श्री १००८ गुरु टेकचंद जी महाराज
जीवन परिचय
भारत वर्ष धर्म प्रधान देश है ! भारतीय संस्कर्ती में अनेक सम्प्रदाए अवेम जातियां है !यह इसकी विशेषता है जिसके कारण अतिक्रमणों के बाद भी आज तक इस्सी धरम में अनेक ऋषि , मह्रिषी , साधु सन्यासी संत महात्माओ अवेम सत्पुर्शों क पदार्पण हुए हैं इस्सी श्रंखला में पूज्य श्री १००८ गुरु टेक्चंदर जी महाराज ने जन्मलिया है ! जिन्होंने अपने जन हितेषी कार्यों से भारतीय संस्कृति , साहित्य एवं इतिहास को वृद्धि करते हुए उन्हें अक्षुण बनाये रखा !
मध्यकालीन भक्ति युग में मीराबाई , तुलसीदास , सूरदास , तुकाराम ज्ञानेश्वर , नामदेव , आदि अन्य संत कवी , भक्तों के साथ ही श्री टेक्चंदर जी महाराज भी हुए हैं ! इनके जीवन के संत श्री कबीर दासजी एवं वैष्णव भक्त का अभूत पूर्व समन्वय था !
संत समाजभूषण श्री टेक्चंदरजी महाराज का जन्म ग्राम आलरो म . प्र , के मालवा क्षेत्र में जिला शाजापुर के मक्सी रेलवे स्टेशन के पास झोंकर से डेढ़ कि.मी . दूरी पर ग्राम आलरीमें दामोदर वंशीय जुना गुजराती क्षत्रिय समाज के एक गरीब किन्तु सम्मानित परिवार में विक्रम संवत १८०५ में वैशाख शुक्ल पूर्णिमा के दिन हुआ था ! वर्तमान में यह गाँव देवास जिले में आता है !इनके दादाजी सर्व श्री हीरालालजी , दलपतजी , व चंद्रभानजी तीन भाई थे ! इनमे से श्री हीरालालजी ग्राम खरेली में झोंकर एवं श्री चंद्रभानजी ग्राम आलरी आ गए थे ! श्री दलपतजी ग्राम खालेरी में ही रहे !
इनके पिताजी श्री चंद्रभानजी के पुटर श्री उदयरामजी व माता रुख्मनीबाई थी ! इनका प्रचलित गीत मंडोवरा पडिहार और गोतर पराशर था ! इनकी माता सोन्य सोलंकी परिवार कि थी ! वे मक्सी कि रहेने वाली थी ! उनका जन्म स्थान आलरी ग्राम गवालियर राज्य में आता था ! गवालियर राज्य में महाराजा सिंधिया राज्य करते थे !जब सटी साध्वी रुख्मणि बाई की पवित्र कोख से श्री टेक्चंद्रजी महाराज ने जन्म लिया उस समय गाँव के समस्त नर नारियों को ऐसा आनंद हुआ सकल तीर्थ इस ग्राम आलरी में प्रकट हो गए हो ! जो माता बहिन इस बालक को देखती वह कुछ पल के लिए एकटकी सी बंधकर देखा करती थी क्योकि होनहार बालक क चिन्ह ऐसे ही होते हैं जब से टेक्चंद्र्जी का जनम हुआ घर में सुख शांति अवं सम्पन्नता पहेले से बढ़ने लगी ! उनके पिता श्री उदयरामजी कपड़ों का व्यापार करते थे ! जब बालक टेक्चंद्र्जी की बोली खुली तो सत्य नाम ॐ का ही उच्चारण हुआ था ! इनकी माता ने बड़े लाड प्यार से पालन पोषण किया !
पांच वर्ष की अवस्था में उन्हें पाठशाला भेजा गया ! ग्राम में रहेने के कारन उनकी प्रहम्भिक शिक्षा कोई विशेष नहीं हो सकी ! परन्तु इश्वर भक्ति और सत्संग को बालें बड़े चाव से सुनते थे ! ग्यारह वर्ष की आयु में उन्हें याग्योबीत धारण कराया गया था ! बारह वर्ष की आयु में पिताजी ने इन्हें भी सिलाई के काम पर बैठा दिया तथा हात बाजार करने के लिए भी साथ ले जाने लगे थे !
घर में धार्मिक वातावरण होने से श्री टेक्चंदेर्जी की विचारधारा बचपन से ही धार्मिक रही ! एक समय की बात है श्री उदयराम जी को मोतिझिरा अवं खासी से तकलीफ हने पर तबियत कुछ नरम थी !अपनी धरम पत्नी से कहा की मेरी तबियत नरम है ! वास्ते धरम पत्नी ने उन्हें गर्म दूध क साथ दवाई दी और कहा की आपको अपना कारोबार बच्चों को सोप देना चाहिए ! धंधा न कर सकने के कारन उन्होंने अपनी पत्नी की सलहा से तीनो पुत्रों को बुलाया ! उनके नाम अमीचंद , तुलसीराम अवं टेक्चंदर थे ! जब उन्हें बुलाया तब वे अन्य बच्चों के साथ भक्त के रूप में भजन कीर्तन गा-गा कर खेल रहे थे ! उनके कीर्तन का मुखड़ा था : -
है ! नन्द नंदन असुर निकंदन , भवभय भंजन हारे या !
