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पराप्राकृतिक शिमला

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पराप्राकृतिक शिमला या “सिमला क्रीड” शिमला का एक विचित्र रूप है, अन्य रूप हैं ब्रितानी राज की “ग्रीष्म राजघानी” तथा मूल निवासियों की “छोटी विलायत”। सिमला या शिमला का पराप्राकृतिक रूप अंग्रेजी राज में बसते शहर के जन मानस को उजागर करता है जिसमें बाहरी लोगों के साथ आई पराप्राकृतिक सत्ताएं तथा उनसे जुड़ी आस्थाएं और अधिष्ठान इस वन आच्छादित भू-भाग पर नए पराप्राकृतिक क्षेत्र बनाते गए। सिमला की सबसे ऊँची चोटी जाखू पर पहले से ही एक हनुमान मंदिर, तथा तीन अन्य पहाड़ियों पर काली या देवियों के मंदिर थे। जैसे-जैसे यूरोप से आने वाले भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के लोग इन पहाड़ियों पर बसते गए, नए व पुराने पराप्राकृतिक तत्वों से जुड़े कथानकों ने “सिमला क्रीड” को जन्म दिया।


जाखू का हनुमान मंदिर

कोटगढ़ की “लिस्पेथ” का इसाई जगत से वापस स्थानीय देवी की शरण लेना; अलान अक्तावियन ह्यूम का पराप्राकृतिक तत्वों में रुझान; धर्मविज्ञान की राजनीति में पैठ से एनी बेसेन्ट और महात्मा गाँधी के बीच मतभेद, पराप्राकृतिक तत्वों के जन-मानस पर प्रभावों के कुछ उदाहरण हैं। इतिहासकारों का मानना है कि 1857 के ग़दर से पहले इन पराप्राकृतिक तत्वों के समूहों या क्षेत्रों में मेल-जोल होने लगा था, ग़दर के बाद इन में खाई पड़ गयी। और, परमानसिक अनुसंधान से मानवीय अनुभवों और वैज्ञानिकों के बीच आपसी सहायता बढ़ाना, विलिअम जेम्स का सपना था।


सिमला क्रीड का परिचय[सम्पादन]

साहित्यकार रुडयार्ड किपलिंग[१]

“सिमला क्रीड” का प्रयोग रुडयार्ड किपलिंग ने 1888 में एक कहानी “द सैन्डिंग ऑफ़ दाना दा” में किया। [२] इस कहानी के मूल में किपलिंग ने ओझा द्वारा खोजी एक ऐसी प्रथा का वर्णन किया है जो किसी व्यक्ति ने अपने विरोधी से बदला लेने के लिए की। किपलिंग लिखते हैं कि वैसे तो इस प्रथा, सैन्डिंग या प्रेषण, का अविष्कार आइसलैण्ड में हुआ, किन्तु सिमला या शिमला के एक वर्ग के लोग, इस क्षेत्र के मूल निवासी, भी इस में माहिर थे। हेराल्डसन लिखते हैं कि आइसलैण्ड में परमानसिक अनुसंधान के लिए फ्रेडेरिक मायेर्स की पुस्तक “ह्यूमन पर्सनालिटी एंड इट्स सर्वाइवल ऑफ़ बाडिली डेथ” की मुख्य भूमिका थी।[३] और आईसलैंड के एक माध्यम इंद्रिदी इन्द्रिदासन प्रसिद्ध थे, उनकी प्रेतवाहन बैठकों में प्रबुद्ध लोग आते थे। फ्रेडेरिक मायेर्स ने ही 1882 में परमानसिक अनुसंधान संस्था में परचित्तज्ञान या टेलीपैथी की परिभाषा दी।[४] विलिअम जेम्स ने फ्रेडेरिक मायेर्स को मानस के विज्ञान का प्रणेता बताया, जिसने उन पराप्राकृतिक विषयों को खोज के लिए चुना जिसे मनोवैज्ञानिकों ने गंद समझ फेंक दिया था।[५] कुछ मनोवैज्ञानिकों ने विलिअम जेम्स को पराप्राकृतिक अनुभवों की खोजों को प्रोत्साहन देने के लिए न्यू इंग्लैंड का ब्राह्मण भी कहा, और जेम्स के इस उदार मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रबल विरोध हुआ।[६]


सिमला के रिज का दृश्य

बिश्नुप्रिय घोष के अनुसार सिमला क्रीड रुडयार्ड किपलिंग का धर्मविज्ञान या थीयोसफ़ी की विचारधारा, जिसमें पूरब की संस्कृति का प्रभुत्व था, पर व्यंगात्मक अट्टहास है।[४] इस प्रकार के खुले मतभेद का वर्णन अंग्रेजी अफसर एडवर्ड बक तथा धर्मविज्ञान की प्रणेता ब्लावात्सकी के बीच भी मिलेगा।[७] और रुडयार्ड किपलिंग जब सिमला या शिमला आते तो एडवर्ड बक के घर ठहरते, दूसरी ओर, ब्लावात्सकी जब भी सिमला आती उसके मेज़बान ए॰ ओ॰ ह्यूम होते। जो रॉथने कासल में रहते थे, जहाँ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीव पड़ी।

“सिमला क्रीड” के अतिरिक्त, शिमला के दो अन्य रूप भी थे। पामेला कँवर ने अपनी पुस्तक में सिमला के इन दो रूपों के बारे में लिखा है।[८] अंग्रेज़ों के लिए सिमला ग्रीष्म राजधानी थी, ब्रितानी राज्य के राज-काज तथा गर्मी से निजात के अतिरिक्त, यहाँ अंग्रेज़ी संस्कृति का आभास भी होता था। स्थानीय निवासी, अंग्रेज़ों के राज-काज में सहायक देसी लोग, व्यापारी वर्ग, तथा अंग्रेज़ों की सुख-सुविधा तथा सेवा करने वाले सिमला को “छोटी विलायत” मानते। यह लोग अभिजात वर्ग में गिने जाते थे।

