शीत युद्ध : इतिहास
द्वितीय महायुद्ध के बाद विश्व में दो महाशक्तियां रह गई और इन दो महाशक्तियों के आपसी संबंध को अभिव्यक्त करने वाला सबसे अधिक उपयुक्त शब्द है- शीत युद्ध।
शीत युद्ध का अर्थ एवं परिभाषा
शीत युद्ध शब्द का प्रयोग तनाव की उस अभूतपूर्व स्थिति के लिए किया गया जो कि दो पूर्व मित्र राष्ट्रों, संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएसए) तथा सोवियत संघ रूस (यूएसएसआर) के मध्य द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अचानक विकसित हो गई।
के.पी.एस.मैनन के अनुसार, “ शीत युद्ध दो विरोधी विचारधाराओं- पूंजीवाद और साम्यवाद, दो व्यवस्थाओं- बुर्जुआ लोकतंत्र तथा सर्वहारा तानाशाही, दो गुटों- नाटो और वारसा, दो राज्यों- अमेरिका और सोवियत संघ तथा दो नेताओं- जॉन फॉस्टर डलेस तथा स्टालिन के बीच युद्ध था जिसका प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ा”। शीत युद्ध के लक्षण
शीत युद्ध के लक्षण
शीत युद्ध के प्रमुख लक्षण इस प्रकार है–
1. शीत युद्ध दो सिद्धांतों का ही नहीं अपितु दो भीमाकर शक्तियों- सोवियत संघ रूस और अमेरिका का संघर्ष था।
2. शीत युद्ध में प्रचार का महत्व था, यह वाक् युद्ध था।
3. शीत युद्ध में दोनों महाशक्तियां व्यापक प्रचार, गुप्तचारी, सैनिक हस्तक्षेप, सैनिक संधियों तथा प्रादेशिक संगठनों की स्थापना करके अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने में लगी रहीं।
4. दोनों शिविरों के मध्य तनावपूर्ण संबंधों की स्थिति को शीत युद्ध कहा गया।
5. इसे मस्तिष्क में युद्ध के विचारों को प्रश्रय देने वाला युद्ध कहा गया था।
6. शीत युद्ध के दौरान दोनों खेमें अपना–अपना विस्तार चाहते थे। शीत युद्ध की प्रकृति
शीत युद्ध की प्रकृति
शीत युद्ध की प्रकृति कूटनीतिक युद्ध सी है जो अत्यंत उग्र होने पर सशस्त्र युद्ध को जन्म दे सकती है। शीत युद्ध में रत दोनों ही पक्ष आपस में शांति कालीन कूटनीतिक संबंध बनायेरखते हुए भी शत्रु-भाव रखते हैं और सशस्त्रयुद्ध के अलावा अन्य सभी उपायों से एक दूसरे को कमजोर बनाने का प्रयत्न करते हैं।शीत युद्ध में दोनों ही पक्ष अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार के लिए अपनी सैद्धान्तिक विचारधाराओं और मान्यताओं पर बल देते हैं। दूसरे देशों को प्रभाव क्षेत्र में लाने के लिए आर्थिक सहायता देना, प्रचार-अस्त्र को काम में लेना, जासूसी, सैनिक हस्तक्षेप, शस्त्रसप्लाई, शस्त्रीकरण, सैनिक गुटबंदी और प्रादेशिक संगठनों का निर्माण आदि शीत युद्ध के अंग है । शीत युद्ध के कारण
शीत युद्ध के कारण
शीत युद्ध के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं–
1.विरोधी विचारधाराओं का समर्थन
द्वितीय महायुद्ध के बाद विश्व में दो महशक्तियां रह गई थी संयुक्त राज्य अमेरिका व सोवियत संघ रूस। दोनों ही महाशक्तियां के मध्य शीत युद्ध के प्रमुख कारणों में से एक था। विरोधी विचारधाराओं का समर्थन। दोनों ही महाशक्तियां परस्पर विरोधी विचारधाराओं का समर्थन करती थी जहां अमेरिका विश्व में पूंजीवाद को फैलाना चाहता था वहीं रूस विश्व में साम्यवाद को फैलाना चाहता था और यह दोनों ही विचारधाराएं परस्पर विरोधी है।