विपिन बिहारी जनमन हारी, श्याम बांसुरी वारे या !!
भक्त जनन के अरु कवियन के , मन मंदिर उजियारे आ !
भारत भाग्य उदय करने, मेरे श्री कृष्णा प्यारे आ !!
माता पिता के बुलावे का आभास पाकर वे घर आये ! पिताजी ने तीनो भाई से कहा बाजार हात जाकर कपड़े बेचोगे तो अच्छा होगा ! क्योकि मेरी हालत ठीक नहीं है और में तुम्हारे साथ बाजार हात करने के लिए भी असमर्थ हु ! पिताजी की इस आज्ञा का पालन करने तीनो भाई तैयार हो गए ! अमिचंदर और तुलसीराम को एक गाँव तथा टेक्चंदर को दुसरे गाँव भेजा !साथ ही उन्होंने कुछ व्यापारियों हरिरामजी , रतीरामजी , गोविन्दजी , आदि के नाम बताये ! श्री तेक्चंदेर्जी ने प्रस्थान करने से पूर्व मन ही मन एइश्वर का स्मरण करते हुए प्रार्थना की प्रभु मुझे इस कार्य को सच्चे रूप से निभाने की शक्ति दे और बाद में वे मत पिता को नमन कर प्रस्थान किया ! बाजार में अपनी दुकान लगा कर कपड़े बेचने लगे सबने देखा की ये नया व्यापारी लड़का कोन है ? तब टेक्चंद्र्जी ने कहा की आपने मुझे कभी नहीं देखा इस्से में नया हूँ परन्तु में उदयरामजी का पुत्र हूँ ! सब दूकानदार भी अपने अपने काम में लग गए !
उस दिन बाजार में टेक्चंदेर्जी के माल की बिक्री अच्छी हुई ! इसे देखकर कुछ व्यापारी जलन करने लगे ! दुसरे हाट में टेक्चंदेर्जी ने अपनी दुकर अन्य व्यापारियों के साथ लगाई ! उसमे बिक्री बहुत हुई ! कभी तो ऐसा भी हुआ की उन्होंने आधे दाम में ही कपड़ा दे दिया ! जिसे देखकर अन्य व्यापारी टेक्चंद्र के पिता उदयरामजी के पास जाकर कहेने लगे की तुम्हारे लड़के ने तो बहुत कम दाम में कपड़ा बेच दिया ! ग्राहक की दयनीय अवस्था को देखकर एक दो को बिना पैसे लिए ही माल दे दिया ! जिसे देखकर अन्य व्यापारी टेक्चंद्र्जी के पिता उदयरामजी के पास जाकर कहेने लगे की तुम्हारेलाद्के ने तो बहुत कम दाम में कपड़ा बेच दिया है ! इससे बाजार भाव पर बुरा असर पड़ता है ! उसकी सत्यता की जानकारी उन्ही के सामने लेने पर उनके पिताजी ने जितना माल दिया था वह अयं रुपये का हिसाब पूरा पाया ! जिसे देखकर माता-पिता अयं व्यापारी वर्ग अस्चार्ये चकित रह गए !
सत्संग का प्रभाव
इसके बाद एक समय की घटना है कि टेक्चंदेर्जी मक्सी से बाजार करके घर लौट रहे थे ! रास्ते में साधू संतों की एक टोली मिली ! आपने सब रकम उनके लिए खर्च कर दी और खली हाथ घर वापस आ गए! उस दिन पहेले की भांति हिसाब नहीं बताया सुभ होते ही फिर सब के सब दूकानदार उदयरामजी के यहाँ आकर टेक्चंद्र्जी के विरुद्ध कई प्रकार की बातें बनाकर कठोर शब्दों में उलाहना देने लगे ! एक ने तो ये तक कहे दिया की तुम्हारे बेटे ने क्या हिसाब दिया की उसके इतनी तरफदारी कर रहे हो !वह हिसाब क्या बताएगा उसने तो सारा का सारा धन साधू संतों को दे दिया था ! और वह खली हाथ घर आया है ! इस बात ने अग्नि में जलती हुई आहुति सा काम किया ! उअय्रम्जि ने तमतमाते हुए उन् लोगों के सामने टेक्चंद्र्जी को बुलाया और कहा तुम्हारे कारन मेरे साथी इतना कष्ट उठाते हैं यहाँ में सहन नहीं कर सकता ! कल चुपचाप आया और सो गया मुझे हिसाब तक नहीं बताया ! सार पैसा साधू संतों को खिलाकर खली हाथ घर आया ! इस पर टेक्चंद्र्जी ने कहा मेने उन्हें (दुकानदारों) को कोन्स कष्ट दिया है ! आप सच मानिये साधू संतों के बारे में संत कबीरदासजी ने कहा है –
साधू हमारी आत्मा , हम साधू के जीव
साधू में यूँ राम रहा , जो गो रस में घीव
संत हमारी आत्मा , हम संतान के देह
साधू में यूँ राम रहा , जो बदल में मेह !
