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महंत अभिराम दास बैरागी

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महंत अभिराम दास बैरागी अयोध्या के क्रांतिकारी साधु थे कहा जाता है कि 22 दिसंबर, 1949 की रात बाबरी मस्जिद में रामलला की प्रतिमा रखने में अभिराम दास ने अहम भूमिका निभाई थी।[१] अभिराम दास बैरागी को राम जन्मभूमि के उद्धारक बाबा के नाम से भी जाना जाता है। अभिराम दास निर्वाणी अखाड़े के वैरागी साधु थे[२]


इतिहास[सम्पादन]

बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद पर लिखी गई हर किताब और हर लेख में अभिराम दास का उल्लेख जरूर होता है। 23 दिसंबर, 1949 को एक खबर तेजी से फैली जिसमें दावा किया गया था कि अयोध्या में भगवान राम का अवतार हुआ है। दावा किया गया कि राम ने फिर वहीं जन्म लिया है जहां मस्जिद है। इस खबर को सुनने के बाद अयोध्या के लोग बाबरी मस्जिद की तरफ भागे।

एसएचओ रामदेव दुबे के मुताबिक किसी ने मस्जिद के दीवार के बाहरी हिस्से में राम चबूतरे पर राखी मूर्ति गर्भ गृह में रख दी थी। जब तक मूर्ति राम चबूतरे पर थी, वो निर्मोही अखाड़े के नियंत्रण में थी। लेकिन अब वह मूर्ति चबूतरे से उठकर गर्भगृह तक पहुंच गई थी। एक किताब अयोध्या, द डार्क नाइट में लिखा गया है कि इस घटना को हनुमान गढ़ी के महंत अभिराम दास ने अंजाम दिया था।

किताब के मुताबिक अभिराम दास और उसके मित्र रामचंद्रदास परमहंस ने मस्जिद में मूर्ति रखने की योजना बनाई थी। उन्होने ने तय किया था कि मूर्ति रखने का काम आधी रात के बाद ही होगा। जब गार्ड्स की ड्यूटी बदलेगी। इस काम के लिए दास के भतीजे और हनुमानगढ़ी में रहने वाले इंदुशेखर झा और युगल किशोर झा को भी मस्जिद के अंदर दाखिल होना था।

22 दिसंबर की रात करीब 11 बजे अभिराम दास हनुमान गढ़ी में अपने कमरे में आए उन्होंने अपने छोटे भाई उपेंद्र नाथ मिश्रा को अपने सबसे बड़े भतीजे युगल किशोर झा का हाथ पकड़ने का आदेश दिया और कहा- "ध्यान से सुनो, मैं जा रहा हूं और हो सकता है कि मैं न लौटूं, अगर मुझे कुछ होता है, अगर मैं सुबह वापस नहीं आ पाता हूं तो युगल मेरा उत्तराधिकारी होगा"।

वहां मौजूद लोगों ने सवाल पूछा, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं बताया और चले गए। उनके भतीजे युगल किशोर झा और इंदुशेखर झा उनके साथ गए, उन्हें निर्वाणी अखाड़ा के रामानंदी बैरागी भी मिल गए। वो मस्जिद के गेट के पास ही झोपड़ी में रहते थे। उस वक्त उनके हाथ में रूई का एक झोला था और राम लला की छोटी सी मूर्ति थी। अभिराम दास ने उनके हाथ से मूर्ति ले ली और उन्हें वापस लौटने को कहा। इसके बाद उन्होंने वृंदावन दास बैरागी से कहा कि वो उनके पीछे आएं। वो मस्जिद में दाखिल हो गए और मूर्ति रख दी। हालांकि 22 दिसंबर, 1991 को न्यूयार्क टाइम्स को दिए इंटरव्यू में परमहंस ने दावा किया था कि मस्जिद में मूर्ति उन्होंने ने ही रखी थी।

सन्दर्भ[सम्पादन]

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