2. ईरान से सोवियत सेना का नहीं हटाया जाना
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सोवियत सेना ने ब्रिटेन की सहमति से उत्तरी ईरान पर अधिकार जमा लिया था। यद्यपि युद्ध की समाप्ति के बाद आंग्ल-अमेरिकी सेना तो दक्षिणी ईरान से हटा ली गई, पर सोवियत संघ ने अपनी सेना हटाने से इंकार कर दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव के फलस्वरुप ही सोवियत संघने बाद में वहां से अपनी सेनाएं हटाई। इससे भी पश्चिमी देश सोवियत संघ से नाराज हो गए।
3. टर्की पर सोवियत संघ का दबाव
युद्ध के तुरंत बाद सोवियत संघ ने टर्की पर कुछ भू-प्रदेश और वास्फोरस में नाभिक अड्डा बनाने के लिए दबाव डालना शुरू किया। परंतु पश्चिमी राष्ट्र इसके विरुद्ध थे। जब टर्की पर सोवियत संघ का हस्तक्षेप बढ़ने लगा तो अमेरिका ने उसे चेतावनी दी कि टर्की पर किसी भी आक्रमण को सहन नहीं किया जाएगा और मामला सुरक्षा परिषद में रखा जाएगा।
4. अणु बम का अविष्कार
शीत युद्ध के सूत्रपात का एक अन्य कारण अणु बम का आविष्कार था। सोवियत संघ द्वारा यह कहा जाता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में अणुबम पर अनुसंधान कार्य और उसका परीक्षण बहुत पहले से चल रहा था। अमेरिका ने इस अनुसंधान की प्रगति से ब्रिटेन को तो पूरा परिचित रखा, लेकिन सोवियत संघ से इसका रहस्य जानबूझकर गुप्त रखा गया। सोवियत संघ को इससे जबरदस्त सदमा पहुंचा और उसने इसे एक घोर विश्वासघात माना।
5. अपने-अपने खेमों का विस्तार
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ व अमेरिका द्वारा महाशक्तियाँ बनने के पश्चात दोनों ही गुट अपने-अपने खेमों का विस्तार चाहते थे। दोनों ही खेमे अपने-अपने खेमों में अधिक से अधिक सदस्य राष्ट्र चाहते थे। जिससे उनकी स्थिती मजबूत हो सके।
6.बर्लिन की नाकेबंदी
सोवियत संघ द्वारा लंदन प्रोटोकोल का उल्लंघन करतेहुए बर्लिन की नाकेबंदी कर दी गई। इससे पश्चिमी देशों ने सुरक्षा परिषद में सोवियत संघ की नाकेबंदी के विरुद्ध शिकायत की और इस कार्यवाही को शांति के लिए घातक बताया।
7.सोवियत संघ द्वारा “वीटो” का बार-बार प्रयोग
सोवियत संघ ने अपने “वीटो” के अनियंत्रित प्रयोगों द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यों में बाधाएं डालना प्रारंभ कर दिया, क्योंकि वे संयुक्त राष्ट्र संघ को विश्व शांति और सुरक्षा स्थापित करने वाली एक विश्व संस्था न मानकर अमेरिका के विदेश विभाग का एक अंग समझता था। इसलिए “वीटों” के बल पर उसने अमेरिकी और पश्चिमी देशों के लगभग प्रत्येक प्रस्ताव को निरस्त करने की नीति अपना ली। सोवियत संघ द्वारा वीटो के इस प्रकार दुरुपयोग करने से पश्चिमी राष्ट्रों की यह मान्यता बन गई कि वह इस संगठन को समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील है। इस कारण पश्चिमी राष्ट्र सोवियत संघ की कटु आलोचना करने लगे, जिसके परिणामस्वरूप उसमें परस्पर विरोध और तनाव का वातावरण और अधिक विकसित हो गया।
