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युग-प्रवर्ती तत्वों के विषय में पूर्ववर्ती आचार्यों का मत

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हिन्दी आलोचना एवम साहित्य इतिहास लेखन को अनेकानेक विद्वान आचार्यों ने समृद्ध किया है। इनमें से सर्वाधिक ख्यातिप्रप्त निम्न आचार्यों का मत हम विशेष रूप से देखेंगे:

(अ) महावीर प्रसाद द्विवेदी (आ) रामचंद्र शुक्ल (इ) हजारीप्रसाद द्विवेदी

अगर आप उत्तर भारत की समस्त जनता के आचार-व्यवहार, भाषा-भाव, रहन-सहन, आशा-आकांक्षा, दुःख-सुख और सूझ-बूझ को जानना चाहते हैं तो प्रेमचंद से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता. . ....समाज के विभिन्न आयामों को उनसे अधिक विश्वसनीयता से दिखा पाने वाले परिदर्शक को हिन्दी-उर्दू की दुनिया नहीं जानती. परन्तु आप सर्वत्र ही एक बात लक्ष्य करेंगे। जो संस्कृतियों औए संपदाओं से लद नहीं गए हैं, अशिक्षित निर्धन हैं, जो गंवार और जाहिल हैं, वो उन लोगों से अधिक आत्मबल रखते हैं और न्याय के प्रति अधिक सम्मान दिखाते हैं, जो शिक्षित हैं, चतुर हैं, जो दुनियादार हैं जो शहरी हैं। यही प्रेमचंद का जीवन-दर्शन है।

प्रेमचंद ने अतीत का गौरव राग नहीं गाया, न ही भविष्य की हैरत-अंगेज़ कल्पना की। वे ईमानदारी के साथ वर्तमान काल की अपनी वर्तमान अवस्था का विश्लेषण करते रहे। उन्होंने देखा की ये बंधन भीतर का है, बाहर का नहीं। एक बार अगर ये किसान, ये गरीब, यह अनुभव कर सकें की संसार की कोइ भी शक्ति उन्हें नहीं दबा सकती तो ये निश्चय ही अजेय हो जायेंगे.

उन्होंने सदा अपने को मजदूर समझा. बीमारी की हालत में, मृत्यु के कुछ दिन पहले भी वे अपने कमज़ोर शरीर को लिखने के लिए मजबूर करते रहे। ...उनके दिमाग में कहने लायक इतनी बातें आपस में धक्का-मुक्की करके निकलना चाहती थीं कि वे उन्हें प्रकट किये बिना नहीं रह सकते थे। ...वे बड़े ही सरल थे लेकिन दुनिया की मक्कारी और धूर्तता से अनभिज्ञ नहीं थे।

सच्चा प्रेम सेवा ओर त्याग में ही अभिव्यक्ति पाता है। प्रेमचंद का पात्र जब प्रेम करने लगता है तो सेवा की ओर अग्रसर होता है और अपना सर्वस्व परित्याग कर देता है।

[१]

प्रसादजी का अध्ययन विशाल था।...प्रसादजी के पूर्व कम लीगों का ध्यान भारत के मुस्लिम-पूर्व इतिहास की और गया था। प्रसादजी ने परिश्रमपूर्वक अपने प्राचीन इतिहास का मंथन किया। उनके नाटकों ओर काव्यों में उनके इस गंभीर अध्ययन का परिचय मिलता है। ...वे प्राचीन तथ्यावली का सहारा अवश्य लेते थे, पर उसकी विनियोजनी इस प्रकार करते थे कि उससे वर्तमान की समस्याओं का हल सूझ जाए ओर भावी मानवीय संस्कृति का भी कुछ प्रकाश मिल जाए. उनके ऐतिहासिक नाटक पीछे लौटने की सलाह लेकर नहीं आये, वे आगे बढ़ने की प्रेरणा लेकर आये थे।

[२]

(ई) रामविलास शर्मा

जिस नई सभ्यता की रचना करनी है, वह पुरानी सभ्यता से गुणात्म रूप से भिन्न होगी। तब पुराने इतिहास की ज़रूरत क्या है ? नयी सभ्यता को पुरानी सभ्यता की ज़रूरत क्या है ?

जो महान साहित्यकार हैं, उनकी कला की आवृत्ति नहीं हो सकती, यहाँ तक कि एक भाषा से दूसरी भाषा को अनुवाद करने पर उनका कलात्मक सौन्दर्य ज्यों-का-त्यों नहीं रहता।

साहित्य सापेक्षरूप में स्वाधीन होता है। गुलामी अमरीका में थी और गुलामी एथेन्स में थी किन्तु एथेन्स की सभ्यता ने सारे यूरुप को प्रभावित किया और गुलामों के अमरीकी मालिकों ने मानव संस्कृति को कुछ भी नहीं दिया। सामन्तवाद दुनिया भर में कायम रहा। पर इस सामन्ती दुनिया में महान कविता के दो ही केन्द्र थे- भारत और ईरान। पूँजीवादी विकास यूरुप के तमाम देशों में हुआ पर रैफेल, लेओनार्दों दा विंची और माइकेल ऐंजेलो इटली की देन हैं। यहां हम एक ओर यह देखते हैं कि विशेष सामाजिक परिस्थितियों में कला का विकास सम्भव होता है, दूसरी ओर हम यह देखते हैं कि समान सामाजिक परिस्थितियाँ होने पर भी कला का समान विकास नहीं होता। यहाँ हम असाधारण प्रतिभाशाली मनुष्यों की अद्वितीय भूमिका भी देखते हैं।

