंदगी कम नहीं होता। इसमें कल्पना का माधुर्य भरा होता है। ऐसा लालित्य समाहित होता जिसमें आखर बोलने लगते हैं। शब्दों को जुबान मिल जाती है। अर्थ स्वयं मुखर हो उठते हैं। काल्पनिक होने के बावजूद उसका वर्णन इतना प्रामाणिक, रसमय और जीवंत होता है कि श्रोता उसके प्रवाह में बहे चले जाते हैं। लेखन के सन्दर्भ में यह एक विशिष्ट शैली है। जिसमें कथाकार अपने पाठक के साथ संबोधन की स्थिति में होता है। लिखने के बजाए वह कहानी को कहता है। कथ्य में किस्सागो की रचनात्मकता भी शामिल हो जाती है। जिससे रचना में नाद सौंदर्य स्वाभाविक रूप से उतर आता है और उसकी ग्राह्यता बढ़ जाती है। परिणामतः पाठक-श्रोता को अपेक्षाकृत अधिक आनंद और तृप्ति का अनुभव होता है। लोकपरंपरा में मान्य किस्सागोई ही शास्त्राीय भाषा आख्यान बन जाती है।

जनसंस्कृति में किस्से-कहानियों का बहुत ही महत्त्व रहा है। प्रायः समाज के बडे़-बूढे ही किस्सागो की जिम्मेदारी को संभालते थे। कई बार यही कला लोगों की जीविका का आधार भी बन जाती थी। अच्छी कहानी के साथ सुनाने की बेहतरीन कला सोने पर सुहागे का काम करती है। ऐसे प्र्रतिभावान किस्सागो भी रहे हैं जो बिना किसी पूर्व तैयारी के सिर्फ अपनी कल्पनाशक्ति के बल पर, एक सूत्रा थामकर कहना प्रारंभ करते और बात/बहकही बढ़ते-बढ़ते मजेदार कहानी या किस्से का रूप ले लेती थी। पारंपरिक ग्रामीण जीवन में नैतिक एवं सामाजिक चेतना इतनी प्रगाढ़ थी कि व्यक्तिमात्रा उनसे विचलन के खतरों को न केवल पहचानता था, बल्कि यथासंभव उससे दूर रहने का प्रयास भी करता था। नैतिक एवं सामाजिक मूल्यबोध से परिचित कराने के लिए उसे साहित्य जैसे किसी बाह्यः उपक्रम की आवश्यकता उतनी नहीं थी; जितनी कि आज महसूस की जाती है। तब यह कार्य धर्म एवं लोकाचार से जुड़े विविध माध्यमों द्वारा संपन्न होता था। दूसरे शब्दों में सहकार एवं सहअस्तित्व को समर्पित तब के ग्राम्यःजीवन में सामाजिक मूल्य, मनस् के साथ-साथ विकसित होते थे तथा उनके बीच द्वैत की स्थिति कम ही उत्पन्न होती थी। निश्चय ही जनसंवादन की कला जिसका एक रूप किस्सागोई भी है, का इसमें बहुत बड़ा योगदान था। और संचार माध्यमों के अतिरेक के बीच, कम ही हो, मगर आज भी उसी तरह बना हुआ है।

चैपाल संस्कृति कृषि समाजों की पहचान रही है। हर गांव में एक चैपाल होना अनिवार्य था। यही नहीं चैपाल के क्षेत्राफल उसके निर्माण में प्रयुक्त सामग्री, वास्तु-शिल्प आदि से गांव-भर के मान-मर्यादा का निर्धारण होता था। इन्हीं चैपालों पर किस्सागोई की कला खूब फली-फूली। लेकिन किस्सागो के लिए जरूरी नहीं था कि अपनी हुनरपेशी के लिए चैपाल को ही चुने। गर्मियों में पेड़ों की छांव तले मवेशी चराते हुए, बरसात में खुले आसमान के नीचे रिमझिम बूंदों का आनंद लेते हुए, सर्दी में गांव के तिराहों-चैराहों पर अलाव तापते हुए, अभावग्रस्त झोंपड़ियों में रात बिताते समय किस्से-कहानियों के अनवरत दौर चलते ही रहते थे। किस्सागोई के प्रति अनुराग समाज के किसी खास वर्ग या समुदाय तक सीमित नहीं था। बल्कि समाज के प्रायः सभी वर्ग इसमें रुचि लेते थे। कुछ लोगों की जीविका तो राजा-महाराजाओं को किस्सा सुनाने से ही चलती थी। इसके भी कई प्रमाण हैं कि पुराने जमाने में बादशाह के दरबार में कुछ ऐसे हुनरमंद लोग भी होते थे; जो उन्हें और उनके शहजादों को सिर्फ किस्से-कहानी सुनाया करते थे। सफल किस्सागो को अपनी जीविका के लिए भटकना नहीं पड़ता था। सहअस्तित्व और अपरिग्रह को समर्पित लोकभावना उसकी जरूरतों की भरपाई के लिए कोई न कोई विधान गढ़ ही लेती थी। आसपास के गांवों से उनके लिए बुलावे आते ही रहते। ठलवार के दिनों दक्ष किस्सागो दूरदराज के गांवों की सैर कर आते।

