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नौ देवी यात्रा

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नौ देवी यात्रा का उत्तर भारत मे बहुत अधिक महात्म्य है । हिमालय प्रदेश मे समानांतर फैले ये आदिशक्ति के दिव्य सिद्धपीठ और शक्तिपीठ मंदिर है। नौ देवियों की यात्रा मे एक जम्मू कश्मीर, पांच हिमाचल प्रदेश, दो हरियाणा और एक उत्तर प्रदेश का शक्तिपीठ शामिल हैं। इन सभी नौ तीर्थों की दिव्य कथाएँ इस प्रकार है-

नौ देवियों के दर्शन

वैष्णो देवी[सम्पादन]

वैष्णो देवी

यह माता का पिण्डी स्वरूप है जिनको महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली का स्वरूप माना जाता है माँ वैष्णो देवी का प्रमुख मंदिर जम्मू कश्मीर के कटरा से लगभग चौदह किमी चढाई चढने के बाद त्रिकूट पर्वत की सुरम्य गुफा मे है। माता वैष्णो देवी के दरबार मे जाने वाले अधिकतर श्रद्धालु पहले कोल कण्डोली के दर्शन करते हैं फिर देवा माई के। उसके उपरांत कटरा पहुंचकर यात्रा पर्ची ली जाती है। पर्ची के बिना माता के दरबार मे जाने नही दिया जाता। सबसे पहले भक्त दर्शनीय दरवाजा से जाकर बाणगंगा मे स्नान करते हैं फिर त्रिकुट पर्वत की चढाई चढते है। चरणपादुका, आदिकुमारी, गर्भजून गुफा, हाथी मत्था, सांझी छत से होते हुए माता वैष्णो देवी की गुफा तक जाते हैं। जहाँ माता महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली के पिण्डी रूप स्थित है। लौटते समय यात्री कंजक और लौकड वीर की पूजा करके भैरव के दर्शन करते हैं तभी उनकी यात्रा सफल होती है। कथा हिंदू महाकाव्य के अनुसार, मां वैष्णो देवी ने भारत के दक्षिण में रत्नाकर सागर के घर जन्म लिया। उनके लौकिक माता-पिता लंबे समय तक निःसंतान थे। दैवी बालिका के जन्म से एक रात पहले, रत्नाकर ने वचन लिया कि बालिका जो भी चाहे, वे उसकी इच्छा के रास्ते में कभी नहीं आएंगे. मां वैष्णो देवी को बचपन में त्रिकुटा नाम से बुलाया जाता था। बाद में भगवान विष्णु के वंश से जन्म लेने के कारण वे वैष्णवी कहलाईं। जब त्रिकुटा 9 साल की थीं, तब उन्होंने अपने पिता से समुद्र के किनारे पर तपस्या करने की अनुमति चाही. त्रिकुटा ने राम के रूप में भगवान विष्णु से प्रार्थना की। सीता की खोज करते समय श्री राम अपनी सेना के साथ समुद्र के किनारे पहुंचे। उनकी दृष्टि गहरे ध्यान में लीन इस दिव्य बालिका पर पड़ी. त्रिकुटा ने श्री राम से कहा कि उसने उन्हें अपने पति के रूप में स्वीकार किया है। श्री राम ने उसे बताया कि उन्होंने इस अवतार में केवल सीता के प्रति निष्ठावान रहने का वचन लिया है। लेकिन भगवान ने उसे आश्वासन दिया कि कलियुग में वे कल्कि के रूप में प्रकट होंगे और उससे विवाह करेंगे।

इस बीच, श्री राम ने त्रिकुटा से उत्तर भारत में स्थित माणिक पहाड़ियों की त्रिकुटा श्रृंखला में अवस्थित गुफा में ध्यान में लीन रहने के लिए कहा.रावण के विरुद्ध श्री राम की विजय के लिए मां ने 'नवरात्र' मनाने का निर्णय लिया। इसलिए उक्त संदर्भ में लोग, नवरात्र के 9 दिनों की अवधि में रामायण का पाठ करते हैं। श्री राम ने वचन दिया था कि समस्त संसार द्वारा मां वैष्णो देवी की स्तुति गाई जाएगी. त्रिकुटा, वैष्णो देवी के रूप में प्रसिद्ध होंगी और सदा के लिए अमर हो जाएंगी.[3]

समय के साथ-साथ, देवी मां के बारे में कई कहानियां उभरीं. ऐसी ही एक कहानी है श्रीधर की। श्रीधर मां वैष्णो देवी का प्रबल भक्त थे। वे वर्तमान कटरा कस्बे से 2 कि॰मी॰ की दूरी पर स्थित हंसली गांव में रहता थे। एक बार मां ने एक मोहक युवा लड़की के रूप में उनको दर्शन दिए। युवा लड़की ने विनम्र पंडित से 'भंडारा' (भिक्षुकों और भक्तों के लिए एक प्रीतिभोज) आयोजित करने के लिए कहा. पंडित गांव और निकटस्थ जगहों से लोगों को आमंत्रित करने के लिए चल पड़े. उन्होंने एक स्वार्थी राक्षस 'भैरव नाथ' को भी आमंत्रित किया। भैरव नाथ ने श्रीधर से पूछा कि वे कैसे अपेक्षाओं को पूरा करने की योजना बना रहे हैं। उसने श्रीधर को विफलता की स्थिति में बुरे परिणामों का स्मरण कराया. चूंकि पंडित जी चिंता में डूब गए, दिव्य बालिका प्रकट हुईं और कहा कि वे निराश ना हों, सब व्यवस्था हो चुकी है। उन्होंने कहा कि 360 से अधिक श्रद्धालुओं को छोटी-सी कुटिया में बिठा सकते हो। उनके कहे अनुसार ही भंडारा में अतिरिक्त भोजन और बैठने की व्यवस्था के साथ निर्विघ्न आयोजन संपन्न हुआ। भैरव नाथ ने स्वीकार किया कि बालिका में अलौकिक शक्तियां थीं और आगे और परीक्षा लेने का निर्णय लिया। उसने त्रिकुटा पहाड़ियों तक उस दिव्य बालिका का पीछा किया। 9 महीनों तक भैरव नाथ उस रहस्यमय बालिका को ढूँढ़ता रहा, जिसे वह देवी मां का अवतार मानता था। भैरव से दूर भागते हुए देवी ने पृथ्वी पर एक बाण चलाया, जिससे पानी फूट कर बाहर निकला। यही नदी बाणगंगा के रूप में जानी जाती है। ऐसी मान्यता है कि बाणगंगा (बाण: तीर) में स्नान करने पर, देवी माता पर विश्वास करने वालों के सभी पाप धुल जाते हैं। नदी के किनारे, जिसे चरण पादुका कहा जाता है, देवी मां के पैरों के निशान हैं, जो आज तक उसी तरह विद्यमान हैं। इसके बाद वैष्णो देवी ने अधकावरी के पास गर्भ जून में शरण ली, जहां वे 9 महीनों तक ध्यान-मग्न रहीं और आध्यात्मिक ज्ञान और शक्तियां प्राप्त कीं. भैरव द्वारा उन्हें ढूंढ़ लेने पर उनकी साधना भंग हुई। जब भैरव ने उन्हें मारने की कोशिश की, तो विवश होकर वैष्णो देवी ने महा काली का रूप लिया। दरबार में पवित्र गुफा के द्वार पर देवी मां प्रकट हुईं. देवी ने ऐसी शक्ति के साथ भैरव का सिर धड़ से अलग किया कि उसकी खोपड़ी पवित्र गुफा से 2.5 कि॰मी॰ की दूरी पर भैरव घाटी नामक स्थान पर जा गिरी.

