विष्णु स्तम्भ
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विष्णु स्तम्भ
इतिहासविदों के अनुसार दिल्ली कुतुबमीनार का वास्तविक नाम विष्णु स्तंभ है जिसे कुतुबदीन ने नहीं बल्कि सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक और खगोलशास्त्री वराहमिहिर ने बनवाया था। पुरातन दिल्ली शहर, ढिल्लिका के प्राचीन किले लालकोट के अवशेषों पर बनी है। ढिल्लिका अंतिम हिंदू राजाओं तोमर और चौहान की राजधानी थी। कुतुबमीनार के पास जो बस्ती है उसे महरौली कहा जाता है। यह एक संस्कृत शब्द है जिसे मिहिर-अवेली कहा जाता है। इस कस्बे के बारे में कहा जा सकता है कि यहाँ पर विख्यात खगोलज्ञ वराहमिहिर(जो कि राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में से एक थे) रहा करते थे। उनके साथ उनके सहायक, गणितज्ञ और तकनीकविद भी रहते थे। वे लोग इस कथित कुतुबमीनार का खगोलीय गणना, अध्ययन के लिए प्रयोग करते थे।
ऊपर से देखने पर स्तंभ 24 पंखुड़ियों वाले कमल के फूल जैसे दिखाई देता है। इसकी प्रत्येक पंखुड़ी 24 घंटों वाले डायल जैसी दिखती है। कमल का फूल हिन्दुओं द्वारा पूज्यनीय है और भारत में कई ऐतिहासिक मदिरों और कलाओं में इसका चित्रण हुआ हैं। इस स्तंभ के चारों ओर हिंदू राशि चक्र को समर्पित 27 नक्षत्रों या तारामंडलों के लिए मंडप या गुंबजदार इमारतें थीं। यह खगोलीय प्रेक्षण स्तंभ था। पास में ही जंग न लगने वाले लोहे के खंभे पर ब्राह्मी लिपि में संस्कृत में लिखा है कि यह विष्णु स्तंभ विष्णुपाद गिरि नामक पहाड़ी पर बना था। खंभे को एक हिंदू राजा की पूर्व और पश्चिम में जीतों के सम्मानस्वरूप बनाया गया था।
मुस्लिम हमलावर हिंदू इमारतों पर पत्थर से बने आवरण को नष्ट कर देते थे और मूर्ति का चेहरा या सामने का हिस्सा बदलकर अरबी में लिखा हिस्सा बना देते थे। बहुत सारे परिसरों के स्तंभों और दीवारों पर संस्कृत में लिखे विवरणों को अभी भी पढ़ा जा सकता है। इस मीनार का प्रवेश द्वार उत्तर दिशा में है ना की पश्चिम में, जबकि इस्लामी धर्मशास्त्र और परंपरा में पश्चिम दिशा का महत्व है। कुतुबुद्दीमन ने एक विवरण छोड़ा है जिसमें उसने लिखा कि उसने इन सभी मंडपों या गुंबजदार इमारतों को नष्ट कर दिया था, लेकिन उसने यह नहीं लिखा कि उसने कोई मीनार कभी बनवाई थी। इस विवरण से साफ होता है कि मीनार के मध्य स्थित मंदिर में लेटे हुए विष्णु की मूर्ति को मोहम्मद गोरी और उसके गुलाम कुतुबुद्दीन ने नष्ट कर दिया था।
स्तंभ में सात तल थे जोकि एक सप्ताह को दर्शाते थे, लेकिन अब स्तंभ में केवल पाँच तल हैं। छठवें को गिरा दिया गया था और समीप के मैदान पर फिर से खड़ा कर दिया गया था। सातवें तल पर वास्तव में चार मुख वाले ब्रह्माजी की मूर्ति है जो कि संसार का निर्माण करने से पहले अपने हाथों में वेदों को लिए थे। ब्रह्माजी की मूर्ति के ऊपर एक सफेद संगमरमर की छतरी या छत्र था जिसमें सोने के घंटे की आकृति खुदी हुई थी। इस स्तंभ के शीर्ष तीन तलों को मूर्तिभंजक मुस्लिमों ने बर्बाद कर दिया जिन्हें ब्रह्माजी की मूर्ति से घृणा थी। मुस्लिम हमलावरों ने नीचे के तल पर शैय्या पर आराम करते विष्णुजी की मूर्ति को भी नष्ट कर दिया। लौह स्तंभ को गरुड़ ध्वज या गरुड़ स्तंभ कहा जाता था। यह विष्णु के मंदिर का प्रहरी स्तंभ समझा जाता था। एक दिशा में 27 नक्षत्रों के मंदिरों का अंडाकार घिरा हुआ भाग था। स्तंभ का घेरा ठीक तरीके से 24 मोड़ देने से बना है और इसमें क्रमश: मोड़, वृत की आकृति और त्रिकोण की आकृतियां बारी-बारी से बदलती हैं। इससे यह पता चलता है कि 24 के अंक का सामाजिक महत्व था और परिसर में इसे प्रमुखता दी गई थी। इसमें प्रकाश आने के लिए 27 झिरी या छिद्र हैं। यदि इस बात को 27 नक्षत्र मंडपों के साथ विचार किया जाए तो इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता है कि स्तंभ खगोलीय प्रेक्षण स्तंभ था।
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