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नौ देवी

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नौ देवी सूची में उत्तर भारत की प्रसिद्ध नौ देवियां हैं[सम्पादन]

माता वैष्णो देवी कटरा । माता चामुंडा देवी। माता बज्रेश्वरी देवी नगरकोट कांगड़ा। माता ज्वालामुखी देवी । माता चिंतपूर्णी देवी। माता नैना देवी मंदिर बिलासपुर हिमाचल प्रदेश। माता मनसा देवी पंचकूला । माता कालिका देवी कालका हरियाणा। माता शाकम्भरी देवी सहारनपुर उत्तर प्रदेशप्रदेश

माता वैष्णो देवी[सम्पादन]

माता वैष्णो देवी का मंदिर जम्मू कश्मीर मे कटरा के पास त्रिकूट पर्वत पर स्थित है। माता वैष्णो देवी के दर्शन तीन पिंडियो के रूप मे होते हैं।माता वैष्णो देवी की कथा इस प्रकार है। कटरा से कुछ दूरी पर स्थित हंसाली गांव में मां जगदंबा के परम भक्त श्रीधर रहते थे। वे संतानहीन होने से दु:खी थे। एक दिन उन्होंने नवरात्रि पूजन के लिए कुंवारी कन्याओं को बुलवाया।लेकिन भैरव के सम्मोहन मंत्रों से सभी कन्याएं मूर्छित हो गयी। श्रीधर और उसकी पत्नी सुनैना रोने लगी। कन्याओं को उनके माता- पिता अपने घर ले गए। तब माता भगवती स्वयं उनके घर प्रकट हुई और अपने अन्य नौ बहनों का आह्वान करने लगी। नैना देवी आओ, दर्शन दो चामुण्डा बहन, हे चिंतापुरणी शीघ्र आओ, प्रकट हो ज्वालाजी, आओ वज्रेश्वरी, आओ कालिका बहन, आओ शाकुम्भरी बहन, प्रकट हो मनसा देवी।

    मां वैष्णो के आह्वान पर सभी देवियाँ कन्या का रूप धारण कर प्रकट हो गई। जब श्रीधर ने दिव्य तेजोमयं आभा से युक्त कंजकरूपिणि नौ देवियों को देखा तो देखता ही रह गया।कन्या पूजन के उपरांत माता वैष्णो देवी ने श्रीधर को कहा कि वो भंडारा कराये। सबको अपने घर भंडारे का निमंत्रण दे आओ। श्रीधर ने उस दिव्य कन्या की बात मान ली और आस-पास के गांवों में भंडारे का संदेश पहुंचा दिया. वहां से लौटकर आते समय गुरु गोरखनाथ व उनके शिष्य बाबा भैरवनाथ जी के साथ उनके दूसरे शिष्यों को भी भोजन का निमंत्रण दिया। भोजन का निमंत्रण पाकर सभी गांववासी आश्चर्यचकित थे। इसके बाद श्रीधर के घर में अनेक गांव वासी आकर भोजन के लिए जमा हुए। तब कन्या रूप धारणी वैष्णो देवी ने सबको भोजन परोसा। जब देवी भैरव के निकट आई तो भैरव ने मांसाहारी भोजन मांगा

तब माता वैष्णो देवी बोली कि किसी निर्दोष प्राणी को मार कर उसके मांस से भोजन करना पाप है अन्याय है और मैं ये अन्याय कदापि नही होने दूंगी। किंतु भैरवनाथ अपनी बात पर अड़ा रहा। जब भैरवनाथ ने उस कन्या को पकड़ना चाहा, तब मां ने उसके कपट को जान लिया। मां वायु रूप में बदलकर त्रिकूटा पर्वत की ओर उड़ चलीं। भैरवनाथ भी उनके पीछे गया।

