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गीतिका विधा

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     समय की आवश्यकता और सुकुमारता को देखते हुए अनेक काव्य-विधाओं का आविष्कार होता रहा है जिससे हमारा काव्य-शास्त्र निरंतर समृद्ध होता रहा है। एक ऐसा ही प्रयास है- गीतिका विधा। हम गीतिका को निम्न प्रकार परिभाषित कर सकते हैं-

परिभाषा

     गीतिका हिन्दी भाषा-व्याकरण पर पल्लवित एक विशिष्ट काव्य विधा है जिसमें हिन्दी छंदों पर आधारित दो-दो लयात्मक पंक्तियों के पूर्वापर निरपेक्ष अभिव्यक्ति एवं विशेष कहन वाले पाँच या अधिक युग्म होते हैं जिनमें से प्रथम युग्म की दोनों पंक्तियाँ तुकान्त और अन्य युग्मों की पहली पंक्ति अतुकांत तथा दूसरी पंक्ति समतुकान्त होती है।

सोदाहरण व्याख्या

     उपर्युक्त परिभाषा से गीतिका के छः लक्षण प्रकट होते हैं- (1) हिन्दी भाषा-व्याकरण, (2) आधार छन्द, (3) तुकान्तता, (4) मुखड़ा, (5) युग्म और (6) विशिष्ट कहन। इन लक्षणों की व्याख्या को सुगम और सुबोध बनाने के लिए गीतिका का निम्नलिखित उदाहरण दृष्टव्य है-

क्षम्य कुछ भी नहीं, बात सच मानिए।

भोग ही है क्षमा, तात सच मानिए।

भाग्य तो है क्रिया की सहज प्रति-क्रिया,

हैं नियति-कर्म सहजात सच मानिए।

है कला एक बचकर निकलना सखे,

व्यर्थ ही घात-प्रतिघात, सच मानिए।

घूमते हैं समय की परिधि पर सभी,

कुछ नहीं पूर्व-पश्चात, सच मानिए।

वह अभागा गिरा मूल से, भूल पर-

कर सका जो न दृगपात सच मानिए।

सत्य का बिम्ब ही देख 'नीरव' सका,

आजतक सत्य अज्ञात, सच मानिए।

                  (स्वरचित)

     इस उदाहरण की सहायता से गीतिका के उपर्युक्त लक्षणों को सहजता से समझा जा सकता है।

हिन्दी भाषा-व्याकरण

     वस्तुतः गीतिका की भाषा हिन्दी हैं । इसका अर्थ है कि इसकी शब्दावली में हिन्दी शब्दों की प्रधानता अपेक्षित है जिसमें अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्दो का स्वल्प एवं सुरुचिपूर्ण प्रयोग किया जा सकता है किन्तु हिन्दी-व्याकरण का प्रयोग अनिवार्य है। सामान्यता प्रत्येक भाषा की पहचान उसकी व्याकरण से होती है इसलिए जब हिन्दी में दूसरी भाषाओं से आयातित शब्दों का प्रयोग किया जाता है तो उन शब्दों पर व्याकरण हिन्दी का ही लागू होता है तथा आयातित शब्द वैसे ही प्रयोग होते हैं जैसे हिन्दी में बोले जाते हैं। इस संदर्भ में आवश्यक विंदुओं पर चर्चा यहाँ पर की जा रही है -

(1) उपर्युक्त आधार पर किसको क्या कहा जाएगा, इसके कुछ उदाहरण बात को स्पष्ट करने के लिए दृष्टव्य हैं- (क) शह्र को शहर, नज़्र को नजर, फस्ल को फसल, नस्ल को नसल आदि; (ख) काबिले-तारीफ़ को तारीफ़ के क़ाबिल, दर्दे-दिल को दिल का दर्द आदि; (ग) दिलो-जान को दिल-जान, सुबहो-शाम को सुबह-शाम आदि; (घ) आसमां को आसमान, ज़मीं को ज़मीन आदि; (च) अश'आर को शेरों, सवालात को सवालों, मोबाइल्स को मोबाइलों, चैनेल्स को चैनलों, अल्फ़ाज़ को लफ्जों आदि।

(2) इसके अतिरिक्त गीतिका में मात्राभार की गणना, संधि-समास, तुकांतता या समान्तता आदि का निर्धारण सामान्यतः हिंदी व्याकरण के अनुसार ही मान्य है, इसलिए अग्रलिखित बातें हिन्दी भाषा-व्याकरण के अनुरूप न होने के कारण मान्य नहीं हैं, जबकि ग़ज़ल में ये बातें मान्य हैं– (क) अकार-योग (अलिफ़-वस्ल) जैसे ‘हम अपना' को ‘हमपना' पढ़ना, (ख) पुच्छ-लोप (हरफ़े-ज़ायद) जैसे पद के अंत में आने पर ‘कबीर' को लगा मात्राभार में ‘कबीर्' या ‘कबी' जैसा पढना। कारण स्पष्ट है कि ये बातें हिन्दी-व्याकरण के अनुरूप नहीं हैं। उपर्युक्त उदाहरण को देखें तो उसमें आयातित शब्दों का प्रयोग ही नहीं किया गया है।