भैरव ने मरते समय क्षमा याचना की। देवी जानती थीं कि उन पर हमला करने के पीछे भैरव की प्रमुख मंशा मोक्ष प्राप्त करने की थी। उन्होंने न केवल भैरव को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्रदान की, बल्कि उसे वरदान भी दिया कि भक्त द्वारा यह सुनिश्चित करने के लिए कि तीर्थ-यात्रा संपन्न हो चुकी है, यह आवश्यक होगा कि वह देवी मां के दर्शन के बाद, पवित्र गुफा के पास भैरव नाथ के मंदिर के भी दर्शन करें। इस बीच वैष्णो देवी ने तीन पिंड (सिर) सहित एक चट्टान का आकार ग्रहण किया और सदा के लिए ध्यानमग्न हो गईं।

इस बीच पंडित श्रीधर अधीर हो गए। वे त्रिकुटा पर्वत की ओर उसी रास्ते आगे बढ़े, जो उन्होंने सपने में देखा था। अंततः वे गुफा के द्वार पर पहुंचे। उन्होंने कई विधियों से 'पिंडों' की पूजा को अपनी दिनचर्या बना ली। देवी उनकी पूजा से प्रसन्न हुईं. वे उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया। तब से, श्रीधर और उनके वंशज देवी मां वैष्णो देवी की पूजा करते आ रहे हैं।[4]

चिंतपूर्णी देवी[सम्पादन]

चिंतपूर्णी देवी माता का पिण्डी स्वरूप है जिनकोे छिन्नमस्ता देवी का रूप माना जाता हैचिंतपूर्णी देवी का मंदिर जिला ऊना हिमाचल प्रदेश राज्य में स्थित है। चिंतपूर्णी मंदिर सोला सिग्ही श्रेणी की पहाड़ी पर स्थित है। भरवाई गांव जो होशियारपुर-धर्मशाला रोड पर स्थित है वहा से चिंतपूर्णी 3 कि॰मी॰ की दूरी पर है। यह रोड राज्य मार्ग से जुड़ा हुआ भी है। पर्यटक अपने निजी वाहनो से चिंतपूर्णी बस स्टैण्ड तक जा सकते हैं। बस स्टैण्ड चिंतपूर्णी मंदिर से 1.5 कि॰मी॰ की दूरी पर स्थित है। चढाई का आधा रास्ता सीधा है और उसके बाद का रास्ता सीढीदार है। गर्मीयों के समय में मंदिर के खुलने का समय सुबह 4 बजे से रात 11 बजे तक है और सर्दियों में सुबह 5 बजे से रात्रि 10 बजे तक का है। दोपहर 12 बजे से 12.30 तक भोग लगाया जाता है और 7.30 से 8.30 तक सांय आरती होती है। दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालु माता के लिए भोग के रूप में सूजी का हलवा, लड्डू बर्फी, खीर, बतासा, नारियल आदि लाते हैं। कुछ श्रद्धालु अपनी मन्नत पूरी हो जाने पर ध्वज और लाल चूनरी माता को भेट स्वरूप प्रदान करते हैं। चढाई के रास्ते में काफी सारी दूकाने है जहां से ही श्रद्धालु माता को चढाने का समान खरीदते हैं। दर्शनो से पहले प्रत्येक पर्यटक को हाथ साफ करने पड़ते हैं और उन्हें अपने सर पर रूमाल या कपड़ा ढकना पड़ता है। मंदिर के मुख्य द्वार पर प्रवेश करते ही सीधे हाथ पर आपको एक पत्थर दिखाई देगा। यह पत्थर माईदास का है। यही वह स्थान है जहां पर माता ने भक्त माईदास को दर्शन दिये थे। भवन के मध्य में माता की गोल आकार की पिण्डी है। जिसके दर्शन भक्त कतारबद्ध होकर करते हैं। श्रद्धालु मंदिर की परिक्रमा करते हैं। माता के भक्त मंदिर के अंदर निरंतर भजन कीर्तन करते रहते हैं। इन भजनो को सुनकर मंदिर में आने वाले भक्तो को दिव्य आंनद की प्राप्ति होती है और कुछ पलो के लिए वह सब कुछ भूल कर अपने को देवी को समर्पित कर देते हैं। मंदिर के साथ ही में वट का वृक्ष है जहां पर श्रद्धालु कच्ची मोली अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए बांधते हैं। आगे पश्चिम की और बढने पर बड़ का वृक्ष है जिसके अंदर भैरों और गणेश के दर्शन होते हैं। मंदिर का मुख्य द्वार पर सोने की परत चढी हुई है। इस मुख्य द्वार का प्रयोग नवरात्रि के समय में किया जाता है। यदि मौसम साफ हो तो आप यहां से धौलाधर पर्वत श्रेणी को देख सकते हैं। मंदिर की सीढियों से उतरते वक्त उत्तर दिशा में पानी का तालाब है। पंड़ित माईदास की समाधि भी तालाब के पश्चिम दिशा की ओर है। पंड़ित माईदास द्वारा ही माता के इस पावन धाम की खोज की गई थी।

