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रामस्वरूप चतुर्वेदी :काव्यानुभव के अनुभव का अनुभव

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चित्र:Languages image.jpg
320*240px रामस्वरूप चतुर्वेदी-भाषा का अनुभव।

https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Languages_image.jpg

भाषा की एक विशेषता यह है कि वह सदैव गतिशील रहती है यदि समय कभी नही रुकता तो भाषा भी कभी नहीं रूकती। तभी संत कबीरदास ने कहा -संसकीरत है कूपजल, भाखा बहता नीर। वस्तुतः चेतना में व्याप्त अनुभूति का भाषा के साथ अभेद संबंध है, इसे इस प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है।..जाड़ा लगना एक बाह्य भाषिक अनुभव है, जाड़ा लग रहा है उस बाह्य भाषिक अनुभव का अनुभव है यानि की अनुभूति है, फिर इस अनुभूति का अनुभव कवि के यहाँ कुछ इस प्रकार संभव होता है -शिशिर की शर्वरी, हिंस्र पशुओं भरी(कवि निराला)। अतः अनुभव का अनुभव यानि की अनुभूति या कि भाषा है। और फिर भाषा और अनुभूति के अद्वैत रूप को स्वीकार करते हुए कविता या की रचना की परिभाषा इस प्रकार है -अनुभव होने के अनुभव होने का अनुभव कविता है। भाषा में मानव जीवन के विविध अनुभव संचित होते हैं यह मनुष्य का आदिसर्जन है, संसार का कोई अनुभव जब चेतना में बिम्बित होता है तो भी भाषा के साथ होता है और सृजित होता है तो भी भाषा के साथ। काव्य या कि साहित्य भाषा के आधार पर ही स्थिर होता है। अन्य कलाओं की तुलना में साहित्य रंग या की सुर की बजाय भाषा होने के कारण अपनी प्रकृति में बौद्धिक अधिक है। वहाँ विचार और अनुभव एक दूसरे में डूब जाते हैं जबकि अन्य कलाओं जैसे -संगीत, चित्र या मूर्तिकला में प्रधानता अनुभव की है। विचार और अनुभूति की संश्लिष्टता भाषा की विशेषता है इसीलिए साहित्य भाषा में रचा जाता है। विचार और अनुभूति के संश्लेष से साहित्य या कि काव्य में अर्थ की सृष्टि होती है। इस प्रकार साहित्य में अर्थ की विकसनशील प्रक्रिया चलती रहती है जो देशकाल व व्यक्ति को छूती रहती है। सुनिश्चित प्रतिमानों या कि पैमानों के सहारे चाहे वे पुराने हों या नए कविता की निरंतर विकसनशील प्रक्रिया को समझा समझाया नहीं जा सकता है। प्रतिमानों के आधार पर कविता लिखी नहीं जाती तो समझी भी नहीं जाती वस्तुतः कविता को समझना उसकी रचना प्रक्रिया का ही विस्तार है और कविता के अर्थ विस्तार की यह प्रक्रिया संभव करना ही आलोचक का प्रधान कर्म है। किसी आलोचक का जब किसी कविता से साक्षात्कार होता है तो प्रथम अनुभव भाषा से होता है फिर भाषा के सहारे उसके अर्थ का बोध करता है यह द्वितीयक अनुभव या कि काव्यानुभव का अनुभव है और फिर अर्थ के सहारे कविता के आधार अनुभव को ग्रहण करता है यह द्वितीयक अनुभव का अनुभव या कि काव्यानुभव के अनुभव का अनुभव है और यही आलोचना है जिसमें रचना का अर्थविस्तार स्वतः होता रहता है। इस प्रकार काव्य रचना और आलोचना में एक दृष्टिगत सामंजस्य होता है। जहाँ रचना यदि जीवन का अर्थविस्तार है तो आलोचना उस रचना का अर्थविस्तार है।रामस्वरूप चतुर्वेदी : काव्यानुभव के अनुभव का अनुभव का यही मर्म है जहाँ कविता को समझने के लिए कविता की समझ जरुरी है न कि किसी विचारधारा की। अधिकतर विचारधारा के आग्रही आलोचक कविता में निहित अनुभव और अर्थ का विस्तार करने की बजाय स्वयं अपनी अपनी विचारधारा का अर्थविस्तार देते हैं जो कि कविता या कि साहित्य के लिए हानिकर है।

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