किसी मेले, पर्व-त्योहार अथवा विवाहादि के अवसर पर ऐसे कलाकार जब कहीं पहुंचते तो वहां धूम मच जाती थी। दिन-भर के काम के बाद अपने अनुभव और सुख-दुख बांटने के लिए लोग उनके पास जुटने लगते। जहां मौसम, विभिन्न सामाजिक स्थितियों पर विचार-विमर्श के अलावा, मनोरंजन का ख्याल भी रखा जाता था। जिसमें गद्य और पद्य दोनों प्रकार की प्रस्तुतियां स्थान पातीं। पद्य रचनाओं में ढोला-मारू, आल्हा, रामायण आदि प्रमुख थीं तो गद्य में मुख्यतः किस्से सुने-सुनाए जाते थे। जिनमें अलिफ-लैला, किस्सा तोता-मैना, सहस्र रजनीचरित्रा, दास्ताने चार दरवेश, सिंहासन बतीसी, वैताल पचीसी, कथासरित्सागर, जातक कथाएं आदि प्रमुख थे। ये किस्से जनसामान्य में बेहद लोकप्रिय थे तथा भिन्न-भिन्न रूपों में बिना उनके मूल स्रोत को जाने, सुने-सुनाए जाते थे। यही नहीं अवसर के अनुरूप रोचकता एवं आकर्षण बनाए रखने के लिए किस्सागो उनमें अपनी रुचि एवं प्रतिभानुरूप बदलाव करने को भी स्वतंत्रा रहते थे। कुछ किस्से गद्य तथा पद्य दोनों ही रूप में प्र्र्रचलित थे तथा यह किस्सागो-कलाकार की योग्यता तथा श्रोताओं की पसंद पर निर्भर करता था कि वह प्रस्तुतीकरण के लिए किस विधा का चयन करते हैं।

कथानक प्रायः श्रोताओं के जाने-पहचाने होते थे। उनकी मौलिकता के प्रति किस्सागो का कोई दावा भी नहीं होता था। मौलिक होता था किस्से के प्रस्तुतीकरण का अंदाज। उच्च कल्पनाशक्ति, मौलिक शैली, दिलकश संप्रेषण और पात्रों की अंदरूनी जद्दोजहद को उभारने में सफल कलाकार ही जनमानस को अपने जादुई प्रभाव में लाने में कामयाब रहते थे। उसी के आधार पर उनकी श्रेष्ठता के दावे का निर्धारण होता। समाज में किस्सागोई की परंपरा के संपुष्ट होने का ही परिणाम था कि रामचरितमानस की शुरुआत तुलसीदास काकभुशुण्डी के मुख से कराते हैं। गीता जैसी गहन-गंभीर दार्शनिक गवेष्णा का अवतरण श्रीकृष्ण के मुख से होता है, अर्जुन वहां मात्रा श्रोता है। पूरी महाभारत संजय का ‘कथन’ है। किस्सागोई शैली के आधुनिक गद्यकारों में देवकीनंदन खत्राी, प्रेमचंद, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, अमृतलाल नागर, विजयदान देथा आदि की लोकप्रियता का यही रहस्य है। मार्खेज के गद्य में मौजूद जादुई यथार्थवाद दरअसल किस्सागोई का वह लालित्य ही है; जिसकी आज पूरी दुनिया दीवानी हो रही है।

