भारत की विदेश नीति : एक परिचय
भारत विश्व में एक विस्तृत भूभाग और विशाल जनसंख्या वाला देश है। अत: इसकी विदेशी नीति का विश्व की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
भारत की विदेश नीति के आदर्श (उद्देश्य)
भारत की विदेश नीति के प्रमुख आदर्श एंव उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
1. अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए प्रत्येक सम्भव प्रयत्न करना।
2. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाये जाने की नीति को प्रत्येक सम्भव तरीके से प्रोत्साहन देना।
3. सभी राज्यों और राष्ट्रों के बीच परस्पर सम्मान पूर्ण संबंध बनाये रखना।
4. अन्तर्राष्ट्रीय कानून के प्रति और विभिन्न राष्ट्रों के पारस्परिक संबंधों में संधियों के पालन के प्रति आस्था बनाये रखना।
5. सैनिक गुटबंदियों और सैनिक समझौतो से अपने आपको पृथक् रखना तथा ऐसी गुटबंदी को निरुत्साहित करना।
6. उपनिवेशवाद का, चाहे वह कहीं भी किसी भी रूप में हो, उग्र विरोध करना।
7. प्रत्येक प्रकार की साम्राज्यवादी भावना को निरूत्साहित करना।
8. उन देशों की जनता की सक्रिय सहायताकरना जो उपनिवेशवाद, जातिवाद, और साम्राज्यवादसे पीड़ित हों।
9. आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक अभियान को सहयोग व समर्थन देना।
10. पी–5 समूह के देशों के साथ घनिष्ठता से कार्य करना तथा विश्व की महाशक्तियों,यथा- अमेरीका, यूरोपीय समुदाय, जापान, रूस एंव चीन आदि के साथ सामरिक समझौते करना।
11. अन्य देशों के आंतरिक मामलों हस्तक्षेप न करना।
12. अन्य देशों के साथ शांतिपूर्ण मैत्री संबंध स्थापित करना।
भारत की विदेश नीति के निर्माणक तत्व
भारत की विदेश नीति के निर्माण में जिन तत्वों का विशिष्ट महत्व रहा है, वे निम्नलिखित हैं:
1.भौगोलिक तत्व
किसी भी विदेश नीति के निर्माण में उस देश की भौगोलिक परिस्थितियां प्रमुख और निर्णायक महत्व की होती हैं।
नैपोलियन बोनापार्ट के अनुसार, “ किसी देश की विदेश नीति उसके भूगोल द्वारा निर्धारित होती है”।
2. विचारधाराओं का प्रभाव
भारत की विदेश नीति के निर्धारण में विभिन्न विचारधाराओं का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। विभिन्न विचारधाओं व विद्वानों ने समय-समय पर भारत की विदेश नीति को प्रभावित व परिवर्तित किया है।
3. आर्थिक तत्व
भारत की आर्थिक उन्नति तभी सम्भव भी जब अन्तराष्ट्रीय शांति बनी रहे। आर्थिक दृष्टि से भारत का अधिकांश व्यापार पाश्चात्य देशों के साथ था और पाश्चात्य देश भारत काशोषण कर सकते थे। भारत अपने विकास के लिए अधिकतम विदेशी सहायता का भी इच्छुकथा। इस दृष्टिकोण से भारत के लिए सभी देशों के साथ मैत्री का बर्ताव रखना आवश्यक था और वह किसी भी एक गुट से बंध नहीं सकता था। गुटबंदी से अलग रहने के कारण उसे दोनों ही गुटों से आर्थिक एंव तकनीकी सहायता मिलती रही, क्योंकी कोई भी गुट नहीं चाहता था की भारत दूसरे गुट के प्रभाव–क्षेत्र में आ जाए।
4. सैनिक तत्व
सैनिक दृष्टि से भारत शक्तिशालीराष्ट्र नहीं था। अपनी रक्षा के लिए अनेक दृष्टियों से वह पूरी तरह विदेशों पर निर्भर था। भारत की दुर्बल सैनिक स्थिति उसे इस बात के लिए बाध्य करती रही कि विश्व की महत्वपूर्ण शक्तियों के साथ मैत्री बनाये रखी जाय।प्रारम्भ से ही भारत राष्ट्रमण्डल का सदस्य बना रहा, उसका भी यही राज था कि सैनिक दृष्टि से भारत ब्रिटेन पर ही निर्भर था।
5. पं. नेहरू का व्यक्तित्व
