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विविधता ही भारतीय राष्ट्रवाद की जननी है

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भारत का राष्ट्रवाद, पश्चिमी राष्ट्रवाद से मूलतः भिन्न है । पश्चिमी राष्ट्रवाद के हिसाब से चलते तो इस देश के जाने कितने विभाजन सहसा ही हो जाते और यकीन मानिए लोकतंत्र की राह को अपनाने वाला भारत लोकतंत्र के अंतर्गत आने वाले आत्मनिर्णयन के अधिकार की वज़ह से उन्हें शायद ना रोक पाता ना नाज़ायज ही ठहरा पाता..! पर स्वतंत्रता–संघर्ष के जमाने से ही लड़ते–भिड़ते हमारे युगनायकों ने भविष्य के भारत की यह तस्वीर भांप ली थी और उन्होंने राष्ट्रवाद के भारतीय संस्करण के मूलभूत मायने ही बदल दिए । भारतीय राष्ट्रवाद ‘अनेकता में एकता’ के सिद्धांत पर चलता है । यह हेट्रोजेनेयटी (विभिन्नता–विविधता) का आदर करता है जबकि पश्चिमी राष्ट्रवाद होमोजेनेयटी (समुत्पन्नता–समरूपता) पर आधारित है। हमारे देश के राष्ट्रवाद की करारी नींव में जो इटें जमी हैं वे सतरंगी हैं, वे एक रंग की नहीं हैं । इसलिए जैसे ही और जिस मात्रा में हम साम्प्रदायिक होते हैं, उतनी ही मात्रा में हम राष्ट्रवादी नहीं रह जाते । आँख मूंदकर हम पश्चिमी राष्ट्रों से तुलना करते हैं और उनके राष्ट्रवाद के मानकों से हम अपने सतरंगी समाज के बाशिंदों को चाहते हैं एक ही रंग में रंगना, यहीं चूक होती है ।

भानमती के भिन्न–भिन्न कुनबों से भारत एक राष्ट्र बन सका है तो राष्ट्रवाद की स्वदेशी संकल्पना से ही । राष्ट्रवाद की यह स्वदेशी संकल्पना ‘अनेकता में एकता’ की चाशनी में भीगी–पगी है और आधुनिक राष्ट्रवाद के मानकों को भी संतुष्ट करती है । समझने की जरुरत है कि –भारत की एकता, ‘एक–जैसे’ होने से नहीं हैं बल्कि भारत की एकता, अनेकताओं की मोतियों को एक सूत्र में जोड़ने वाली भारतीय राष्ट्रप्रेम से उर्जा पाती है और निखरती जाती है । जिस क्षण से हमने भारत की विविधता को मान देना समाप्त किया, हमारा राष्ट्रीय कलेवर, सारा ताना–बाना बिखर जायेगा । चर्चिल जैसे लोग हमारे राष्ट्रवाद में अन्तर्निहित कमजोरी देखते थे, मजाक उड़ाते थे, कहते थे–आजादी के पंद्रह साल भीतर ही यह कुनबा बिखर जाएगा, हमने उन्हें गलत साबित किया; हमने जता दिया कि पश्चिमी राष्ट्रवाद जिसकी विश्व कवि रवीन्द्र खुलकर आलोचना करते थे, उस राष्ट्रवाद से विश्वयुद्ध उपजते हैं, यूरोप में छोटे–बड़े कई विभाजन होते हैं, कई छोटे राष्ट्र उभरते हैं, पर भारतीय राष्ट्रवाद से अलग–अलग, तरह–तरह के लोग भी साथ मिलजुलकर उसकी अस्मिता अक्षुण्ण रखते हैं ।

भारतीय राष्ट्रवाद सफल हो सका, अपनी परम्पराओं को निभाने की जीवटता से । अलग–अलग धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, नृजाति, प्रजाति, समुदाय, खान–पान होने के बावजूद सभी लोग उत्साह से सभी के त्योहारों में शामिल होते हैं । सभी उत्सव धूमधाम से मनाये जाते हैं । सरकारें भी इन त्योहारों को मनाती हैं और अपना समसामयिक सहयोग देती हैं । फिर समय–समय पर जगह–जगह आयोजित मेले, पारस्परिक मेलजोल का खूब मौका देते है । ऐसे समय में जब राष्ट्रवाद की जननी यूरोप स्वयं में राष्ट्रवाद की अपनी सैंद्धांतिक कमी का नुकसान उठाने की राह पर है, भारतीय राष्ट्रवाद की इस विविधता में एकता की खूबी को समझकर हमें उसे सराहने और अपनाने की आवश्यकता है। यह एक विशिष्ट उपलब्धि है हमारे पास जिसे हमारे स्वतंत्रता–संघर्ष के नायकों ने प्रदान किया और भारतीय जनों ने मिलकर उसे निभाया है। ऐसी कोई भी कोशिश जो भारत की विविधता पर अंकुश लगाती है, उसका विरोध एकस्वर में समवेत देना होगा।


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