सिमला का लोअर बाज़ार

ई॰ जे॰ बक 1925 में लिखते हैं सिमला सर्वोच्च सरकार, पंजाब सरकार तथा सेना मुख्यालय की ग्रीष्म राजधानी थी।[७] लघु हिमालय में समुद्र तल से 7100 फुट की ऊँचाई, तथा 31° 6' उत्तर अक्षांश और 77° 13' देशांतर पर स्थित यह शहर एक पहाड़ी की छोटी-छोटी प्राचीरों में फैला था। इसके उपनगरों के परिचित नाम थे, बड़ा सिमला, छोटा सिमला, प्रासपेक्ट हिल, एलाज़ियम, बालूगंज, समर हिल, कैथू और जाखू। ब्रितानी शासन काल में, सिमला या शिमला शहर सिमला जनपद जिसमें इस क्षेत्र की सभी पहाड़ी रियासतें थीं, [९] से अलग ब्रितानी अधिपत्य का क्षेत्र था, जो बाद में ब्रितानी शासन काल की ग्रीष्म राजधानी बना।[१०] उस समय यह केवल 6 वर्ग मील का भू-भाग था, जिसकी कालका से सीधी दूरी 40 मील थी। इसके उत्तर-पूरब में कोटी; पूरब और दक्षिण में क्योंठल; पश्चिम और उत्तर में पटियाला रियासतें थीं। सिमला में देवताओं या मंदिरों के आस-पास स्थानीय लोगों की आस्थाओं के कारण शिकार पर प्रतिबन्ध था।

सिमला जनपद के 1904 के गज़ेतिअर में लिखा है कि सर्दी में दिसंबर से फरवरी तक दिन में औसत तापमान 10° फा॰ तथा बरफ और बारिश; मार्च से जून तक गरम मौसम, अधिकतम तापमान 94.4° फा॰ पाया गया; जुलाई से सितम्बर वर्षा ऋतु, जुलाई में औसत 17.67 इंच वर्षा; अक्टूबर और नवम्बर में शुष्क मौसम, ठंड की ओर अग्रसर होने वाला। गर्मी में सिमला के सुहाने मौसम के कारण इस शहर की जनसँख्या में बाहर से आने वाले लोगों में तिगुनी वृद्धि हो जाती थी।(पृष्ठ 20) [९]


जनसंख्या और मौसम[९]
वर्ष सर्दी/गर्मी
1891 सर्दी
  
13,034 व्यक्ति
1901 सर्दी
  
13,960 व्यक्ति
1898 गर्मी
  
34,501 व्यक्ति
1904 गर्मी
  
45,587 व्यक्ति
सिमला (शिमला) की जनसंख्या सर्दी और गर्मी


संक्षेप में “सिमला क्रीड” या “सिमला पंथ” केवल ओझा से जुड़े चमत्कारों, परमानसिक या परामनोविज्ञान अनुसंधान से जुड़े शोधकर्ता तथा उसमें विश्वास करने वालों, और धर्मविज्ञान की विचारधारा के प्रणेताओं, तक सीमित नहीं था, इस की विभिन्न क्षेत्रों में पैठ थी, जिस का वर्णन निम्न भागों में है।


शिमला की पुरानी पराप्राकृतिक सत्ताएं[सम्पादन]

कुछ इतिहासकारों एवम् समाज शास्त्रियों के अनुसार विविध पराप्राकृतिक सत्ताएं लोक मानस ही नहीं, राजनैतिक संस्थानों को भी प्रभावित करती आयीं हैं।[११][१२] पराप्राकृतिक सत्ताएं सिमला के स्थानीय निवासियों के लिए, जो क्योंठल रियासत का हिस्सा था, नयी बात नहीं थी। सिमला का प्रमुख भाग क्योंठल रियासत का था, परन्तु कुछ हिस्से कोटी तथा पटियाला से भी लिए गए थे।[७] क्योंठल रियासत की राजधानी जुन्गा थी, और “जुन्गा” इस रियासत के देवता, तथा “तारा” या “तरब” कुल देवी थी।(पृष्ठ 357-365) [१३]

इन बड़े देवी-देवताओं के अतिरिक्त अनेक छोट-छोटे देओ भी थे, जो किसी न किसी गाँव, परगने या कुलशाखा से जुड़े थे। रोज़ ने इन सब छोटी-छोटी पराप्राकृतिक सत्ताओं की जानकारी “जुन्गा पंथ” के अंतर्गत दी है,(पृष्ठ 444-450) [१३] जिसका उद्धरण अन्य स्रोतों में भी है।[१४][१५] “जुन्गा पंथ” में विशेषकर श्रेणीबद्ध समाज पर बल है। मान्यता थी कि क्योंठल रियासत के कुल देवता “जुन्गा” के 22 टिक्का या राजकुमार थे, जो वास्तव में उस क्षेत्र के देओ या पराप्राकृतिक सत्ताएं थीं। और देवता “जुन्गा” इन्हें राजा और उसकी रियासत के हित में कई तरह से नियंत्रित करता। इन 22 टिक्कों या पराप्राकृतिक सत्ताओं का संक्षेप तालिका-१ में दिया गया है।

पवित्र देवदार के वृक्षों के बीच एक पुराना मंदिर
तालिका-१ सिमला (शिमला) में जुन्गा देवता (क्योंठल रियासत) के टिक्का या राजकुमार[१३][१५]
क्रम संख्या देवता उत्पत्ति पहचान
01 कलौर पुनर्जीवित ब्राह्मण चरेज (गाँव)
02 मानूणी महादेव मानुण (धार)
03 कनेटी पांडव दगौण(गाँव)
04 देओ चंद वज़ीर खणगो (कुलशाखा)
05 शनेटी देवता शैंटी (कुलशाखा)
06 महांफा जुन्गा देवता छिब्बर (कुलशाखा)
07 तीरू पुनर्जीवित ब्राह्मण जाटिक (कुलशाखा)
08 खटेश्वर जुन्गा देवता कोटी (गाँव)
09 चदेई देवता चड़ोल (गाँव)
10 शनेई और जौ जुन्गा देवता कोटी (गाँव)
11 धूड़ देवता जैई (परगना)
12 कुल्थी देवता क्वालथ (गाँव)
13 धानू वायु नेओग (गाँव)
14 डूम पुनर्जीवित व्यक्ति कठेण (गाँव)
15 रैआ देवता पराली (परगना)
16 चानण देवता डोली (कुलशाखा)
17 गौण जुन्गा देवता रावल (कुलशाखा)
18 बिजू बिजट जुब्बल (रियासत)
19 कूशेटी देओ -- --
20 बाल देओ -- --
21 रावल देओ -- --
22 क्वाली देओ -- --