लोकाचार का अनिवार्य हिस्सा होने के कारण जरूरी है कि किस्सागो को लोकमानस की अच्छी परख हो। उसे लोकरुचि के अनुसार विषयों के चयन की कला आती हो। ध्यातव्य है कि किस्सागोई का विकास सामूहिक मनोरंजन की कला के रूप में हुआ है। कहन के भीतर ही समूूह के प्रति संबोधन की भावना छिपी है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसके सुख-दुख साझे हैं। इसलिए मनोरंजन अथवा लोकरंजन के माध्यमों पर सभी का अधिकार एकसमान होता हैे। किस्सागो यह मानकर चलता है कि वह दूसरों के, जो असल में उसके अपने ही समाज का हिस्सा हैं, कल्याण का हेतु है। तभी वह प्रस्तुतीकरण के लिए अक्सर बगैर किसी लालच के, केवल अपनत्व एवं सौहार्द-भावना के साथ प्रस्तुत होता है। जनकल्याण की भावना और उसके लिए निःकलुश समर्पण ही किस्सा और किस्सागोई को सर्वस्वीकार्य और उपयोगी बनाता है। पुस्तकों में हालांकि किस्सागोई केवल एक शैली के रूप में मौजूद रहती है। और उनसे गुजरते समय पाठक प्रायः अकेला ही होता है। किंतु उसका प्रस्तुतीकरण सामूहिक संबोधन ही होता है, जहां लेखक लिखने के बजाए सुनाता है। जिससे पाठक को हमेशा यह अनुभूति बनी रहती है कि वह अकेला नहीं है। अपितु बृहद समाज की एक अतिमहत्त्वपूर्ण इकाई है। किस्सागोई का यही गुण उसको संप्रेषण की बाकी शैलियों से अलग और विशिष्ट सिद्ध करता है तथा उसकी लोकव्याप्ति की संभावनाओं को बढ़ाता है। अतः सामूहिकता को किस्सागोई के एक आवश्यक लक्षण के रूप मे देखा जा सकता है।

सामूहिकता के साथ-साथ सार्वलौकिकता की भावना भी किस्सागोई से संबद्ध रहती है। यद्धपि दुनिया के विभिन्न देशों-समाजों की भौगोलिक तथा परिस्थितिगत कारणों से अपनी कुछ खास विशिष्टताएं होती हैं। वही उसे बाकी देशों और समाजों से अलग सिद्ध करती हैं। इसके बावजूद अलग-अलग देशों और समाजों में रह रहे लोगों के स्वभाव में कुछ समानताएं भी होती हैं। वही उन्हें एक-दूसरे के करीब भी लाती हैं। जैसे कि नैतिकता को लेकर दुनिया के सभी समाज एक जैसा सोच रखते हैं। प्रायः सभी मानवीय समाजों में प्राणिमात्रा के प्रति करुणा को उदात्त मानवीय मूल्य माना गया गया है। इसी प्रकार दान को आवश्यक कर्तव्य की संज्ञा सभी समाजों में प्राप्त है। इसके विपरीत झूठ, बेईमानी, धोखा आदि दुगुर्णों को हेय मानते हुए इनसे बचने की शिक्षा सभी समाजों में समानरूप में दी जाती है।

किस्सागोई की सफलता के लिए जरूरी है कि उसके पीछे शाश्वत जीवनमूल्य और सार्वलौकिकता की उदात्त भावना निहित हो। तभी उसे विभिन्न रुचि और विचार के व्यक्तियों का समर्थन मिल पाता है। इसी के कारण किस्सागोई प्रधान रचनाएं देश-प्रदेशों की सीमाओं को पारकर दुनिया-भर की यात्रा करने में कामयाब सिद्ध होती हैं। इस बीच उनमें हालांकि कुछ न कुछ अंतर स्वाभाविक रूप से आ ही जाता है, मगर रचना की मूल आत्मा प्रायः अपरिवर्तित ही रहती है। प्रायः वही विषय किस्सागोई में स्वीकार्यता पाने में सफल रहते हैं जो विवाद से परे हों तथा जिनकी सार्वकालिक उपयोगिता सिद्ध हो चुकी हो। यहां तक कि मनोरंजन के स्तर पर भी यह ध्यान बराबर रखा जाता है कि उससे किसी व्यक्ति, धर्म अथवा वर्ग की भावनाएं आहत न हों। और वह इतना ‘बल्गर’ भी न हो कि समूह में उसको कहा-सुना न जा सके। ऐसे विषय जो देश-काल की सीमाओं से परे हों और थोड़े-बहुत बदलाव के बाद किसी भी समाज की कहानी का आधार बन सकें; जिनमें अंर्तनिहित सत्य बहुसंख्यक समाजों का सत्य बनने की योग्यता रखता हो, किस्सों में ज्यादा लोकप्रिय माने जाते हैं।