कालिका देवी[सम्पादन]

कालिका देवी अथवा काली माता यहा पिण्डी स्वरूप मे विराजमान है हरियाणा के जिला पंचकुला के कालका कस्बे मे यह प्रसिद्ध मंदिर है। यह मंदिर श्री माता मनसा देवी श्राईन बोर्ड के अधीन है। दिल्ली-शिमला रोड पर कालका नाम का एक जंक्शन है। यहाँ पर माता भगवती देवी कालिका का प्राचीन मंदिर है। काली माता के नाम पर ही शहर का नाम कालका जी पड़ा था। माना जाता है कि सतयुग में चण्ड-मुण्ड, शुम्भ-निशुम्भ और रक्तबीज आदि शक्तिशाली दैत्यों का आतंक बढ़ गया था। जिससे समस्त लोकों में हाहाकार मचा हुआ था। यहां तक की देवता भी दैत्यों से भयभीत होकर हिमालय और शिवालिक की कंदराओं में जाकर छिप गए। इस संकट की घड़ी से उबरने के लिए सभी देवतागणों ने इकट्ठे होकर मां जगदम्बा भुवनेश्वरी की स्तुति करी। तभी माता पार्वती उस स्थान पर गंगा मे स्नान के लिए आई थी और देवताओं से पूछने लगी आप लोग किसकी स्तुति कर रहे हैं। तभी उसी क्षण पार्वती के शरीर कोश से एक दिव्य तेज युक्त देवी निकली और बोली शुम्भ और निशुम्भ से हारे हुए दुखी देवता मेरी ही स्तुति कर रहे हैं। अम्बिका देवी पार्वती के शरीर कोश से निकली थी इसलिए पूरे संसार मे भगवती कौशिकी के नाम से विख्यात हुई। देवी जगदम्बा के पार्वती के शरीर से निकल जाने पर पार्वती का शरीर बिलकुल काला पड गया जिस कारण वही हिमालय की कालिका देवी के नाम से विख्यात हो गयी। इधर कौशिकी देवी परम सुंदरी रूप धारण कर हिमालय पर्वत पर बैठ गयी बाद मे दोनों देवियों द्वारा धुम्रलोचन, चण्ड-मुण्ड, शुम्भ और निशुम्भ का वध हुआ। हिमालय की कालिका देवी यही कालिका माता यहाँ विराजमान है। इस पवित्र मंदिर में मां के दर्शनों के लिए भक्तों का तांता लगा रहता है विशेष तौर पर नवरात्र और शनिवार के दिन बहुत लम्बी-लम्बी कतारें लगती हैं। मां के दर्शन कर भक्त मनचाही मुरादें पाते हैं।

चामुण्डा देवी[सम्पादन]

हिमानी चामुण्डा ही माता चामुण्डा का प्रथम स्थान था

चामुण्डा देवी हिमाचल प्रदेश मे स्थित एक उग्र सिद्धपीठ है। यह स्थान वर्षों से तांत्रिकों और सिद्धों के लिए शांत, एकांत स्थान रहा है।

