अनुवाद की प्रक्रिया
सैद्धान्तिक दृष्टि से 'अनुवाद कैसे होता है' का निर्वैयक्तिक विवरण ही अनुवाद की प्रक्रिया है । भाषा व्यवहार की एक विशिष्ट विधा के रूप में अनुवाद प्रक्रिया का स्पष्टीकरण एक ऐसी दृष्टि की अपेक्षा रखता है, जिसमें अनुवाद कार्य सम्बन्धी बहिर्लक्षी परिस्थतियों और भाषा-संरचना एवं भाषा-प्रयोग सम्बन्धी अन्तर्लक्षी स्थितियों का सन्तुलन हो । उपर्युक्त परिस्थितियों से सम्बन्धित सैद्धान्तिक प्रारूपों के सन्दर्भ में यह स्पष्टीकरण प्रस्तुत करना आधुनिक अनुवाद सिद्धान्त का वैशिष्ट्य माना जाता है । तदनुसार चिन्तन के अंग के रूप में अनुवाद की इकाई, अनुवाद का पाठक, और कला, कौशल (या शिल्प) एवं विज्ञान की दृष्टि से अनुवाद के स्वरूप पर दृष्टिपात के साथ साथ अनुवाद की प्रक्रिया का विशद विवरण किया जाता है।
अनुवाद की इकाई[सम्पादन]
सामान्यतः सन्देश का अनुवाद किया जाता है : अतः अनुवाद की इकाई भी सन्देश को माना जाता है। विभिन्न प्रकार के अनुवादों में सन्देश की अभिव्यञ्जक भाषिक इकाई का आकार भी भिन्न-भिन्न रहता है। यान्त्रिक अनुवाद में एक रूप या पद अनुवाद की इकाई होता है, परन्तु मानव अनुवाद में इकाई का आकार अधिक विशाल होता है । इसी प्रकार आशु मौखिक अनुवाद (अनुभाषण) में यह इकाई एक वाक्य होती है, तो लिखित अनुवाद में इकाई का आकार वाक्य से बड़ा होता है (और क्रमिक मौखिक अनुवाद की इकाई भी एक वाक्य होती है, कभी एकाधिक वाक्यों का समुच्चय भी)।
लिखित माध्यम के मानव अनुवाद में, अनुवाद की इकाई एक पाठ को माना जाता है । अनुवादक पाठ स्तर के सन्देश का अनुवाद करते हैं । पाठ के आकार की सीमा एक वाक्य से लेकर एक सम्पूर्ण पुस्तक या पुस्तकों के एक विशिष्ट समूह पर्यन्त कुछ भी हो सकती है, परन्तु एक सन्देश उसमें अपनी पूर्णता में अभिव्यक्त हो जाता हो ये आवश्यक है। उदाहरण के लिए, किसी सार्वजनिक सूचना या निर्देश का एक वाक्य ही पूर्ण सन्देश बन सकता है। जैसे 'प्रवेश वर्जित' है। दूसरी ओर 'रंगभूमि' या 'कामायनी' की पूरी पुस्तक ही पाठ स्तर की हो सकती है। भौतिक सुविधा की दृष्टि से अनुवादक पाठ को तर्कसंगत खण्डों में बाँटकर अनुवाद कार्य करते हैं, ऐसे खण्डों को अनुवादक पाठांश कह सकते हैं अथवा तात्कालिक सन्दर्भ में उन्हें ही पाठ भी कहा जाता है। इन्हें अनुवादक अनुवाद की तात्कालिक इकाई कहते हैं तथा सम्पूर्ण पाठ को अनुवाद की पूर्ण इकाई।
पाठ की संरचना[सम्पादन]
पाठ की संरचना का ज्ञान, अनुवाद प्रक्रिया को समझने में विशेष सहायक माना जाता है । पाठ संरचना के तीन आयाम माने गये हैं - पाठगत, पाठसहवर्ती तथा अन्य पाठपरक । संकेतविज्ञान की मान्यता के अनुसार तीनों का समकालिक अस्तित्व होता है तथा ये तीनों अन्योन्याश्रित होते हैं ।
पाठगत आयाम[सम्पादन]
पाठगत (पाठान्तर्वर्ती) आयाम पाठ का आन्तरिक आयाम है, जिसमें उसके भाषा पक्ष का ग्रहण होता है । दोनों ही स्थितियों में सुगठनात्मकता पाठ का आन्तरिक गुण है। पाठ की पाठगत संरचना के दो पक्ष हैं -
(१) वाक्य के अन्तर्गत आने वाली इकाइयों का अधिक्रम,
(२) भाषा-विश्लेषण के विभिन्न स्तरों पर, अनुभव होने वाली संसक्ति ।
वाक्य की इकाइयाँ, वाक्य, उपवाक्य, पदबन्ध, पद और रूप (प्रत्यय) इस अधिक्रम में संयोजित होती हैं, परन्तु पाठ की दृष्टि से यह बात महत्त्वपूर्ण है कि एक से अधिक वाक्यों वाले पाठ के वाक्य अन्तरवाक्ययोजकों द्वारा इस प्रकार समन्वित होते हैं कि, पूरे पाठ में संसक्ति का गुण अनुभव होने लगता है । परन्तु संसक्ति तत्पर्यन्त सीमित नहीं । उसे हम पाठ विश्लेषण के विभिन्न स्तरों पर भी अनुभव कर सकते हैं । तदनुसार सन्दर्भगत संसक्ति, शब्दगत संसक्ति, और व्याकरणिक संसक्ति की बात की जाती है ।
पाठसहवर्ती आयाम[सम्पादन]
पाठसहवर्ती आयाम में पाठ की विषयवस्तु, उसकी विशिष्ट विधा, उसका सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष, पाठ के समय या लेखक का अभिव्यक्तिपरक विशिष्ट आशय, उद्दिष्ट पाठक का सामाजिक व्यक्तित्व और उसकी आवश्यकता आदि का अन्तर्भाव होता है । पाठसहवर्ती आयाम के उपर्युक्त पक्ष परस्पर इस प्रकार सुबद्ध रहते हैं कि सम्पूर्ण पाठ एकान्वित इकाई के रूप में अनुभव होता है । यह स्पष्टतया माना जाता है कि, पाठ में पाठगत आयाम से ही पाठसहवर्ती आयाम की अभिव्यक्ति होती है और पाठसहवर्ती आयाम से पाठगत आयाम अनुशासित होता है। इस प्रकार ये दोनों अन्योंन्याश्रित हैं । पाठभेद से सुगठनात्मकता की गहनता में भी अन्तर आ जाता है - अनुभवी पाठक अपने अभ्यासपुष्ट अन्तर्ज्ञान से ग्रहण करता है । तदनुसार, साहित्यिक रचना में सुगठनात्मकता की जो गहनता उपलब्ध होती है वह अन्तिम विवरण में अनुभूत नहीं होती।
पाठपरक आयाम[सम्पादन]
पाठ संरचना के अन्य पाठपरक आयाम में एक विशिष्ट पाठ की, उसके समान या भिन्न सन्दर्भ वाले अन्य पाठों से सम्बन्ध की चर्चा होती है। उदाहरण के लिए, एक वस्त्र के विज्ञापन की भाषा की, प्रसाधन सामग्री के विज्ञापन की भाषा से प्रयोग शैली की दृष्टि से जो समानता होगी तथा बैंकिग सेवा के विज्ञापन से जो भिन्नता होगी वो सम्बन्ध पर चर्चा की जाती है।
विभिन्न प्रारूप[सम्पादन]