किस्सागोई का जन्म ही लोकरंजन के लिए हुआ है। लोग प्रमुखतः मनोरंजन की तलाश में किस्सागो के संपर्क में आते हैं। किस्से-कहानी में अंतर्निहित मूल्य उसके बाद का स्थान रहते हैं। इसलिए किस्सागोई के आवश्यक लक्षणों में रोचकता भी विशेष महत्त्व रखती है। इसके अभाव में किस्सागो की सफलता संभव ही नहीं है। इसका अर्थ यह भी न मान लिया जाए कि केवल मनोरंजन ही किस्सागोई का अभीष्ट होता है। जीवन और मनुष्यता के बारे कोई भी बयान तभी महत्त्वपूर्ण बन पाता है जब वह या तो किसी औचित्य की व्याख्या करता हो या उससे किसी न किसी रूप में जुड़ा हो। लोकरंजन यदि सकारात्मक चरित्रों, घटनाओं पर आधारित है अथवा उन्हें किसी भी रूप में वरेण्य सिद्ध करता है तो श्रोता/पाठक उससे सामान्यतः प्रेरणा लेते ही हैं। अतः किस्से-कहानी में नैतिकता के प्रति आग्रहशीलता सदैव अपेक्षित होती है। परंतु उसे इसके दबावांे से सर्वथा मुक्त रहना चाहिए। किस्से-कहानी में रोचकता के मूल्य पर नैतिकता की घुसपैठ होनी ही नहीं चाहिए। दूसरे शब्दों में ज्ञान अथवा मूल्य रचनात्मक प्रस्तुति के समुत्पाद अथवा सह-उत्पाद तो हो सकते हैं, मूल उत्पाद नहीं। अगर ऐसा है भी तो यह काम इतने कौशल से किया जाना चाहिए कि पाठक अथवा श्रोता को उसका आभास तक न हो। यानी रचना का प्रस्तुतीकरण इतना सहज और रसात्मक होना चाहिए कि वह श्रोताओं-पाठकों को अपने जादुई आकर्षण में बांध ले।

किस्सागोई में कामयाबी का एक मापदंड यह भी है कि प्रस्तुतीकरण के दौरान किस्सागो अपने पाठक या श्रोता को अपने कितने करीब लाने में कामयाब रहता है। अंतरंगता का यही गुण लोगों के दिलों में किस्सागो के प्रति लगाव पैदा करता है। यही उसकी लोकप्रियता को निरंतर आगे ले जाता है। सफल किस्सागो वही है जिसकी आवाज के उठान के साथ-साथ श्रोता अंतरिक्ष की सैर करने लगें और उसका ठहराव देखकर उन्हें वक्त ठहरा-ठहरा-सा लगने लगे। जिसकी रचना को सुनते या पढ़ते समय श्रोता/पाठक खुद को उसके साथ इतना अंतरंग अनुभव करें कि किसी तरह के द्वैत की संभावना ही न रहे, सिर्फ किस्सागोई के प्रवाह में बहते चले जाएं। इसके लिए किस्सागो को अपने बौद्धिक अहम् से कई पायदान नीचे उतरकर अपने अपने श्रोता या पाठक से सीधे संवाद करना होता है। किसी भी प्रकार का विशिष्टताबोध अहमन्यता का एहसास किस्सागो की शैली को न केवल बोझिल बना देता है; बल्कि श्रोताओं/पाठकों को मनोरंजन के अन्य साधनों की ओर भी ढकेल सकता है।