भगवती चामुण्डा

माता चामुण्डा देवी यह विग्रह रूप मे विराजमान है हिमाचल प्रदेश को देव भूमि भी कहा जाता है। इसे देवताओं के घर के रूप में भी जाना जाता है। पूरे हिमाचल प्रदेश में 2000 से भी ज्यादा मंदिर है और इनमें से ज्यादातर प्रमुख आकर्षक का केन्द्र बने हुए हैं। इन मंदिरो में से एक प्रमुख मंदिर चामुण्डा देवी का मंदिर है जो कि जिला कांगड़ा हिमाचल प्रदेश राज्य में स्थित है। चामुण्डा देवी मंदिर शक्ति के 51 शक्ति पीठो में से एक है। वर्तमान मे उत्तर भारत की नौ देवियों मे चामुण्डा देवी का दुसरा दर्शन होता है वैष्णो देवी से शुरू होने वाली नौ देवी यात्रा मे माँ चामुण्डा देवी, माँ वज्रेश्वरी देवी, माँ ज्वाला देवी, माँ चिंतपुरणी देवी, माँ नैना देवी, माँ मनसा देवी, माँ कालिका देवी, माँ शाकम्भरी देवी आदि शामिल हैं यहां पर आकर श्रद्धालु अपने भावना के पुष्प मां चामुण्डा देवी के चरणों में अर्पित करते हैं। मान्यता है कि यहां पर आने वाले श्रद्धालुओं की सभी मनोकामना पूर्ण होती है। देश के कोने-कोने से भक्त यहां पर आकर माता का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। चामुण्डा देवी का मंदिर समुद्र तल से 1000 मी. की ऊंचाई पर स्थित है। यह धर्मशाला से 15 कि॰मी॰ की दूरी पर है। यहां प्रकृति ने अपनी सुंदरता भरपूर मात्रा में प्रदान कि है। चामुण्डा देवी मंदिर बंकर नदी के किनारे पर बसा हुआ है। पर्यटको के लिए यह एक पिकनिक स्पॉट भी है। यहां कि प्राकृतिक सौंदर्य लोगो को अपनी और आकर्षित करता है। चामुण्डा देवी मंदिर मुख्यता माता काली को समर्पित है। माता काली शक्ति और संहार की देवी है। जब-जब धरती पर कोई संकट आया है तब-तब माता ने दानवो का संहार किया है। असुर चण्ड-मुण्ड के संहार के कारण माता का नाम चामुण्डा पड़ गया।माता का नाम चामुण्ड़ा पडने के पीछे एक कथा प्रचलित है। दूर्गा सप्तशती में माता के नाम की उत्पत्ति कथा वर्णित है। हजारों वर्ष पूर्व धरती पर शुम्भ और निशुम्भ नामक दो दैत्यो का राज था। उनके द्वारा देवताओं को युद्ध में परास्त कर दिया गया जिसके फलस्वरूप देवताओं ने देवी दूर्गा कि आराधना की और देवी दूर्गा ने उन सभी को वरदान दिया कि वह अवश्य ही इन दोनों दैत्यो से उनकी रक्षा करेंगी। इसके पश्चात माता दुर्गा ने दो रूप धारण किये एक माता महाकाली का और दूसरा माता अम्बे का। माता महाकाली जग मे विचरने लगी और माता अम्बे हिमालय मे रहने लगी। तभी वहाँ चण्ड और मुण्ड आए वहाँ। देखकर देवी अम्बे को मोहित हुए और कहा दैत्यराज से आप तीनों लोको के राजा है। आपके यहां पर सभी अमूल्य रत्‍न सुशोभित है। इस कारण आपके पास ऐसी दिव्य और आकर्षक नारी भी होनी चाहिए जो कि तीनों लोकों में सर्वसुन्दर है। यह वचन सुन कर शुम्भ ने अपना एक दूत माता अम्बे के पास भेजा और उस दूत से कहा कि तुम उस सुन्दरी से जाकर कहना कि शुम्भ तीनो लोको के राजा है और वह तुम्हें अपनी रानी बनाना चाहते हैं। यह सुन दूत माता अम्बे के पास गया और शुमभ द्वारा कहे गये वचन माता को सुना दिये। माता ने कहा मैं मानती हूं कि शुम्भ बलशाली है परन्तु मैं एक प्रण ले चुकी हूं कि जो व्यक्ति मुझे युद्ध में हरा देगा मैं उसी से विवाह करूंगी। यह सारी बाते दूत ने शुम्भ को बताई तो वह माता के वचन सुन क्रोधित हो गया। तभी उसने द्रुमलोचन सेनापति को सेना लेकर माता के पास उन्हे लाने भेजा। जब उसके सेनापति ने माता को कहा कि हमारे साथ चलो हमारे स्वामी के पास नहीं तो कर दूँगा तुम्हारे गर्व का नाश। माता के बिना युद्ध किये जाने से मना किया तो उन्होंने मैया पर कई अस्त्र शस्त्र बरसाए पर माता को कोई हानि नहीं पहुंचा सके मैया ने भी बदले कई तीर बरसाए सेना पर और उनके सिंह ने भी कई असुरों का संहार कर दिया। अपनी सेना का यूँ संहार का सुनकर शुम्भ को क्रोध आया और चण्ड और मुण्ड नामक दो असुरो को भेजा,रक्तबीज के साथ और कहा कि उसके सिंह को मारकर माता को जीवित या मृत हमारे सामने लाओ। चण्ड और मुण्ड माता के पास गये और उन्हे अपने साथ चलने के लिए कहा। देवी के मना करने पर उन्होंने देवी पर प्रहार किया। तब देवी ने अपना महाकाली का रूप धारण कर लिया और असुरो के शीश काटकर अपनी मुण्डो की माला में परोए और सभी असुरी सेना के टुकड़े टुकड़े कर दिये। फिर जब माता महाकाली माता अम्बे के पास लौटी तो उन्होंने कहा कि आज से चामुंडा नाम तेरा हुआ विख्यात और घर घर में होवेगा तेरे नाम का जाप। बोलो सच्चिया ज्योतिया वाली माता तेरी सदा ही जय साचे दरबार की जय।

वज्रेश्वरी देवी कांगड़ा[सम्पादन]

श्री कांगडा देवी मंदिर, कांगडा, हिमाचल प्रदेश
माता वज्रेश्वरी देवी का भवन

माता रानी वज्रेश्वरी यहाँ पिण्डी स्वरूप मे विराजमान है वज्रेश्वरी देवी को कांगड़ा वाली भी कहा जाता है इनका मंदिर हिमाचल प्रदेश के प्रसिद्ध नगर कांगड़ा मे है।कहा जाता है कि मूल मंदिर महाभारत के समय पौराणिक पांडवों द्वारा बनाया गया था। किंवदंती कहती है कि एक दिन पांडवों ने देवी दुर्गा को अपने सपने में देखा था जिसमें उन्होंने उन्हें बताया था कि वह नगरकोट गांव में स्थित है और यदि वे खुद को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो उन्हें उस क्षेत्र में उनके लिए मंदिर बनाना चाहिए अन्यथा वे नष्ट हो जाएंगे। उसी रात उन्होंने नगरकोट गाँव में उसके लिए एक शानदार मंदिर बनवाया। 1905 में मंदिर को एक शक्तिशाली भूकंप से नष्ट कर दिया गया था और बाद में सरकार द्वारा इसका पुनर्निर्माण किया गया था।

ज्वाला देवी[सम्पादन]

ज्वालामुखी देवी

ज्वालामुखी देवी यहाँ ज्योति रूप मे विराजमान है यहाँ पर मुख्य ज्योति जिसे ज्वालामुखी देवी कहते हैं भगवती महाकाली की है जिसका वर्ण नील है।यहाँ नौ ज्योतियां प्रज्ज्वलित है जो महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, अन्नपूर्णा, चण्डी,विंध्यवासिनी, हिंगलाज भवानी, अंजना और अम्बिका देवियों की है। ज्वाला देवी एक प्रमुख शक्तिपीठ है।यहाँ सती की जिह्वा गिरी थी ।यह मंदिर हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा की पहाडियों मे है।

नैना देवी[सम्पादन]