यह सुनकर पिताजी बोले चल बड़ा आया , मुझसे बड़ी बड़ी ज्ञान की बातें करता है उनको परेशान करके पूछता है कोनसा कष्ट ! एकदम क्रोध में आकर उनके पिताजी ने कहे दिया की अभी चले जाओ मेरे सामने से ! में कुछ सुन्ना नहीं चाहता ! जहाँ तुम जाना चाहो जा सकते हो ! अब तुम मेरे घर में पैर मत रखना ! तुमने घर को बदनाम कर दिया है ! मूर्ख !
गृह त्याग
श्री टेक्चंदेर्जी ने पिता के मुख से इस प्रकार के शब्द सुने तो उनके कोमल ह्रदय को गहरा आघात पंहुचा ! उन्होंने अपने मन में अपनी आत्मा से ध्यान कर जान लिया की इस नश्वर संसार में इश्वर के बिना और कोई मददगार नहीं है ! सद्भाव से उस इश्वर का भजन पूजन करना ही अच्छा है ! ऐसा विचार कर अपने माता पिता भाई बहिन आदि सभी पूजनीय लोगों को मन ही मन प्रणाम कर पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके घर छोड़कर निकल गए ! जिस हालत में पिताजी के सामने खड़े थे वैसे ही चले गए !
रास्ते में जाते हुए इश्वर को विनय के साथ भजते जाते थे :-
विनम्र प्रार्थना
प्रभु सत्य का पथ बता दो मुझे !
आवागमन के दुःख से चुद लो मुझे !!
प्रभु चरणों की शरण में लागलो मुझे !१ प्रभु सत्य का ..........
पड़ा हु जंजाल जगत में , घोर अविध तम जहाँ !
कामादि ब्याल कराल घेरे , आहार निशि रहते तहां !!
ऐसे काल के गाल से , बचालो मुझे !! प्रभु सत्य का .......
उटाह रही तराशना की अग्नि , वासना झाल उड़ रही !
धुँआ कर्म का छाया चहु दिशि , गेल स्वजाति में नहीं !
अपने चरणों का सहारा , दिल दो मुझे !! प्रभु सत्य का .......
माया के परदे नेत्र पर है , सूझता सत्पंथ नहीं !
अगर आप भी छोड़ दोगे, फिर ठिकाना नहीं कही !!
अपने चरणों की शरण में , लगालो मुझे !! प्रभु सत्य का ........
रो रो पुकारू तुझे , अब तो सद्गुरु दो दर्शन !
तेरे सिवा नहीं कोई , जो हरे संकट भगवन !!
अब तो सुक्र्त सव्देश में , पौच दो मुझे !! प्रभु सत्य का ........
' टेक्चंद्र ' उस प्रभु कृपा से , जपले सिकर्ट नाम !
इश्वर इस संसार में , संग चले सतनाम !!
सतगुरु सतनाम सवरूप , दिखा दो मुझे !! प्रभु सत्य का ........
उनके घर से चले जाने पर माता रुख्मणि को बहुत दुःख हुआ और उदयरामजी ने भी क्रोध शांत होने पर उदास स्वर में कहा देवी संसार का यहाँ नियम है कि मनुष्य पर जब प्रभु कृपा करते हैं तो ऐसा ही होता है ! अतः जब धीरज से ही काम लेना है ! पत्नी बोली की कोई ऐसा उपाय करो जिससे मेरा पुत्र मुझे फिर से मिल जाए! पिता के अनेक उपाय करने पर भी वे घर नहीं लोटे ! जो लेने गए थे उन्हें समझा कर वापस कर दिया ! जैसे तेसे मन मरकर रहेने लगे ! समय आने पर उदयरामजी ने दोनों बच्चों अमिचंद्र अवं तुलाराम का विवाह अच्छा घर घराना देखकर कर दिया ! सारे परिवार के लोग आनंद से रहेने लगे लेकिन टेक्चंद्र्जी की अनुपस्थिति खलती रही उन्होंने विक्रम सम्वत १८२३ सन १७६६ में गृह त्याग किया उस समय उनकी उम्र १८ वर्ष की थी ! अभी तक श्री टेक्चंद्र्जी सांसारिक जीवन पर सवार थे किन्तु घर से निकलने के पश्चात् अपने जीवन को सार्थक बनाने के किये भक्ति व ज्ञान के सागर में तेरते रात दिन प्रभि के चरणों को अपने ह्रदय में धारण कर गाँव-गाँव घुमते फिरते रहे ! श्री टेक्चंदेर्जी महारज को भी माता- पिता तथा भाई बाहें की याद कुछ दिनों तक आती रही ! किन्तु ज्यो ज्यों ज्यों भगवत भजन एवं सत्संग में रमते गए त्यों त्यों याद बिसरते गए ! लगाव कम होता गया और एक समय ऐसा आया जब उनके ज्ञान चक्षु खुल जाने से वे गृहस्थ जीवन से मुक्त हो गए !