जाहिर है कि इसके लिए प्रस्तुति को भाषा के स्तर पर भी संवारना और तराशना पड़ता है। सहजबोध्य मुहावरेदार भाषा का प्रयोग किस्सागोई को निखारने में मदद करता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि किस्सा कलात्मक कहन की परंपरा का निकष् है। जिसमें किस्सागो अपने अनुभव, ज्ञान तथा कल्पना के योग से इतिहास के किसी अंश, घटना अथवा कथानक को रोचक अंदाज में श्रोता के समक्ष प्रस्तुत करता है। कुुछ इस तरह कि श्रोता उसमें डूबकर रह जाएं। यहां तक वक्त का एहसास भी उन्हें न रहे। वह प्रायः बृहद श्रोतावर्ग को संबोधित होता है। जिसमें अशिक्षित भी हो सकते हैं तथा अलग-अलग मिजाज और रुचि के भी। भाषाई बोझिलता, शैलीगत चमत्कारों अथवा वैचारिक कट्टरता का किस्सागोई में कोई स्थान नहीं होता। सहज-सरल, मुहावरेदार और रवानगी से भरपूर भाषा ही किस्सागोई के लिए उपयुक्त होती है। इस कसौटी पर खरा उतरना हर अच्छे किस्सागो के लिए एक चुनौती होती है। यह किस्सागो की अपनी शैली, रचनात्मकता और प्रस्तुतीकरण के कौशल पर निर्भर करता है कि अपने पाठकों/श्रोताओं को कितना सम्मोहित कर पाता है। मुहावरों और लोकोक्तियों का आसान और अवसरानुकूल उपयोग उसे लोकप्रिय तथा प्रभावयुक्त बनाता है। लेख के इस अंश में हम बालसाहित्य के सन्दर्भ में किस्सागोई की उपयोगिता का आकलन करेंगे। यह भी जानने का प्रयास करेंगे कि किस्सागोई प्रधान रचनाएं बच्चों में क्यों अधिक लोकप्रिय होती हैं। प्रायः सभी समाज लंैगिक आधार भेदभाव के शिकार रहे हैं। किस्सागोई की कला यद्यपि स्त्रिायों और बच्चों में समानरूप से लोकप्रिय रही है। किंतु परिस्थितिगत अंतर के कारण उसमें किंचित भिन्नता भी रही है। चैपाल-संस्कृति की मर्यादा या उसकी सीमा के चलते चैपालों पर जवान, बच्चे और बूढे़ तो जा सकते थे। परंतु स्त्रिायों और छोटे बच्चों का वहां जाना विभिन्न कारणों से निषिद्ध था। इस कारण किस्सागोई की कला घरों में भी समानरूप में विकसित तो हुई, परंतु किंचित भिन्नता के साथ। दोनों में एक मुख्य अंतर तो यह रहा कि चैपालों पर जो काम प्रायः दक्ष किस्सागो अथवा मंजे हुए व्यक्ति जो कहानी सुनाने की कला में पारंगत हो, द्वारा किया जाता था। वहीं घरों में यह दायित्व दादा-दादी, नाना-नानी, बुआ या ऐसे ही परिवार के किसी वरिष्ठ सदस्य द्वारा उठाया जाता था। किस्से-कहानी के माध्यम से ही बालक को अपनी परंपरा, संस्कृति तथा राजनीति आदि का व्यावहारिक ज्ञान करा दिया जाता था। बचपन में किस्से-कहानी के प्रति जन्मा अनुराग ही व्यक्ति को किस्सागोई के चर्चित ठिकानोंµ जैसे चैराहों, चैपालों तथा ऐसे ही अन्य सार्वजानिक स्थलों तक ले जाता था। जबकि परिस्थतिगत अंतर के कारण घरेलू प्रस्तुतियां प्रायः छोटे-छोटे किस्सों तक ही सीमित रह जाती थीं। अक्सर चैपालों पर सुनाए जाने वाले बड़े किस्से संक्षिप्त रूप लेकर बात या बतकही का रूप धारण कर लेते थे। हालांकि उनमें भी किस्सागोई का जादू पूरी तरह विद्यमान रहता था। कहा जा सकता है कि प्रारंभिक शिक्षण-संस्कार के साथ-साथ किस्सागोई के लिए उत्सुक मानस, उसके प्रति अनुराग और आकर्षण घर के आंगन, माता की गोद से ही पैदा होने लगता था और बालक उन्हीं के माध्यम से बाहर की दुनिया को समझने का प्रयास करता था।

