टम्टा- ताम्रपत्र शिल्पकार
टम्टा- ताम्रपत्र शिल्पकार
परिचय[सम्पादन]
तांबे के बर्तन की कलाकृति उत्तराखंड के अल्मोडा में टम्टा समुदाय का पारंपरिक शिल्प है। बरसों पहले उत्तराखंड तांबे के अयस्कों में समृद्ध था, जिसका खनन गढ़वाल और कुमाऊं दोनों क्षेत्रों में किया जाता था। तांबा जो स्थानिय रूप से इस क्षेत्र में प्राप्त किया जाता था शुरू में राजवंशों के लिए सिक्के बनाने के लिए उपयोग किया जाता था। बाद मे इसका उपयोग हाथ से पीते गए ताम्बे के बर्तन और संगीत वाद्ययंत्रों को बनाने के लिए किया जाने लगा। खदानें बंद होने के बाद, ताम्रकार समुदाय ने पारम्परिक शिल्पों को बनाना जारी रखा और इसके कारण इस समुदाय को टम्टा नाम से जाने जाना लगा।
मूल[सम्पादन]
श्रेया रावत | |
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जन्म |
11-11-2004 श्रीनगर गढ़वाल |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
शिक्षा | क्राइस्ट (डीम्ड तू बी) यूनिवर्सिटी 2025 |
टम्टा शिल्प की उत्पत्ति का पता 16वीं शताब्दी इसवी में लगया जा सकता है, जब राजस्थान क्षेत्र के चंद्रवंशी कबिले पहाड़ी राज्य के चंपावत क्षेत्र में चले गए थे ।चंपावत के पारंपरिक तांबा लोहार ,जो मूल रूप से राजस्थान के थे , टम्टा को राज्य के खजाने के लिए तांबे के सिक्के डालने के लिए अल्मोड़ा के शाही दरबार में लगाया था। इसलिए 500 साल पहले टम्टा कुमाऊं में चंद राजवंशी के शाही खजाने के लिए सिक्के बनाने वाले थे । जब चन्द्र शशकों ने अपनी राजधानी को चम्पावत के अल्मोडा स्थानान्तरित किया तो औपनिवेशिक शासन के दौरन में शिल्प का और भी विकास हुआ चंद राजवंश के शासन काल के बाद,जो 1744 म घटना शुरू हुआ और 1816 में समाप्त हुआ, टम्टा ने तांबे के बर्तन और सजावट सामान बनाना शुरू कर दिया।
प्रक्रिया[सम्पादन]
ताम्बे से बने विशिष्ठ घरेलु वस्तुओं मे खाना पकाने के बर्तन और जल भण्डारण कंटेनर शामिल हैं। विशेष रूम से, ताम्बे के बर्तनों को इसके स्वस्थ लाभों के लिए भी काफी पसंद किया जाता है। इसके अतिरिक्त , उनका उपयोग ढोल (एक ताल वाद्य) और रणसिंघा (त्योहारों और अनुष्ठानों मे उपयोग किये जाने वाला एक अस-आकर की चढ़ाई जैसा संगीत वाद्ययंत्र) बनाने के लिए किया जाता है।
- तांबे के बर्तन बनाने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए कारीगर धातु की शीट पर कम्पास का उपयोग करके एक वृत्त बनता है और बाकी शीट से काट देता है
- हथौड़े का उपयोग करके वह कट आउट शीट को पीट कर उपयोग करें एक अर्ध गोलाकर आकार देता है जो बार्टन का आधार बनेगा
- फिर धातु को भट्टी में गर्म करके नरम किया जाता है ,जैसे शिल्पकार के लिए वास्तु बनाना आसान हो जाएगा
- भट्टी से निकलने के बाद शिल्पकार द्वारा धातु को हथौड़े से आकार दिया जाता है। एक प्रसिद्ध शिल्पकार हथौड़े से टकराने वाली धातु की आवाज सुनकर बता सकता है कि वाह उचित तकनिक का प्रयोग कर रहा है या नहीं।
- बार्टन से सभी घटक एक ही तरह से बनते हैं ,जब प्रतीक घटक पूरा हो जाता है तो इसे एक साथ जोड़ दिया जा,ता है और जोड़ों को दबाने के लिए भट्टी में वापस रख दिया जाता है
- तांबे के बर्तन अपने लाल रंग और चमक से अलग पहचानने जाते हैं ऐसा करने के लिए तांबे के उत्पाद को साफ और पॉलिश करने के लिए इमली और रेत का उपयोग किया जाता है
पारंपरिक डिजाइन और रूपांकन[सम्पादन]
तमता तांबे के बर्तन शिल्प का केवल स्थान और धार्मिक महत्व ही नहीं होता बाल्की कांवड, लोटा, बर्तन, थाली जैसी अन्य उपयोगी वस्तुएं, जो ना केवल दैनिक उपाय के लिए होती है बाल्की इनका प्रयोग धार्मिक योजनाओं और पूजा में भी उपयोग किया जाता है।विविध प्रकार के दीपक, पूजा वस्तुएं और देवी देवताओं की मूर्तियां बनाना भी शिल्प का हिस्सा है।