पं. जवाहरलाल नेहरू न केवल भारत के प्रधानमंत्री थे, अपितु विदेशमंत्री भी थे। उनके व्यक्तित्व की छाप विदेश नीति के हर पहलू पर झलकती है। वे साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और फासिस्टवाद के विरोधी थे| वे सभी अंतरराष्ट्रीय विवादों को शांतिपूर्ण उपायों से सुलझाने के प्रबल समर्थक थे। वे महाशक्तियों के संघर्ष में भारत के लिए असंलग्नता की नीति को सर्वोत्तम मानते थे। अपने इन्हीं विचारोंके अनुरूप उन्होंने भारत की विदेश नीति को ढाला और आज इसका जो कुछ भी रूप है वह पं. नेहरू के विचारों का ही मूर्त रूप हैं।
6. राष्ट्रीय हित
पं. नेहरू ने संविधान सभा में स्पष्ट कहा था, “किसी भी देश की विदेश नीति की आधारशिला उसके राष्ट्रीय हित की सुरक्षा होती है और भारत की विदेश नीति का भी ध्येय यही है”।
7. ऐतिहासिक परम्पराएं
भारत की विदेश नीति के निर्धारण में ऐतिहासिक परम्पराओं का भी बड़ा योगदान रहा है। प्राचीनकाल से ही भारत की नीति शान्तिप्रिय रही है। भारत ने किसी भी देश पर प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया। भारत की यह परम्परा वर्तमान विदेश नीति में स्पष्ट दिखायी देती है।
8. आन्तरिक शक्तियों और दबावों का प्रभाव
किसी देश की आन्तरिक शक्तियां और दबाव समूह भी विदेश नीति के निर्धारण में प्रभावक भूमिका निभाते हैं। जब राष्ट्र आन्तरिक दृष्टि से अधिक सुदृढ़ और मनोवैज्ञानिकरूप से एकता के सूत्र में गुंथा होता है तो राष्ट्र की विदेश नीति भी अधिक स्पष्ट, सुदृढ और प्रभावशाली होती है, परन्तु जब राष्ट्र आन्तरिक फूट के कारण विभक्त होता है और राजनीतिक अस्थिरता पायी जाती है तो विदेश नीति प्रायः शिथिल और अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर प्राय: निष्क्रिय और प्रभावहीन होती है।
भारत की विदेश नीति की प्रमुख विशेषताएँ
अथवा
भारतीय विदेश नीति के मूल तत्व या सिद्धान्त
यदि स्वाधीन भारत की विदेश नीति का समीक्षात्मक विश्लेषण करें तो निम्नांकित विशेषताएँ हमारे सामने प्रकट होती हैं:
1.गुटनिरपेक्षता की नीति
इस नीति का आशय है कि भारत वर्तमान विश्व राजनीति के दोनों गुटों में से किसी में भी शामिल नहीं होगा, किन्तु अलग रहते हुए उनसे मैत्री संबंध कायम रखने की श्रेष्ठ करेगा और उनकी बिना शर्त सहायता से अपने विकास में तत्पर रहेगा। भारत की गुटनिरपेक्षता एक विधेयात्मक, सक्रिय और रचनात्मक नीति है। इसका ध्येय किसी दूसरे गुट का निर्माण करना नहीं वरन् दो विरोधी गुटों के बीच संतुलन का निर्माण करना है। असंलग्नता की यह नीति सैनिक गुटों से अपने आपको दूर रखती है, किंतु पड़ोसी व अन्य राष्ट्रों के बीच अन्य सबप्रकार के सहयोग को प्रोत्साहन देती हैं।यह गुटनिरपेक्षता नकारात्मक तटस्थता, एवं अप्रगतिशीलता अथवा उपदेशात्मक नीति नहीं है। इसका अर्थ सकारात्मक है अर्थात् जो सही और न्यायसंगत है उसकी सहायता और समर्थन करना तथा जो अनीतिपूर्ण एवं अन्यायसंगत है उसकी आलोचना एवं निंदा करना।
2. शांति की विदेश नीति
भारत की विदेश नीति सदैव ही विश्व - शांति की समर्थक रही है। भारत ने प्रारम्भ से ही यह महसूस किया कि युद्ध और संघर्ष नवोदित भारत के आर्थिक और राजनीतिक विकास को अवरुद्ध करने वाला है।
3. मैत्री और सह-अस्तित्व की नीति
भारत विदेश नीति मैत्री और सह-अस्तित्व पर जोर देती है। भारत की ये धारणा रही है कि विश्व में परस्पर विरोधी विचारधाराओं में सह-अस्तित्व की भावना पैदा हो। यदि सह-अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता तो आणविक शस्त्रों से समूचे विश्व का ही विनाश हो जायेगा। इसी कारण भारत ने अधिक-से-अधिक देशों के साथ मैत्री सन्धियां और व्यावहारिक समझौते किये।
4. विरोधी गुटों के बीच सेतुबन्ध बनाने की नीति
भारत अपनी विदेश नीति द्वारा विश्व में परस्पर विरोधी गुटों के मध्य सेतुबंध का कार्य करता रहा है। अपनी गुट निरपेक्ष नीति के कारण भारत दोनों गुटों को बीच उनको मिलाने वाली कड़ी के रूप में कार्य कर सकनेकी एक विशिष्ट स्थिति में रहा हैं।