गुरु दीक्षा
विक्रम सम्वत १८२४ सन १७६७ में घुमते घुमते एक दिन वे उन्हेल नाम के गाँव में पहुचे ! उन्हेल में कबीर पंथी एक संत श्री परसरामजी महाराज निवास करते थे ! वही उन्हें उनका सत्संग मिला जिससे प्रभावित होकर उस अत्यंत ही सुन्दर एवं रमणीय स्थान पर यदि मुझे अपना शिष्य बनाकर रहेने का मोका दें तो कितना अच्छा हो , ऐसा विचार कर श्री टेक्चंद्र्जी ने श्री गुरु परसरामजी के पास जाकर साष्टांग प्रणाम किया और आज्ञा पाकर कहा- गुरु महाराज आप मुझे अपना शिष्य बना लें जिससे आपके चरणों की सेवा करके कृतार्थ हो जाऊ ! यहाँ वचन सुनकर श्री गुरु महारज परसरामजी ने सार रहस्य व चमत्कार पैचान लिया और कुछ सोच कर कहा बेटे तेरे माता पिता धन्य है जिन्होंने तेरे जैसे पुत्र को जनम दिया ! में तुम्हे अपना शिष्य अवश्य बनाऊंगा ! तुम अभी आश्रम में ही रहो ! आश्रम के सभी शिष्यं को बुलाकर कहा - टेक्चंदर यही रहेगा तथा शुभ दिन व समय देखकर दीक्षा दी जाएगी ! कुछ दिन बीतने के बाद विक्रम सम्वंत १८२५ सन १७६८ में वैशाख शुक्ल पूर्णिमा के दिन श्री गुरु परसरामजी महाराज ने श्री टेक्चंद्रजी को साधू संत होने की गुरु दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया ! उनके बारह गुरु भाई एवं एक गुरु बहिन थी जिनके नाम निम्नुसार है :-
१ श्री भीखारिदासजी
२ श्री मोतिदासजी
३ श्री मनोहर दासजी
४ श्री आत्मदासजी
५ श्री तेजुदासजी
६ श्री गणेश्दासजी
७ श्री सिद्धनाथजी
८ श्री गरीबनाथजी
९ श्री केवलनाथजी
१० श्री ऐकनाथजी
११ श्री सिंगाजी महाराज
१२ श्री रामजी बाबा
१३ बाई रामदास
सभी शिष्यों से गुरूजी बाई रामदास को अधिक चाहते थे ! श्री टेक्चंद्र्जी सभी शिष्यों में बहुत ही चतुर एवं ज्ञान के धनि थे ! धीरे - धीरे गुरूजी का स्नेह श्री टेक्चंद्रजी के प्रति बढ़ता गया ! श्री टेक्चंद्र्जी भजन भी बहुत गया करते थे ! इनकी वाणी बहुत मधुर थी वे अपने गुरुभाइयों के साथ भी सहिष्णुता का व्यव्हार रखते थे ! आश्रम में सत्संग पाकर भक्त टेक्चंद्र रात दिन इश्वर चर्चा में मगन रहेते थे ! इश्वर चर्चा में इनका विवेक रुपी भण्डार अगम्य व अक्षय होने लगा ! उनकी क्षमा की विचारधारा ..............ता से परिपूर्ण तथा उच्च कोटि की होती थी जिससे स्वयं गुरु परसराम भी अत्यंत प्रभावित होकर उनके ह्रदय से प्यार करने लगे ! श्री टेक्चंद्र्जी को अपने गुरु की सेवा करते तपस्या में १२ वर्ष व्यतीत हो गए ! वि . सं . १८३४ सन १७८० में एक दिन संत श्री परसरामजी महारज ने अपने सभी शिष्यों को बुलाकर तीर्थ यात्रा के विचार से अवगत कराया ! साथ ही श्री टेक्चंद्र जी को अपनी अनुपस्थिति में आश्रम का उत्तराधिकारी बनाने की भी जानकारी दी और कहा जब तक में वापस नहीं आ जाता तब तक यहाँ की सम्पूर्ण जवाबदारी टेक्चंद्र को सोंप रहा हूँ !गुरु परसरामजी ने बाई रामदास को पास बुलाया और कहा की मेरे बाद तुम टेक्चंद्र को ही गुरु मानना ! जिस प्रकार से मेरी सेवा करती हो उसी प्रकार से उनकी करना !परन्तु बाई रामदास को यहाँ बात अच्छी नहीं लगी क्योकि टेक्चंद्र अभी गुरु के योग्य नहीं है ! वह अभी इतना सिद्ध पुरुष नहीं हो गया है जो हम उनकी सेवा करें ! इस पर टेक्चंद्र्जी ने कहा बाहें तुम सच कहेती हो आपका यहाँ तुच्छ सेवक कहाँ - भला जुगनू की तुलना सूर्या से ! ऐसा नहीं होना चैये ! यहाँ सुनकर गुरु परसरामजी ने सभी को कहा तुम्हे गुरु की आज्ञा का पालन करना चहिये जो गुरु की बात टालता है वह सच्चा संत नहीं बन्न सकता ! उससे साधू नहीं होना चहिये ! बिना सेवा किये आत्मा निर्मल नहीं हो सकती ! बाई रामदास का विरोध देखकर गुरूजी ने तीर्थयात्रा का विचार स्तगित कर दिया ! सभी आनंद पूर्वक रहेने लगे !