नैना देवी मंदिर

नैना देवी का बसेरा शिवालिक पर्वत पर हिमाचल प्रदेश के जिला बिलासपुर के समीप है । माता यहाँ पिण्डी स्वरूप मे दर्शन देती है । नैना देवी के दायें और महाकाली और बायें और गणपति जी की भी प्रतिमायें है। नयना देवी मंदिर हिमाचल के बिलासपुर जिले में है। यह शिवालिक पर्वत श्रृंखला की पहाड़ियो पर स्थित एक पवित्र मंदिर है। यह देवी के 51 शक्ति पीठों में शामिल है।वर्तमान मे उत्तर भारत की नौ देवी यात्रा मे नैना देवी का ही छटवां दर्शन होता है वैष्णो देवी चलकर नौ देवी यात्रा मे माँ चामुण्डा देवी, माँ वृज्रेश्वरी देवी, माँ ज्वाला देवी, माँ चिंतापुरणी देवी, माँ नैना देवी, माँ मन्सा देवी, माँ कालिका देवी, माँ शाकम्भरी देवी सहारनपुर आदि शामिल हैं नैना देवी हिंदूओं के पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है। यह स्थान नैशनल हाईवे न. 21 से जुड़ा हुआ है। इस स्थान तक पर्यटक अपने निजी वाहनो से भी जा सकते है। मंदिर तक जाने के लिए उड़्डनखटोले, पालकी आदि की भी व्यवस्था है। यह समुद्र तल से 1100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मान्यता है कि इस स्थान पर देवी सती के नेत्र गिरे थे। मंदिर में पीपल का पेड़ मुख्य आकषर्ण का केन्द्र है जो कि अनेको शताब्दी पुराना है। मंदिर के मुख्य द्वार के दाई ओर भगवान गणेश और हनुमान कि मूर्ति है। मुख्य द्वार के पार करने के पश्चात आपको दो शेर की प्रतिमाएं दिखाई देगी। शेर माता का वाहन माना जाता है। मंदिर के र्गभ ग्रह में मुख्य तीन मूर्तियां है। दाई तरफ माता काली की, मध्य में नैना देवी की और बाई ओर भगवान गणेश की प्रतिमा है। पास ही में पवित्र जल का तालाब है जो मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित है। मंदिर के समीप ही में एक गुफा है जिसे नैना देवी गुफा के नाम से जाना जाता है। पहले मंदिर तक पहुंचने के लिए 1.25 कि॰मी॰ की पैदल यात्रा कि जाती थी परन्तु अब मंदिर प्रशासन द्वारा मंदिर तक पहुंचने के लिए उड़्डलखटोले का प्रबंध किया गया है।{| class="wikitable" border="1"

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पर्यटन उद्योग को हिमाचल प्रदेश में उच्‍च प्राथमिकता दी गई है और हिमाचल सरकार ने इसके विकास के लिए समुचित ढांचा विकसित किया है जिसमें जनोपयोगी सेवाएं, सड़कें, संचार तंत्र हवाई अड्डे यातायात सेवाएं, जलापूर्ति और जन स्‍वास्‍थ्‍य सेवाएं शामिल है। राज्‍य पर्यटन विकास निगम राज्‍य की आय में 10 प्रतिशत का योगदान करता है। राज्‍य में तीर्थो और नृवैज्ञानिक महत्‍व के स्‍थलों का समृद्ध भंडार है। राज्‍य को व्‍यास, पाराशर, वसिष्‍ठ, मार्कण्‍डेय और लोमश आदि ऋषियों के निवास स्‍थल होने का गौरव प्राप्‍त है। गर्म पानी के स्रोत, ऐतिहासिक दुर्ग, प्राकृतिक और मानव निर्मित झीलें, उन्‍मुक्‍त विचरते चरवाहे पर्यटकों के लिए असीम सुख और आनंद का स्रोत हैं।

पर्यटन आकर्षण[सम्पादन]

चंबा घाटी

चंबा घाटी (915 मीटर) की ऊँचाई पर रावी नदी के दाएं किनारे पर है। पुराने समय में राजशाही का राज्‍य होने के नाते यह लगभग एक शताब्‍दी पुराना राज्‍य है और 6वीं शताब्‍दी से इसका इतिहास मिलता है। यह अपनी भव्‍य वास्‍तुकला और अनेक रोमांचक यात्राओं के लिए एक आधार के तौर पर विख्‍यात है।

डलहौज़ी

पश्चिमी हिमाचल प्रदेश में डलहौज़ी नामक यह पर्वतीय स्‍थान पुरानी दुनिया की चीजों से भरा पड़ा है और यहां राजशाही युग की भाव्‍यता बिखरी पड़ी है। यह लगभग 14 वर्ग किलो मीटर फैला है और यहां काठ लोग, पात्रे, तेहरा, बकरोटा और बलूम नामक 5 पहाडियां है। इसे 19वीं शताब्‍दी में ब्रिटिश गवर्नर जनरल, लॉड डलहौज़ी के नाम पर बनाया गया था। इस कस्‍बे की ऊँचाई लगभग 525 मीटर से 2378 मीटर तक है और इसके आस पास विविध प्रकार की वनस्‍पति-पाइन, देवदार, ओक और फूलों से भरे हुए रोडो डेंड्रॉन पाए जाते हैं डलहौज़ी में मनमोहक उप निवेश यु‍गीन वास्‍तुकला है जिसमें कुछ सुंदर गिरजाघर शामिल है। यह मैदानों के मनोरम दृश्‍यों को प्रस्‍तुत करने के साथ एक लंबी रजत रेखा के समान दिखाई देने वाले रावी नदी के साथ एक अद्भुत दृश्‍य प्रदर्शित करता है जो घूम कर डलहौज़ी के नीचे जाती है। बर्फ से ढका हुआ धोलाधार पर्वत भी इस कस्‍बे से साफ दिखाई देता है।

धर्मशाला

धर्मशाला की ऊँचाई 1,250 मीटर (4,400 फीट) और 2,000 मीटर (6,460 फीट) के बीच है। यह अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, जहां पाइन के ऊंचे पेड़, चाय के बागान और इमारती लकड़ी पैदा करने वाले बड़े वृक्ष ऊंचाई, शांति तथा पवित्रता के साथ यहां खड़े दिखाई देते हैं। वर्ष 1960 से, जब से दलाई लामा ने अपना अस्‍थायी मुख्‍यालय यहां बनाया, धर्मशाला की अंतरराष्‍ट्रीय ख्‍याति भारत के छोटे ल्‍हासा के रूप में बढ़ गई है।