पराप्राकृतिक तत्वों पर अनुसंधान[सम्पादन]

चौदह सौ पृष्ठों, बड़े एवम् निकट छपाई वाले, की प्रेतात्मा या आकृति आभास की घटनाओं पर लिखी गुरने, मायर्स तथा पोडोमोर की पुस्तक[१६] के बारे में विलियम जेम्स लिखते हैं, यह प्रयास हमारे किसी भी वैज्ञानिक प्रयास से कम नहीं है।[१७] प्रेतात्माओं से जुड़ी घटनाओं को एकत्र करने, में जो सूक्ष्मतम सावधानी इन लोगों के काम में दिखाई देती है, वह इन्हें प्राकृतिक समूह की घटना के समीप लाती है। दूसरी तरफ, उन लोगों के लिए जो मानव के इन अनुभवों को कोई महत्त्व नहीं देते, नकार देना भी उतना ही आसान है। क्योंकि जिस विधि, और अथक प्रयास का इस काम में प्रयोग हुआ, उसे जाने बिना, इस काम को समझना आसान नहीं। इन घटनाओं के विश्लेषण के लिए गुरने तथा उनके साथियों ने मनःपर्याय का सिद्धांत सुझाया। पराप्राकृतिक तत्वों पर हो रहे इस अनुसंधान का सिमला क्रीड से संबंध निम्न दो अनुभागों किया गया है। पहले पराप्राकृतिक सिमला के सन्दर्भ में पराप्राकृतिक अनुसंधान का परिचय है।

परमानसिक अनुसंधान संस्था[सम्पादन]

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक विलिअम जेम्स

यह महसूस किया गया कि एक प्रकार की घटनाओं और अनुभवों का एक विशाल समूह है जो सम्मोह, परमानसिक तथा अध्यात्म के अंतर्गत आते हैं, उनकी संयोजित तथा व्यवस्थित खोज होनी चाहिए।[१८] इसे ध्यान में रखते हुए 20 फरवरी 1882 को लंदन में परमानसिक अनुसंधान संस्था की स्थापना हुई। आरम्भ में परमानसिक अनुसंधान संस्था के छः उद्देश्यों को ध्यान में रखकर छः समितियां बनाई गयीं, जिन्हें इन खोजों का दायित्व सौंपा गया: परचितज्ञान; सम्मोह; पराशक्ति; मृत आकृति आभास तथा भुतहे मकान; अध्यात्मिक स्थल; और, इनसे जुड़े एतिहासिक स्रोंतों का अध्ययन। यह संस्था आज भी कार्यरत है।[१९]

परमानसिक अनुसंधान संस्था ने ब्लावात्सकी द्वारा सिमला तथा अन्य जगह धर्मविज्ञान संस्था के तत्वाधान में की जाने वाली पराप्राकृतिक खोजों का जायज़ा लिया, जो एक विस्तृत रिपोर्ट के रूप में छपा है।[२०] यद्यपि परमानसिक अनुसंधान संस्था को सभी मनोवैज्ञानिकों का साथ नहीं मिला, [२१] मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स[२२] ने 1896 में पराप्राकृतिक विषयों पर विश्व भर में हो रही खोजों पर एक विश्लेषण प्रस्तुत किया, जिसका सारांश प्रस्तुत है।[२३]

सन 1896 में अपने अध्यक्षीय भाषण के आरंभ में विलियम जेम्स ने कहा, इस उच्च गणराज्य (परमानसिक अनुसंधान) में इंगलैंड और अमेरिका सांकेतिक रूप से एक हो गए। [२३] और उन्होंने चेताया कि इससे बड़ी वैज्ञानिक भूल कौनसी होगी कि हम मानवीय अनुभवों के एक बड़े भंडार को बिना परखे नकार दें। परमानसिक अनुसंधान संस्था का पहला योगदान, विलियम जेम्स ने कहा, मानवीय अनुभवों और वैज्ञानिकों के बीच सहयोग बढ़ाना है। जहाँ तक इस क्षेत्र में हमारी खोज की उपलब्धियां है, यह सही है कि कुछ क्षेत्रों जैसे सम्मोह तथा मनःपर्यय, में आशातीत सफलता नहीं मिली, परन्तु कुछ घटनाओं, जैसे, दिव्यदृष्टि, परचित प्रभाव, माध्य-व्यक्ति परीक्षा, आदि की विधियाँ परिष्कृत हुई हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि कुछ वैज्ञानिक कार्यों, जैसे, मृत आकृति-आभास के क्षेत्र में सर्वेक्षण को और विस्तार देना; कुछ माध्य व्यक्तियों, जैसे सुश्री-X तथा सुश्री पाईपर से मिली जानकारी, को आगे बढ़ाना होगा। किन्तु हमारे दिमाग में वैज्ञानिक सोच ज़रूरी है, जो वास्तव में किसी विधि का निःसंग प्रयोग है। न इसमें किसी परिणाम की अपेक्षा है, न किसी क्षेत्र से दुराव, जैसे, भूतों से जुड़े अनुभव। भले ही विज्ञान कहता रहे कि भुतहे मकान से जुड़े परिवर्तनों का कोई अस्तित्व नहीं है, किन्तु इस तरह के कथानक पूरी दुनिया में बिखरे हैं, और हमारे पास इनकी कोई संतोषजनक व्याख्या नहीं है।

