अध्यात्म एवं विज्ञान
- विज्ञान vs #भगवान
💥 #विज्ञान और #भगवान के बीच कोई आपसी टकराव नहीं है । दोनों अपने अपने यथास्थान पर स्थित हैं और अगर हम अपनी सोच का स्तर थोडा ऊँचा करके देखेंगे तो हम पाएंगे कि विज्ञान और भगवान दोनों एक दुसरे के पूरक हैं । ब्रह्माण्ड में जितने भी गृह नक्षत्र तारे बल उर्जा है । सारे कहीं न कही एक दुसरे से जुड़े हुए हैं । मगर विषय के तौर पर दोनों भिन्न हैं विज्ञान प्रमाणिक आधारो पर मिलने वाले वास्तविक ज्ञान का संग्रह है जबकि #ईश्वर अध्यात्म #धर्मशास्त्र और #आस्था का विषय है ।
💫 #लेकिन विज्ञान अस्थाई है जबकि परमात्मा अजर अविनाशी है और विज्ञान परमात्मा की अनुकंपा से ही है। इसलिए कह सकते है कि #भगवान #सर्वोपरि है।
🙏 पूर्ण #परमात्मा कौन है हमारे भविष्यवक्ताओ के द्वारा पढ़े ज्ञान गंगा बुक।
★ #विज्ञान और #भगवान | Do #scientist Believe in #God
- भौतिक विज्ञान के सबसे बड़े scientist #Albert Einsteine भी इश्वर को मानते थे । उन्होंने अपनी General और Special दोनों theory में god doesn't play dice जैसे कई ईश्वरवाची शब्दों का प्रयोग करके उन्होंने ईश्वर कि मौजूदगी को भी स्वीकार है । और इतना ही नहीं #Albert_Einsteine भगवदगीता को भी पढ़ा करते थे और वो कहते थे , कि गीता से उन्होंने बहुत कुछ सीखा है ।
Molecule functionality को जिन्होंने पूरी तरह से दुनिया को समझाया वो भौतिक शास्त्री Neil's Bohr's भी ईश्वर को मानते थे ।
- paul Daviece नाम के महान भौतिक शास्त्री ने तो ब्रह्माण्ड को भगवान की रचना ( Creation ) के रूप में स्वीकार किया है । और उन्होंने The Mind of GOD नाम कि एक book भी लिखी थी ।
Scientist carlsagan ने तो the cosmic dance of shiva नाम कि एक किताब भी लिखी । जो दुनिया कि सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबो में से एक है । इस किताब में उन्होंने ब्रह्मा , विष्णु और महेश का पूरा आलेखन किया है ।
- Difference Between science and God
विज्ञान कई वर्षों से कैंसर का इलाज ढूंढ रहा है लेकिन आज तक इस लाइलाज बीमारी का कोई भी हल या इलाज नहीं निकल कर आया है लेकिन यह तो सुना होगा कि परमात्मा जो चाहे वह कर सकता है वह पूर्ण परमात्मा कबीर साहिब हैं जिनकी Dicitionary में Impossible word नहीं है उन्ही के अवतार #संत #रामपाल जी महाराज से लोगों ने नाम दीक्षा ली तथा इससे लाइलाज बीमारी कैंसर का भी इलाज संभव होता हुआ देखा (मोक्ष के अतिरिक्त) ।
- Conclusion
इस article में हमने जाना कि विश्व के बड़े से बड़े वैज्ञानिक भी ईश्वर पर यकीन करते हैं । और विज्ञान कि theory को समझने के बाद भी यह प्रतीत होता है , कि इस ब्रह्माण्ड कि रचना का कोई न कोई रचनहार तो जरूर होगा । हो सकता है , कि हम जिस तरह से भगवान् को मानते हैं उस अवस्था में न हो , हो सकता है हो सकता है कि वो मानव आकार में हो है , कि वह Cosmic energy हो या ब्रह्मांड कि अपार शक्ति हो , या फिर हम सोच भी नहीं सकते कल्पना भी नहीं कर सकते उस रूप में हो । लेकिन भगवान कहे , अल्लाह कहे , ईश्वर कहे , चाहे जो भी कहे लेकिन वह शक्ति जरुर है । और हम इस बात को बिलकुल भी नकार नहीं सकते । इसलिए विज्ञान ईश्वर से अलग नहीं है और हमारे ब्रह्माण्ड की हर वस्तु एक दूसरे कि पूरक है ।