किस्सागोई का ही कमाल है जिसके कारण बीते जमाने में बिना किसी प्रकाशन सुविधा, संचार माध्यमों के भी कहानियां दूर-दराज के देशों तक की यात्रा कर आती थीं। पूरा लोकसाहित्य देखा जाए तो किस्सागोई की कला का ऋणी है। किस्सागोई की लोकप्रियता और पहंुच के कारण ही पंचतंत्रा की कहानियां आज दुनिया-भर के सभी देशों में न केवल प्रचलित हैं बल्कि स्थानीय रुचियों और परंपराओं के अनुरूप उनमें व्यापक बदलाव भी हुए हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण ईसप की कहानियां हैं जिनपर पंचतंत्रा का पूरा-पूरा प्रभाव है। छठी शताब्दी पहले जन्मा ईसप यूं तो यूनान का एक मामूली गुलाम था। शक्ल-सूरत से बदसूरत। परंतु उसके प्रशंसकों की कमी नहीं थी। अपने समाज में उसका सम्मान था। इसलिए कि वह अपने श्रोताओं को स्पंदित करने की कला में दक्ष एक बेहतरीन किस्सागो था। नीति और व्यावहारिक ज्ञान को कहानियों में ढालकर सुनाने में उसको महारत हासिल थी। अपनी कहानियों में उसने पंचतंत्रा की उन कहानियों का भी उपयोग किया जो हजारों मील की यात्रा के बाद यूनान पहुंची थीं। लगभग सतरह शताब्दियों तक ईसप की कहानियां श्रुति के माध्यम से एक देश से दूसरे देश तक की यात्रा करती रहीं। चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने भी जनमानस के बीच अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए दृष्टांत परंपरा का सहारा लिया था।

किस्सागोई की महत्ता को दर्शाता एक उदाहरण और भी है। एक बददिमाग बादशाह का किस्सा जो अपने आप में बेहद मजेदार है और आज भी खूब रस ले-लेकर सुना-सुनाया जाता है। उसमें किस्से का शौकीन बादशाह किसी बात पर शहजादी से नाराज हो जाता है। दंड से पहले बुद्धिमान शहजादी उसे किस्सा सुनाना चाहती है। बादशाह तैयार हो जाता है। मगर जैसे ही एक किस्सा समाप्त होने को होता शहजादी बड़ी चतुराई और कलात्मकता से उसमें दूसरा किस्सा जोड़ देती। किस्सा सुनते-सुनाते रात बीत जाती। बादशाह किस्से में इतना डूब जाता था कि उसका बाकी हिस्सा अगली रात में सुनने के लिए शहजादी को एक दिन और जीने की मोहलत दे देता। इस तरह दिन पर दिन बीतते चले गए। अंततः बादशाह उस बुद्धिमान शहजादी को क्षमा कर देता है। यह अकेला प्रसंग ही किस्से की ताकत का अंदाज कराने के लिए पर्याप्त है। जबकि प्रतीक रूप में यह किस्सा बादशाहों की जीवनशैली और बददिमागी पर कटाक्ष भी करता है।

जर्मनी की लोककथाओं को संकलित करने के लिए ग्रिम-बंधुओं के प्रयास की सराहना दुनिया-भर में हुई है। उनके द्वारा संकलित लोककथाएं जगत्प्रसिद्ध ‘ग्रिम्स फेयरी टेल्स’ नामक ग्रंथ में संकलित हैं। कहानियों को जुटाने लिए ग्रिम बंधुओं ने जर्मनी के गांव-गांव जाकर बुजुर्गों से कहानियां सुनी थीं। इसी सिलसिले में एक बेहद रोचक घटना है जिसका जिक्र कहानियों के संकलन के दौरान के अपने अनुभवों का उल्लेख के रूप में ग्रिम बंधु कुछ इस तरह करते हैं कि...एक बार जब वे एक गांव में पहुंचे तो वहां उन्हें एक चुड़ैल बुढ़िया के बारे में बताया गया। जिसके पास गांववाले अपने बच्चों को भेजने से कतराते थे। किसी ने उन्हें यह भी जानकारी दी कि उस बुढ़िया के पास कहानियों का बेशुमार खजाना है। परंतु साथ ही यह भी बता दिया कि वह ‘जादूगरनी और डायन है।..चुड़ैल है जो बच्चों पर ऐसा जादू करती है कि बच्चे रात में डरावने सपने देखकर चीखते-चिल्लाते हैं।’ ग्रिम-बंधु कहानियों की खोज में निकले थे। इसलिए वे उस बुढ़िया के पास पहंुचे और उससे कहानी सुनाने का आग्रह किया। जवाब में बुढ़िया ने शर्त लगा दी कि वह कहानी तभी सुना सकती है, जब श्रोता के रूप में वहां बच्चे भी उपस्थित हों। उधर गांववाले अपने बच्चों को बुढ़िया के पास भेजने को जरा भी तैयार नहीं थे। इससे ग्रिम-बंधुओं के सामने विकट समस्या उपस्थित हो गई। बुढ़िया जिद्दी थी। लोककथाओं के मोह में ग्रिम बंधु भी वहां से निराश लौटने को तैयार नहीं थे।