5. साधनों की पवित्रता की नीति
भारत की नीति अवसरवादी और अनैतिक नहीं रही है। भारत साधनों की पवित्रता में विश्वास करता रहा है। भारत की विदेश नीति महात्मागांधी के इस मत से बहुत प्रभावित हैं कि न केवल उद्देश्य वरन् उसकी प्राप्ति के साधन भी पवित्र होने चाहिए। यद्यपिउनके सत्य और अहिंसा के साधनों को पूरी तरह नहीं अपनाया जा सका है, फिर भी भारत निरंतर इस बात का प्रयत्न करता रहा है कि अंतरराष्ट्रीय विवादों का समाधान शांतिपूर्ण उपायों से किया जाये, हिंसात्मक साधनों से नहीं।
6. पंचशील पर जोर देने वाली नीति
‘पंचशील’के पांचसिद्धान्तों का प्रतिपादन भी भारत की शांति प्रियता का द्योतक है। 1954 के बाद से भारत की विदेश नीति को ‘पंचशील’ के सिद्धान्तों ने एक नयी दिशा प्रदान की। ‘पंचशील’ से अभिप्राय है-‘ आचरण के पांच सिद्धांत’। जिस प्रकार बौद्ध धर्म में ये व्रत एक व्यक्ति के लिए होते हैं उसी प्रकार आधुनिक पंचशील के सिद्धांतों द्वारा राष्ट्रों के लिए दूसरे के साथ आचरण के संबंध निश्चित किये गये। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं:
1. एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता और सर्वोच्चता सत्ता के लिए पारस्परिक सम्मान की भावना,
2. अनाक्रमण,
3. एक-दूसरेकेआन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना,
4. समानता एंव पारस्परिक लाभ, तथा
5. शान्तिपूर्णसह-अस्तित्व।
7.साम्राज्यवाद और प्रजातीय का विरोध
भारत साम्राज्यवाद के दुष्परिणामों का स्वयं भुक्तभोगी रहा है,अतः उसके लिए साम्राज्यवाद का विरोध करना अत्यन्त स्वाभाविक है। प्रजातीय विभेद के कारण भी अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण दूषित होता है और युद्ध के कारण उत्पन्न होते हैं। अतएव, भारत इन दोनों का विरोध करता रहा। यही कारण है कि विश्व में जहां कहीं भी राष्ट्रवादी आन्दोलन विदेशी दासता से मुक्ति पाने के लिए हुए, भारत ने खुलकर उनका समर्थन किया।
8. रंगभेद का विरोध
विश्व में नस्ल या मनुष्य के रंग के आधार पर भेदभाव का विरोध करना हमारी विदेश नीति की प्रमुख विशेषता रही है। नेल्सन मंडेला कीआजादी व उनके सत्तारूढ़ होने से पूर्व रंगभेदी दक्षिण-अफ्रीकी सरकार से अंतरराष्ट्रीय संबंधों को विच्छेद हमारी इस नीती को इंगित करता है।
9. अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं को समर्थन
हमारी विदेश नीति का यह आधार रहा है कि हमने अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को खुलकर समर्थन दिया है। स्वतंत्रता से पूर्व ही हम संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना को समर्थन दे चूके थे। स्वतंत्रता के पश्चात हमने इसकी सदस्यता स्वीकार कर इसके विभिन्न कार्यक्रमों व एजेंसियों में बढ़–चढ़कर भगीदारी निभाई।
10.एफ्रो-एशियाई झुकाव
यद्यपि भारत की विदेश नीति में विश्व के सभी राष्ट्रों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने की बात कही गई है परन्तु इसका एफ्रो- एशियाई देशों के प्रति एक विशेष झुकाव रहा है। इसका उद्देश्य इनके मध्य एकता को बढ़ावा देना है और अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं में आवाज उठाकर और प्रभावित कर इन्हें सुरक्षित करने का प्रयास करना हैं। इन राष्ट्रों के आर्थिक विकास के लिए भारत अन्तर्राष्ट्रीय सहायता की माँग करता रहा हैं।
11. निः शास्त्रीकरण
भारत की विदेश नीति हथियारों की दौड़ की विरोधी तथा निः शस्त्रीकरण की हिमायती हैं।
भारतीय विदेश नीति का मूल्यांकन
निम्नलिखिततर्कों के आधार पर हमारी विदेश नीति की “आलोचना” की जा सकती है :