विलियम जेम्स ने कहा, हमें काफी समय तक मौसम विभाग की तरह काम करना होगा, बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचे, अधिक से अधिक अनुभव एकत्र करना, और जहाँ तक हो सके प्राकृतिक श्रेणी के।[२३] विज्ञान की यांत्रिक सोच को जीवन के व्यक्तिगत अनुभवों से जोड़ना होगा। तार्किक के साथ निर्बाध प्रकृतिवाद को भी स्थान देना होगा, तभी उन अनुभवों को विज्ञान में स्थान मिलेगा जो अभी इसके दायरे से बाहर हैं। यह अनुभव अनियंत्रित, विविक्त, तथा चंचल प्रकृति के हैं। अंत में विलियम जेम्स ने कहा कि यदि हम अपने अड़ियल विश्वास को नहीं छोड़ते शायद आने वाली पीढ़ियाँ हमारे विज्ञान को पुराना कहने से नहीं हिचकेगी।

अल्टा पाईपर ने विख्यात पराप्राकृतिक माध्यम सुश्री पाईपर की जीवनी में लिखा है, प्रथम विश्वयुद्ध के बाद परमानसिक अनुसंधान में कुलीन वर्ग की रुचि में अप्रत्याशित वृद्धि हुई, यद्यपि लोगों में इस रूझान के कारण भिन्न-भिन्न होंगे।[२४] क्या कारण था, कौनसे पराप्राकृतिक तत्व इन अनुभवों के पीछे रहे होंगे, इसमें भी अलग-अलग मत संभव है। किन्तु यह एक आशा की किरण थी जो अत्यंत निराशा के वातावरण में उपजी।


सिमला में पराप्राकृतिक खोजों पर व्याख्यान[सम्पादन]

सिमला का कम्बर्मेयेर ब्रिज

सन 1910, सिमला के वाई॰ एम॰ सि॰ ए॰ में, वाईब्रेच्त ने, जो एक पादरी थे, इंग्लैंड और अन्य देशों में हो रहे परमानसिक अनुसंधान पर, जिसका वर्णन पिछले अनुभाग में किया गया, विस्तार से प्रकाश डाला।[२५] उन्होंने कहा कि परमानसिक अनुसंधान मानव मन के एक विशेष वर्ग के अनुभवों को समझने का प्रयास है, जो व्यक्ति की सामान्य चेतनावस्था के बाहर है, तथा सामान्य शरीर की अवस्था से दूर। भले ही यह मानसिक अनुभव अभी वैज्ञानिक सिद्धांतों की पहुँच के बाहर हैं, किन्तु खोजकर्ताओं का विश्वास है कि वैज्ञानिक विधियों द्वारा इस क्षेत्र को समझने का प्रयास आवश्यक है। उसने कहा कि शरीर के तंत्रिका तंत्र के दो मुख्य भाग हैं, एक हमारे एच्छिक नियंत्रण में है, और दूसरा हमारे एच्छिक नियंत्रण के बाहर; इसी प्रकार मन के भी दो मुख्य भाग हैं, चेतन तथा अवचेतन।

वाईब्रेच्त ने कहा, मानव का धर्म में विश्वास अनेक प्रकार से चेतन मन तथा एच्छिक तंत्रिका तंत्र के द्वारा उसके जीवन के अनेक क्षेत्रों को प्रभावित करता है।[२५] किन्तु अनेक प्रश्न जिन्हें मानव साधारणतया धर्म के संदर्भ में ही देखता आया है, परमानसिक अनुसंधान का इन प्रश्नों को विज्ञान के क्षेत्र में लाने का प्रयास है। जैसे, क्या हम मृत्यु के बाद भी किसी रूप में जीवित रहते हैं। इस प्रश्न को सभी धर्मों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से देखने का प्रयास किया है। देहांतर या पुनर्जन्म से जुड़े अनुभवों को अध्ययनों द्वारा परखा जा रहा था। इस संबंध में वाईब्रेच्त ने इंग्लैंड की परमानसिक अनुसंधान संस्था के कार्यों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया। और, देहांतर के अतिरिक्त, स्वतःलेखन, सम्मोह, परचित्तज्ञान, भूतावेश, आदि, पर हुई खोजों की इसाई धर्म के सन्दर्भ में व्याख्या की। उन्होंने कहा कि भूतावेश में एक व्यक्ति में, किसी अन्य व्यक्तित्व का आभास होता है, भारत में उन्हें इस वर्ग में कोई अच्छी तरह से एकत्र की गई जानकारी नहीं मिली, जबकि आधुनिक मनोविज्ञान के जनक विलियम जेम्स ने स्वयं इस में शोध कार्य किया।

सिमला में नए पराप्राकृतिक तत्वों का आगमन[सम्पादन]

क्रिस्ट चर्च

सन 1817 में गेरार्ड के अनुसार सिमला एक छोटा सा गाँव था, और बक का अनुमान है कि यह गाँव रिप्पन हस्पताल तथा मस्जिद के बीच रहा होगा।[७] कैप्टेन कैनेडी पहाड़ी रियासतों के मुखिया नियुक्त किये गए, और उन्होंने सिमला की पहाड़ी पर 1819 में पहली ईमारत बनायी। लगभग 1824 से अंग्रेज़ों को सिमला की पहाड़ी पर मकान बनाने के लिए जगह मिलनी शुरू हो गई थी। क्योंकि यह ज़मीन क्योंठल तथा अन्य पहाड़ी रियासतों से ली गयी थी, अतः स्थानीय लोगों की पराप्राकृतिक आस्थाओं के कारण दो प्रतिबंध थे, एक तो गौवध नहीं होना चाहिए, दूसरे पेड़ों का कटान न हो।