इस में अनुवाद प्रक्रिया के प्रमुख प्रारूपों की प्रक्रिया सम्बन्धी चिन्तन के विभिन्न पक्षों को जानने के लिये चर्चा होती है। प्रारूपकार प्रायः अपनी अनुवाद परिस्थितियों तथा तत्सम्बन्धी चिन्तन से प्रेरित होने के कारण प्रक्रिया के कुछ ही पक्षों पर विशेष बल दे पाते हैं । सर्वांगीणता में इस न्यूनता की पूर्ति इस रूप में हो जाती है कि, विवेचित पक्ष के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी मिल जाती है । इस दृष्टि से बाथगेट (१९८१) द्रष्टव्य है । अनुवाद प्रक्रिया के प्रारूपों की रचना के पीछे दो प्रेरक तत्त्व प्रधान रूप से माने जाते हैं - मानव अनुवादकों का प्रशिक्षण तथा यन्त्र अनुवाद का यान्त्रिक पक्ष। इन दोनों की आवश्यकताओं से प्रेरित होकर अनुवाद प्रक्रिया के सैद्धान्तिक स्पष्टीकरण प्रस्तुत किए गए । बहुधा केवल मानव अनुवादकों के प्रशिक्षण की आवश्यकता से प्रेरित अनुवाद प्रक्रिया प्रारूपों से होती है। अनुप्रयोगात्मक आयाम में इनकी उपयोगिता स्पष्ट की जाती है ।
सामान्य सन्दर्भ[सम्पादन]
अनुवाद प्रक्रिया का केन्द्र बिन्दु है लक्ष्यभाषा में मूलभाषा पाठ के अनुवाद पर्याय प्रस्तुत करना । यह प्रक्रिया एकपक्षीय होती है - मूलभाषा से लक्ष्यभाषा में । परन्तु भाषाओं की यह स्थिति अन्तःपरिवर्त्य होती है - जो प्रथम बार में मूलभाषा है, वह द्वितीय बार में लक्ष्यभाषा हो सकती है । इस प्रक्रिया को सम्प्रेषण सिद्धान्त से समर्थित मानचित्र द्वारा भी समाझाया जाता है, जो निम्न प्रकार से है (न्यूमार्क १९६९) :
(१) वक्ता/लेखक का विचार → (२) मूलभाषा की अभिव्यक्ति रुढियाँ → (३) मूलभाषा पाठ → (४) प्रथम श्रोता/पाठक की प्रतिक्रिया → (५) अनुवादक का अर्थबोध → (६) लक्ष्यभाषा की अभिव्यक्ति रुढियाँ → (७) लक्ष्यभाषा पाठ → (८) द्वितीय श्रोता/पाठक की प्रतिक्रिया
इस प्रारूप के अनुसार अनुवाद प्रक्रिया के कुल आठ सोपान हो सकते हैं । लेखक या वक्ता के मन में उठने वाला विचार मूलभाषा की अभिव्यक्ति रूढियों में बँधकर मूलभाषा के पाठ का आकार ग्रहण करता है, जिससे पहले (मूलभाषा के) श्रोता या पाठक के मन में वक्ता/लेखक के विचार के अनुरूप प्रतिक्रिया प्रकट होती है । तत्पश्चात् अनुवादक अपनी प्रतिभा, भाषाज्ञान और विषयज्ञान के अनुसार मूलभाषा के पाठ का अर्थ समझकर लक्ष्यभाषा की अभिव्यक्ति रूढ़ियों का पालन करते हुए लक्ष्यभाषा के पाठ का सर्जन करता है, जिसे दूसरा (लक्ष्यभाषा का) पाठक ग्रहण करता है । इस व्याख्या से स्पष्ट होता है कि सं० ५, अर्थात् अनुवादक का सं० ३, ४ और १ इन तीनों से सम्बन्ध है । वह मूलभाषा के पाठ का अर्थबोध करते हुए पहले पाठक के समान आचरण करता है, और मूलभाषा का पाठ क्योंकि वक्ता/लेखक के विचार का प्रतीक होता है, अतः अनुवादक उससे भी जुड़ जाता है ।
इसी प्रारूप को विद्वानों ने प्रकारान्तर से भी प्रस्तुत किया है । उदारण के लिये नाइडा, न्यूमार्क, और बाथगेट के अंशदानों की चर्चा की जाती है।
नाइडा का चिन्तन[सम्पादन]
नाइडा (१९६४) के अनुसार [१] ये अनुवाद पर्याय जिस प्रक्रिया से निर्धारित होते हैं, उसके दो रूप हैं : प्रत्यक्ष और परोक्ष । इन दोनों में आधारभूत अन्तर है । प्रत्यक्ष प्रक्रिया के प्रारूप के अनुसार मूल पाठ की बाह्यतलीय संरचना के स्तर पर उपलब्ध भाषिक इकाइयों के लक्ष्यभाषा में अनुवाद पर्याय निश्चित होते हैं; और अनुवाद प्रक्रिया एक क्रमबद्ध प्रक्रिया है, जिसमें मूल पाठ के प्रत्येक अंश का अनुवाद होता है । इस प्रक्रिया में एक मध्यवर्ती स्थिति भी होती है जिसमें एक निर्विशेष और सार्वभौम भाषिक संरचना रहती है; इसका केवल सैद्धान्तिक महत्त्व है । इस प्रारूप की मान्यता के अनुसार, अनुवादक मूलभाषा पाठ के सन्देश को सीधे लक्ष्यभाषा में ले जाता है; वह इन दोनों स्थितियों में मूलभाषा पाठ और लक्ष्यभाषा पाठ की बाह्यतलीय संरचना के स्तर पर ही रहता है । अनुवाद-पर्यायों के चयन और प्रस्तुतीकरण का कार्य एक स्वचालित प्रक्रिया के समान होता है । नाइडा ने एक आरेख के द्वारा इसे स्पष्ट किया है :
क ---------------- (क्ष) ---------------- ख
इसमें 'क' मूलभाषा है, 'ख' लक्ष्यभाषा है, और '(क्ष)' वह मध्यवर्ती संरचना है, जो दोनों भाषाओं के लिए समान होती है और जो अनुवाद को सम्भव बनाती है; यहाँ दोनों भाषाएँ एक-दूसरे के साथ इस प्रकार सम्बद्ध हो जाती हैं कि उनका अपना वैशिष्ट्य कुछ समय के लिए लुप्त हो जाता है ।
परोक्ष प्रक्रिया के प्रारूप में धारणा यह है कि अनुवादक पाठ की बाह्यतलीय संरचना पर्यन्त सीमित रहकर आवश्यकतानुसार, अपि तु प्रायः सदा, पाठ की गहन संरचना में भी जाता है और फिर लक्ष्यभाषा में उपयुक्त अनुवाद पर्याय प्रस्तुत करता है । वस्तुतः इस प्रारूप में पूर्ववर्णित प्रत्यक्ष प्रक्रिया प्रारूप का अन्तर्भाव हो जाता है; दोनों में विरोध नहीं है। प्रत्यक्ष प्रक्रिया प्रारूप की यह नियम है कि अनुवाद कार्य बाह्यतलीय संरचना के स्तर पर ही हो जाता है, जबकि परोक्ष प्रक्रिया के अनुसार अनुवाद कार्य प्रायः पाठ की गहन संरचना के माध्यम से होता है, यद्यपि इस बात की सदा सम्भावना रहती है कि भाषा में मूलभाषा के अनेक अनुवाद पर्याय बाह्यतलीय संरचना के स्तर पर ही मिल जाएँ। नाइडा परोक्ष प्रक्रिया प्रारूप के समर्थक हैं । निम्नलिखित आरेख द्वारा वे इसे स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं -
क (मूलभाषा पाठ) ख (लक्ष्यभाषा पाठ)
| ↑
| |
| |
↓ ↑
(विश्लेषण) (पुनर्गठन)
| |
| |
↓ ↑
य ———————————— संक्रमण ——————————— र
य = मूलभाषा का गहनस्तरीय विश्लेषित पाठ
र = लक्ष्यभाषा में सङ्क्रान्त गहनस्तरीय (और समसंरचनात्मक) पाठ
नाइडा के अनुसार अनुवाद प्रक्रिया के वास्तव में तीन सोपान होते हैं-
(१) अनुवादक सर्वप्रथम मूलभाषा के पाठ का विश्लेषण करता है; पाठ की व्याकरणिक संरचना तथा शब्दों एवं शब्द श्रृङ्खलाओं का अर्थगत विश्लेषण कर वह मूलपाठ के सन्देश को ग्रहण करता है । इसके लिए वह भाषा-सिद्धान्त पर आधारित भाषा-विश्लेषण की तकनीकों का उपयुक्त रीति से अनुप्रयोग करता है । विशेषतः असामान्य रूप से जटिल तथा दीर्घ और अनेकार्थ वाक्यों और वाक्यांशों/पदबन्धों के अर्थबोधन में हो सकने वाली कठिनाइयों का हल करने में मूलपाठ का विश्लेषण सहायक रहता है।