(3) गीतिका की चर्चा में उर्दू पदावली के स्थान पर हिंदी पदावली को प्रयोग अपेक्षित है जिसके कुछ उदहारण दृष्टव्य हैं- युग्म (शेर), प्रवाह (रवानी), पद (मिसरा), पूर्व पद या प्रथम पद (मिसरा ऊला), पूरक पद (मिसरा सानी), पदान्त (रदीफ़), समान्त (काफिया), मुखड़ा (मतला), मनका (मक़ता), मापनी (बहर), स्वरक (रुक्न), स्वरावली (अरकान), मात्रा भार (वज़्न), कलन (तख्तीअ), मौलिक मापनी (सालिम बहर), मिश्रित मापनी (मुरक्कब बहर), पदान्त-समता दोष (एबे-तकाबुले-रदीफ़), अपदान्त गीतिका (ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल), अकार योग (अलिफ़ वस्ल), पुच्छ लोप (हरफ़े-ज़ायद), धारावाही गीतिका (मुसल्सल ग़ज़ल), गीतिकाभास (ग़ज़लियत), समान्ताभास (ईता), वचनदोष (ऐबे-शुतुर्गुर्बा) ... आदि। उदाहरण आगे की चर्चा में दृष्टव्य हैं।

(4) हिन्दी गीतिका में ज़, ख़, ग़ को अधोविंदु के बिना प्रयोग करना मान्य है जैसे ग़ज़ल को गजल, क़लम को कलम, क़ाफ़िया को काफिया के रूप प्रयोग करना मान्य है। तथापि इन वर्णों को आवश्यकतानुसार अधोविंदु के साथ प्रयोग करने से भी कोई आपत्ति नहीं है।

(5) गीतिका के शिल्प विधान की चर्चा में स्वरकों - लगा, लगागा, गालगागा, ललगालगा आदि का प्रयोग अपेक्षित है जबकि ग़ज़ल में इनके स्थान पर क्रमशः रुक्नों - फअल, मुफैलुन, फ़ाइलातुन, मुतफाइलुन आदि का प्रयोग होता है। उदाहरण आगे की चर्चा में दृष्टव्य हैं।

आधार छन्द

     गीतिका की पंक्तियों को पद कहते हैं। गीतिका के सभी पद एक ही लय में होते हैं। इस लय को निर्धारित करने के लिए ‘आधार छन्द’ का प्रयोग किया जाता है। आधार छंद के रूप में हिन्दी के मात्रिक और वर्णिक सभी छंदों का प्रयोग किया जा सकता है। इन छंदों में अधिकांश की एक निश्चित मापनी होती है। उल्लेखनीय है कि इन छंदों की संख्या हजारों में है। अस्तु गीतिका-रचनाकारों के सामने लय के आधार-छंदों का एक विस्तृत आकाश है जिसमें उड़ान भरकर वह अनेक मनोनुकूल छंदों का चयन कर सकते है। उपर्युक्त उदाहरण में वाचिक स्रग्विणी छन्द को लय का आधार बनाया गया है जो मूल वर्णवृत्त स्रग्विणी का वाचिक रूप है। वाचिक स्रग्विणी छन्द की मापनी इस प्रकार है - गालगा गालगा गालगा गालगा, जहाँ पर लघु का संकेत ल और गुरु का संकेत गा है। इसे मुखड़े के मात्रा-कलन द्वारा निम्न प्रकार देखा और परखा जा सकता है -

क्षम्य कुछ/ भी नहीं/, बात सच/ मानिए।

गालगा/ गालगा/ गालगा/ गालगा

भोग ही/ है क्षमा/, तात सच/ मानिए।

गालगा/ गालगा/ गालगा/ गालगा

तुकान्तता

     दो काव्य पंक्तियों के अंतिम समान भाग को तुकान्त कहते हैं। पूरी गीतिका में तुकान्त एक समान रहता हैl तुकान्त में दो खंड होते है - अंत का जो शब्द या शब्द-समूह सभी पदों में समान होता है उसे पदान्त कहते हैं तथा उसके पहले के शब्दों में जो अंतिम अंश समान रहता है उसे समान्त कहते हैं । कुछ गीतिकाओं में पदान्त नहीं होता है, ऐसी गीतिकाओं को ‘अपदान्त गीतिका' कहते हैं। उपर्युक्त पूरी गीतिका का तुकान्त है – ‘आत सच मानिए' , जिसके दो खंड हैं - समान्त 'आत' और पदान्त 'सच मानिए' । इसे गीतिका के युग्मों में निम्नप्रकार देखा और परखा जा सकता है -