माना जाता है कि मां की रक्षा के लिए पवनपुत्र हनुमान भी थे।हनुमानजी को प्यास लगने पर माता ने उनके आग्रह पर धनुष से पहाड़ पर बाण चलाकर एक जलधारा निकाली और उस जल में अपने केश धोए। बाण चला महाशक्ति का निकली जल की धार बाणगंगा भी इसको कहता ये संसार केश धोए यहाँ मैय्या ने अजब हुआ संजोग बालगंगा भी उसको कहते हैं सब लोग एक स्थान पर माता ने पीछे मुडकर देखा कि भैरव उनका पीछा कर रहा है या नही। यहाँ माता वैष्णो देवी के चरणों के निशान बन गये। इस दौरान माता ने एक गुफा में प्रवेश कर नौ माह तक तपस्या की। भैरवनाथ भी उनके पीछे वहां तक आ गया।तब एक साधु ने भैरवनाथ से कहा कि तू जिसे एक कन्या समझ रहा है, वह महाशक्ति है आदि कुमारी है और जब से यह सृष्टि उत्पन्न हुई है उसने कौमार्य व्रत धारण किया है। इसलिए उस महाशक्ति का पीछा छोड़ दे। भैरवनाथ ने साधु की बात नहीं मानी। तब माता गुफा की दूसरी ओर से मार्ग बनाकर बाहर निकल गईं। यह गुफा आज भी आदिकुमारी या गर्भजून के नाम से प्रसिद्ध है। तब माता नौ मास पश्चात गुफा से बाहर आई और भैरव को लौट जाने का निर्देश दिया लेकिन भैरव नही माना। अतः जगदंबा ने क्रोधित हो भैरव का सिर काट दिया । कहा जाता है कि अपने वध के बाद भैरवनाथ को अपनी भूल का पश्चाताप हुआ और उसने मां से क्षमा की भीख मांगी।माता ने उसको क्षमा कर दिया और कहाब मेरे दर्शन के बाद जब लोग तुम्हारे दर्शन करेंगे तभी उनकी यात्रा सफल होगी। यह कहकर माता अंतर्धान हो गई। माता वैष्णो देवी ने श्रीधर को सपने मे दर्शन दिये और चार पुत्रो के वरदान के साथ- साथ अपने भवन की सेवा का आजीवन अधिकार भी सौंपा।

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माता चामुण्डा देवी[सम्पादन]

माता चामुण्डा देवी का प्रसिद्ध मन्दिर हिमाचल प्रदेश मे है। माता का नाम चामुण्डा कैसे पड़ा इसकी कथा दुर्गा सप्तशती मे वर्णित है। जब देवी कालिका ने चंड और मुंड दानवों का वध किया तब देवी अम्बिका ने कालिका को वरदान दिया था कि इन दोनों असुरों का वध करने के कारण चामुण्डा के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी।दुर्गासप्तशती के अनुसार पृथ्वी पर शुम्भ और निशुम्भ नामक दो दैत्यो का राज था।वे बड़े बलशाली और पराक्रमी राक्षस थे।उनके अत्याचारों से पीड़ित देवगण हिमालय पर्वत पर गये और भगवती जगदंबिका की आराधना करने लगे। उसी समय देवी पार्वती वहां आई। उन्होंने देवताओ से पूछा कि वे किसकी आराधना कर रहे हैं ।उसी समय देवी पार्वती जी के शरीर मे से एक सुंदर देवी प्रगट हुई और पार्वती से कहा शुम्भ- निशुम्भ असुरों से पीड़ित ये देवता मेरी ही आराधना कर रहे हैं। वह देवी पार्वती के शरीर कोश से निकली थी अत: कौशिकी देवी नाम से विख्यात हुई। कौशिकी देवी के निकल जाने से पार्वती का शरीर अत्यंत काला पड़ गया अत: वो हिमालय पर रहने वाली कालिका देवी के नाम से जगत विख्यात हुई। इधर देवी कौशिकी परम मनोहर रूप धारण कर बैठी थी। कौशिकी को शुम्भ और निशुम्भ के दूतो ने देख लिया और उन दोनो ने शुम्भ- निशुम्भ से कहा महाराज आप तीनों लोको के राजा है। आपके यहां पर सभी अमूल्य रत्‍न सुशोभित है। इन्द्र का ऐरावत हाथी भी आप ही के पास है। इस कारण आपके पास ऐसी दिव्य और आकर्षक नारी भी होनी चाहिए जो कि तीनों लोकों मे उत्तम हो है। यह वचन सुन कर शुम्भ और निशुम्भ ने अपना एक दूत देवी कौशिकी के पास भेजा और उस दूत से कहा कि तुम उस सुन्दरी से जाकर कहना कि शुम्भ और निशुम्भ तीनो लोकों के राजा है और वो दोनो तुम्हें अपनी रानी बनाना चाहते हैं। यह सुन दूत माता जगदंबा के पास गया और दोनो दैत्यो द्वारा कहे गये वचन कौशिकी देवी को सुना दिये। महाशक्ति ने कहा मैं एक प्रण ले चुकी हूं कि जो व्यक्ति मुझे युद्ध में हरायेगा मैं उसी से विवाह करूंगी।यह बाते दूत ने शुम्भ और निशुम्भ को बताई। उन्होंने चण्ड और मुण्ड नामक दो असुरो को भेजा और कहा कि उसके केश पकड़कर हमारे पास ले आओ। चण्ड और मुण्ड देवी के पास गये और उसे अपने साथ चलने के लिए कहा। देवी ने वही प्रण दोहराया। जब दानव देवी को पकडने दौडे़ तब देवी कौशिकी ने अपने भृकुटि से देवी काली को प्रकट किया। देवी काली साक्षात कालरूपिणि थी। कालिका देवी ने युद्ध मे दोनों दैत्यों का वध कर दिया और उनके शीश देवी कौशिकी को भेंट कर दिये। माता कौशिकी बहुत प्रसन्न हुई और आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम इन दोनों असुरों को मार कर मेरे पास लाई हो अत: संसार मे तुम्हारी चामुण्डा के नाम से ख्याति होगी। इस प्रकार महामाया महाकाली का एक रूप चामुण्डा देवी हुआ।