(२) अर्थबोध हो जाने के पश्चात् सन्देश का लक्ष्यभाषा में संक्रमण होता है । यह प्रक्रिया अनुवादक के मस्तिष्क में होती है । इसमें मूलपाठ के लक्ष्यभाषागत अनुवाद-पर्याय निर्धारित होते हैं तथा दोनों भाषाओं के मध्य विभिन्न स्तरों और श्रेणियों में सामञ्जस्य स्थापित होता है ।
(3) अन्त में अनुवादक मूलभाषा के सन्देश को लक्ष्य भाषा में उसकी संरचना एवं प्रयोग नियमों तथा विधागत रूढ़ियों के अनुसार इस प्रकार पुनर्गठित करता है कि वह लक्ष्यभाषा के पाठक को स्वाभाविक प्रतीत होता है या कम से कम अस्वाभाविक प्रतीत नहीं होता ।
विश्लेषण[सम्पादन]
अनुवाद प्रक्रिया के स्पष्टीकरण के सन्दर्भ में नाइडा ने मूलपाठ के विश्लेषण के लिए एक सुनिश्चित भाषा सिद्धान्त तथा विश्लेषण की रूपरेखा प्रस्तुत की है। उनके अनुसार भाषा के दो पक्षों का विश्लेषण अपेक्षित है - व्याकरण तथा शब्दार्थ । नाइडा व्याकरण को केवल वाक्य अथवा निम्नतर श्रेणियों - उपवाक्य, पदबन्ध आदि - के गठनात्मक विश्लेषण पर्यन्त सीमित नहीं मानते । उनके अनुसार व्याकरणिक गठन भी एक प्रकार से अर्थवान् होता है । उदाहरण के लिए, कर्तृवाच्य संरचना और कर्मवाच्य/भाववाच्य संरचना में केवल गठनात्मक अन्तर ही नहीं, अपितु अर्थ का अन्तर भी है । इस सम्बन्ध में उन्होंने अनेकार्थ संरचनाओं की ओर विशेष रूप से ध्यान खींचा है। उदाहरण के लिए, 'यह राम का चित्र है' इस वाक्य के निम्नलिखित तीन अर्थ हो सकते हैं :
(१) यह चित्र राम ने बनाया है।
(२) इस चित्र में राम अंकित है।
(३) यह चित्र राम की सम्पत्ति है।
ये तीनों वाक्य, नाइडा के अनुसार, बीजवाक्य या उपबीजवाक्य हैं, जिनका निर्धारण अनुवर्ति रूपान्तरण की विधि से किया गया है । बाह्यस्तरीय संरचना पर इन तीनों वाक्यों का प्रत्यक्षीकरण 'यह राम का चित्र है' इस एक ही वाक्य के रूप में होता है । नाइडा ने उपर्युक्त रूपान्तरण विधि का विस्तार से वर्णन किया है । उनकी रूपान्तरण विषयक धारणा चाम्स्की के रूपान्तरण-प्रजनक व्याकरण की धारणा के समान कठोर तथा गठनबद्ध नहीं, अपि तु अनुप्रयोग की प्रकृति तथा उसके उद्देश्य के अनुरूप लचीली तथा अन्तर्ज्ञानमलक है । इसी प्रकार उन्होंने शब्दार्थ की दो कोटियों - वाच्यार्थ और लक्ष्य-व्यंग्यार्थ- का वर्णनात्मक विश्लेषण किया है । यह ध्यान देने योग्य है कि, नाइडा ने विश्लेषण की उपर्युक्त प्रणाली को मूलभाषा पाठ के अर्थबोधन के साधन के रूप में प्रस्तुत किया है । उनका बल मूलपाठ के अर्थ का यथासम्भव पूर्ण और शुद्ध रीति से समझने पर रहा है । उनकी प्रणाली बाइबिल एवं उसके सदृश अन्य प्राचीन ग्रन्थों की भाषा के विश्लेषणात्मक अर्थबोधन के लिए उपयुक्त माना जाता है; यद्यपि उसका प्रयोग अन्य और आधुनिक भाषाभेदों के पाठों के अर्थबोधन के लिए भी किया जा सकता है ।
सङ्क्रमण[सम्पादन]
विश्लेषण की सहायता से हुए अर्थबोध का लक्ष्यभाषा में संक्रान्त अनुवाद-प्रक्रिया का केन्द्रस्थ सोपान है। अनुवादकार्य में अनुवादक को विश्लेषण और पुनर्गठन के दो ध्रुवों के मध्य गति करते रहना होता है, परन्तु यह गति संक्रमण मध्यवर्ती सोपान के मार्ग से होती है, जहाँ अनुवादक को (क्षण भर के लिए रुकते हुए) पुनर्गठन के सोपान के अंशो को और अधिक स्पष्टता से दर्शन होता है । संक्रमण की यह प्रक्रिया अनुवादक के मस्तिष्क में तथा अपनी प्रकृति से त्वरित तथा अन्तर्ज्ञानमूलक होती है । अनुवाद प्रक्रिया में अनुवादक के व्यक्तित्व की संगति इस सोपान पर है । विश्लेषण से प्राप्त भाषिक तथा सम्प्रेषण सम्बन्धी तथ्यों का, उपयुक्त अनुवाद-पर्याय स्थिर करने में, अनुवादक जैसा उपयोग करता है, उसी में उसकी कुशलता निहित होती है । विश्लेषण तथा पुनर्गठन के सोपानों पर एक अनुवादक अन्य व्यक्तियों से भी कभी कुछ सहायता ले सकता है, परन्तु संक्रमण के सोपान पर वह एकाकी ही होता है । संक्रमण के सोपान पर विचारणीय बातें दो हैं - अनुवादक का अपना व्यक्तित्व तथा मूलभाषा एवं लक्ष्यभाषा के बीच संक्रमणकालीन सामञ्जस्य । अनुवादक के व्यक्तित्व में उसका विषयज्ञान, भाषाज्ञान, प्रतिभा, तथा कल्पना इन चार की विशेष अपेक्षा होती है । तथापि प्रधानता की दृष्ट से प्रतिभा और कल्पना को विषयज्ञान तथा भाषाज्ञान से अधिक महत्त्व देना होता है, क्योंकि अनुवाद प्रधानतया एक व्यावहारिक और क्रियात्मक कार्य है । विषयज्ञान तथा भाषाज्ञान की कमी को अनुवादक दूसरों की सहायता से भी पूरा कर सकता है, परन्तु प्रतिभा और कल्पना की दृष्टि से अपने ऊपर ही निर्भर रहना होता है ।
मूलभाषा एवं लक्ष्यभाषा के मध्य सामञ्जस्य स्थापित होना अनुवाद-प्रक्रिया की अनिवार्य एवं आन्तरिक आवश्यकता है । भाषान्तरण में सन्देश का प्रतिकूल रूप से प्रभावित होना सम्भावित रहता है । इस प्रतिकूलता के प्रभाव को यथासम्भव कम करने के लिए अर्थपक्ष और व्याकरण दोनों की दृष्टि से दोनों भाषाओं के बीच सामंजस्य की स्थिति लानी होती है । मुहावरे एवं उनका लाक्षणिक प्रयोग, अनेकार्थकता, अर्थ की सामान्यता तथा विशिष्टता, आदि अनेक ऐसे मुद्दे हैं जिनका सामंजस्य करना होता है । व्याकरण की दृष्टि से प्रोक्ति-संरचना एवं प्रकार, वाक्य-संरचना एवं प्रकार तथा पद-संरचना एवं प्रकार सम्बन्धी अनेक ऐसी बातें हैं, जिनका समायोजन अपेक्षित होता है । उदाहरण के लिए, मूलपाठ में प्रयुक्त किसी विशेष अन्तरवाक्ययोजक के लिए लक्ष्यभाषा के पाठ में किसी अन्तरवाक्ययोजक का प्रयोग अपेक्षित न होना, मूलपाठ की कर्मवाच्य संरचना के लिए लक्ष्यभाषा में कर्तृवाच्य संरचना का उपयुक्त होना व्याकरणिक समायोजन के मुद्दे हैं ।
