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अनग्नैतवाद

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अनग्नैतवाद या अनग्नवाद, ये सुचित द्वारा दिया गया एक दार्शनिक सिद्धांत है। ये सिद्धांत इस जगत में नग्नता का अस्तित्व को स्वीकार नही करता है। ये कहता है कि नग्नता एक सापेक्ष मानसिक विकार है जो स्वयं के निर्वस्त्र होने पर चित्त में उठने वाली हीनता के कारण उत्पन्न होता है, और इसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नही।

इस सिद्धांत की मान्यता है कि कोई भी जीव या वस्तु नग्न नही है। नग्नता का सीधा संबंध मानसिक विकारों से है। शरीर से नग्नता का कोई संबंध नहीं है। इसलिए कोई भी वस्त्र नग्नता को नही ढक सकता, क्योंकि नग्नता का कोई वास्तविक सत्ता है ही नही। जो है नही उसे ढका नही जा सकता और जिसे ढका नही जा सकता वो नग्न नही। शरीर स्वयं एक वस्त्र है शरीर को वस्त्र की जरूरत नही। जो स्वयं वस्त्र हो वो खुद नग्न कैसे हो सकता है। शरीर निर्वस्त्र हो सकता है नग्न नही।

जिस प्रकार सभी पशु निर्वस्त्र होते हुए भी नग्न नही है। उसी प्रकार मनुष्य भी यदि वस्त्रों को त्याग दे तो भी वो नग्न नही, क्योंकि सभी जीव और निर्जीव एक प्राकृतिक वस्त्रों को धारण किए हुए है जो उनका शरीर है। इसलिए न महावीर नग्न है, न कोई पशु ही नग्न है, न पृथ्वी नग्न है, न ये ब्रह्मांड ही नग्न है। क्योंकि सभी भौतिक पदार्थ, प्राकृतिक शरीर रूपी वस्त्रों द्वारा स्वयं को ढकें हुए है। इस प्राकृतिक शरीर रूपी वस्त्र के नाश होने के बाद वो शुद्ध आत्म तत्व निर्वस्त्र तो हो जाता है किंतु नग्न नही होता। अतः शुद्ध आत्म तत्व निर्वस्त्र होकर भी नग्न नही। जिस प्रकार निर्वस्त्र पशुओं को स्वयं के निर्वस्त्रता का बोध नही होता उसी प्रकार निर्वस्त्र आत्मा को भी स्वयं के निर्वस्त्रता का बोध नही होता। आखिर स्वयं को स्वयं का बोध कैसे हो सकता है। अतः आत्मा निर्वस्त्र तथा अनग्न रूप ही है।

ये नग्नता का ख्याल मानसिक विकारों का ही परिणाम है। जिसके वजह से मनुष्य एक प्राकृतिक वस्त्र पर मानवकृत वस्त्रों को धारण करता है। तथा अपने प्राकृतिक वस्त्र को मानवकृत वस्त्र द्वारा ढकने का प्रयास करता है। अतः जो ऐसा करता है, और जिसके पास ऐसे विचार है वोही व्यवहारिक तथा मानसिक रूप से नग्न है। नग्नता मन में है शरीर में नही। यदि शरीर में होता तो इसे मानसिक विचारो द्वारा व्यक्त नही किया जा सकता था।

निर्वास्त्रता के कारण व्यक्ति के मन में स्वयं के प्रति हीनता का प्रादुर्भाव होता है। इस हीनता से व्यक्ति में सामाजिक संदर्भ में लक्जाभाव का जन्म होता है। इस लज्जाभाव के कारण व्यक्ति को स्वयं के नग्नता का अनुभव होता है। इसके परिणाम वश व्यक्ति सामाजिक लज्जाभाव को खत्म करने के लिए वस्त्र धारण करता है। वस्त्र व्यक्ति के निर्वस्त्रता का नही, नग्नता का परिणाम है, और नग्नता व्यक्ति के निर्वस्त्रता का नही, मानसिक हीनता का परिणाम है।

ये नग्नता वस्त्रों को धारण करने से खत्म नहीं होता, वल्कि व्यक्ति तो इसके वजह से ही वस्त्रों को धारण करता है। चूंकि नग्नता मानसिक हीनता का परिणाम है अतः इसकी निवृति बुद्धि विकल्पों द्वारा नही हो सकती। इसकी निवृति केवल मौलिक निर्विकल्प निरपेक्ष अपरोक्षानुभूति द्वारा ही संभव है।


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