गुरु आश्रम का त्याग
बाई रामदास की व गुरूजी की बात सुनकर श्री टेक्चंदर को झटका लगा और उन्होंने अपना मन में विचार किया कुई गुरूजी मुझे बढ़ा भारी त्यागी समझकर मेरी गुरु बहन को सेवा में भेज रहे हैं ! यदि में यहाँ मुझे बड़ा भारी त्यागी समझ कर मेरी गुरु बहिन को सेवा में भेज रहे हैं ! यदि में यहाँ रहेता हु तो गुरु भाइयों का द्वेष बढेगा द्वेष बढ़ाना अपना काम नहीं है , अपना काम तो दीं दुखी जीवों की सेवा करना और सत्य का उपदेश देना है ! अतः इन् सब बातों से बचने क लिए मुझे आश्रम छोड़ देना चहिये ! ऐसा विचार कर श्री टेक्चंदर जी ने गुरु भाइयों व बहनों को दंडवत प्रणाम करके अर्ध रात्रि में बिना गुरूजी से मिले चुपचाप वहां से भ्रमण करने निकल पड़े !सुभ होने पर श्री गुरूजी परसरामजी को साड़ी घटना मालूम पड़ी तो अत्यंत दुखी हुए ! संत श्री परसराम ने सभी शिष्यों को बुलाकर कहा ऐसा मालूम होता है कि टेक्चंदर आश्रम छोड़कर कही चले गया है टेक्चंद्र वास्तव में आश्रम में सर्व शिरोमणि विद्वान था ! संत बोले हमारे टेक्चंद्र का आदर्श , इएश्वर भक्ति में लगन , गुरु से अद्वितीय थी , शिष्यों ने कहा - हमारी अखंड सुमरनी का एक महत्वपूर्ण मनका कम हो गया ! हम तो उनकी तुलना में पासंग भी नहीं !उन् पर प्रभु की असीम अनुकम्पा थी ! बातचीत करते करते श्री परसरामजी व अन्य शिष्यों का मन भी श्री टेक्चंद्रजी के आभाव में खिन्न हो गया !
परसरामजी ने जगह जगह भक्तों को भेजकर अपने शिष्य टेक्चंदेर्जी की तलाश कराइ जब कही पता नहीं लगा तो वे सब इस बात पर उतारू हो गए की आज नहीं तो कल हम टेक्चंदर को ढूँढकर ही रहेंगे !
अवंतिका आगमन
उधर गुरु आश्रम से निकलने के बाद श्री टेक्चंदेर्जी भटकते भटकते उज्जैन नगरी में पुच गए वहां पर भक्त शिरोमणि मीराबाई का एक बड़ा सुन्दर स्थान बना हुआ था उस्सी स्थान पर संत श्री टेक्चंद्र्जी में अपना आसन जमा लिया ! धीरे धीरे उनकी प्रतिमा दिन दोगुनी रात चोगुनी बढ़ने लगी ! दिन रात मण्डली चाहे साधू हो या गृहस्थी मिलने व सत्संग करने को आने लगे ! उस साधारण प्राणी ने वह जादू कर दिया था की जो वहां आश्रम पुच जाता उसका आश्रम छोड़ने को जी नहीं करता था देखते देखते सेकड़ों व्यक्ति श्री टेक्चंद्र्जी महाराज के प्रवचन को सुनकर इश्वर में श्रद्धा रखने लगे और उन्हें अपना गुरु मानने लगे ! गुरु दीक्षा देने का कार्य भक्तों के आग्रह होने पर भ स्तगित रखा ! उनका कहेना था की तीर्थ यात्रा करने के बाद ही में यहाँ कार्य हाथ में लूँगा ! दिन प्रतिदिन भक्तों की श्रद्धा अधिकाधिक बढ़ने लगी इनके परिणाम स्वरूप भक्तों द्वारा एक श्री राधा कृष्णा मंदिर का निर्माण किया तथा उनके चरणों के चरण पादुका की ! जो आज भी ब्राहमण गली बहादुरगंज में स्थापित है!
उज्जैन में रहेते उन्होंने अपने प्रवचन में कहा - यहाँ संसार माया मोह से लिप्त हुआ है ! इससे प्राणी मात्र को विर्रक्त रहेना ही हितकर है ! तभी एक भक्त ने प्रशन किया स्वामी गृहस्थ में फस प्राणी इस माया मोह से कैसे अलग हो सकता है ?
इस पर श्री टेक्चंद्र्जी में कमल का उदहारण देकर कहा - अवश्य हो सकता है जिस प्रकार कमल पर जल डालने से कमल का पत्ता गोल नहीं होता वरन जल को नीचे गिर देता है उस्सी प्रकार ग्रहस्त में रहेकर के मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर सकता है ! त्याग तो करना ही होगा ! कलयुग में तो सांसारिक प्राणी के थोड़े से श्रम से प्रभु प्रसन्न होते हैं ! प्रभुका स्मरण सच्चे भाव से जो करता है , चाहे वह अल्पसमय के लिए ही क्यों न हो , घाट घाट के अंतर्यामी प्रभु उसकी पुकार अवश्य सुनते हैं !