माता वज्रेश्वरी देवी[सम्पादन]

माता वज्रेश्वरी देवी को नगरकोट अथवा कांगड़ा वाली माता भी कहा जाता है। इनका मंदिर हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा मे स्थित है। मंदिर पर यवनों ने अनेकों बार आक्रमण किये लेकिन यह मंदिर वज्रेश्वरी देवी के प्रताप से अक्षत रहा।कहा जाता है कि जब महामाया वज्रहस्ता देवी ने असुरों का संहार किया तो उनके शरीर पर जहाँ- जहाँ घाव हो गये उनपर देवताओं ने मक्खन का लेप किया। इस परंपरा को आज भी निभाया जाता है अर्थात मकर संक्राति के दिन माता को मक्खन का लेप लगाया जाता है। माता वज्रेश्वरी देवी के मंदिर को महमूद गजनवी ने काफी बार लूटा यहाँ तक कि माता के भवन के चांदी के कपाट भी वो उतार कर ले गया था। जिनको बाद मे वापस लाया गया।

माता ज्वालामुखी देवी[सम्पादन]

माता ज्वाला देवी का मंदिर हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा में स्थित है। यह मंदिर सती के 51 शक्तिपीठों में आता है यहां पर सत्य की जिह्वा गिरी थी। माता के मंदिर में दर्शन नवज्योतियों के रूप में होते हैं जिन्हें ज्वाला देवी कहा जाता है। कथाओं के अनुसार भक्त ध्यानु यात्रियों के साथ माता के दरबार में दर्शन के लिए जा रहे थे। इतनी बड़ी संख्या में यात्रियों को जाते देख अकबर के सिपाहियों ने चांदनी चौक दिल्ली में उन्हें रोक लिया और ध्‍यानू को पकड़कर अकबर के दरबार में पेश किया गया अकबर ने सख्ती से पूछा तुम यह भीड़ लेकर कहाँ जा रहे हो। ध्यानु ने ‍विन‍म्रता से उत्तर दिया कि हम ज्वालामाई के दर्शन के लिए जा रहे हैं। मेरे साथ जो सभी लोग हैं वे सभी माता के भक्त हैं। यह सुनकर अकबर ने कहा यह ज्वालामाई क्या है और वहां जाने से क्या होता है। तब भक्त ध्यानु ने कहा कि ज्वाला माता संसार को चलाने वाली माँ है उनके चमत्कार स्वरूप उनके स्थान पर बिना तेल और बाती के ज्योति जलती रहती है। अकबर ने कहा यदि तुम्हारी भक्ति मे सच्चाई है और सचमुच मे तुम्हारी ज्वालामाई यकिन के काबिल है तो कोई चमत्कार करके दिखाओ। परीक्षा के लिए हम तुम्हारे घोड़े की गर्दन काट देते हैं तुम अपनी देवी से कहकर दोबारा जिंदा करवा लेना। ऐसे में ध्यानु ने अकबर से कहा मैं आप से एक महीने तक घोड़े की गर्दन और धड़ को सुरक्षित रखने की प्रार्थना करता हूं। अकबर ने ध्यानू की बात मान ली। बादशाह से अनुमति लेकर ध्यानू देवी के दरबार में जा गया। माता जगदंबा की भावपूर्ण स्तुति की रातभर जागरण किया। प्रातकाल ध्यानु ने माता से हाथ जोड़कर प्रार्थना की। हे मां अब मेरी लाज रखो। लेकिन माता ने कोई संकेत नही दिया। ध्यानु भक्त निराश हो गया और कटार से अपना सिर काट कर माता के चरणों मे भेंट कर दिया। कहा जाता है उस समय साक्षात ज्वाला देवी प्रकट हुई और ध्यानु का शीश जोडकर घोड़े को भी पुनः जीवित कर दिया। घोड़े को जीवित देख अकबर हैरान रह गया। तब अकबर के सेनापति ने कहा कि हम देवी की ज्योतों को बुझा देगें चमत्कार खुद खत्म हो जायेगा।अकबर की सेना ने ज्वाला के उपर लोहे के तवे जडवाये, पानी डलवाया लेकिन माता की ज्वाला नहीं बुझी। तब जाकर अकबर को यकीन हुआ वो नंगे पैर चलकर माता के द्वार आया और उसने वहां सवा मन सोने का छत्र चढ़ाया लेकिन माता ने इसे स्वीकार नहीं किया और वह छत्र गिरकर किसी विचित्र धातु मे बदल गया। अकबर ने विविध प्रकार से देवी से क्षमा याचना की। अकबर का चढाया हुआ छत्र आज भी ज्वालामुखी देवी के मंदिर मे पडा़ है।

