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खटीक और राजपूत जाति में समानता

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खटीक व राजपूत जाति के इतिहास में काफी समानता पाई जाती हैं।

600 ई. पूर्व उत्तर वैदिकाल में कर्मकाण्डो ने अधिक महत्व धारण कर लिया। यज्ञों की संखया बढ़ गई। ऐसा व्यास स्मृति में लिखा है। क्षत्रियों का एक झुण्ड पशु मारने के कारण अमरसिंह ने अपने कोष में कौटिकश्च लिखा।

11वी. सदी में उन क्षत्रियों के नाम कोटिकश्च‌ शब्द का अर्थ टीकाकरों ने कौटिक निकाला। कौटिक शब्द का ही अपभ्रंश कटिक और खटिक निश्चित होता है। मांस बलि देने की यज्ञों में जब भी आवश्यकता हुई ब्राहम्णों ने इन कौटिक क्षत्रियों से ही यह कार्य करवाया। बलि का मुहुर्त ब्राह्मण वहां हाजिर रहकर बताते, उसी समय क्षत्रिय से झटका करवाकर खून का तिलक क्षत्रियों के करते तथा बकरे का माथा उठाकर देवी की मूर्ति पर चढाते थे। ऐसा व्यास स्मृति में लिखा है।

लगभग सन 1200 में खटीक जाति क्षत्रियों से बिछङकर बनी। क्षत्रिय जिन पशुओं का मांस खाते हैं उन्हीं पशुओं के मांस के टुकडे करना, खटीक- क्षत्रियों का कार्य रहा है और कहीं-कहीं अब भी जो कार्य करते हैं, क्षत्रिय उन्ही का उपयोग कर लेते हैं। 

खटीक जाति उन्ही जातियों के यहां खान पान करते है, जहां क्षत्रिय करते है। क्षत्रिय जिन-जिन जातियों की सेवायें लेते हैं उन जातियों की सेवाएं खटीक जाति को भी उपलब्ध हैं जैसे नाई, कुम्हार, धोबी, माली, गमेती, ढोली, ब्राह्मण आदि। इस जाति के पुरोहित सानाढ्‌य एवं गौड ब्राह्मण हैं कहीं-कहीं श्रीमाली ब्राह्मण भी हैं, गांवों-शहरों में जो भी हिन्दू धर्म के मन्दिर हैं उन मन्दिरों में इस जाति का चन्दा व हिस्सा है।

भूतकाल में खटीक अधिकतर उच्चवर्णी क्षत्रिय वंश से भी बने हैं। जो क्षत्रिय खटीक हैं वें भगवान राम के पङदादा खटवांग के वंशज हैं। परशुराम के डर से ये क्षत्रिय खटांग से खटक हुए और फिर खटीक कहलाने लगे ऐसे ही प्रमाण हैं। इसमें चन्देल, खीची, तंवर, पंवार, सांखला, सोलंकी आदि ऐसे ही अनेक गोत्रों का होना खटीक जाति के क्षत्र्रिय होने का प्रमाण है।

क्षत्रियों के ऊपर लिखी गोत्र के अलावा भी अन्य वर्णो जैसे ब्राह्मण से दायमा, बम्बेरवाल, राजोरा, पालिवाल, नागर आदि, वैश्यों से गंगवाल, तोषावङा, बागडि या, सामरिया आदि ऐसे ही अनेक गोत्रों का इसमें पाया जाना राजकोटिक के भी प्रमाण हैं।

ऋषि विश्वामित्र की शिष्य परम्परा से भी खटीक जाति बनीं, इनके सभी वर्णो के लोग शिष्य बनते थे। विश्वामित्र को चूंकि राजऋषि और राजकौशिक भी कहा जाता था, इसलिए इनके शिष्य कौशिक से कोकि तथा कटिक या खटिक कहलाने लगे। जब ऋषि मांसाहारी थे, तब से ही ये राजकोटिक - ऋषिगण नगर के राजा द्वारा बलि के समय मन्दिरों में पूजन और भोग देने का काम किया करते थे। ऐसे प्रमाण हैं कि राजा नई राजधानी बनाने पर अपने यहां ब्राह्मण, नाई आदि के साथ राजकोटिकों (खटीकों) को भी बसाता था और उनसे कोई सामाजिक भेद-भाव भी न था। आज भी जहां-जहां राजा के रजवाडें. हैं, वहीं पर खटीक जाति होगी।

राजाओं के आखेट करने जाते समय भी क्षत्र्रिय उनका साथ देते थे, ये शिकार की रसोई बनाकर खिलाने का काम करते थे, ये शिकारी थे उन्हें आखेट वाले (अपभ्रंश में अखटवाल) या आखेटक कहते थे। आखेटक बाद में खेटक होकर खटिक कहलाने लगे, ऐसे भी प्रमाण हैं। इनके राज सम्मान का यह प्रमाण भी है कि जयपुर (राजस्थान) में इनको चौघरी कहा जाने लगा था।

भाषा विस्तार की दृष्टि से भी खटिक शब्द का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि यह शब्द क्षत्र्रिय से ही बना है। "क्ष" के स्थान पर "ख" बोला जाना (जैसे क्षेत्र का खेत) "क्षत्रिय का खत्रिय" - तथा अपभ्रंश एवं उच्चारण दोष के कारण 'य' के स्थान पर 'क' बोला जाने लगा।

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