सिमला के इसाई धर्माव्लम्बियों के लिए, लार्ड बेंटिंक की पत्नी ने 1835 के आस-पास, सार्वजनिक उपासना स्थल का प्रबंध किया। इसके बाद 1884 के आस-पास लार्ड रिप्पन ने पीटर हाफ़ में अपने निवास की ऊपरी मंजिल को पूजास्थल में बदला। जब वायसरीगल लाज बना तो उसके गेट के पास पहाड़ी पर एक पूजास्थल भी बना। सन 1884 क्रिस्ट चर्च की आधारशीला रखी गयी, और यह अनुष्ठान कलकत्ता के बिशप डेनीयल विल्सन ने, सर्वोच्च सेनाध्यक्ष और अन्य गणमान्य लोगों की उपस्थिति में किया।[७] इसके बाद अंग्रेजी समुदाय के लोग दान देकर इस गिरजाघर को बढ़ाते गए। 1901 में जब सिमला की जनसँख्या 40,000 हो गयी थी, गिरजाघर में उपासना करने वाले यूरोप तथा अन्य जगह के इसाई 1950 हो गए थे, इनके अतिरिक्त 120 स्थानीय इसाई भी थे। टी॰ वाऊघम सरकार द्वारा अधिकृत पहले धर्माधिकारी थे।

संत माइकल और जोज़फ़ चर्च

दूसरा बड़ा इसाई धार्मिक स्थल रोम के केथोलिक सम्प्रदाय से जुड़ा था, जिसमें सबसे अधिक योगदान लार्ड रिपन का रहा, यह सिमला के लोअर बाज़ार के पश्चिमी छोर पर था। इसके निर्माण के लिए जब धन इकठ्ठा किया जा रहा था तो एक नाटक का मंचन हुआ, जिसमें रुडयार्ड किपलिंग ने भी हिस्सा लिया।(पृष्ठ 186) [७] आगरा और लाहौर के बिशप क्षेत्रों को काटकर सिमला का नया बिशप क्षेत्र बनाया गया, जिस के पहले उच्च धर्माधिकारी 1911 में ई॰ जे॰ केनीडी बनाये गए। इसे संत माइकल और जोज़फ़ चर्च के नाम से जाना जाता था।

एक अन्य गिरजाघर स्काटलैंड के निवासियों ने बनाया।[७] इसे संत एंड्रू या स्काट्स किर्क के नाम से भी जाना जाता था, और मुख्य डाकघर के ऊपर पहाड़ी पर थी। वैसे तो 1869 से इसमें लोगों ने आना शुरू कर दिया था, किन्तु 1910 में जेम्स ब्लैक की मुख्य धर्माधिकारी के रूप में न्युक्ति हुई। और 1905 में इसके साथ एक अन्य पूजास्थल, सिमला यूनियन चर्च, का विलय हो गया। 1885 में संत थामस नाम का एक गिरजाघर स्थानीय निवासियों के लिए लोअर बाज़ार के बीच में भी बनाया गया था। इनके अतिरिक्त, कुछ शिक्षण संस्थानों से जुड़े धार्मिक स्थल भी थे, जैसे जीज़स एंड मेरी का इसाई भिक्षुणी-विहार। इसी प्रकार बालकों के बिशप काटन स्कूल के साथ 1908 में बना पवित्र ट्रिनिटी पूजास्थल है।

उपरोक्त पूजास्थल या पराप्राकृतिक शक्तियों के केंद्र जो अंग्रेज़ों के शासन काल में सिमला में स्थापित किये गए, तथा कुछ अन्य धर्मावलम्बियों की आस्था के केन्द्र जिनका विस्तार हुआ, तालिका-२ में दिए गए हैं।

तालिका-२ सिमला (शिमला) में अंग्रेज़ों के समय के पूजास्थल या पराप्राकृतिक सत्ताएं[७][१०]
क्रम संख्या पूजास्थल अवस्थान अन्य जानकारी
01 क्रिस्ट चर्च रिज नव गोथिक शैली; आधारशीला 1844; सबसे प्रमुख स्थान।
02 संत माइकेल और जोसेफ़ चर्च लोअर बाज़ार कैथलिक सम्प्रदाय; 1885 में।
03 संत एंड्रीऊ चर्च मुख्य डाकघर स्काट्लैंड के निवासियों ने 1869 में।
04 क़ुतुब मस्जिद लोअर बाज़ार लार्ड बेंटिंक काल; गुलाब-उद-दिन ने बनावाई।
05 कश्मीरी मस्जिद लोअर बाज़ार 1846; खुदाबख्श की बेटियों ने बनवाई।
06 सौदागर मस्जिद लोअर बाज़ार सबसे बड़ी मस्जिद।
07 हनुमान मंदिर जाखू 8300 फुट की उंचाई पर; यहाँ के बंदर प्रसिद्ध हैं।
08 काली तीन मंदिर ग्रैंड होटल; प्रास्पेक्ट हिल; समर हिल।
09 तारा देवी तारा देवी पहाड़ी क्योंठल की कुलदेवी; कलि का रूप।
10 सिप्पि मशोबरा कोटी का कुल देवता; शिव का रूप; सिप्पि मेला।


पराप्राकृतिक तत्वों में द्वंद्व[सम्पादन]

कालीबाड़ी मंदिर

स्थानीय लोगों की पराप्राकृतिक आस्थाओं से अंग्रेजी जीवन शैली का टकराव शिमला शहर के विकास के साथ-साथ दिखाई देने लगा था। सबसे विचित्र कहानी एक काली के मंदिर की है जिसका वर्णन बक ने विस्तार में किया है, जो जाखू पहाड़ी के हनुमान मंदिर मार्ग पर था।[७] एक अंग्रेज़ ने इस मंदिर में रात को पड़ाव डाला, उसने मां की मूर्ती को फेंक दिया और मंदिर को रसोई बनाया। रात को उसे कुछ अजीब दिखाई दिया और वह डर गया, उसने मां की मूर्ती को मंदिर में रखवा दिया। जब यह जगह राथने कासल को दी गयी, तो उसी अंग्रेज़ ने मां की मूर्ती को 1835 में दूसरी जगह स्थापित करवाया, यह स्थान क्रिस्ट चर्च के पास था। जब रिज पर क्रिस्ट चर्च का विस्तार किया गया, मां को सिमला के बंगाली समुदाय ने ग्रैंड होटल के पास की पहाड़ी पर स्थापित किया, जहाँ यह आज भी कालीबाड़ी के रूप में है।[१०] क़ुतुब मस्जिद को भी रिज से हटाकर लोअर बाज़ार ले जाया गया। जिससे रिज पर केवल क्रिस्ट चर्च रह गयी, बाकी सब दुकाने आदि भी हटा दी गयी।