कुफरी

अनंत दूरी तक चलता आकाश, बर्फ से ढकी चोटियां, गहरी घाटियां और मीठे पानी के झरने, कुफरी में यह सब है। यह पर्वतीय स्‍थान शिमला के पास समुद्री तल से 2510 मीटर की ऊँचाई पर हिमाचल प्रदेश के दक्षिणी भाग में स्थित है। कुफरी में ठण्‍ड के मौसम में अनेक खेलों का आयोजन किया जाता है जैसे स्‍काइंग और टोबोगेनिंग के साथ चढ़ाडयों पर चढ़ना। ठण्‍ड के मौसम में हर वर्ष खेल कार्निवाल आयोजित किए जाते हैं और यह उन पर्यटकों के लिए एक बड़ा आकर्षण है जो केवल इन्‍हें देखने के लिए यहां आते हैं। यह स्‍थान ट्रेकिंग और पहाड़ी पर चढ़ने के लिए भी जाना जाता है जो रोमांचकारी खेल प्रेमियों का आदर्श स्‍थान है।

मनाली

कुल्‍लू से उत्तर दिशा में केवल 40 किलो मीटर की दूरी पर लेह की ओर जाने वाले राष्‍ट्रीय राजमार्ग पर घाटी के सिरे के पास मनाली स्थित है। लाहुल, स्‍पीति, बारा भंगल (कांगड़ा) और जनस्‍कर पर्वत शृंखला पर चढ़ाई करने वालों के लिए यह एक मनपसंद स्‍थान है। मंदिरों से अनोखी चीजों तक, यहां से मनोरम दृश्‍य और रोमांचकारी गतिविधियां मनाली को हर मौसम और सभी प्रकार के यात्रियों के बीच लोकप्रिय बनाती हैं।

कुल्‍लू

कुल्लू घाटी को पहले कुलंथपीठ कहा जाता था। कुलंथपीठ का शाब्दिक अर्थ है रहने योग्‍य दुनिया का अंत। कुल्‍लू घाटी भारत में देवताओं की घाटी रही है। यहां के मंदिर, सेब के बागान और दशहरा हजारों पर्यटकों को कुल्‍लू की ओर आकर्षित करते हैं। यहां के स्‍थानीय हस्‍तशिल्‍प कुल्‍लू की सबसे बड़ी विशेषता है।

शिमला

हिमाचल प्रदेश की राजधानी और ब्रिटिश कालीन समय में ग्रीष्‍म कालीन राजधानी शिमला राज्‍य का सबसे महत्‍वपूर्ण पर्यटन केन्‍द्र है। यहां का नाम देवी श्‍यामला के नाम पर रखा गया है जो काली का अवतार है। शिमला लगभग 7267 फीट की ऊँचाई पर स्थित है और यह अर्ध चक्र आकार में बसा हुआ है। यहां घाटी का सुंदर दृश्‍य दिखाई देता है और महान हिमालय पर्वती की चोटियां चारों ओर दिखाई देती है। शिमला एक पहाड़ी पर फैला हुआ है जो करीब 12 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है। इसके पड़ोस में घने जंगल और टेढ़े-मेढे़ रास्ते हैं, जहां पर हर मोड़ पर मनोहारी दृश्य देखने को मिलते हैं। यह एक आधुनिक व्यावसायिक केंद्र भी है। शिमला विश्व का एक महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। यहां प्रत्येक वर्ष देश-विदेश से बड़ी संख्या में लोग भ्रमण के लिए आते हैं। बर्फ से ढकी हुई यहां की पहाडि़यों में बड़े सुंदर दृश्य देखने को मिलते हैं जो पर्यटकों को बार-बार आने के लिए आकर्षित करते हैं। शिमला संग्रहालय हिमाचल प्रदेश की कला एवं संस्कृति का एक अनुपम नमूना है, जिसमें यहां की विभिन्न कलाकृतियां विशेषकर वास्तुकला, पहाड़ी कलम, सूक्ष्म कला, लकडि़यों पर की गई नक्काशियां, आभूषण एवं अन्य कृतियां संग्रहित हैं। शिमला में दर्शनीय स्थलों के अतिरिक्त कई अध्ययन केंद्र भी हैं, जिनमें लार्ड डफरिन द्वारा 1884-88 में निर्मित भारतीय उच्च अध्ययन केंद्र बहुत ही प्रसिद्ध है। यहां कुछ ऐतिहासिक सरकारी भवन भी हैं, जैसे वार्नेस कोर्ट, गार्टन कैसल व वाइसरीगल लॉज ये भी बड़े ही दर्शनीय स्थल हैं। चैडविक झरना भी एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है। इसके साथ ही ग्लेन नामक स्थल भी है। इसके समीप बहता हुआ झरना और सदाबहार जंगल बहुत ही आकर्षक हैं।

मनसा देवी पंचकुला[सम्पादन]

मनसा देवी का पटियाला राजा द्वारा निर्मित भवन
मनसा देवी

माँ मनसा देवी का मंदिर हरियाणा के पंचकुला मे है । माता यहाँ मूर्ति रूप मे विराजमान है।साथ मे ही महासरस्वती, महालक्ष्मी और महामनसा की पिण्डियां है। मनसा देवी को भगवान शिव की मानस पुत्री के रूप में पूजा जाता है। इनका प्रादुर्भाव कश्यप ऋषि के मस्तक से हुआ है इस कारण इनका नाम मनसा पड़ा। महाभारतके अनुसार इनका वास्तविक नाम जरत्कारु है और इनके समान नाम वाले पति मुनि जरत्कारु तथा पुत्र आस्तिक जी हैं। इन्हें नागराज वासुकी की बहन के रूप में पूजा जाता है। इनका एक प्रसिद्ध मंदिर बिल्वा पर्वत पर हरिद्वार में स्थापित है।ऐसा भी बताया गया है कि वासुकि नाग द्वारा बहन की इच्छा करने पर शिव नें उन्हें इसी कन्या का भेंट दिया और वासुकि इस कन्या के तेज को न सह सका और नागलोक में जाकर पोषण के लिये तपस्वी हलाहल को दे दिया। इसी मनसा नामक कन्या की रक्षा के लिये हलाहल नें प्राण त्यागा। श्रीमद् देवीभागवत महापुराण के अनुसार मनसा देवी मूल प्रकृति महामाया का एक अभिन्न स्वरूप है। विश्व मे बारह नामों से ये पूजित है और साधक की अभिष्ट अभिलाषा पूर्ण करती है ये बारह नाम इस प्रकार है।