बात सच मानिए = ब् + आत सच मानिए

तात सच मानिए = त् + आत सच मानिए

जात सच मानिए = ज् + आत सच मानिए

घात सच मानिए = घ् + आत सच मानिए

चात सच मानिए = च् + आत सच मानिए

पात सच मानिए = प् + आत सच मानिए

ज्ञात सच मानिए = ग्य् + आत सच मानिए

मुखड़ा

     गीतिका के प्रथम दो पद तुकान्त होते हैं , इन पदों से बने युग्म को मुखड़ा कहते हैं। मुखड़ा के द्वारा ही गीतिका के समान्त और पदान्त निर्धारित होते हैं। कतिपय गीतिकाओं में एक से अधिक मुखड़े भी हो सकते हैं , तब दूसरे मुखड़े को ‘रूप मुखड़ा’ कहते हैं। उपर्युक्त गीतिका में मुखड़ा निम्नप्रकार है -

क्षम्य कुछ भी नहीं, बात सच मानिए।

भोग ही है क्षमा, तात सच मानिए।

इसके दोनों पद तुकान्त हैं और इन्हीं पदों से तुकान्त ‘आत सच मानिए’ का निर्धारण होता है जिसका पूरी गीतिका में विधिवत निर्वाह हुआ है।

युग्म

     गीतिका के दो-दो पदों को मिलाकर युग्म बनते हैं। पहले युग्म के दोनों पद तुकान्त होते हैं जिसे मुखड़ा कहते हैं और अन्य सभी युग्मों में पहला पद अतुकान्त होता है जिसे ‘पूर्व पद’ या ‘प्रथम पद’ कहते हैं और दूसरा पद तुकान्त होता है जिसे ‘पूरक पद’ कहते हैं। गीतिका में कम से कम पाँच युग्म होना अनिवार्य है। गीतिका में अधिकतम युग्मों की संख्या का कोई प्रतिबंध नहीं है, तथापि ग्यारह से अधिक युग्म होने पर गीतिका का मूल स्वरूप विकृत होने लगता है। युग्म की अभिव्यक्ति पूर्वापर निरपेक्ष होनी चाहिए अर्थात युग्म को अपने अर्थ के लिए किसी अन्य का मुखापेक्षी नहीं होना चाहिए। अंतिम युग्म में यदि रचनाकार का नाम आता है तो उसे ‘मनका’ कहते हैं, अन्यथा ‘अंतिका’ कहते हैं। उपर्युक्त गीतिका मे नियामानुसार छः युग्म हैं । अंतिम युग्म में रचनाकार का उपनाम आने से यह मनका की कोटि में आता है।

विशेष कहन

     युग्म के कथ्य को इस प्रकार व्यक्त किया जाता है कि युग्म पूरा होने पर पाठक या श्रोता के हृदय मे एक चमत्कारी विस्फोटक प्रभाव उत्पन्न होता है जिससे उसके मुँह से स्वतः ‘वाह’ निकल जाता है। इस विशेष कहन को अन्योक्ति, वक्रोक्ति या व्यंग्योक्ति के रूप में भी देखा जा सकता है। इस विशेष कहन को ‘गीतिकाभास’ भी कह सकते हैं। विशेष कहन परिभाषित करना प्रायः कठिन है किन्तु इसकी कला को समझना सरल है जिसके अंतर्गत युग्म के प्रथम पद में कथ्य की प्रस्तावना की जाती है जैसे कोई धनुर्धर प्रत्यंचा पर तीर चढ़ाकर लक्ष्य का संधान करता है और फिर पूरक पद में कथ्य का विस्फोटक उदघाटन किया जाता है जैसे धनुर्धर तीर छोड़ कर लक्ष्य पर प्रहार कर देता है। उपर्युक्त गीतिका के युग्मों को पाठक स्वयं संधान और प्रहार की कसौटी पर कस कर देख सकते हैं।

गीतिका क्या नहीं है?

(1) गीतिका ग़ज़ल जैसी है किन्तु ग़ज़ल नहीं है क्योंकि ग़ज़ल की लय केवल बहर पर आधारित होती है जबकि गीतिका की लय हिन्दी के मात्रिक और वर्णिक छंदों पर आधारित होती है, ग़ज़ल में उर्दू की प्रधानता रहती है जबकि गीतिका हिन्दी-प्रधान है तथा ग़ज़ल अपने शिल्प में उर्दू के व्याकरण को मान्यता देती है जबकि गीतिका के शिल्प में केवल हिन्दी व्याकरण ही मान्य है।

(2) गीतिका ‘हिन्दी ग़ज़ल’ भी नहीं है क्योंकि हिन्दी ग़ज़ल की लय केवल बहर पर आधारित होती है जबकि गीतिका की लय हिन्दी के मात्रिक और वर्णिक छंदों पर आधारित हैं।

(3) गीतिका ‘सजल’ भी नहीं है क्योंकि सजल की लय का कोई आधार नहीं है जबकि गीतिका की लय का आधार हिन्दी छंद है।

(4) गीतिका वह बहर से भटकी हुई ग़ज़ल भी नहीं है जिसे उसके रचनाकार आलोचना से बचने के लिए गीतिका बोल देते हैं।

गीतिका क्या है?     वस्तुतः गीतिका एक स्वतंत्र और विशिष्ट काव्य-विधा है जिसकी निश्चित परिभाषा है, जिसका निश्चित शिल्प है, जिसकी लय का निश्चित आधार हिन्दी छंद है ।


- ओम नीरव 8299034545


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