संक्रमण का सोपान अनुवाद कार्य की दृष्टि से जितना महत्त्वपूर्ण है, अनुवाद प्रक्रिया के स्पष्टीकरण में उसका अपेक्षाकृत स्वतन्त्र अस्तित्व शेष दो सोपानों की तुलना में उतना स्पष्ट नहीं । बहुधा संक्रमण तथा पुनर्गठन के सोपानों के अन्तर को प्रक्रिया के विशदीकरण में स्थापित करना कठिन हो जाता है । विश्लेषण और पुनर्गठन के सोपानों पर, अनुवादक का कर्तृत्व यदि अपेक्षाकृत स्वतन्त्र होता है, तो संक्रमण के सोपान पर वह कुछ अधीनता की स्थिति में रहता है । अधिक मुख्य बात यह है कि, अनुवादक को उन सब मुद्दों की चेतना हो जिनका ऊपर वर्णन किया गया है । यदि अनुवाद-प्रशिक्षणार्थी के लिए ये प्रत्यक्ष रूप से उपयोगी माने जाएँ, तो अभ्यस्त अनुवादक के अनुवाद-व्यवहार के ये स्वाभाविक अङ्ग माने जा सकते हैं।
पुनर्गठन[सम्पादन]
मूलपाठ के सन्देश का अर्थबोध, संक्रमण के सोपान में से होते हुए लक्ष्यभाषा में पुनर्गठित होकर अनुवाद (अनुदित पाठ) का रूप धारण करता है । पुनर्गठन का सोपान लक्ष्यभाषा में मूर्त अभिव्यक्ति का सोपान है । अनुवाद प्रक्रिया की जानकारी के सम्बन्ध में अनुवादकों को पुनर्गठन के सोपान पर पाठ के जिन प्रमुख आयामों की उपयुक्तता पर ध्यान देना अभीष्ट है वे हैं -
१) व्याकरणिक संरचना तथा प्रकार,
२) शब्दक्रम,
३) सहप्रयोग,
४) भाषाभेद तथा शैलीगत प्रतिमान ।
लक्ष्यभाषागत उपयुक्तता तथा स्वाभाविकता ही इन सबकी आधारभूत कसौटी है। इन गुणों की निष्पत्ति के लिए कई बार दोनों भाषाओं में समानता की स्थिति सहायक होती है, कई बार असमानता की । उदाहरण के लिए, यह आवश्यक नहीं कि, मूलभाषा के पदबन्ध के लिए लक्ष्यभाषा का उपयुक्त अनुवाद-पर्याय एक पदबन्ध ही हो; यह संरचना एक समस्त पद भी हो सकती है; जैसे, Diploma in translation = अनुवाद डिप्लोमा । देखना यह होता है कि, लक्ष्यभाषा में सन्देश का पुनर्गठन उपर्युक्त घटकों की दृष्टि से उपयुक्तता तथा स्वाभाविकता की स्थिति की निष्पत्ति करें; वे घटक लक्ष्यभाषा की 'आत्मीयता' (जीनियस) तथा परम्परा के अनुरूप हों ।
मूलभाषा में व्याकरणिक संरचना के कतिपय तथ्यों का लक्ष्यभाषा में स्वरूप बदल सकता है, यद्यपि यह सदा आवश्यक नहीं होता । उदाहरण के लिए, आङ्ग्ल मूलपाठ की कर्मवाच्य संरचना "Steps have been taken by the Government to meet the situation" को हिन्दी में कर्मवाच्य संरचना में भी प्रस्तुत किया जा सकता है, कर्तृवाच्य संरचना में भी : " स्थिति का सामना करने के लिए सरकार द्वारा कार्यवाही की गई हैं/स्थिति का सामना करने के लिए सरकार ने कार्यवाही की हैं ।" परन्तु "The meeting was chaired by X" के लिए हिन्दी में कर्तृवाच्य संरचना "क्ष ने बैठक की अध्यक्षता की" उपयुक्त प्रतीत होता है। ऐसे निर्णय पुनर्गठन के स्तर पर किए जाते हैं । यही बात सहप्रयोग के लिए है । सहप्रयोग प्रत्येक भाषा के अपने-अपने होते हैं । अंग्रेजी में to take a step कहते हैं, तो हिन्दी में 'कार्यवाही करना' । इस उदाहरण में to take का अनुवाद 'उठाना' समझना भूल मानी जाएगी : ये दोनों अपनी-अपनी भाषा में ऐसे शाब्दिक इकाइयों के रूप में प्रयुक्त होते हैं, जिन्हें खण्डित नहीं किया जा सकता ।
भाषाभेद के अन्तर्गत, कालगत, स्थानगत और प्रयोजनमूलक भाषाभेदों की गणना होती है । तथापि एक सुगठित पाठ के स्तर पर ये सब शैलीभेद के रूप में देखे जाते हैं । उदाहरण के लिए, पुरानी अंग्रेजी की रचना का हिन्दी में अनुवाद करते समय, पुनर्गठन के सोपान पर अनुवादक को यह निर्णय करना होगा कि, लक्ष्यभाषा के किस भाषाभेद के शैलीगत प्रभाव मूलभाषापाठ के शैलीगत प्रभावों के समकक्ष हो सकते हैं । इस दृष्टि से पुरानी अंग्रेजी के पाठ का पुरानी हिन्दी में भी अनुवाद उपयुक्त हो सकता है, आधुनिक हिन्दी में भी । शैलीगत प्रतिमान को विहङ्ग दृष्टि से दो रूपों में समझाया जाता है : साहित्येतर शैली और साहित्यिक शैली ।
साहित्येतर शैली में औपचारिक के विरुद्ध अनौपचारिक तथा तकनीकी के विरुद्ध गैर-तकनीकी, ये दो भेद प्रमुख रूप से मिलते हैं । साहित्यिक शैली में पाठ के विधागत भेदों - गद्य और पद्य, आदि का विशेष रूप से उल्लेख किया जाता है । इस दृष्टि से औपचारिक शैली के मूलपाठ को लक्ष्यभाषा में औपचारिक शैली में ही प्रस्तुत किया जाए, या मूल गद्य रचना को लक्ष्यभाषा में गद्य के रूप में ही प्रस्तुत किया जाए, यह निर्णय लक्ष्यभाषा की परम्परा पर आधारित उपयुक्तता के अनुसार करना होता है । उदाहरण के लिए, भारतीय भाषाओं में गद्य की तुलना में पद्य की परम्परा अधिक पुष्ट है; अतः उनमें मूल गद्य पाठ का यदि पद्यात्मक भाषान्तरण हो, तो वह भी उपयुक्त प्रतीत हो सकता है । सारांश यह कि लक्ष्यभाषा में जो स्वाभिक और उपयुक्त प्रतीत हो तथा जो लक्ष्यभाषा की परम्परा के अनुकूल हो – स्वाभाविकता, उपयुक्तता तथा परम्परानुवर्तिता, ये तीनों एक सीमा तक अन्योन्याश्रित हैं - उसके आधार पर लक्ष्यभाषा में सन्देश का पुनर्गठन होता है ।
नाइडा की प्रणाली किस प्रकार काम करती है, उसे निम्न उदहारणों की सहायता से भी समझाया जाता है। सार्वजनिक सूचना के सन्दर्भ से एक उदाहरण इस प्रकार है ।
(१)
क = No admission
य = Admission is not allowed
र = प्रवेश की अनुमति नहीं है।
ख = प्रवेश वर्जित है/अन्दर आना मना है ।