8.सोवियत संघ की लैण्ड-लीज सहायता बंद किया जाना
लैण्ड-लीज ऐक्ट के अंतर्गत अमेरिका द्वारा सोवियत संघ जो आंशिक आर्थिक सहायता दी जा रही थी उससे वहअसंतुष्ट तो था ही क्योंकि यह सहायता अत्यंत अल्प थी, किंतु इस अल्पसहायता को भी राष्ट्रपति ट्रूमैन द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एकाएक बंद कर दिया गया जिससे सोवियत संघ का नाराज होना स्वभाविक है।
9. शक्ति संघर्ष
विश्व में जो भी परम राष्ट्र होते हैं उनमें प्रधानता के लिए संघर्ष होना अनिवार्य होता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ तथा अमेरिका ही दो शक्तिशाली राज्यों के रूप में उदय हुए, अत: इनमें विश्व प्रभुत्व स्थापित करने के लिए आपसी संघर्षहोना अनिवार्य था।
10. नाटो की स्थापना
नाटो की स्थापना अमेरिका द्वारा सोवियत संघ को चेतावनी थी कि यदि उसने इस संधि पर हस्ताक्षर करने वाले किसी देश पर आक्रमण किया तो संयुक्त राज्य अमेरिका तत्काल उसकी सहायता करेगा।
11.सोवियत संघ द्वारा याल्टा समझौते की अवहेलना
फरवरी, 1945 में याल्टा सम्मेलन हुआ जिसमें अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट, चर्चिल तथा स्टालिन ने परस्पर कुछ समझौते किए थे। रूस ने याल्टासमझौते के पालन का आश्वासन तो दिया परंतु उसका पालन नहीं किया।
12. युद्धकाल में रूस को अपर्याप्त सहायता
रूस ने यह आरोप लगाया कि युद्ध काल में जर्मनी द्वारा रूस पर आक्रमण होने पर पश्चिमी देशों ने जो सैनिक सहायता रूस को दी वह बहुत कम व अपर्याप्तथी।
13. अमेरीका द्वारा जापान के साथ शान्ति सन्धि
जिस समय कोरिया युद्ध चल रहा था, तभी सितंबर 1951 में अमेरिका सहित कई अन्य पश्चिमी देशों ने जापान के साथ एक शांति संधि पर हस्ताक्षर किए। सोवियत संघ ने इस कार्यवाही को एकपक्षीय कहकर अमेरिका की काफी निंदा की। अंतराष्ट्रीय राजनीति पर शीत युद्ध का प्रभाव
अंतराष्ट्रीय राजनीति पर शीत युद्ध का प्रभाव
1.विश्व का दो गुटों में विभाजित होना
शीत युद्ध के कारण विश्व राजनीति का स्वरूप द्विपक्षीय बन गया। संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ दो पृथक पृथक गुटों का नेतृत्व करने लग गये। अब विश्व की समस्या को इसी गुटबंदी के आधार पर आंका जाने लगा जिससे अंतरराष्ट्रीय समस्याएं और उलझनपूर्ण बन गयी।
2.आतंक और अविश्वास के दायरे में विस्तार
शीत युद्ध ने राष्ट्रों को भयभीत किया, आतंक, अशांति और अविश्वास का दायरा बढ़ाया।
3. आणविक युद्ध की सम्भावना का भय
शीत युद्ध ने विश्व के सामने ऐसी भयावह स्थिति उत्पन्न कर दी अब यह महसूस किया जाने लगाथा कि अगला युद्ध भयंकर आणविक युद्ध होगा। क्यूबा संकट के समय आणविक युद्ध की संभावना बढ़ गई थी। अब लोगों को आणविक आतंक मानसिक रूप से सताने लगा।
4. सैनिक संधियों एवं सैनिकगठबंधनो का बाहुल्य
शीत युद्ध ने विश्व में सैनिक संधियों एवं सैनिक गठबंधनों को जन्म दिया। नाटो, सीटो, सेण्टो तथा वारसा पैक्ट जैसे सैनिक गठबंधनों का प्रादुर्भाव शीत युद्ध काही परिणाम थे।