जिस तरह औद्योगिक उत्पादन का समाजीकरण पूँजीवादी व्यवस्था में होता हैं, उस तरह साहित्यिक रचना का समाजिकरण नहीं होता। कारखाने में 1500 मज़दूर मिलकर दिन-प्रतिदिन थान के थान कपड़े निकाल सकते है। यदि साहित्यकारों को साहित्य-रचना के कारखाने में भर्ती कर दिया जाए तो हो सकता है कि उनके कुछ दोष दूर हो जायें, अथवा वे एक दूसरे से इतना लड़ें कि और किसी काम के लिए उन्हें फुरसत न मिले, पर नियमित रूप से उच्च कोटि के उपन्यास, काव्य, नाटक, पंचवर्षीय योजना के अनुसार, उस कारखाने से निकलते रहेंगे, इसकी सम्भावना ज़रा कम है। साहित्यकार आपसी सहयोग से लाभ उठाते हैं पर अभी उस तकनीक का पता नहीं लगाया जा सका जिसे लोगों को सिखाकर साहित्य का सामूहिक उत्पादन किया जा सके।

साहित्य के निर्माण में प्रतिभाशाली मनुष्यों की भूमिका निर्णायक है।

इतिहास का प्रवाह ही ऐसा है कि वह विच्छिन्न है और अविच्छिन्न भी। मानव समाज बदलता है और अपनी पुरानी अस्मिता कायम रखता है। जो तत्त्व मानव समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करते हैं, उनमें इतिहास और सांस्कृतिक परम्परा के आधार पर निर्मित यह अस्मिता का ज्ञान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

जो लोग साहित्य में युग-परिवर्तन करना चाहते हैं, जो लकीर के फकीर नहीं हैं, जो रूढ़ियाँ तोड़कर क्रान्तिकारी साहित्य रचना चाहते हैं, उनके लिए साहित्य की परम्परा का ज्ञान सबसे ज्यादा आवश्यक है। ... नयी सभ्यता पुरानी सभ्यता से गुणात्मक रूप से भिन्न होगी, ऐतिहासिक प्रक्रिया का यह एक पक्ष है। दूसरा पक्ष यह है कि वह पुरानी सभ्यता की समस्त उपलब्धियों को आत्मसात् करके आगे बढ़ेगी।...ये जो तमाम कवि अपने पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं का मनन करते हैं, वे उनका अनुकरण नहीं करते उससे सीखते हैं और स्वयं नयी परम्पराओं को जन्म देते हैं।

इस देश की संस्कृति में रामायण और महाभारत को अलग कर दें, तो भारतीय साहित्य की आन्तरिक एकता टूट जायेगी। किसी भी बहुजातीय राष्ट्र के सामाजिक विकास में कवियों की ऐसी निर्णायक भूमिका नहीं रही, जैसी इस देश में व्यास और वाल्मीकि की है। इसलिए किसी भी देश के लिए साहित्य की परम्परा का मूल्यांकन उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना इस देश के लिए है।

परम्परा का मूल्यांकन, रामविलास शर्मा, प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, प्रकाशित : जनवरी ०२, २००४, Book Id : 3181

(उ) डॉ॰ नगेन्द्र

प्रेमचंद के युग-प्रवर्तक अवदान की चर्चा करते हुए डॉ॰ नगेन्द्र लिखते हैं :

"प्रथमतः उन्होंने हिन्दी कथा साहित्य को 'मनोरंजन' के स्तर से उठाकर जीवन के साथ सार्थक रूप से जोड़ने का काम किया। चारों और फैले हुए जीवन और अनेक सामयिक समस्याओं ...ने उन्हें उपन्यास लेखन के लिए प्रेरित किया।"[३]

" प्रेमचंद ने सहज सामान्य मानवीय व्यापारों को मनोवैज्ञानिक स्थितियों से जोड़कर उनमें एक सहज-तीव्र मानवीय रुचि पैदा कर दी.

"शिल्प और भाषा की दृष्टि से भी प्रेमचंद ने हिन्दी उपन्यास को विशिष्ट स्तर प्रदान किया। ...चित्रणीय विषय के अनुरूप शिल्प के अन्वेषण का प्रयोग हिन्दी उपन्यास में पहले प्रेमचंद ने ही किया। उनकी विशेषता यह है कि उनके द्वारा प्रस्तुत किये गए दृश्य अत्यंत सजीव गतिमान और नाटकीय हैं।

"उनके उपन्यासों की भाषा की खूबी यह है कि शब्दों के चुनाव एवं वाक्य-योजना की दृष्टि से उसे 'सरल' एवं 'बोलचाल की भाषा' कहा जाता है। पर भाषा की इस सरलता को निर्जीवता, एकरसता एवं अकाव्यात्मकता का पर्याय नहीं समझा जाना चाहिए.

"भाषा के सटीक, सार्थक एवं व्यंजनापूर्ण प्रयोग में वे अपने समकालीन ही नहीं, बाद के उपन्यासकारों को भी पीछे छोड़ जाते हैं। [४]

(ऊ) गणपतिचंद्र गुप्त

कृती लेखकों के विचार भी कम महत्वपूर्ण नहीं होते। साहित्य-सृजन को कऐ बार वे अधिक ऊंचाई से देख सकते हैं।


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  1. हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली. छ्ठा संस्करण, छठी आवृत्ति, पृ २२८-२३०।
  2. हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली. छ्ठा संस्करण, छठी आवृत्ति, पृ २३०।
  3. अध्याय १६, पृ. ५७४, हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ॰ नगेन्द्र, ३३वां संस्करण-२००७, मयूर पेपरबैक्स, नौएडा
  4. अध्याय १६, पृ. ५७७-५७८, हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ॰ नगेन्द्र, ३३वां संस्करण-२००७, मयूर पेपरबैक्स, नौएडा