उक्त अनुवाद के अनुसार, 'क' मूलभाषा का पाठ है जो एक सार्वजनिक निर्देश की भाषा का उदाहरण है । यह एक अल्पांग (न्यूनीकृत) वाक्य है । इसके अर्थ को स्पष्ट करने के लिए विश्लेषण की विधि से अनुगामी रूपान्तरण द्वारा अनुवादक इसका बीजवाक्य निर्धारित करता है, यह बीजवाक्य 'य' है; इसी से 'क' व्युत्पन्न है । संक्रमण के सोपान पर 'य' समसंरचनात्मक और समानार्थक वाक्य 'र' है जो पुरोगामी रूपान्तरण द्वारा पुनर्गठन के स्तर पर 'ख' का रूप धारण कर लेता है । 'ख' के दो भेद हैं; दोनों ही शुद्ध माने जाते हैं; उनमें अन्तर शैली की दृष्टि से है । ‘प्रवेश वर्जित है' में औपचारिकता है तथा वह सुशिक्षित वर्ग के उपयुक्त है; 'अन्दर आना मना है' में अनौपचारिकता है और उसे सामान्य रूप से सभी के लिए और विशेष रूप से अल्पशिक्षित वर्ग के लिए उपयुक्त माना जाता है; सूचनात्मकता तथा (निषेधात्मक) आदेशात्मकता दोनों में सुरक्षित है ।
यहाँ प्रशासनिक अंग्रेजी का निम्नलिखत वाक्य है, जो मूलपाठ है और उक्त अनुवाद के अनुसार 'क' के स्तर पर है :
(२) It becomes very inconvenient to move to the section officer's table along with all the relevant papers a number of times during the day in connection with the above mentioned work.
(१) one moves to the section officer's table.
(२) one moves to the section officer's table, with all the relevant papers.
(३) one moves to the section officer's table, with all the relevant papers, a number of times during the day.
(४) one moves to the section officer's table with all the relevant papers, a number of times during the day, in connection will above mentioned work.
चित्र में इस वाक्य का विश्लेषण दो खण्डों में किया गया है । पहले खण्ड (अ) में इसे दो भागों में विभक्त किया गया है - उच्चतर वाक्य तथा निम्नतर वाक्य, जिन्हें स्थूल रूप से वाक्य रचना की परम्परागत कोटियों - मुख्य उपवाक्य और आश्रित उपवाक्यसमकक्ष माना जाता हैं।
दूसरे खण्ड (ब) में दोनों - उच्चतर तथा निम्नतर वाक्यों का विश्लेषण है। उच्चतर वाक्य के तीन अङ्ग हैं, जिनमें पूरक का सम्बन्ध कर्ता से है; वह कर्ता का पूरक है । निम्नतर वाक्य में It का पूरक है to move और वह कर्ता के स्थान पर आने के कारण संज्ञापदबन्ध (=संप) है, क्योंकि कर्ता कोई संप ही हो सकता है । यह संप एक वाक्य से व्युत्पन्न है जिसकी आधारभूत संरचना में कर्ता, क्रिया तथा तीन क्रियाविशेषकों की श्रृंखला दिखाई पड़ती है (चित्र में इसे स्पष्ट किया गया है) । इस आधारभूत, निम्नतर वाक्य की संरचना का स्पष्टीकरण (१) से (४) पर्यन्त के उपवाक्यों में हुआ है । इसमें क्रियाविशेषकों का क्रमिक संयोजन स्पष्ट किया गया है। चित्र में प्रदर्शित नाइडा के मतानुसार यह प्रक्रिया का 'य' स्तर है।
तत्पश्चात् प्रत्यक्ष तथा परोक्ष अनुवाद प्रक्रिया प्रारूपों की तुलना की जाती है। प्रत्यक्ष प्रक्रिया प्रारूप के अनुसार उपर्युक्त वाक्य के निम्नलिखित अनुवाद किए जा सकते हैं (इन्हें 'र' स्तर पर माना जा सकता है) :
"उपर्युक्त कार्य के सम्बन्ध में सभी सम्बन्धित पत्रों को लेकर अनुभाग अधिकारी के पास दिन में अनेक बार जाना असुविधाजनक रहता है" अथवा "यह असुविधाजनक है कि उपर्युक्त कार्य के सम्बन्ध में सभी सम्बन्धित पत्रों को लेकर अनुभाग अधिकारी के पास दिन में अनेक बार जाया जाए।" 'य' से 'र' पर आना संक्रमण का सोपान है, जिस पर मूलपाठ तथा लक्ष्यभाषा पाठ के मध्य ताल-मेल बैठाने के प्रयत्न के चिह्न भी मलते हैं । परन्तु परोक्ष प्रक्रिया प्रारूप के अनुसार अनुवादक उपर्युक्त विश्लेषण की विधि का उपयोग करते हैं, और तदनुसार प्रस्तुत वाक्य का उपयुक्त अनुवाद इस प्रकर हो सकता है -"उपर्युक्त काम के सम्बन्ध में सारे सम्बन्धित पत्रों के साथ अनुभाग अधिकारी के पास, जो दिन में कई बार जाना पड़ता है, उसमें बड़ी असुविधा होती है ।" यह वाक्य 'ख' स्तर पर है तथा पुर्नगठन के सोपान से सम्बन्धित है । उक्त अनुवाद में क्रियाविशेषकों का संयोजन और मूलपाठ के निम्नतर वाक्य की पदबन्धात्मक संरचना - to move to the section officer's table - के स्थान पर अनुवाद में क्रियाविशेषण उपवाक्य की संरचना - 'अनुभाग अधिकारी के पास जो दिन में कई बार जाना पड़ता है' का प्रयोग, ये दो बिन्दु ध्यान देने योग्य हैं, यह बात अनुवादक या अनुवाद प्रशिक्षणार्थी को स्पष्टता के लिये समझाई जाती है । फलस्वरूप, अनुवाद में स्पष्टता और स्वाभाविकता की निष्पत्ति की अपेक्षा होती है । साथ ही, मूलपाठ में मुख्य उपवाक्य (उच्चतर वाक्य) पर अर्थ की दृष्टि से जो बल अभीष्ट है, वह भी सुरक्षित रहता है ।
इन दोनों वाक्यों का अनुवाद तथा विश्लेषण, मुख्य रूप से विश्लेषण की तकनीक तथा उसकी उपयोगिता के स्पष्टीकरण के लिए द्वारा किया गया है । इन दोनों में भाषाभेद तथा भाषा संरचना की अपनी विशेषताएँ हैं, जिन्हें अनुवाद-प्रशिक्षणार्थीओं को सैद्धान्तिक तथा प्रणालीवैज्ञानिक भूमिका पर समझाया जाता है और अनुवाद प्रक्रिया तथा अनूदित पाठ की उपयुक्तता की जानकारी के प्रति उसमें आत्मविश्वास की भावना का विकास हो सकता है, जो सफल अनुवादक बनने के लिए अपेक्षित माना जाता है।
न्यूमार्क का चिन्तन[सम्पादन]
न्यूमार्क (१९७६) के अनुसार अनुवाद प्रक्रिया का प्रारूप निम्नलिखित आरेख के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सकता है : [२]
नाइडा और न्यूमार्क द्वारा प्रस्तावित प्रक्रिया का विहङ्गावलोकन करने से पता चला है कि दोनों की अनुवाद-प्रक्रिया सम्बन्धी धारणा में कोई मौलिक अन्तर नहीं। बाइबिल अनुवादक होने के कारण नाइडा की दृष्टि प्राचीन पाठ के अनुवाद की समस्याओं से अधिक बँधी दिखी; अतः वे विश्लेषण, संक्रमण तथा पुनर्गठन के सोपानों की कल्पना करते हैं । प्राचीन रचना होने के कारण बाइबिल की भाषा में अर्थग्रहण की समस्या भाषा की व्याकरणिक संरचना से अधिक जुड़ी हुई है । इतः नाइडा के अनुवाद सम्बन्धी भाषा सिद्धान्त में व्याकरण को विशेष महत्त्व का स्थान प्राप्त होता है। व्याकरणिक गठन से सम्बन्धित अर्थग्रहण में 'विश्लेषण' विशेष सहायक माना जाता है, अतः नाइडा ने सोपान का नामकरण भी 'विश्लेषण' किया ।