- Kabir is Almighty #god | #Proof
- वेदो मे.. ( जब परमात्मा धरती पर आते है तो उनकी तृप्ति कुवारी गायो द्वारा होती है ) और इस विधान से कबीर परमात्मा ने जन्म के 25 दिन तक आहार नही किया तब उनकी ही प्रेरणा से कुवारी गाय, लायि गयि फिर उस कुवारी गाय के पवित्र. दुध से परमात्मा ने आहार किया.. ( परमात्मा समर्थ है वो कोई भी भोजन कर सकते है पर ये लिला विधान है )
👉 #कबीरजी ही #भगवान हैं।।
ऋग्वेद मण्डल नं 9 सूक्त 96 मंत्र 17
ऋग्वेद मण्डल नं 9 सूक्त 96 मंत्र 18
ऋग्वेद मण्डल नं 9 सूक्त 96 मंत्र 19
ऋग्वेद मण्डल नं 9 सूक्त 96 मंत्र 20
ऋग्वेद मण्डल नं 10 सूक्त 90 मंत्र 3
ऋग्वेद मण्डल नं 10 सूक्त 90 मंत्र 4
ऋग्वेद मण्डल नं 10 सूक्त 90 मंत्र 5
ऋग्वेद मण्डल नं 10 सूक्त 90 मंत्र 15
ऋग्वेद मण्डल नं 10 सूक्त 90 मंत्र 16
यजुर्वेद अध्याय 19 मंत्र 26
यजुर्वेद अध्याय 19 मंत्र 30
यजुर्वेद अध्याय 29 मंत्र 25
सामवेद संख्या नं 359 अध्याय 4 खण्ड 25 श्लोक 8
सामवेद संख्या नं1400 अध्याय 12 खण्ड 3 श्लोक 5
अथर्ववेद काण्ड नं 4 अनुवाक नं 1 मंत्र 1
अथर्ववेद काण्ड नं 4 अनुवाक नं 1 मंत्र 2
अथर्ववेद काण्ड नं 4 अनुवाक नं 1 मंत्र 3
अथर्ववेद काण्ड नं 4 अनुवाक नं 1 मंत्र 4
अथर्ववेद काण्ड नं 4 अनुवाक नं 1 मंत्र 5,6,7
👉#क़ुरान #शरीफ में #प्रमाण
सूरत फुर्कानि 25 आयत 52 से 59 गुरुग्रंथ साहिब मेंप्रमाण
गुरुग्रंथ साहिब पृष्ठ नं 721 महला 1
गुरुग्रंथ साहिब के राग "सिरी"महला 1 पृष्ठ नं 24
गुरुग्रंथ साहिब राग आसावरी,महला 1 पृष्ठ नं 350,352,353,41
Kabir is God
सभी मानुष शरीर प्राप्त #प्राणियों से दास की करब्द #प्रार्थना है कि :-
- आत्मकल्याण ओर #पूर्णमोक्ष के लिए पूर्ण गुरु की जरूरत होती है ।
वो पूर्ण गुरु #सतगुरु #रामपाल जी #महाराज जी है उनसे #उपदेश ले कर कल्याण करवाये ।।
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और
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अगर कोई धर्म-दर्शन विज्ञान की अवधारणाओं का विरोधी होगा तो युवा मानस उस पर विश्वास नहीं करेगा। विज्ञान एवं अध्यात्म के विवेच्य पृथक हैं। अध्यात्म परमार्थ ज्ञान है, आत्मा-परमात्मा सम्बन्धित ज्ञान है, इल्मे इलाही है, चिन्मय सत्ता का ज्ञान है। विज्ञान लौकिक जगत का ज्ञान है, भौतिक सत्ता का ज्ञान है, पदार्थ, वस्तु, रसायन, प्रकृति का विश्लेषणात्मक-विवेचनात्मक ज्ञान है। सामान्य धारणा है कि दोनों विपरीतार्थक हैं। चिन्तक एवं मनीषी विद्वानों को भविष्य के लिए यह सोचना है कि दोनों की मूलभूत अवधारणाओं में किस प्रकार सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है ? इस सम्बन्ध में प्रोफेसर महावीर सरन जैन क़ा अभिमत है कि यदि दोनो अपने-अपने आग्रह छोड़ दें तो दोनों के बीच सामरस्य के सूत्र स्थापित किये जा सकते हैं।