माता चिंतपूर्णी देवी[सम्पादन]

माता चिंतपूर्णी का भव्य मंदिर हिमाचल प्रदेश के जिला ऊना में भरवाई नामक स्थान के पास है। माता का मंदिर देवी के 51 शक्तिपीठों में माना जाता है। 
यहां पर माता सती के चरणों की कुछ अंश गिरे थे। यह छिन्नमस्तिका धाम कहलाता है। यहां पर माता के दर्शन एक पिंडी के रूप में होते हैं जिसके पहले दर्शन का श्रेय भक्त माई दास को जाता है।जनश्रुति के अनुसार एक समय माई दास और दुर्गा दास और देवी दास नामक तीन भाई थे। माई दास का अधिकतर समय पूजा पाठ में व्यतीत होने लगा जबकि दुर्गा दास खेत- खलिहान का कार्य करता था। एक बार जब माई दास अपने ससुराल से लोटते वक्त छपरोह स्थान से गुजर रहा था तो वह कुछ देर विश्राम करने के लिए एक वट वृक्ष के नीचे लेट गया तथा उसे नींद आ गई। नींद आते ही स्वपन्न में माई दास को एक कन्या ने दर्शन दिए तथा कहा कि तुम यहीं रहकर मेरी सेवा करो। माई दास जाग गया लेकिन वो स्वप्न अब भी उसके कानों मे गूंज रहा था। वह अपने ससुराल चला गया। परन्तु रात को बिस्तर में लेटने पर आंख न लगी वह बार-बार सोने का प्रयत्न करने लगा लेकिन सो न सका करने के बावजूद वह सो नहीं पाया । लौटते वक्त वह उसी जगह पर रुक गया और प्रार्थना करने लगा कि मां यदि यह स्वप्न सच है तो मुझे अभी आदेश दे। माई दास की प्रार्थना से प्रसन्न होकर माँ चतुर्भुजी रूप मे प्रकट हुई और कहा मे चिरकाल से यहां विराजमान हूँ तथा छिन्नमस्तिका के नाम से जानी जाती हूँ यवनों के आक्रमण के कारण लोग मुझे भूल गये थे। तुम्हारी चिंता दूर करने के कारण लोग मुझे छिन्नमस्तिका के स्थान पर चिंतपूर्णी कहेंगे। लेकिन माई दास ने देवी से कहा कि न यहाँ भोजन है न पानी और इस भयानक जंगल मे तो हिंसक पशु घूमते हैं यहाँ दिन मे ही डर लगता है तब माता ने माई दास को अभयदान दे दिया और कहा नीचे तुम किसी बडे़ पत्थर को उखाड़ना तुम्हे पानी मिल जायेगा और जिन भक्तो की चिंता मे दूर करूँगी वो प्रसन्नतापूर्वक मेरे भवन का निर्माण करायेंगे। मंदिर मे चढने वाले चढावे से तुम्हारा गुजारा होगा। यह कह माँ अदृश्य हो गयी। 
      जय माता दी