न्यूमार्क की दृष्टि आधुनिक तथा वैविध्यपूर्ण भाषाभेदों के अनुवाद कार्य की समस्याओं से अनुप्राणित मानी जाती है। अतः वे बोधन तथा अभिव्यक्ति के सोपानों की कल्पना करते हैं। परन्तु वे मूलभाषा पाठ को लक्ष्यभाषा पाठ से भी जोड़ते हैं, जिससे दोनों पाठों का अनुवाद-सम्बन्ध तुलना तथा व्यतिरेक के सन्दर्भ में स्पष्ट हो सके । न्युमार्क भी बोधन के लिए विशिष्ट भाषा सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं, जिसमें वे शब्दार्थविज्ञान को केन्द्रीय महत्त्व का स्थान देते हैं। अपने विभिन्न लेखों में उन्होंने (१९८१) अपनी सैद्धान्तिक स्थापना का विवरण प्रस्तुत किया है । एक उदाहरण के द्वारा उनके प्रारूप को स्पष्ट किया जाता है :
१. मूलभाषा पाठ : Judgment has been reserved
१.१ बोधन (तथा व्याख्या) : Judgment will not be announced immediately.
२. अभिव्यक्ति (तथा पुनस्सर्जन) : निर्णय अभी नहीं सुनाया जाएगा।
२.१ लक्ष्यभाषा पाठ : निर्णय पश्चात् सुनाया जाएगा ।
३. शब्द-प्रति-शब्द अनुवाद : निर्णय - (सुरक्षित) लिया गया है - सुरक्षित ।
शब्द-प्रति-शब्द अनुवाद से जहाँ दोनों भाषाओं के शब्दक्रम का अन्तर स्पष्ट होता है, वहाँ शब्दार्थ स्तर पर दोनों भाषाओं का सम्बन्ध भी प्रकट हो जाता है । अनुवादकों को ज्ञात हो जाता है कि reserved के लिए हिन्दी में 'सुरक्षित' या 'आरक्षित' सही शब्द है, परन्तु Judgement या 'निर्णय' के ऐसे सहप्रयोग में, जैसा कि उपर्युक्त वाक्य में दिखाई देता है, शब्द-प्रति-शब्द अनुवाद करना उपयुक्त न होगा । इससे यह सैद्धान्तिक भी स्पष्ट हो जाता है कि, अनुवाद को दो भाषाओं के मध्य का सम्बन्ध कहने की अपेक्षा दो विशिष्ट भाषा भेदों या दो विशिष्ट पाठों के मध्य का सम्बन्ध कहना अधिक उपयुक्त है, जिसमें अनुवाद की इकाई का आकार, सम्बन्धित भाषाभेद या पाठगत सन्देश की प्रकृति से निर्धारित होता है । प्रस्तुत वाक्य में सम्पूर्ण वाक्य ही अनुवाद की इकाई है, क्योंकि इसमें शब्दों का उपयुक्त अनुवाद अन्योन्याश्रय सम्बन्ध आधारित है । अनुवादक यह भी जान जाते हैं कि, उपर्युक्त वाक्य का हिन्दी समाचार में जो 'निर्णय सुरक्षित रख लिया गया है' यह अनुवाद प्रायः दिखाई देता है वह क्यों अस्वभाविक, अनुपयुक्त तथा असम्प्रेषणीय-वत् प्रतीत होता है । शब्दशः अनुवाद की उपर्युक्त प्रवृत्ति का प्रदर्शन करने वाले अनुवादों को 'अनुवादाभास' कहा जाता है।
वस्तुतः अनुवाद की प्रक्रिया में आवृत्ति का तत्त्व होता है, अर्थात् अनुवादक दो बार अनुवाद करते हैं । मूलपाठ के बोधन के लिए मूलभाषा में अनुवाद किया जाता है : No admission → admission is not allowed; इसी प्रकार लक्ष्यभाषा में सन्देश के पुनर्गठन या अभिव्यक्ति को लक्ष्यभाषा पाठ का आकार देते हुए हम लक्ष्यभाषा में उसका पुन: अनुवाद करते हैं; 'प्रवेश की अनुमति नहीं है' → 'अन्दर आना मना है'। इस प्रकार अन्यभाषिक अनुवाद में दोनों भाषाओं के स्तर पर समभाषिक अनुवाद की स्थिति आती है। इन्हें क्रमशः बोधनात्मक अनुवाद (डिकोडिंग ट्रांसलेशन) पुनरभिव्यक्तिमूलक अनुवाद (रि-इनकोडिंग ट्रांसलेशन) कहा जाता है ।
बोधनात्मक अनुवाद साधन रूप है - मूलपाठ के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए किया गया है। पुनरभिव्यक्तिमूलक अनुवाद साध्य रूप है - वास्तविक अनूदित पाठ । यदि एक अभ्यस्त अनुवादक के यह अर्ध–औपचारिक या अनौपचारिक रूप में होता है, तो अनुवाद-प्रशिक्षणार्थी के लिए इसके औपचारिक प्रस्तुतीकरण की आवश्यकता और उपयोगिता होती है जिससे वह अनुवाद-प्रक्रिया को (अनुभवस्तर के साथ-साथ) ज्ञान के स्तर पर भी आत्मसात् कर सके।
बाथगेट का चिन्तन[सम्पादन]
बाथगेट (१९८०) अपने प्रारूप को संक्रियात्मक प्रारूप कहते हैं, जो अनुवाद कार्य की व्यावहारिक प्रकृति से विशेष मेल खाने के साथ-साथ नाइडा और न्यूमार्क के प्रारूपों से अधिक व्यापक माना जाता है । इसे लेखक ने निम्नलिखित चित्र के माध्यम से प्रस्तुत किया है -
इसमें सात सोपानों की कल्पना की गई है, जिनमें से पर्यालोचन के सोपान के अतिरिक्त शेष सर्व में अतिव्याप्ति का अवकाश माना जाता है (जो असंगत नहीं) परन्तु सैद्धान्तिक स्तर पर इनके अपेक्षाकृत स्वतन्त्र अस्तित्व को मान्यता प्रदान की गई है । मूलभाषा पाठ का मूल जानना और तदनुसार अपनी मानसिकता का मूलपाठ से तालमेल बैठाना समन्वयन है । यह सोपान मूलपाठ के सब पक्षों के धूमिल से अवबोधन पर आधारित मानसिक सज्जता का सोपान है, जो अनुवाद कार्य में प्रयुक्त होने की अभिप्रेरणा की व्याख्या करता है तथा अनुवाद की कार्यनीति के निर्धारण के लिए आवश्यक भूमिका निर्माण का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करता है ।