तांबे के बर्तन अपने विस्तार और मनमोहक डिजाइन के लिए जाने जाते हैं जो प्रकृति, पौराणिक कथाएं और स्थानीय मान्यताओ से प्रेरणा लेते हैं।पुष्प रूपनकानो,ज्योतिमियापैटर्न और देवी देवताओं के चित्र शिल्प के आम विषय हैं। ये डिज़ाइन ना केवल सौंदर्य की दृष्टि से मनभावन करते हैं बाल्की संस्कृति और धार्मिक महत्व भी रखते हैं।
चुनौतियाँ और पुनरुद्धार प्रयास[सम्पादन]
कई पारंपरिक शिल्प की तरह शिल्प को बदलती जीवन शैली, शहरीकरण और बड़े पैमाने पर उत्पत्ति विकल्प की समस्या के कारण चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।परिणामस्वरुप, हस्तनिर्मित तांबे के बर्तन की मांग कम हो चुकी है। बदलते समय विश्वासों की परिवर्तनशीलता और आर्थिक कारणों से तमता तांबे के बर्तन शिल्प को कथाइन का सामना करना पड़ा है। आधुनिकीकरण की दिशा में बदलती जीवन शैली, स्थानिय शिल्पकला की मांग में कमी, और विभिन्न उत्पादनों के निर्माण में मशीनों का उपयोग, इन सभी कारणों ने शिल्प को प्रभावित किया है।
इस प्रवृत्ति का मुकाबला करने के लिए, शिल्प को बढ़ावा देने और पुनर्जीवन करने के लिए विभिन्न पहल की गई हैं।सरकारी निकाय ,गैर लाभकारी संगठन और सांस्कृतिक संस्थानों ने तमता तांबे के बार्टन की सुंदरता और मूल्य को प्रदर्शित करने के लिए कार्यशाला, प्रशिक्षण कार्यक्रम और प्रदर्शिनी का आयोजन किया है।इन प्रयासों का उपदेश कारीगरों और उपहारों के बीच शिल्प में नए सिरे से रुचि पैदा करना है। इस पारंपरिक शिल्प को संरक्षित करने और इसका संवर्धन करने के लिए सरकारी और गैर सरकारी संगठन के द्वार काई पहलू काम किए गए हैं। कार्यशाला में शिल्पकारो का प्रशिक्षण और उत्पादन के बिक्री का माध्यम बन गए हैं ताकि शिल्प को एक बड़े दर्शक मंच तक पहुंचाया जा सके।
निष्कर्ष[सम्पादन]
टम्टा द्वार बना दिए गए तांबे के ची
जो को बढ़ावा देना न केवल सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करना है बलकी सतत विकास में भी योगदान देना है।जब सामुदायिक शिल्प में संलग्न होता है, तो यह अक्सर स्थानीय रोजगार के अवसर भुगतान करता है, कारीगरों की आजीविका का समर्थन करता है और संसाधानों के जिम्मेदार उपयोग को प्रोत्साहित करता है। टम्टा कॉपर वेयर शिल्प ना केवल एक कला का रूप है बाल्की यह उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान और धरोहर का प्रतीक भी है। यह समुदय की कला, सांस्कृतिक मूल्य और ऐतिहासिक महत्ता को दर्शाता है और उनके संबंधों को जमीन से जोड़ता है।
यह शिल्प सांस्कृतिक पर्यटन की संभावना रखता है। क्षेत्र के पर्यटन तांबे के कार्यक्रम बनाने की प्रक्रिया का अनुभव कर सकते हैं, कारीगरों के साथ मिलकर काम कर सकते हैं और प्रमाणिक टुकड़े खरीद सकते हैं। हाँ बात-चीत कारीगरों और उनके समुदाय को प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ प्रदान कर सकती है। साथ ही पारंपरिक शिल्प के संरक्षण के महत्व के बारे में जागरुकता भी बढ़ सकती है।निष्कर्षतः , टम्टा कॉपर वेयर क्राफ्ट सिर्फ एक पारम्परिक कला का स्वरुप से कई अधिक है, यह एक समुदाय की पहचान , इतिहास और रचनात्मकता का प्रतिबिम्भ है। इस शिल्प को संरक्षित और बढ़ावा देने के प्रयास न केवल सांस्कृतिक विरासत को बनाये रखने के लिए बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्थओं को समर्थन करने और उनके समुदाय के बीच गर्व की भावना को बढ़ावा देने के लिए भी आवश्यक है।
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