तीर्थ यात्रा
एक दिन श्री टेक्चंद्र्जी महाराज ने अपनी तीर्थ यात्रा की इच्छा भक्तों के सामने रखी सभी उपस्थित भक्तों ने मिलकर उनके खर्च हेतु धन राशी एकत्रित कर भेंट की , परन्तु उन्होंने आश्रम की व्यस्था हेतु वापिस कर दिया और कहा की मुझे एक पैसा भी नहीं चहिये प्रभु खुद मेरी पूर्ती करता है सो इसे में क्यों अपने पास रखु ! दुसरे दिन सबेरे ही सब भक्तों ने अत्यंत श्रधा से श्री टेक्चंद्रजी महाराज को भगवान् श्री महाकालेश्वर के दर्शन के पश्च्यात तीर्थ यात्रा हेतु प्रस्थित कर भाव पूर्ण विदा किया ! श्री टेक्चंदेर्जी महारज ने अपनी तीर्थ यात्रा उज्जैन से चित्र शुक्ल पक्ष पुष्य नक्षत्र में विक्रम सम्वत १८४१ सन १७८४ में प्रारम्भ की !
उज्जैन से ओंकारेश्वर होते हुए कशी पहुंचे कशी में आपका कई साधू संतों एवं इएश्वर भक्तों से संपर्क हुआ ! वाही रहकर कुछ समय इश्वर भजन एवं सत्संग में व्यतीत किया ! और विश्वनाथ के दर्शन का लाभ लिया ! तत्पश्यात आपने चारो धाम बद्रीनाथ , केदारनाथ , जगन्नाथ , रामेश्वर और द्वारिका की यात्रा की ! संत श्री टेक्चंद्र्जी महाराज तीर्थ यात्रा करते हुए मथुरा , वृन्दावन , हरिद्वार , अमरनाथ , प्रयाग , चित्रकूट , मदुराई कशी कांची , श्री शैलम , तिरुपति , भीमशंकर , बैजनाथ त्रयम्बकेश्वर , सोमनाथ , जुनागड़ , गिरनार , डाकोर , नाथद्वारा , पुष्कर आदि मुख्या - मुख्या स्थानों पर होते हुए एवं प्रमुख नदियाँ गंगा , यमुना , गोदावेरी , कृष्णा , सरयू , कावेरी , नर्मदा आदि में स्नान करते हुए आश्विन शुक्ल पक्ष में विजयादशमी के दिन विक्रम संवत १८४७ सन १७९० में वापस उज्जैन आकर शिप्रा (शिवप्रिया) में स्नान करके महाकालेश्वर के दर्शनकर तीर्थ यात्रा समाप्त की !
गुरु पद को प्राप्ति
उज्जैन के भक्तों को इसकी सूचना पूर्व में ही मिल चुकी थी ! संत श्री टेक्चंदरजी महाराज के उज्जैन आते ही भक्त लोगों ने महाकाल मंदिर पहुंचकर उनका भव्य स्वागत किया ! सभी लोगों ने दंडवत प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लिया बाद में हाथी पर उनकी सवारी महान्कलेश्वर मंदिर से निकली जो उज्जैन के प्रमुझ मार्गों से होती हुई श्री राधाकृष्ण मंदिर पहुची ! तीर्थ यात्रा से आने के नाद उन्होंने भक्त जनों के आग्रह पर गुरु मन्त्र देना प्रारम्भ किया जिससे वे गुरूजी कहलाये ! प्रबल इएश्वर भक्ति के कारन संत कहलाये !
प्रस्थान
तीर्थ यात्रा के समय मार्ग में न-न प्रकार के उच्च कोटि के संत महात्माओं , महंतों , महापुरसों एवं भगवत भक्तों से भी सत्संग करने का अवसर प्राप्त हुआ ! उससे आपके व्यक्तित्व में एक महँ परिवर्तन आ गया था ! आप सह्न्ति एवं गाम्भीर्य के प्रतिरूप बन गए थे ! उनके गुरु परसरामजी के द्वारा बताई संत कबीर की बात याद आने पर श्री टेक्चंद्र्जी महाराज ग्राम झोंकर में संत कबीर मंदिर के दर्शन करने की इच्छा से मक्सी होते हुए कार्तिक शुक्ल एकादशी वि.सं.१८४७ सन १७९० के दिन ग्राम झोंकर पहुचे ! वहां का वातावरण उन्हें बहुत ही शांत एवं स्वच्छ मालूम हुआ ! संत श्री टेक्चंद्र्जी महाराज ने अपना आसन कबीर मंदिर में ही जमाया ! वहां पर मंदिर के पास ही एक बड़ा इमली का पेड़ था !
एक बार श्री गुरु महाराज संत श्री टेक्चंद्र्जी ने अपने संयम को अडिग बनाने एवं अधिक अत्यामिक ज्ञान को वृद्धि हेतु ग्राम झोंकर में इमली के पेड़ के पास ही नवरात्री में वि.सं. १८४९ सन १७९२ में ८ दिन की समाधी ली थी जिससे उनका वर्चस्व पास के गाँव में दूर दूर तक फ़ैल गया और भक्तों द्वारा समाधी के पास ही सुभ वहां कीर्तनं होता था ! आठ दिन की अविरल समाधी लेने के पश्च्यात संत अपनी मुद्रा भंग करके वास्तविक स्थिति में आये ! उन्हें फलों का रसपान कराया ! गगन भेदी आवाज़ से उपस्थित जन समुदाय ने जय-जयकार की !