विश्लेषण और बोधन के सोपान (नाइडा और न्यूमार्क-वत्) पूर्ववत् हैं । पारिभाषिक अभिव्यक्तियों के अन्तर्गत बाथगेट उन अंशों को लेते हैं, जो मूलपाठ के सन्देश की निष्पत्ति में अन्य अंशों की तुलना में विशेष महत्त्व के हैं और जिनके अनुवाद पर्यायों के निर्धारण में विशेष ध्यान देने की आवश्यकता वो मानते है । पुनर्गठन भी पहले के ही समान है । पुनरीक्षण के अन्तर्गत अनूदित पाठ का सम्पूर्ण अन्वेषण आता है । हस्तलेखन या टङ्कण की त्रुटियों को दूर करने के अतिरिक्त अभिव्यक्ति में व्याकरणनिष्ठता, परिष्करण, श्रुतिमधुरता, स्पष्टता, स्वाभाविकता, उपयुक्तता, सुरुचि, तथा आधुनिक प्रयोग रूढि की दृष्टि से अनूदित पाठ का आवश्यक संशोधन पुनरीक्षण है । यह कार्य प्रायः अनुवादक से भिन्न व्यक्ति, अनुवादक से यथोचित् सहायता लेते हुए, करता है । यदि स्वयं अनुवादक को यह कार्य करना हो तो अनुवाद कार्य तथा पुनरीक्षण कार्य में समय का इतना व्यवधान अवश्य हो कि अनुवादक अनुवाद कार्य कालीन स्मृति के पाश से मुक्तप्राय होकर अनूदित पाठ के प्रति तटस्थ और आलोचनात्मक दृष्टि अपना सके तथा इस प्रकार अनुवादक से भिन्न पुनरीक्षक के दायित्व का वहन कर सके । पर्यालोचन के सोपान में विषय विशेषज्ञ और अनुवादक के मध्य संवाद के द्वारा अनूदित पाठ की प्रामाणिकता की पुष्टि का प्रावधान है । जिन पाठों की विषयवस्तु प्रामाणिकता की अपेक्षा रखती है - जैसे विधि, प्रकृतिविज्ञान, समाज विज्ञान, प्रौद्योगिकी, आदि - उनमें पर्यलोचन की उपयोगिता स्पष्ट होती है।
एक उदाहरण के द्वारा बाथगेट के प्रारूप को स्पष्ट किया जाता है। मूलभाषा पाठ है किसी ट्रक पर लिखा हुआ सूचना वाक्यांश Public Carrier. इसके अनुवाद की मानसिक सज्जता करते समय अनुवादक को यह स्पष्ट होता है कि, इस वाक्यांश का उद्देश्य जनता को ट्रक की उपलब्धता के विषय में एक विशिष्ट सूचना देना है । इस वाक्यांश के सन्देश में जहाँ प्रभावपरक या सम्बोधनात्मक (श्रोता केन्द्रित) प्रकार्य की सत्ता है, वहाँ सूचनात्मक प्रकार्य भी इस दृष्टि से उपस्थित है कि, उसका विधिक्षेत्रीय और प्रशासनिक पक्ष है - इन दोनों दृष्टियों से ऐसे ट्रक पर कुछ प्रतिबन्ध लागू होते हैं । अतः कुल मिलाकर यह वाक्यांश सम्प्रेषण केन्द्रित प्रणाली के द्वारा अनूदित होने योग्य है। विश्लेषण के सोपान पर अनुगामी रूपान्तरण के द्वारा अनुवादक इसका बोधनात्मक अनुवाद करते हुए बीजवाक्य या वाक्यांश निर्धारित करते हैं : It carries goods of the public = Carrier of public goods. बोधन के सोपान पर अनुवादक को यह स्पष्ट होता है कि, It can be hired = "इसे भाडे पर लिया जा सकता है ।" पारिभाषिक अभिव्यक्ति के सोपान पर अनुवादक इसे विधि-प्रशासनिक अभिव्यक्ति के रूप में पहचानते हैं, जिसके सन्देश के अनुवाद को सम्प्रेषणीय बनाते हुए अनुवादक को उसकी विशुद्धता को भी यथोचित् रूप से सुरक्षित रखना है । पुनर्गठन के सोपान पर अनुवादक के सामने इस वाक्यांश के दो अनुवाद हैं : 'लोकवाहन' (उत्तर प्रदेश में प्रचलित) और 'भाडे का ट्रक' (बिहार में प्रचलित) । पिछले सोपानों की भूमिका पर अनुवादक के सामने यह स्पष्ट हो जाता है कि - ‘लोकवाहन' में सन्देश का वैधानिक पक्ष भले सुरक्षित हो परन्तु यह सम्प्रेषण के उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाता । इस अभिव्यक्ति से साधारण पढ़े-लिखे को यह तुरन्त पता नहीं चलता कि लोकवाहन का उसके लिए क्या उपयोग है । इसको सम्प्रेषणीय बनाने के लिए इसका पुनरभिव्यक्तिमूलक (समभाषिक) अनुवाद अपेक्षित है - 'भाड़े का ट्रक' – जिससे जनता को यह स्पष्ट हो जाता है कि, इस ट्रक का उसके लिए क्या उपयोग है । मूल अभिव्यक्ति इतनी छोटी तथा उसकी स्वीकृत अनुवाद 'भाड़े का ट्रक' इतना स्पष्ट है कि, इसके सम्बन्ध में पुनरीक्षण तथा पर्यालोचन के सोपान अपेक्षित नहीं, ऐसा कहा जाता है।
निष्कर्ष[सम्पादन]
अनुवाद प्रक्रिया के विभिन्न प्रारूपों के विवेचन से निष्कर्षस्वरूप दो बातें स्पष्टतः मानी जाती हैं । पहली, अनुवाद प्रक्रिया एक क्रमिक प्रक्रिया है, जिसमें तीन स्थितियाँ बनती हैं -
(क) अनुवादपूर्व स्थिति - अनुवाद कार्य के सन्दर्भ को समझना । किस पाठसामग्री का, किस उद्देश्य से, किस कोटि के पाठक के लिए, किस माध्यम में, अनुवाद करना है, आदि इसके अन्तर्गत है ।
(ख) अनुवाद कार्य की स्थिति - मूलभाषा पाठ का बोधन, सङ्क्रमण, लक्ष्य भाषा में अभिव्यक्ति ।
(ग) अनुवादोत्तर स्थिति - अनूदित पाठ का पुनरीक्षण-सम्पादन तथा इस प्रकार अन्ततः ‘सुरचित' पाठ की निष्पत्ति।
दूसरी बात यह है कि अनुवाद, मूलपाठ के बोधन तथा लक्ष्यभाषा में अभिव्यक्ति, इन दो ध्रुवों के मध्य निरन्तर होते रहने वाली प्रक्रिया है, जो सीधी और प्रत्यक्ष न होकर घुमावदार तथा परोक्ष है । वह मध्यवर्ती स्थिति जिसके जरिए यह प्रक्रिया सम्पन्न होती है, एक वैचारिक संज्ञानात्मक संरचना है, जो मूलपाठ के बोधन (जिसके लिए आवश्यकतानुसार विश्लेषण की सहायता लेनी होती है) से निष्पन्न होती है तथा जिसमें लक्ष्यभाषागत अभिव्यक्ति के भी बीज निहित रहते हैं । यह भाषा विशेष सापेक्ष शब्दों के बन्धन से मुक्त शुद्ध अर्थमयी सत्ता है । इस मध्यवर्ती संरचना का अधिष्ठान अनुवादक का मस्तिष्क होता है ।
सांस्कृतिक-संरचनात्मक दृष्टि से अपेक्षाकृत निकट भाषाओं में इस वैचारिक संरचना की सत्ता की चेतना अपेक्षाकृत स्पष्ट होती है । वैचारिक स्तर पर स्थित होने के कारण इसकी भौतिक सत्ता नहीं होती - भाषिक अभिव्यक्ति के स्तर पर यह यथातथ रूप में एक यथार्थ का रूप ग्रहण नहीं करती; यदि अनुवादक भाषिक स्तर पर इसे अभिव्यक्त भी करते हैं, तो केवल सैद्धान्तिक आवश्यकता की दृष्टि से, जिसमें विश्लेषण के रूप में कुछ वाक्यों तथा वाक्यांशों का पुनर्लेखन अन्तर्भूत होता है । परन्तु यह भी सत्य है कि यही वह संरचना है, जो अनूदित होकर लक्ष्यभाषा पाठ में परिणत होती है । इस बात को अन्य शब्दो में भी कहा जाता है कि, अनुवादक मूलभाषापाठ की वैचारिक संरचना का अनुवाद करता है परन्तु अनुवाद की प्रक्रिया की यह आन्तरिक विशेषता है कि जो सरंचना अन्ततोगत्वा लक्ष्य भाषा में अनूदित होती है, वह है मध्यवर्ती वैचारिक संरचना जो मूलपाठ की वैचारिक संरचना के अनुवादक कृत बोध से निष्पन्न है !