  • मनसा देवी मन की सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाली
  • सिद्धयोगिनी सभी प्रकार की सिद्धियों से संपन्न
  • जरत्कारू प्रिया महामुनि जरत्कारु की अर्धांगिनी
  • आस्तीक माता ऋषि आस्तीक की माता
  • नागेश्वरी नागों की पूजनीय देवी
  • विषहारी विष का हरण करने वाली
  • वैष्णवी परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण की तपस्या करने के कारण वैष्णवी कहलाई
  • महाज्ञानयता महान ज्ञान से परिपूर्ण
  • शैवी भगवान शंकर की महान भक्त
  • जरत्कारू भगवान श्रीकृष्ण की तपस्या मे अपने शरीर को जीर्ण- शीर्ण बना लिया था जिसके कारण भगवान श्रीकृष्ण ने इनको जरत्कारु नाम दिया
  • नागभगिनी भगवान शंकर के गले के नाग वासुकी की बहन होने के कारण नागभगिनी
  • जगद्गौरी जगत मे गौरी के समान पूजनीय

जो पुरुष देवी की पूजा के समय इन बारह नामों का पाठ और निरंतर जाप करता है, उसे तथा उसके वंशजों को भी सर्प का भय नहीं हो सकता। इन बारह नामों से विश्व इनकी पूजा करता है। जरत्कारुर्जगद्गौरी मनसासिद्धयोगिनी। वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा ।। जरत्कारु प्रिया आस्तीकमाता विषहरीति च। महाज्ञानयता चैव सा देवीविश्वपूजिता ।। द्वादशैतानिनामानि पूजाकाले तु यः पठेत्। तस्य नागभयंनास्तितस्य वंशोद्भवस्य च

शाकम्भरी देवी सहारनपुर[सम्पादन]

माता भवानी यहाँ विग्रह रूप मे विराजमान है। शाकम्भरी देवी के दायें और भीमा एवं भ्रामरी तथा बायें और शताक्षी देवी विराजमान है। साथ ही बाल गणेश भी विराजमान है। यह देश का इकलौता ऐसा शक्तिपीठ है जहाँ दुर्गा के चारों स्वरूपों के विग्रह एक साथ है। साथ ही नौ देवियों की यात्रा मे यह शक्तिपीठ सबसे अधिक प्राचीन है। शाकम्भरी देवी मंदिर सहारनपुर से 60 किमी दूर शिवालिक पर्वत श्रेणियों मे है।ऐसी मान्यता है कि शाकम्भरी देवी की गणना प्रसिद्ध इक्यावन शक्तिपीठों मे होती है यहाँ भगवती सती का शीश गिरा था। इसके अलावा यह स्थान देवी के 108 सिद्धपीठों मे से एक है ब्रह्मपुराण मे भी इस तीर्थ का वर्णन है। इसके अलावा महाभारत पुराण, स्कंद पुराण मे इस तीर्थक्षेत्र की सम्यक महिमा बताई गयी है। शाकम्भरी देवी के बारे मे देवी भागवत पुराण, मार्कंडेय पुराण, शिव पुराण,ब्रह्म पुराण,वामन पुराण, दुर्गा सप्तशती और कनक धारा स्त्रोत मे भी अपार महिमा का वर्णन किया गया है। देशभर मे माँ शाकम्भरी देवी के कई मंदिर है लेकिन संपूर्ण भारत मे हिमालय की शिवालिक उपत्यका मे स्थित माँ शाकम्भरी देवी का यह मंदिर सर्वाधिक प्राचीन है क्योंकि माँ शाकम्भरी देवी का प्रथम प्राकाट्य इसी स्थान पर हुआ था।शाकम्भरी शक्तिपीठ मे माँ शाकम्भरी की मुख्य प्रतिमा के दाहिने भीमा एवं भ्रामरी तथा बांयी और शताक्षी देवी प्रतिष्ठित है साथ ही बाल गणेश जी भी विराजमान है। इस परम दुर्लभ क्षेत्र के रक्षक भगवान भैरव स्वयं भूरादेव के रूप मे करते हैं और प्रथम उनके दर्शन कर आज्ञा ली जाती है तभी इस पंचकोसी सिद्धपीठ की यात्रा सफल मानी जाती है। कथा देवी पुराण,शिव पुराण और धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार हिरण्याक्ष के वंश मे एक महादैत्य रूरु था। रूरु का एक पुत्र हुआ दुर्गम। दुर्गमासुर ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके चारों वेदों को अपने अधीन कर लिया। वेदों के ना रहने से समस्त क्रियाएँ लुप्त हो गयी। ब्राह्मणों ने अपना धर्म त्याग कर दिया। चौतरफा हाहाकार मच गया। ब्राह्मणों के धर्म विहीन होने से यज्ञादि अनुष्ठान बंद हो गये और देवताओं की शक्ति भी क्षीण होने लगी। जिसके कारण एक भयंकर अकाल पड़ा। किसी भी प्राणी को जल नही मिला जल के अभाव मे वनस्पति भी सूख गयी। अतः भूख और प्यास से समस्त जीव मरने लगे। दुर्गमासुर की देवों से भयंकर लडाई हुई जिसमें देवताओं की हार हुई अत: दुर्गमासुर के अत्याचारों से पीडि़त देवतागण शिवालिक पर्वतमालाओं में छिप गये तथा जगदम्बा का ध्यान, जप,पुजन और स्तुति करने लगे । उनके द्वारा जगदम्बा की स्तुति करने पर महामाया माँ भुवनेश्वरी जो महेशानी,भुवनेशी नामों से प्रसिद्ध है आयोनिजा(जिसके कोई माता-पिता ना हो) रूप मे इसी स्थल पर प्रकट हुई। समस्त सृष्टि की दुर्दशा देख जगदम्बा का ह्रदय पसीज गया और उनकी आंखों से आंसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी। माँ के शरीर पर सौं नैत्र प्रकट हुए। शत नैना देवी की कृपा से संसार मे महान वृष्टि हुई और नदी- तालाब जल से भर गये। देवताओं ने उस समय माँ की शताक्षी देवी नाम से आराधना की। शताक्षी देवी ने एक दिव्य सौम्य स्वरूप धारण किया। चतुर्भुजी माँ कमलासन पर विराजमान थी। अपने हाथों मे कमल, बाण, शाक- फल और एक तेजस्वी धनुष धारण किये हुए थी। भगवती परमेश्वरी ने अपने शरीर से अनेकों शाक प्रकट किये। जिनको खाकर संसार की क्षुधा शांत हुई। माता ने पहाड़ पर दृष्टि डाली तो सर्वप्रथम सराल नामक कंदमूल की उत्पत्ति हुई । इसी दिव्य रूप में माँ शाकम्भरी देवी के नाम से पूजित हुई। तत्पश्चात् वह दुर्गमासुर को रिझाने के लिये सुंदर रूप धारण कर शिवालिक पहाड़ी पर आसन लगाकर बैठ गयीं। जब असुरों ने पहाड़ी पर बैठी जगदम्बा को देखा तो उनकों पकडने के विचार से आये। स्वयं दुर्गमासुर भी आया तब देवी ने पृथ्वी और स्वर्ग के बाहर एक घेरा बना दिया और स्वयं उसके बाहर खडी हो गयी। दुर्गमासुर के साथ देवी का घोर युद्ध हुआ अंत मे दुर्गमासुर मारा गया। इसी स्थल पर मां जगदम्बा ने दुर्गमासुर तथा अन्य दैत्यों का संहार किया व भक्त भूरेदेव(भैरव का एक रूप) को अमरत्व का आशीर्वाद दिया।माँ की असीम अनुकम्पा से वर्तमान में भी सर्वप्रथम उपासक भूरेदेव के दर्शन करते हैं तत्पश्चात पथरीले रास्ते से गुजरते हुये मां शाकम्भरी देवी के दर्शन हेतु जाते हैं। जिस स्थल पर माता ने दुर्गमासुर नामक राक्षस का वध किया था वहाँ अब वीरखेत का मैदान है। जहाँ पर माता सुंदर रूप बनाकर पहाड़ी की शिखा पर बैठ गयी थी वहाँ पर माँ शाकम्भरी देवी का भवन है। जिस स्थान पर माँ ने भूरा देव को अमरत्व का वरदान दिया था वहाँ पर बाबा भुरादेव का मंदिर है। प्राकृतिक सौंदर्य व हरी- भरी घाटी से परिपूर्ण यह क्षेत्र उपासक का मन मोह लेता है। देवीपुराण के अनुसार शताक्षी, शाकम्भरी व दुर्गा एक ही देवी के नाम हैं। आरती