अंततः ग्रिम बंधुओं ने अपने एक मित्रा की मदद ली। उसने गांववालों को समझाया। उनके बच्चों की सुरक्षा का आश्वासन भी दिया। अंततः काफी प्रयास के बाद, गांववाले अपने बच्चों को बुढ़िया के पास भेजने को राजी हो गए। वर्षों से गांववालों की प्रताड़ना का शिकार, गांव से दूर और अकेली रहती आई बुढ़िया की आंखों में बच्चों को देखते ही चमक आ गई। वह कहानी सुनाने को तैयार हो गई। और फिर बुढ़िया ने जैसे ही पहला किस्सा शुरू किया, बच्चों समेत ग्रिम-बंधु भी मंत्रा-मुग्ध हो गए। उसकी कहानी सुनाने कला इतनी अद्भुत और रोमांचक थी कि कुछ देर के लिए सब अपना आपा भूलने लगे। कहानी सुनाते-सुनाते, प्रसंगानुरूप कभी वह शेर की भांति गुर्राने लगती तो कभी चिड़ियों की तरह चहचहाना शुरू कर देती। कहानी में बिल्ली का जिक्र आते ही वह झट से मियाऊं-मियाऊं करने लगती। यही नहीं अपनी आवाज से बुढ़िया आंधी, बारिश, बादलों के गड़गड़ाने जैसे विचित्रा ध्वनिप्रभाव उत्पन्न करने में पारंगत थी। उसके कहन में जादुई प्रभाव था। जितनी देर तक बुढ़िया ने कहानियां सुनाईं, वे सम्मोहित से सुनते रहे। उसके बाद ग्रिम बंधुओं की समझ में सारा रहस्य आ गया। घटना के प्रभावी प्रस्तुतीकरण द्वारा बुढ़िया ऐसे जीवंत बिंब उत्पन्न करती थी कि बच्चों को कहानी के पात्रा तथा घटनाएं वास्तविक-से लगने लगते और सीधे उनके दिलो-दिमाग में पैठ जाते। उनका असर भी देर तक रहता। जिससे वे सपनों में डर जाते।

अपने इस अनुभव का वर्णन ग्रिम-बंधुओं ने विस्तार से किया है। वे लिखते हैं कि बच्चों को तो हमने उस बुढ़िया के सामने बिठा दिया और हम खुद बराबर के कमरे में पर्दे के पीछे जा बैठे। बुढ़िया कहानियां सुनाने लगी और हमने उन्हें लिपिबद्ध करना शुरू कर दिया। ग्रिम-बंधु लिखते हैं कि ‘बुढ़िया जब कहानी सुनाने लगी तो हमने अनुभव किया कि वह शायद कहानी सुनाने की कला में माहिर दुनिया की सर्वश्रेष्ठ किस्सागो थी।..वह वर्षा, आंधी, जानवरों, चिड़ियों आदि के ध्वनि-प्रभाव अपने मुंह से पैदा करती और कहानी को अत्यधिक प्रभावशाली बना देती। इस कहानी कला का प्रभाव ही वह जादू था; जो बच्चों के मन-मस्तिष्क पर छा जाता था। उसी के प्रभाव के कारण वे सपनों में उन चित्रों को साकार देखकर डर जाते थे।’ इस रहस्य से अनभिज्ञ गांववाले बुढ़िया को जादूगरनी, डायन, चुड़ैल आदि कहकर तिरष्कृत और लांछित करते रहते थे। (यह प्रसंग और इसके कुछ वाक्य डाॅ। हरिकृष्ण देवसरे की पुस्तक ‘बालसाहित्यः मेरा चिंतन’ से साभार लिए गए हैं।)

इस बारे में हम सभी एकमत हैं कि बच्चे कहानियां पढ़ने के बजाए प्रायः उनको सुनना अधिक पसंद करते हैं। कहानी सुनते समय बालक के दिमाग पर वैसा दबाव नहीं होता जैसा उसे पढ़ने के दौरान अक्सर होता है। इसलिए वह कहानी और उसमें निहित संदेश को आत्मसात करता हुआ चलता है। कुछ इस तरह कि कहानी की घटनाएं, उसमें आए पात्रों के व्यक्तित्व, आदि उसके मानस में विकसित होते चले जाते हैं। अंतरंगता के गुण के कारण ही बालपाठक उन रचनाओं की प्रति अधिक लगाव रखता है जो उसके मन की बात को बातचीत के अंदाज में उसके आमने-सामने बैठकर की जाती हैं। अतः यह शैली बालकों द्वारा न केवल सबसे ज्यादा पसंद की जाती है बल्कि इसमंे लेखक के लिए सर्वाधिक प्रयोग करने की गंुजाइश भी निहित होती है। इस कारण वही बालसाहित्यकार अधिक लोकप्रिय हुए हैं जिन्होंने किस्सागोई को समसामयिक सन्दर्भों के साथ जोड़ते हुए साहित्य रचना की है। पाठकों के साथ सीधे संवाद की स्थिति में होने के कारण उसकी रचना में स्वाभाविक प्रवाह बना रहता है। अच्छा किस्सागो अपने श्रोताओं को बांधे रखने के लिए चित्रात्मकता और नाटकीयता का सहारा लेता है।