अध्यात्म एवं विज्ञान के बीच सामरस्य का मार्ग स्थापित करने के लिए परम्परागत धर्म की इस मान्यता को छोड़ना पड़ेगा कि यह संसार ईश्वर की इच्छा की परिणति है। हमें विज्ञान की इस दृष्टि को स्वीकार करना होगा कि सृष्टि रचना के व्यापार में ईश्वर के कर्तृत्व की कोई भूमिका नहीं है। सृष्टि रचना व्यापार में प्रकृति के नियमों को स्वीकार करना होगा। डार्विन के विकासवाद के आलोक में पाश्चात्य धर्म की इस मान्यता के प्रति आज के चिंतकों का विश्वास खंडित होता जा रहा है कि " सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने सभी प्राणियों के युगल निर्मित किए थे तथा परमात्मा ने ही मनुष्य को " ईश्वरीय ज्ञान " प्रदान किया था।" जीव के विकास की प्रक्रिया के सूत्र धर्म की इस पौराणिक मान्यता में भी खोजे जा सकते हैं कि " जीव चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य योनि धारण करता है " तथा भगवान विष्णु के 10 अवतार लेने की पौराणिक मान्यता की इस परिप्रेक्ष्य में पुनर् मीमांसा की जा सकती है। मत्स्यावतार, कूर्मावतार, वराहावतार, वामनावतार, नरसिंहावतार, परशुरामावतार के क्रम की मीमांसा विकासवाद के परिप्रेक्ष्य में सम्भव है।
विज्ञान को भी अपनी भौतिकवादी सीमाओं का अतिक्रमण करना होगा। विज्ञान विशुद्ध रूप से भौतिकवादी रहा है। विज्ञान विश्व के मूल में पदार्थ एवं ऊर्जा को ही अधिष्ठित देखता आया है। विज्ञान को अपार्थिव चिन्मय सत्ता का भी संस्पर्श करना होगा। भविष्य के विज्ञान को अपना यह आग्रह भी छोड़ना होगा कि जड़ पदार्थ से चेतना का आविर्भाव होता है। डार्विन के विकासवाद के इस सिद्धान्त को तो स्वीकार करना सम्भव है कि अवनत कोटि के जीव से उन्नत कोटि के जीव का विकास हुआ है किन्तु उनका यह सिद्धान्त तर्कसंगत नहीं है कि अजीव से जीव का विकास हुआ। मेरी इस धारणा अथवा मान्यता का तार्किक कारण है। जिस वस्तु का जैसा उपादान कारण होता है, वह उसी रूप में परिणत होता है। चेतन के उपादान अचेतन में नहीं बदल सकते। अचेतन के उपादान चेतन में नहीं बदल सकते। न कभी ऐसा हुआ है, न हो रहा है और न होगा कि जीव अजीव बन जाए तथा अजीव जीव बन जाए। पदार्थ के रूपांतरण से स्मृति एवं बुद्धि के गुणों को उत्पन्न किया जा सकता है मगर चेतना उत्पन्न नहीं की जा सकती। चेतना का अध्ययन अध्यात्म का विषय है।
़ 'जानना' चेतना का व्यवच्देदक गुण है। जीव चेतन है। अजीव अचेतन है। जीव का स्वभाव चैतन्य है। अजीव का स्वभाव जड़त्व अथवा अचैतन्य है। जो जानता है वह जीवात्मा है। जो नहीं जानता वह अनात्मा है। जीव आत्मा सहित है। अजीव में आत्मा नहीं है। जीव सुख दुख की अनुभूति करता है। अजीव को सुख दुख की अनुभूति नहीं होती। जो जानता है, वह चेतना है; जो नहीं जानता, वह अचेतना है। स्मृति एवं बुद्धि तथा मस्तिष्क के समस्त व्यापार 'चेतना' नहीं हैं। पदार्थ के रूपांतर से स्मृति एवं बुद्धि के गुणों को उत्पन्न किया जा सकता है मगर चेतना उत्पन्न नहीं की जा सकती।