माता नयना देवी[सम्पादन]

माता नैना देवी का मंदिर हिमाचल प्रदेश के जिला बिलासपुर में नांगल डैम के पास एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित है । यहां पर माता के दर्शन नैनो के रूप में होते हैं। कहा जाता है कि 51 शक्ति पीठ में आता है यहां पर माता सती के नयन गिरे थे। माता के नैनो को खोज नैना गुजर ने की थी। जिसने अपने गायों को यहां पर दूध उड़ेलते हुए देखा था।

माता मनसा देवी[सम्पादन]

माता मनसा देवी का प्रमुख मंदिर हरियाणा राज्य के जिला पंचकूला के समीप मनीमाजरा नामक स्थान पर स्थित है। कहा जाता है कि यहां पर माता सती के मस्तिष्क का अग्रभाग गिरा था। इस मंदिर को अकबरकाल का माना जाता है। यहां पर माता के दर्शन एक भव्य मूर्ति के रूप में होते हैं जिसके नीचे तीन पिंडिया स्थापित है जिनको महालक्ष्मी मां मनसा देवी और महासरस्वती का रूप माना जाता है। माता का मंदिर सिंधुवन के अंतिम छोर पर एक पहाड़ी पर स्थित है। मंदिर तक जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई है। यह हरियाणा राज्य के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है।

माता कालिका देवी[सम्पादन]

माता कालिका देवी का मंदिर हरियाणा राज्य के जिला पंचकूला में कालका नामक कस्बे में स्थित है। यह मंदिर शिवालिक पर्वत श्रेणियों के मध्य बसे कालका शहर में स्थित है। इस मंदिर में माता के दर्शन एक पिंडी के रूप में होते हैं। कहा जाता है की माता की पिंडी की स्थापना पांडवों द्वारा की गई थी।एक दंत कथा के अनुसार प्राचीन काल में यहाँ राजा जयसिंह देव का राज्य था। जिन्होने इस मंदिर में श्री कालिका देवी की एक प्रतिमा स्थापित की थी। एक बार नवरात्रो के अवसर पर भगवती कीर्तन हो रहा था।हर जगह भक्तिमय माहौल था। राजमहल की स्त्रियां इकट्ठे होकर कालिका माँ का स्तवन गान कर रही थी। उस समय स्वयं भगवती कालिका एक दिव्य स्त्री का वेश धारण करके स्त्रियो में सम्मिलित होकर भजन करने लगी। इस अवसर पर महाराजा जयसिहं देव भी उपस्थित थे। वह मां की माया को जान न सके और भगवती पराम्बा के दिव्य सौंदर्य को देखकर वशीभूत हो गए। कीर्तन खत्म होने पर कामातुर राजा ने भगवती का हाथ पकड लिया। तब देवी ने कहा हे राजन मे तुमसे अति प्रसन्न हूँ, तू जो चाहे वर मांग ले। राजा ने कहा सुंदरी तू मुझसे विवाह कर ले। महामाया क्रोधित हो गई और उन्होने राजा को श्राप दे दिया कि कि जिस राज्य के अभिमान से तेरा यह साहस हुआ है वह राज्य नष्ट हो जाए। इतना कहकर भगवती अंतर्ध्यान हो गई। और कालिका माता मंदिर मे शेर की गर्जना होने लगा। श्री कालिका जी की मूर्ती भी पहाड में प्रवेश करने लगी भयंकर आंधी चलने लगी तब माता के पुजारियों ने माता की विशेष स्तुति कर क्षमा- याचना की। हे माँ अब क्षमा करो, सबकुछ शांत हो गया। माता की मुर्ति जिस अवस्था मे थी उसी मे रह गयी आज भी माता का सिर मात्र दिखाई देता है। माता के शाप से राजा जयसिंह पर शत्रुओं ने चढाई कर दी और समूल राज्य भी नष्ट हो गया। कालका शहर भी उसके काफी समय बाद बसा।

माता शाकम्भरी देवी[सम्पादन]