पाठ्य पुस्तकों में सामान्यतः ज्ञान को आत्मसात करने का बाहरी दबाव रहता है। जो बालक के मन में तनाव की पैदा करता है। जिससे वह पाठ्यपुस्तकों से भागने की कोशिश करता है। एक और सच यह भी है कि पाठ्यपुस्तकों में प्रायः गवेष्णात्मक शैली का सहारा लिया जाता है। विषय के अनुरूप अध्ययन शैली भी उत्तरोत्तर जटिल होती चली जाती है। जिससे बालक को बराबर यह एहसास बना रहता है कि उसे सिखाया या पढ़ाया जा रहा है। कोई है जो उसको खास दिशा की ओर ले जाना चाहता है।..उसकी स्वतंत्राता में अवरोधक बना है।..शिक्षा के लिए उत्सुक उसका मानस किंचित विवशता के साथ पुस्तकों को पढ़ता तो है लेकिन साथ-साथ उनसे बचने की ललक, उनसे दूर भागने की इच्छा, उपदेशात्मकता के प्रति एक निषेध भी उसके मन में उमड़ता रहता है। किस्सागो का अपनत्व तथा किस्सागोई शैली में उपलब्ध रचनाएं उसे ज्ञान और प्रस्तुतीकरण की एकरसता से उबारती हैं। संप्रेषण की अन्य शैलियों में लेखक और पाठकों के बीच द्वैत के हालात बने रहते हैं। जिससे पाठक रचना का पूरा रस नहीं ले पाता। उसे वह रचना ऊपर से थोपी हुई-सी प्रतीत होती है। किस्सागोई बच्चे को रूमानी दुनिया में ले जाने का सबसे कामयाब माध्यम है। इसमें कल्पना का प्राचुर्य रहता है, बुद्धि का अनावश्यक दबाव नहीं, इसलिए भी संप्रेषण की यह शैली बच्चों को खासतौर पर पसंद आती है। यहां ज्ञान साहित्य की एक शर्त के रूप में रचना में मौजूद तो होता है किंतु वह इतना प्रांजल और छिपा-छिपा-सा होता है कि पाठक उसे आहिस्ता से बिना किसी दबाव या आहट के ग्रहण करता चला जाता है। कल्पना से मिलकर ज्ञान रोचक और ग्रहणीय बन जाता है।

एक बात आरोप की तरह कही जा सकती है कि किस्सागोई प्रधान रचनाओं में कल्पना का आधिक्य होता है। जो श्रोता अथवा पाठक को यथार्थ से परे ले जाती है। संभवतः इसी कारण काॅमिक्स, चित्राकथाओं आदि में किस्सागोई का फैलाव अधिक हुआ है। जबरदस्त फंतासीयुक्त पुरा-कथाएं और ग्रीक कथाएं भी इसी शैली के प्राधान्य के कारण रोचक होने के बावजूद आलोचना की पात्रा रही हैं। लेकिन कल्पना सदैव ही बुरी और त्याज्य नहीं होती। अरस्तू की माने तो हरेक काल्पनिक रचना में भी मौलिक सत्य विद्यमान रहता है। यही कारण है कि किस्सागोई शैली को मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक मूल्यों के संप्रेषण हेतु भी अपनाया जाता रहा है। आज भी संस्कृति और परंपराओं के प्रति आग्रहशीलता तथा उससे प्रेरणा लेने पर जिस तरह जोर दिया जा रहा है, उससे यह तय है कि साहित्य और लोकजीवन में किस्सागोई का महत्त्व आगे भी बराबर बना रहेगा, न केवल बना रहेगा बल्कि इसमें नए-नए प्रयोगों, आविष्कारों की भी भरपूर संभावनाएं निहित होंगी.

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