1.हितों की सुरक्षा में असफल
हमारी विदेश नीति हमारे स्थायी और दूरगामी राष्ट्रीय हितों जैसे देश की सीमाओं की रक्षा करने में समर्थ सिद्ध नहीं हुई है। आज भी चीन और पाकिस्तान ने हमारे सैकड़ों वर्गमील के प्रदेश दबा रखें है और हमारी विदेश नीति उन्हें मुक्त नहीं करा सकी है।
2. गुटनिरपेक्षता एक दिखावा है
कतिपय आलोचकों का कहना है कि भारत की गुटनिरपेक्षता कोरा ढोंग है। वस्तुतः हम कभी अमरीका और पश्चिमी देशों की तरफ अधिक झुके हैं तो कभी साम्यवादी देशों की तरफ।
3. दितान्त की विश्व राजनीति
आलोचकों का कहना है कि शीत-युद्ध की विश्व राजनीति में गुटनिरपेक्षता का महत्व हो सकता है किंतु आज तो शीत-युद्ध समाप्त हो चुका है, गुटों की राजनीति पिघल चुकी है और दितान्त की विश्व राजनीति का चयन हुआ है। जब गुट ही नहीं रहे तो गुट निरपेक्षता का क्या महत्व हो सकता है?
4. मित्र और शत्रु को परखने में असफल
ऐसा कहा जाता है की भारतीय विदेश नीति अपने मित्र और शत्रु को परखने में भी असफल रही है।
5. विदेशी आक्रमणों का शिकार
हमारी विदेश नीति विश्व आक्रमणों का प्रतिकार करने में असमर्थ रही हैं। 1962 में चीन ने और 1998, 1965 तथा 1971 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण का दुस्साहस किया।
6.भारत - सोवियत सन्धि
अगस्त 1971 कि भारत- सोवियत संधि भारत की विदेश नीति में महत्वपूर्ण मोड़ का सूचक है। आलोचकों का कहना है कि भारत की गुटनिरपेक्ष नीति का इससन्धि ने अंत कर दिया। गुटनिरपेक्षता की नीति का मतलब महाशक्तियों के फौजी संघर्ष तथा तनाव से अपने को दूर रखना होता है, लेकिन एक महाशक्ति के साथ संधि करके भारत अब अपने को इस संघर्ष तथा तनाव से दूर नहीं रख सकता।
उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद भारत की विदेश नीति की निम्नलिखित उपलब्धियां, जिन्हें नकारा नहीं जा सकता :
1.दोनों ही शक्तिशाली गुटों ने भारतीय विदेश नीति की प्रशंसा की है।
2.भारत दोनों ही गुटों से सहायता प्राप्त करने में सफल रहा है।
3. भारत की निर्गुट नीति विश्व-शांति के हित में है।
4. अणु विस्फोट करके भारत ने अपनी सम्प्रभुता का इजहार किया तथा अमेरीकी विरोध को अनदेखा किया।
5. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार सम्मेलन में पहली बार पाकिस्तान के विरोध में भारत ने ‘स्कोर’किया।
6. कारगिल क्षेत्र में पाकिस्तानी सेना समर्थित घुसपैठियो द्वारा भारतीय सेत्र में प्रवेश करने पर अमेरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, जी-8 सहित अनेक देशों ने भारतीय दृष्टिकोण कासमर्थन किया।
भारतीय विदेश नीतिः बदलाव के मार्ग पर
विश्व व्यवस्था में आये क्रांतिकारी परिवर्तनों के फलस्वरूप भारतीय विदेश नीति में भी व्यावहारिक बदलाव आ रहे हैं। भारतीय विदेश नीति में परिवर्तन के पीछे महत्वपूर्ण कारक हैं :
1.सोवियत संघ का एक राष्ट्र के रूप में अवसान और उससे उत्पन्न परिस्थितियों
2.पंजाब एवं कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता
3.कश्मीर मुददे को संयुक्त राष्ट्र संघ कार्य-सूची से बाहर रखने के लिए आवश्यक सहयोग
4.एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था के अनुरूप अपने को ढालने का प्रयास
5.संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता प्राप्त करने का प्रयास
6.बदले विश्व परिदृश्य में आर्थिक पहलू को मुख्य मुद्दा मानकर सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास; तथा
7.गुट निरपेक्ष देशों का नेता होने के कारण तीसरी दुनिया के देशों की आकांक्षा पूर्ति करने का प्रयास।
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