माता शाकम्भरी देवी का पवित्र मंदिर भारत के सबसे बड़े प्रांत उत्तर प्रदेश में जिला सहारनपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर शिवालिक की पर्वतमाला में स्थित हैं। ऐसी मान्यता है कि यह मंदिर शक्तिपीठों में आता है। यहां पर माता सती का शीश गिरा था। इस मंदिर में माता की मुख्य प्रतिमा के दाएं और भीमा एवं भ्रामरी तथा बायीं और शताक्षी देवी प्रतिष्ठित है। शताक्षी देवी को शीतला देवी भी कहा जाता है। दाहिने बाल गणपति की भी मूर्ति है।माता के दर्शन से पहले यहां बाबा भूरा देव के दर्शन किए जाते है। जिनको माता का अनन्य भक्त और पहरेदार माना जाता है। कई लोगों की मान्यता है कि यें कालभैरव भैरव का ही एक रूप है। माता का मंदिर एक पवित्र घाटी में स्थित है जो सिद्ध और जागृत शक्तिपीठ है।माता के भवन के चारों और सुंदर और ऊंचे पहाड़ है। जनसाधारण माता को पहाड़ा वाली माता, शाकुम्भरा देवी, शकुंबरा अथवा कशुंबरा देवी के नाम से भी संबोधित करता है ये सभी नाम क्षेत्रीय भाषा के आधार पर ही है और शाकम्भरी के ही अपभ्रंश है। 

कथा के अनुसार एक समय पृथ्वी पर दुर्गम नामक दैत्य ने उपद्रव मचा दिया था। उस दैत्य ने ब्रह्माजी की तपस्या कर चारों वेद मांग लिए। दैत्यों के हाथ चारों वेद लगने से सभी वैदिक क्रियाएं खत्म हो गईं। इसके परिणाम स्वरूप १०० वर्षों तक बरसात नहीं हुई। वर्षा न होने से अकाल पड़ गया। हर जगह विपन्नता और भूख- प्यास से पीड़ित मानव मरने लगे। भीषण अनिष्टप्रद समय आने पर देवताओं ने शिवालिक पर्वत पर मां जगदंबा की आराधना की। देवताओं की तपस्या से प्रसन्न होकर जगदंबा शेर की सवारी सजा कर अष्टभुजी रूप धारण कर आयोनिजा(जो स्वयं प्रकट हुई हो जिसकी कोई माता- पिता नहो) रूप मे प्रकट हुई।देवताओं ने देवी की भावपूर्ण स्तुति की और कहा हे माँ जैसे आपने महिषासुर, चण्ड-मुण्ड,रक्तबीज और शुम्भ- निशुम्भ का वध किया है उसी प्रकार इस दुष्ट का भी वध करे और दया कर जगत का परित्राण करे। जगत की करूण अवस्था देख माता का दिल बड़ा दुखी हुआ। माता ने दिव्य शताक्षी रूप धारण किया जिनके सौ नेत्र थे। उनके आंसुओं से पूरी धरती में जल की वर्षा हुई। सभी सागर एवं नदियां जल से भर गईं। शत-शत नैत्रो से बरसाया नौ दिन अविरल अति जल। भूखे जीवों के हित दिये अमित तृण अन्न शाक शुचि फल।। मां भगवती ने देवताओं की भूख मिटाने के लिए अपने शरीर से शाक और फल उत्पन्न किये और जगत को प्रदान किये। माता ने अपनी शक्ति से पहाड़ियों पर भी शाक व फल उत्पन्न किए। इस कारण इनका नाम मां शाकम्भरी पड़ा। धन्य है वो माँ जो अपनी छाती से दूध पिलाकर बच्चों का पालन- पोषण करती है धन्य है वो शाकम्भरी माँ जो अपने शरीर से उत्पन्न शाकों द्वारा प्राणियों का भरणपोषण करती है

मां शाकंभरी ने दुर्गम दैत्य का वध कर दिया और वेदों को पुन: देवताओं को सौंप दिया। दुर्गमासुर का वध करने के कारण माता शाकम्भरी दुर्गा कहलाई। वास्तव मे लोक प्रसिद्ध शताक्षी,शाकम्भरी तथा दुर्गा एक ही देवी के नाम है।माँ की महिमा का वर्णन महाभारत(वनपर्व), मारकंडेय पुराण,स्कंद पुराण, देवी भागवत्, शिव पुराण, दुर्गासप्तशती ( मुर्ति रहस्य एवं ग्यारहवां अध्याय), कनक धारा स्त्रोत आदि मे मिलता है।

असुर धर्म का नाश करे जन्म भगवती का विनाश उनका मैं करू वचन नारायणी का


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