एक दृष्टि ने माना कि परम चैतन्य से ही जड़ जगत की सृष्टि होती है। दूसरी दृष्टि मानती है कि भौतिक द्रव्य की ही सत्ता है। भौतिक पदार्थ के अतिरिक्त अन्य किसी की सत्ता नहीं है। बुद्धि एवं मन की भॉँति चेतना भी 'स्नायुजाल की बद्धता' अथवा 'विभिन्न तंत्रिकाओं का तंत्र' है जो अन्ततः अणुओं एवं आणविक क्रियाशीलता का परिणाम है। भविष्योन्मुखी दृष्टि से विचार करने पर यह स्वीकार करना होगा कि दोनों की अपनी अपनी भिन्न सत्ताऍं हैं।
अजीव अथवा जड़ पदार्थ का रूपान्तरण ऊर्जा (प्राण), स्मृति, कृत्रिम प्रज्ञा एवं बुद्धि में सम्भव है किन्तु इनमें चैतन्य नहीं होता। कम्प्यूटर चेतनायुक्त नहीं है। कम्प्यूटर को यह चेतना नहीं होती कि वह है, वह कार्य कर रहा है। कम्प्यूटर मनुष्य की चेतना से प्रेरित होकर कार्य करता है। उसे सुख दुख की अनुभूति नहीं होती। उसे स्व-संवेदन नहीं होता। 'मैं हूँ,' 'मैं सुखी हूँ', 'मैं दुखी हूँ' - शरीर को इस प्रकार के अनुभवों की प्रतीति नहीं होती। इस प्रकार के अनुभवों की जिसे प्रतीति होती है, वह शरीर से भिन्न है। जिसे प्रतीति होती है उसे भारतीय दर्शन आत्मा शब्द से अभिहित करते हैं। आत्मा में चैतन्य नामक विशेष गुण है। आत्मा में जानने की शक्ति है। आत्मा के द्वारा जीव को अपने अस्तित्व का बोध होता है। ज्ञान का मूल स्रोत आत्मा ही है। आत्मा अमूर्त तत्व है। इन्द्रियों का वह विषय नहीं है। इन्द्रियाँ उसे जान नहीं पातीं। इससे इन्द्रियों की सीमा सिद्ध होती है। इससे आत्मा का अस्तित्व नहीं है - यह सिद्ध नहीं होता।
हमारे मनीषियों ने अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय कोशों की विवेचना की है। सम्प्रति इसकी विवेचना का अवकाश नहीं है। हमारा मंतव्य यह प्रतिपादित करना है कि धर्म-दर्शन एवं विज्ञान के सम्बन्ध की चर्चा के समय मनोमय कोश की उपेक्षा करना सम्भव नहीं है। हम केवल यह कहना चाहते हैं कि विज्ञान एवं अध्यात्म के बीच सामरस्य का मार्ग स्थापित करने में मनोविज्ञान का अध्ययन भी सहायक हो सकता है। मनोविज्ञान में 'संज्ञानात्मक मनोविज्ञान' पर कार्य हो रहा है। पहले मनोविज्ञान उत्तेजन-प्रतिक्रिया व्यवहार के आधार पर ही मानवीय व्यवहार का अध्ययन करता था। आज का मनोविज्ञान उद्दीपनों और प्रतिक्रियाओं के आधार पर मानवीय व्यवहार का अध्ययन करने तक सीमित नहीं है। अब मनोविज्ञान मानवीय व्यवहार को समझने के लिए प्रत्यक्षण, स्मृति, कल्पना, तर्क, निर्णय, अनुभव बोध आदि का भी उपयोग कर रहा है। संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के अध्ययन का आधार संज्ञान है। संवेदन एवं संज्ञान में अन्तर है। संवेदन के द्वारा प्राणी को