चार्ल्स डी रसेट नाम का एक नौजवान इसाई हिन्दू साधू बन गया, बक ने उसके बारे में अनेक स्रोतों से विस्तार में लिखा है।[७] 70 वर्श की आयु में 1921-22 के दौरान उसे बाबा मस्त राम के नाम से जाना जाता था। जाखू के हनुमान मंदिर के महंत की मृत्यु के बाद, मस्त राम की मंदिर के महंत पर नियुक्ति हुई, और इस प्रकार एक यूरोप मूल का व्यक्ति हिन्दुओं के मंदिर में उच्च पुरोहित के पद पर आसीन हुआ।[२६]

कैप्टेन मुंडी ने 1828 के अपने संस्मरणों में लिखा कि सिमला के जाखू के चारों ओर सड़क बनाते समय मजदूरों को दो भेडें दावत के लिए दी गयी।[७] उन स्थानीय लोगों ने पहले भेड़ों को देवता को अर्पित किया, और देवता द्वारा स्वीकार करने के बाद उन भेड़ों को दावत के लिए काटा गया। इस प्रकार के कई व्यक्तित्वों तथा घटनाओं के संदर्भ में बक ने अपनी पुस्तक में लिखा कि सिमला के आस-पास गूह्य तंत्र के अध्ययन के लिए बहुत कुछ था।

महासू धार

बक ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि सिमला से लग-भाग 6 मील दूर मशोबरा गाँव है जहाँ अंग्रेज़ों ने एकांत में विश्राम के लिए कोठियां बनायी है। इन मेंसे एक 1850 में “द रीट्रीट” के नाम से जानि जाती थी।[७] “द रीट्रीट” जिस पहाड़ी पर है, उसे महासू धार के नाम से जाना जाता है, जो काफी दूर तक चली गयी है। महासू इस क्षेत्र के अराध्य देव भी है, देखें महासू उपत्यका। बक लिखते हैं पहाड़ी लोगों का विशवास है कि बड़े और खूबसूरत वृक्षों में देवताओं का वास होता है। इसलिए कोई उन्हें नहीं काटता। जब अंग्रेज़ों ने “द रीट्रीट” के लिए कोटी रियासत से ज़मीन ली, तो राज ने राजा ने कुछ शर्तें रखीं—इस पहाड़ी पर वृक्ष नहीं कटेंगे; गोवध नहीं होगा; तथा महासू की पहाड़ी पर आने-जाने के लिए रास्ता रहेगा।

रुडयार्ड किपलिंग की एक कहानी की मुख्य पात्र “लिस्पेथ” सिमला के कोटगढ़ में पराप्राकृतिक विश्वासों एवम् वास्तविक जीवन के इसाई समाजवाद के दावों को मानव की मूलभूत एकता के सामने नतमस्तक करती लगती है।[२७] जब “लिस्पेथ” इसाई जगत से मोहभंग हो गया, तो वह पुनः अपनी स्थानीय देवी की शरण में चली गई।

यह विरोधाभास महात्मा गाँधी के अनुयायों में भी देखा गया।[२८][२९] एक ओर, महात्मा गाँधी छूआ-छूत के विरोधी थे, तो दूसरी ओर, उनके अनुयायों ने ऐनी बेसेंट को अछूत वर्ग में डाल दिया।

धर्मविज्ञान या थीयोसफ़ी[सम्पादन]

धर्मविज्ञान की प्रणेता मदाम हेलेना पी.ब्लावात्सकी

धर्मविज्ञान की प्रणेता मदाम हेलेना पी.ब्लावात्सकी और उनके शिष्य आल्कोट का मानना था कि पूरब का ज्ञान और शिक्षा पश्चिम के विज्ञान से कहीं ऊपर पहुँच चुके थे।[७] गर्मियों में जब ब्लावात्सकी सिमला आती तो वह राथने कासल में ह्यूम की मेहमान होती। यहाँ से ब्लावात्सकी को सूक्ष्म देही “कूट होमी” से संपर्क करने में सुविधा होती, जिसका निवास जाखू की पहाड़ी से दूर हिमालय के ऊंचे पठारों में था।

ब्लावात्सकी लिखती है कि 1880 में भारत के लोग अमेरिका तथा यूरोप में मूर्तीकरण पर हो रही खोजों से अनभिज्ञ थे।[३०] इन खोजों में देखा गया कि कुछ विशेष अवस्थाओं में किसी व्यक्ति में मृतात्मा प्रकट होती है। वह आगे लिखती है कि हिन्दुओं और बौद्धों में मान्यता है कि विचार और व्यवहार या कर्म दोनों भौतिक हैं, और मृत्यु के बाद भी जीवित रहते हैं। किन्तु यह रूप सामान्य नहीं है, अच्छे और बूरे कर्मों का प्रभाव जीवात्मा पर पड़ता है, और जब तक जीवात्मा की इन प्रभावों से मुक्ति नहीं हो जाती तब तक मोक्ष (हिन्दुओं) या निर्वाण (बौद्धों में) की प्राप्ती नहीं होती। मृत व्यक्ति की जीवात्मा के स्वरुप के बारे में अनेक प्रकार की कल्पनाएँ हैं।