शोकर में चमत्कार
ग्राम झोकर में एक दिन किसी बेलगाडी से एक बछिया कुचलकर मर गई ! वहां के लोगों ने संत की परीक्षा लेने के लिए की यहाँ कोई ढोंगी तो नहीं है , श्री टेक्चंद्र्जी के पास गए और इसी बिछिया को जिन्दा करने का आग्रह किया ! श्री टेक्चंद्र्जी ने कहा सतगुरु संत कबीर ने ऐसे कितने ही मरे हुए जीवों को इश्वर कृपा से जिन्दा कर दिया है ! वे ही सर्वेश्वर श्री हरी अब जीवन दान देंगे ! ऐसा कहकर संत श्री टेक्चंद्रजी महाराज ने अपना दया हाथ मन ही मन सत्यनाम का उच्चारण कर उस मरी हुई बिछिया को छू दिया ! वह जिंदा होकर सत्गुरुदेव की अपनी भाषा में स्तुति की और चरण चूमने लगी !
यहाँ पर करीमदास नाम के भक्त हुए हैं ! ! पूर्व में उनका नाम करीम खान था ! उब्जे कोई संतान नहीं थी ! वे बहुत खिन्न रहेते थे उपरोक्त चमत्कार को देखकर वे जब संत श्री टेक्चंद्र्जी के संपर्क में आये तो उनके आशीर्वाद से उनकी खिन्नता दूर हुई इश्वर कृपा से एवं गुरु प्रसाद से उनके यहाँ एक पुत्र उत्पन्न हुआ ! बाद में वे संत श्री टेक्चंदर जी महाराज के शिष्य हो गए और लोग उन्हें करीम भगत के नाम से जान्ने लगे ! उभोने ग्रहस्त जीवन का बिलकुल परित्याग कर दिया था !
कुछ अन्तरकाल के बाद ग्राम झोंकर के ही एक परिवार ने जलन एवं द्वेष भावना से प्रेरित होकर करीम भगत की शिकायत शासन के अधिकारीयों से की की यहाँ ढोंगी , भोगी व नकली भगत है ! उस पर उन्होंने झोंकर में ही जेल (दमदमा) में बंद कर दिया गया ! ग्वालियर रियासत के समय झोंकर में थाना कचाहेरी आदि के कार्यालय थे ! जेल में करीम भगत ने अपने गुरु श्री टेक्चंद्र्जी महाराज का स्मरण किया !
वहां के अधिकारीयों ने एक दिन श्री श्री १००८ गुरु श्री टेक्चंद्र्जी महाराज करीम भगत के रूप में इमली के पेड़ के नीचे भी भजन करते दिखाई दिए साथ ही जेल में भी , सब आश्चर्य चकित रहे गए और करीम भगत से क्षमा याचना कर उन्हें रिहा कर दिया !
बाद में झोंकर में रहेते हुए इएश्वर कृपा से उन्हें अचानक ही चित्त में उच्चाटन आया क्योकि वे अपनी प्रशंशा व ख्याति से हमेशा दूर रहेना चाहते थे ! ग्रान झोंकर कोचोड़कर दुसरे स्थान पर जाने की इच्छा से एक दिन श्री गुरूजी ने दोनों हाथ जोड़कर सतगुरु कबीर के सम्मुख खड़े होकर प्राथना की :
सत्गु श्री कबीर के , गए सिंहासन पास
दास जन टेक्चंद्र को , कार्लो अपना दास
प्रार्थना के बाद अद्रश्य वाणी द्वारा आवाज़ सुनाई दी :
सतगुरु संत कबीर ने दो उनको आवाज़
जा बच्चा हो जायेगा, भारत में सिरताज
इतना सुनकर गुरु चल दिए पुनः उज्जैन
हरच हुआ मनन को बड़ा, सुनकर आगम बैन !
जब श्री गुरुमहाराज ने सतगुरु का दर्शन कर अपने आपको अभय कर लिया तो वैशाख पूर्णिमा के दिन वि.सं . १८५० में वापस झोंकर से अवंतिकापुरी आ गए !
झोंकर में पटेल साहब व अन्य भक्तों के आग्रह पर आप वि.सं. १८४७ से १८५० तक रहे ! वि.सं. १८५० में उनकी यादगार हेतु पटेल श्री गुमानसिंह जी ने जहाँ पर संत श्री टेक्चंदर जी महाराज ने समाधी ली थी उस्सी स्थान पर एक ओटला बनवाया और उनके चरणों (पगल्या ) की स्थापना की !
बाद में वि.सं. १९९६ (सन १९३९) में अपने ही समाज के श्री खूबचंद्र्जी परमार मकोदी वालों ने धर्मार्थ एक छत्री बनवाई थी ! यहाँ छत्री उस्सी ओतले के स्थान पर बनी हुई है ! ! प्रत्येक पूर्णिमा को भजन कीर्तन एवं शरद पूर्णिमा को शरदोत्सव होता है !