उत्तेजना का आभास होता है। संज्ञान शक्ति के द्वारा मनुष्य संवेदनों को नाम, रूप, गुण आदि भेदों से संगठित कर, ज्ञान प्राप्त करता है। योग साधना परम्परा में ध्यान, धारणा तथा समाधि का विशद् वर्णन एवं विवेचन सुलभ है। मनोविज्ञान को गहन समाधि एवं स्वभावोन्मुख गहन ध्यान में लीन साधक की शान्त, निर्विकल्प, विचार शून्य एवं क्रियाहीन स्थिति के अन्तर्निरीक्षण की विधि एवं पद्धति का संधान करना चाहिए। इस प्रकार का गहन अध्ययन अध्यात्म एवं विज्ञान के मध्य सेतु का काम कर सकता है।
विज्ञान को इस आधारणा का अतिक्रमण करना होगा कि भौतिक विज्ञान के नियमों से सम्पूर्ण वास्तविकता की व्याख्या सम्भव है। इस दिशा में सन् 1936 में गोदेल द्वारा प्रतिपादित प्रमेय का महत्व है। उन्होंने सिद्ध किया कि गणित की बहुत सी वास्तविकताओं को सिद्ध नहीं किया जा सकता। गणित की यह अपूर्णता अज्ञान के कारण नहीं है। इसका कारण गणित की आधारभूत संरचना है। [राजा रमन्ना : फिजिकल स्पेस इन द कान्टेक्स्ट ऑफ ऑल नालिज - इंडियन हॉराइजन्स, खण्ड 1.2, पृ० 1.6, भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद्, नई दिल्ली, 1987]
पहले भौतिक-विज्ञानी मानते थे कि भौतिकी व्याख्या में तरंग एवं सूक्ष्म अंश परस्पर विपरीत छोर हैं। परमाणु के आविष्कार के बाद भौतिक-विज्ञान का उक्त सिद्धान्त अमान्य हो गया है। अब सर्वमान्य है कि परमाणु क्रिया की व्याख्या के लिए दोनों की साथ-साथ व्याख्या करना आवश्यक है। परमाणु के सम्बन्ध में यह भी ध्यान देने योग्य है कि परमाणु के अंशों को गणित की दृष्टि से विश्लेषित किया जा सकता है। परमाणु के अंशों की किसी भी विधि से झलक पाना सम्भव नहीं है। ऊर्जाणु का सूक्ष्म-अंश युगपत एकाधिक स्थानों पर हो सकता है अथवा एकाधिक मार्गों पर गमन कर सकता है। जब भौतिक जगत के ऊर्जाणु के स्वरूप की आधारभूत यथार्थता का प्रत्यक्षण इतना दुष्कर एवं जटिल है तब समस्त आभासों का अतिक्रमण करने वाले आत्म तत्व का किसी यंत्र से प्रत्यक्षण किस प्रकार सम्भव है। जिससे सबको जाना जाता है उसको बाह्य-विधि से कैसे जाना जा सकता है। विज्ञान में ऊर्जाणु भौतिकी के क्षेत्र में नए अनुसंधान कार्य हो रहे हैं। इनसे भविष्य में आत्मा अथवा चेतना के स्वतंत्र अस्तित्व का प्रमाण सिद्ध होना सम्भव है। प्रोफेसर महावीर सरन जैन क़ा अभिमत है क़ि विज्ञान में ऊर्जा भौतिकी आदि क्षेत्रों में जो नव्यतम अनुसंधान हुए हैं, उनके आलोक में विज्ञान इस सिद्धान्त की पुष्टि की ओर कदम बढ़ा रहा है कि प्रत्येक प्राणी की चेतना को प्रकट करने के लिए जैविक चेतना संहिति तो केवल भौतिक ढाँचा जुटाता है।
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प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवानिवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
123, हरि एन्कलेव, बुलन्द शहर - 203 001
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