शाकुंभरी अंबाजी की आरती कीजो

ऐसो अद्भुत रूप है ह्रदय धर लीजो

शताक्षी दयालु की आरती कीजो

त्वं परिपूर्ण आदि भवानी मां

सब घट घट तुम आप बखानी माँ

शाकंभरी अंबा जी की आरती कीजो

तुम हो शाकंभरी तुम हो शताक्षी माँ

शिवमूर्ति माया प्रकाशी माँ

शाकंभर अंबाजी की आरती कीजो

भीमा और भ्रामरी अंबे संग विराजे मां

रवि शशि कोटि-कोटि छवि साजे माँ

शाकंभर अंबाजी की आरती कीजो

सकल नर नारी अंबे आरती गावें माँ

इच्छा पूर्ण कीजो शाकंभर दर्शन पावे मां

शाकंभर अंबाजी की आरती कीजो

जो नर आरती पढ़हि पढ़ावे माँ

बसहु बैकुंठ शाकंभरी दर्शन पावें माँ

शाकंभर अंबाजी की आरती कीजो

जो नर आरती सुनहि सुनावें माँ

बसहु बैकुण्ठ परमपद पावें माँ

शाकुंभर अंबाजी की आरती कीजो

ऐसो अदभुत रूप हृदय धर लीजो

उत्तर भारत के अन्य देवी मंदिर[सम्पादन]

  • नौ देवी मंदिर गुफा जम्मू कश्मीर
  • माँ बाला सुन्दरी जी कठुआ जम्मू कश्मीर
  • माँ बाहवे वाली जम्मू कश्मीर
  • माँ बगलामुखी बनखंडी हिमाचल प्रदेश
  • माँ तारा देवी शिमला
  • हिडिम्बा देवी मनाली
    हिडिम्बा देवी मंदिर
  • शिकारी देवी हिमाचल प्रदेश
  • माँ भंगायनी सिरमौर
  • माँ बाला सुन्दरी त्रिलोकपुर मंदिर
माँ बाला सुन्दरी
  • माँ चण्डी देवी चण्डीगढ़
  • माँ जयंती देवी मोहाली
  • माँ शारदा देवी छोटा त्रिलोकपुर पंचकुला
  • माँ मंत्रा देवी आदिबद्री यमुनानगर हरियाणा
  • माँ रेणुका देवी सिरमौर
  • माँ डाट काली देहरादून
  • माँ मनसा/ चण्डी हरिद्वार
  • माँ माया देवी हरिद्वार
  • माँ धारी देवी उत्तराखण्ड
  • माँ सुरकण्डा देवी उत्तराखण्ड
  • माँ शीतला गुरूग्राम हरियाणा
  • माँ बाला सुन्दरी लाडवा कुरूक्षेत्र
    कुरूक्षेत्र के लाडवा कस्बे मे माँ बाला सुंदरी का दरबार
  • माँ हथीरा देवी कुरूक्षेत्र
    हथीरा माँ बाला सुंदरी जी
  • माँ भद्रकाली शक्तिपीठ कुरूक्षेत्र
  • प्राचीन माँ बाला सुन्दरी मंदिर पिहोवा
  • माता सीता मंदिर सीतामाई करनाल
  • माता मुलाना वाली मुलाना अंबाला
    अंबाला के कस्बे मुलाना मे माँ बाला सुंदरी जी
  • माँ झंडेवालान देवी दिल्ली
  • माँ कालका देवी दिल्ली
  • भीमेश्वरी देवी बेरी हरियाणा
  • माँ पूर्णागिरी उत्तराखण्ड
  • माँ बनभौरी हिसार
  • माँ पाथरी वाली पानीपत
    भवन मे माँ पाथरी वाली और माता मैदानण
  • माँ डाट काली उत्तराखण्ड
  • माँ त्रिपुरसुंदरी बाला सहारनपुर
    भगवती त्रिपुर बाला सुन्दरी जी का मूल स्थान देवबन्द सहारनपुर


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