कडछा प्रस्थान
उज्जैन में चोमस व्यतीत करने के बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को विक्रम संवत १८५० में ही आप उज्जैन से बारह मील दूर स्थित करछा में चले गए ! क्योकि आप एकांत में इएश्वर भजन करना पसंद करते थे ! वहां पर श्री गुरूजी ने एक घने जंगल में खाल के पास तपस्या करने के उद्देयाश्य से अपना आसन लगाया ! धीरे धीरे वहां की करोंदियों की झड़ी को काटकर अपना एक छोटा सा आश्रम बनाया ! जहाँ रात्रि में अपने ही आश्रम में रहेते थे ! इस प्रकार चार - छह महा बीतने पर एक दिन रात्रि में ग्राम कर्चा के लोगों को उनकी आत्म ज्योति (प्रभामंडल ) का प्रकाश दिकाही दिया ! तो वहां पुच कर देखा की एक संत महात्मा समाधिस्थ होकर अपना ध्यान लगाये हुए थे ! उस्सी रोज़ से गाँव के लोग उनके दर्शन करने जाने लगे ! और महारज ने कहा की आप यहाँ आनंद पूर्वक भजन करे ! लोगों ने कहा की हम सब आपकी सेवा में हाज़िर है ! गुरूजी ने कहा आप लोगों की जैसी इच्छा ! आप लोग भी सत्संग में आया करिए ! उस्सी दिन से रोशन सत्संग का नियम चालू हो गया !
करछा में नामदेव की कृपा
एक दिन की घटना है - श्री टेक्चंद्र जी महाराज अपने ध्यान में ब्रम्हलीं होकर विराजमान थे उस्सी समय कुछ श्रद्दालु भक्त दर्शन के लिए आये तो देखा के कदम के पेड़ के पास ध्यान में शांत मुद्रा में एक महात्मा बैठे है ! समीप पूछने पर उन् भक्तों ने देखा की संत के सर पर एक बड़ा सा कला नाग अपने फेन को फैलाये हुए था ! लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ और वे सब डरकर आड़ में खड़े हो गए ! इतने में ही एक भक्त गुरुमहाराज के दर्शन को आया ! यहाँ द्रश्य देख कर घबराया और बोहोत जोर से चिल्लाया तब सब एकत्रित हो आपस में चर्चा करने कगे की श्री गुरु महाराज को उनकी रक्षार्थ उन्हें सचेत कर दें ! इतने में बातों की आहात सुनकर नाग देवता संत को बिना हनी पौचाये पास ही एक बिल में चले गए ! उस्सी समय श्री टेक्चंद्र्जी महारज की ध्यानस्थ मुद्रा खुली ! सभी भक्तों ने गुरूजी को प्रणाम किया और पूरी घटना का वृत्तान्त सुनाया ! संत ने कहा इसमें डरने या भय्बीत होने की क्या बात है वह सर्प भी तो इश्वर मय है ! बिना प्रभु की इच्छा के सर्प तो क्या पत्ता भी नहीं हिलता है ! फिर हमे इस शरीरसे इतना मोह क्यों ? आप लोग निर्भय होकर प्रभु अ सत्य नाम लें ! श्री कृष्णा गोविन्द हरे मुरारे है नाथ नारायण वासुदेवा ! जिसके ह्रदय के उच्चारण मात्र से ही इच्छित फल की प्राप्ति हो जाती है ! सत्संग में आने वाले भक्तों ने गुरूजी से दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने वि.सं.१८५२ के शुभ महूरत में दीक्षा देने का कार्य प्रारम्भ किया ! धीरे धीरे चरों और से सत्संग के लिए लोग आने लगे !
करछा पर कृपा
एक दिन श्री पड़तेसिंह जी पटेल अपने गाँव करछा के लोगों के साथ गुरूजी के पास आये और कहा भगवन आपके यहाँ पधारने से आनंद ही आनंद हो रहा है ! हमारे यहाँ इन्देर्देव इतने रुष्ट थे की हमारे यहाँ फसलें चोपट हो जाती थी और पीने को पानी भी नहीं मिलता था ! जिस दिन से आपके चरण इस भूमि पर पड़े है यहाँ की काया ही पलट गई है ! आपके पधारने से जल वृष्टि हुई फसलें भी आशातीत फैली है ! नदी , तालाब , कुएं , बावड़ी सब लबालब भर गए है ! इस पर संत श्री टेक्चंद्र्जी महाराज ने कहा इसका श्रेय मुझे कैसे यहाँ सब तो इएश्वर की कृपा है इसके बाद श्री टेक्चंद्र्जी महाराज ने चालीस दिन की अखंड समाधी लेने की इच्छा व्यक्त की जिसको सुनकर उपस्थित समुदाय ने बड़े प्रेम से कहा की महाराज आपको किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होगी हम सब मिलकर आपकी तन मन धन से सेवा करेंगे आपके इस भक्ति भाव से कर्चा ग्राम तथा आसपास के गाँव पवित्र हो जायेंगे बाद में भजन कीर्तन हुआ और सभी वहां से विसर्जित हो गए !
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