ह्यूम द्वारा आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, 1885

जब सिमला में ब्लावात्सकी ने पराप्राकृतिक शक्तियों से जुड़ी गतिविधियाँ आरम्भ की, एक ओर उस में पढ़े-लिखे लोगों की रुचि जागी, तो दूसरी और इसे गूह्य तंत्र की संज्ञा देकर आलोचना भी हुई।[३१] इसी संदर्भ में ब्लावात्सकी ने एक लेख में “सिमला गूह्य तंत्र” के बचाव के पक्ष में लिखा कि आलोचना करने वालों के दो रूप हैं, एक व्यक्तिगत और दूसरा आलोचक का, जो एक दूसरे से अलग हैं। व्यक्तिगत रूप में वही व्यक्ति इसाई धर्म से जुड़े देवी-देवताओं, भूत-प्रेतों तथा अन्य पराप्राकृतिक विश्वासों को जीवन में महत्त्व देता है, जब वही बातें दूसरे धर्मों के लोग करते हैं, तब वह व्यक्ति आलोचक और वैज्ञानिक तर्कों का आश्रय लेता है। इस लेख में उन्होंने कहा कि ईसा मसीह की मां के पराप्राकृतिक व्यवहार में विश्वास दिखाई देता है, किन्तु किसी अन्य व्यक्ति को उसकी मां की मृतात्मा का माध्यम में आभास होता है, तो उसे अविश्वास की श्रेणी में डाला जाता है। उन्होंने कहा कि वैज्ञानिक भौतिक और मनोवैज्ञानिक कारकों के आपसी संबंधों को समझने का प्रयास कर रहे हैं। धर्मविज्ञान की भी यही चेष्ठा है, हमें जल्दी में निर्णय लेने से बचाना होगा, तभी धर्मों में आपसी मेल-जोल होगा। अतः सिमला का राथने कासल परमानसिक कार्यों के लिए जाना जाने लगा। हूम तथा पायोनियर अखबार के संपादक इन गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे।[७] किन्तु कुछ लोग, जैसे, ई॰ बक, अंग्रेजी सरकार के कृषि विभाग के प्रमुख, ब्लावात्सकी के पराप्राकृतिक विश्वासों से प्रभावित नहीं हुए। ह्यूम ने धर्म विज्ञान के प्रभाव में आने के बाद पक्षियों को अध्ययन के लिए पकड़ना और उनको संग्रहालय में रखना छोड़ दिया, तथा जो पक्षियों के नमूने उनके व्यक्तिगत संग्रहालय में थे उन्हें इंग्लैंड के प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय को दान में दे दिया। इसके बाद वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रसार में लग गए। ब्लावात्सकी की उत्तराधिकारी एनी बेसेंट ने धर्म विज्ञान के अंतर्गत पराप्राकृतिक तत्वों की खोज तथा कांग्रेस की गतिविधियों को और अधिक विस्तार दिया, जिसका वर्णन क्रमशः भाग 7 तथा 8 में किया गया है।

राजनीति में पराप्राकृतिक तत्व[सम्पादन]

सिमला में महात्मा गाँधी

एलेन आक्तावियो ह्यूम, अंग्रेजी राज में सरकार के सेक्रेटरी थे। उन्होंने 1867 के कुछ वर्ष बाद, राथने कासल खरीदा, जो सिमला में क्रिस्ट चर्च के ठीक ऊपर जाखू की पहाड़ी पर है।[७][३२] ह्यूम ने राथने कासल का वायसराय के भावी निवास के रूप में बदलाव किया, पर वह नहीं हुआ। ह्यूम प्रशासनिक सेवा से थे, इसके अतिरिक्त, विज्ञान के क्षेत्र में पक्षी विशेषज्ञ के रूप में उनका महत्वपूर्ण योगदान था।[३३] ह्यूम और भी कई सामाजिक गतिविधियों में अग्रणी थे, जैसे, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना तथा धर्मविज्ञान एवं पराप्राकृतिक खोज में रुचि।


ए॰ ओ॰ ह्यूम ने ब्लावात्सकी के संपर्क में आने से सिमला के राथने कासल में जिन पराप्राकृतिक जिज्ञासाओं को स्थान दिया, तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीव रखी, ऐनी बेसेंट ने इन दोनों कार्यक्रमों को आगे बढ़ाया। [२८] ऐनी बेसेंट 1889 में धर्म विज्ञान में आने के बाद, 1907 में धर्म विज्ञान संस्था, अड्यार, मद्रास की अध्यक्ष चुनी गयी, और यहीं से उनके भारतीय राजनीतिक जीवन का आरंभ हुआ। 1917 में कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्ष चुनी गयीं। किन्तु शीघ्र ही महात्मा गाँधी और एनी बेसेन्ट की सोच और राष्ट्रीय कार्यक्रमों में मतभेद हो गए। सबसे पहले गाँधी जी को धर्मविज्ञान के प्रतीकात्मक महात्माओं की सत्ता स्वीकार नहीं थी, जबकि बेसेंट अपने आप को धर्मविज्ञान के महात्माओं के अनुरूप ढाल रही थी। दूसरा मतभेद पराप्राकृतिक संदर्भ में नहीं, अपितु विशुद्ध राजनीतिक था, जहाँ गाँधी ने स्वराज की मांग को प्रमुखता से रखा, वहीँ दूसरी ओर बेसेंट गृहराज का प्रस्ताव रख रही थी।

एनी बेसेन्ट ने भारत में ग्राम पंचायत को परंपरागत तथा राज्य की प्राकृतिक इकाई माना। इसके लिए उन्होंने प्राच्य विद्वानों, इतिहासकारों तथा दिव्य-दृष्टि अन्वेषण से तथ्य इकट्ठे किये। बेसेंट का समाज के श्रेणीबद्ध ढाँचे में विश्वास था। यहाँ तक की देव-समाज भी श्रेणीबद्ध है। तालिका-१ में जुन्गा देवता के अधीन २२ देवी-देवताओं में भी यह देखा गया।[१५] पराप्राकृतिक सत्ताओं तथा राजनीति के बारे में बेसेंट से मिलते-जुलते विचार सेमुअल इवान स्टोक्स ने भी महात्मा गाँधी के सामने रखे थे, जिनकी कार्यस्थली सिमला और आस-पास का क्षेत्र, मुख्यतः कोटगढ़, था।[८][३४]