5. शस्त्रीकरण की अविरल प्रतिस्पर्द्धा
शीत युद्ध ने शस्त्रीकरण की होड़ को बढ़ावा दियाजिसके कारण विश्व शांतिऔर निशस्त्रीकरण की योजनाएँ धूमिल हो गयी।
6.गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्त का प्रतिपादन
शीत युद्ध के दौरान विश्व जहाँ दो गुटों में विभाजित हो गया जिसमें कुछ सदस्य राष्ट्र अमेरीका व कुछ सदस्य राष्ट्र रूस के गुट में सम्मिलित हो गये वही कुछ राष्ट्रों ने गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया अर्थात् उन राष्ट्रों ने स्वयं को दोनों गुटों से अलग रखने का फैसला लिया। इस प्रकार गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ।
7.अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सैनिक दृष्टिकोण का पोषण
शीत युद्ध से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सैनिक दृष्टिकोण का पोषण हुआ।अबशांति की बात करना भी संदेहस्पद लगता था। अब “शांति” का अर्थ “युद्ध” के संदर्भ में लिया जाने लगा। ऐसी स्थिति में शांतिकालीन युग के अंतरराष्ट्रीय संबंधों का संचालन दुष्कर कार्य समझा जाने लगा।
8.संयुक्त राष्ट्र संघ का पंगु करना
शीत युद्ध के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे विश्व संगठन के कार्यों में भी अवरोध उत्पन्न हुआ और महा शक्तियों के परस्पर विरोधी दृष्टिकोण के कारण संघ कोई कठोर कार्यवाही नहीं कर सका। संयुक्त राष्ट्र का मंच महाशक्तियों की राजनीति का अखाड़ा बन गया और इसे शीत युद्ध के वातावरण में अंतरराष्ट्रीय राजनीति प्रचार का साधन बना दिया गया।
9. सुरक्षा परिषद को लकवा लग जाना
शीत युद्ध के कारण सुरक्षा परिषद को लकवा लग गया। सुरक्षा परिषद जैसी संस्था, जिसके कंधों पर अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा स्थापित करने कात्वरित निर्णय लेने का भार डाला था सोवियत संघ और अमेरिका के, पूर्व और पश्चिम के संघर्ष का अखाड़ा बन गयी। इसमें महाशक्तियां अपने परस्पर विरोधी स्वार्थों के कारण विभिन्न शांति प्रस्तावों को “वीटो” द्वारा बेहिचक रद्द करती रहती थी|
10. आणविक हथियारों के निर्माण में तीव्रता
शीत युद्ध के दौरान आणविक हथियारों का महत्व विश्व में बढ़ता गया जिसके फलस्वरूप आणविक प्रतिस्पर्धा बढ़ी तथा आणविक हथियारों के निर्माण में तीव्रता आ गयी।
11. मानवीय कल्याण के कार्यक्रमों की उपेक्षा
शीत युद्ध के कारण विश्व राजनीति का केंद्रीय बिंदु सुरक्षा की समस्या तक ही सीमित रह गया और मानव कल्याण से संबंधित कई महत्वपूर्ण कार्यों का स्वरूप गौण हो गया। शीत युद्ध के विशिष्ट साधन
शीत युद्ध के विशिष्ट साधन
शीत युद्ध के विशिष्ट साधन क्या थे? युद्ध के साधन होते हैं- अस्त्र-शस्त्र, गोला तथा बारूद। शीत युद्ध के मोटे रूप से निम्नांकित साधन थे-
1. प्रचार
2.शक्ति का प्रदर्शन
3 .कमजोर और अविकसित राष्ट्रों को आर्थिक और अन्य सहायता देना
4.जासूसी
5.कूटनीति
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