साहित्य में पराप्राकृतिक तत्व[सम्पादन]

एनी बेसेन्ट

बिश्नुप्रिया घोष के अनुसार 1880 के आस-पास रुडयार्ड किपलिंग का परमानसिक अनुसंधान संस्था से गहरा रिश्ता था, और उनका प्राथमिक साहित्यिक कार्य भी एक परमानसिक अन्वेषक ने ही ब्रितानी समुदाय के सामने रखा।[४] रुडयार्ड किपलिंग की छोटी बहन एलिस किपलिंग एक परमानसिक माध्यम थी। घोष के अनुसार कुलीन वर्ग में परचित्तज्ञान जहाँ एक मानस का दूसरे मानस से मिलन था, वहीँ कथा-साहित्य के क्षेत्र में गूह्यतंत्र ब्रितानी अधिग्रहित समुदायों के दर्शन, धर्म, विज्ञान तथा साहित्य को आत्मसात करना था। इसका उदाहरण किपलिंग की कहानियों के संग्रह “प्लेन टेल्स फ्राम द हिल्स” है।[२७] घोष ने साहित्य में परचित्तज्ञान के औपनिवेशिक संदर्भ से जुड़ी दो कहानियों का विस्तार में विश्लेषण किया है, “द सेंडिंग ऑफ़ दाना द” तथा “द फाईनेस्ट स्टोरी इन द वर्ल्ड”। पहली प्रेषण, एक पराप्राकृतिक विश्वास से जुड़ी है, तथा धर्मविज्ञान पर अट्टहास भी। दूसरी कहानी में मृतात्मा या देवता के शक्तिपात का प्रभाव, तथा मनोविश्लेषण का संदर्भ है।

ई॰ जे॰ बक लिखते हैं, 1871 में एक आदमी सिमला पहुँचा जिसकी छवि इस शहर के साथ हमेशा जुड़ी रहेगी, वह ए॰ एम॰ जैकब था।[७] जैकब को तीन साहित्यकारों की पुस्तकों में जगह मिली, मेरियन क्राफर्ड का ‘मिस्टर आइजेक’; किपलिंग का ‘लर्गन साहिब’; तथा डेविस का ‘इमेनुअल’। इस व्यक्ति को जो दिखाई देता वह दूसरे नहीं देख सकते; जो आवाजें यह सुन सकता, उसे अन्य नहीं सुन सकते थे। जैकब कई भाषाओं का जानकार तथा कौतुक वस्तुओं का व्यापारी था।[३५]

राल्फ शर्ले ने ओकल्ट रिव्यू के सम्पादकीय में लिखा कि ७१ वर्ष का गुह्य विद्या में पारंगत जैकब समय-समय पर लोगों को अपने कारनामों से चकित पर देता था।[३६] उसका विश्वास था कि ‘राम लाल’ की मृतात्मा उसकी सहायता करती है। उसकी प्रेतवाहन बैठक में सिमला के उच्च पदों पर आसीन लोग बैठते थे, जिसमें एक बार सेना के कुछ अधिकारी भी थे। सेना के इन अधिकारियों के सामने जैकब ने युद्ध के दृश्यों को दीवार पर दिखाकर चकित कर दिया।

ब्लावात्सकी की उत्तराधिकारी एनी बेसेन्ट और उनके साथियों ने धर्मविज्ञान द्वारा पराप्राकृतिक सत्ताओं का साहित्य के क्षेत्र में प्रसार किया। इसका एक उदहारण अमृता प्रीतम के शब्दों में इस प्रकार है:

निर्वाणिक चेतना की बात करते हुए एनी बीसैंट, कायनाती तहों में उतर जाती हैं—कि आसमानी शक्ति के कण कैसे तीक्षण बवंडर बनाते हैं, और कैसे खला में कहीं-कहीं छोटे-छोटे गढ़े से बन जाते हैं और जो कण उनमें पड़ जाते हैं वाही सघन हो कर भारी हो कर निचली सतह की ओर उतरते हैं। पर उन कणों में निर्वाणिक चेतना होती है कि हम किस शक्ति से बिछड़े हुए कण हैं।

इस तरह एनी बेसेन्ट सात तहों की बात करती है।[३८] धर्मविज्ञान से जुड़े, किंग्सलैंड ने पूरब और पश्चिम की पराप्राकृतिक सत्ताओं और उनके आपसी संबंधों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया।[३९] बेसेंट के सहयोगी, भारत रत्न भगवान दास ने कई पुस्तकों, जैसे, संवेगों का विज्ञान, जो मनोविज्ञान के इतिहास की महत्वपूर्ण कड़ी है, [४०] में हिन्दुओं के धार्मिक ग्रन्थों से पराप्राकृतिक विश्वासों से जुड़े तथ्य दिए हैं। [४१]


साहित्यकार रस्किन बांड तथा इतिहासकार विलिअम डैलरिंपल का मानना है कि हिंदुस्तान में 1857 के ग़दर से पहले इन पराप्राकृतिक तत्वों के समूहों या क्षेत्रों में मेल-जोल होने लगा था, परन्तु ग़दर के बाद उन में खाई पड़ गयी।[४२][४३]

विलियम जेम्स का सपना था कि परमानसिक अनुसंधान का उद्देश्य मानवीय अनुभवों और वैज्ञानिकों के बीच आपसी सहायता बढ़ाना है।[२३] सिमला क्रीड का विभिन्न क्षेत्रों में प्रभाव, जिसका वर्णन यहाँ किया गया है, एक सीमा तक इसे दर्शाता है।


इन्हें भी देखें[सम्पादन]


सन्दर्भ[सम्पादन]

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