अनुवाद प्रक्रिया के इस निरूपण से सैद्धान्तिक स्तर पर दो बातों का स्पष्टीकरण होता है । एक, मूलभाषापाठ के अनुवादकीय बोध से निष्पन्न वैचारिक संरचना ही क्योंकि लक्ष्यभाषापाठ का रूप ग्रहण करती है, अतः अनुवादक भेद से अनुवाद भेद दिखाई पड़ता है । दूसरे, उपर्युक्त वैचारिक संरचना विशिष्ट भाषा निरपेक्ष (या उभय भाषा सापेक्ष) होती है - उसमें दोनों भाषाओं (मूल तथा लक्ष्य) के माध्यम से यथासम्भव समान तथा निकटतम रूप में अभिव्यक्त होने की संभाव्यता होती है । मूलभाषापाठ का सन्देश जो अनूदित हो जाता है उसकी यह व्याख्या है ।
अनुवाद प्रक्रिया की प्रकृति[सम्पादन]
अनुवाद प्रक्रिया के उपर्युक्त विवरण के आधार पर अनुवाद प्रक्रिया की प्रकृति के परस्पर सम्बद्ध तीन मूलतत्त्व निर्धारित किए जाते हैं : सममूल्यता, द्वन्द्वात्मकता, और अनुवाद परिवृत्ति।
सममूल्यता[सम्पादन]
अनुवाद कार्य में अनुवादक मूलभाषापाठ के लक्ष्यभाषागत पर्यायों से जिस समानता की बात करता है, वह मूल्य (वैल्यू) की दृष्टि से होती है । यह मूल्य का तत्त्व भाषा के शब्दार्थ तथा व्याकरण के तथ्यों तक सीमित नहीं होता, अपितु प्रायः उनसे कुछ अधिक तथा भाषाप्रयोग के सन्दर्भ से (आन्तरिक और बाह्य दोनों) से उद्भूत होता है । वस्तुतः यह एक पाठसंकेतवैज्ञानिक संकल्पना है तथा सन्देश स्तर की समानता से जुड़ी है । भाषा के भाषावैज्ञानिक विश्लेषण में अर्थ के स्तर पर पर्यायत्ता या अन्ययांतर सम्बन्ध पर आधारित होते हुए भी सममूल्यता सन्देश का गुण है, जिसमें पाठ का उसकी समग्रता में ग्रहण होता है । यह अवश्य है कि सममूल्यता के निर्धारण में पाठसङ्केतविज्ञान के तीन घटकों के अधिक्रम का योगदान रहता है - वाक्यस्तरीय सममूल्यता पर अर्थस्तरीय सममूल्यता को प्राधान्य मिलता है तथा अर्थस्तरीय सममूल्यता पर सन्दर्भस्तरीय सममूल्यता को मान्यता दी जाती है । दूसरे शब्दों में, यदि दोनों भाषाओं में वाक्यरचना के स्तर पर सममूल्यता स्थापित न हो तो अर्थस्तरीय सममूल्यता निर्धारित करनी होगी, और यदि अर्थस्तरीय सममूल्यता निर्धारित न हो सके, तो सन्दर्भस्तरीय सममूल्यता को मान्यता देनी होगी । उदाहरण के लिए, The meeting was chaired by X" (कर्मवाच्य) के हिन्दी अनुवाद “क्ष ने बैठक की अध्यक्षता की" (कर्तृवाच्य) में सममूल्यता का निर्धारण वाक्य स्तर से ऊपर अर्थ स्तर पर हुआ है, क्योंकि दोनों की वाक्यरचनाओं में वाच्य की दृष्टि से असमानता है । इसी प्रकार, What time is it? के हिन्दी अनुवाद 'कितने बजे हैं ?' (न कि समय क्या है जो हिन्दी का सहज प्रयोग न होकर अंग्रेजी का शाब्दिक अनुवाद ही अधिक प्रतीत होता है) के बीच सममूल्यता का निर्धारण अर्थस्तर से ऊपर सन्दर्भ - समय पूछना, जो एक दैनिक सामाजिक व्यवहार का सन्दर्भ है - के स्तर पर हुआ है । इस प्रकार सममूल्यता की स्थिति पाठसङ्केत के सङ्घटनात्मक पक्ष में होने के साथ-साथ सम्प्रेषणात्मक पक्ष में भी होती है, जिसमें सम्प्रेषणात्मक पक्ष का स्थान संघटनात्मक पक्ष से ऊपर होता है ।
सममूल्यता को पाठसंकेतवैज्ञानिक संकल्पना मानने से व्यवहार में जो छूट मिलती है, वह सम्प्रेषण की मान्यता पर आधारित अनुवाद कार्य की आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ है । मूलभाषा का पाठ किस भाषाभेद (प्रयुक्ति) से सम्बन्धित है, उसका उद्दिष्ट/सम्भावित पाठक कौन है (उसका शैक्षिक-सांस्कृतिक स्तर क्या है), अनुवाद करने का उद्देश्य क्या है - इन तथ्यों के आधार पर अनुवाद सममूल्यों का निर्धारण होता है । इस प्रक्रिया में वे यदि कभी शब्दार्थगत पर्यायों तथा गठनात्मक संरचनाओं की सम्वादिता से कभी-कभी भिन्न हो सकते हैं, तो कुछ प्रसंगों में उनसे अभिन्न, अत एव तद्रूप होने की सम्भावना को नकारा भी नहीं किया जा सकता । यह ठीक है कि भाषाएँ संरचना, शैलीय प्रतिमान आदि की दृष्टि से अंशतः असमान होती हैं और यह भी ठीक है कि वे अंशतः समान भी होती हैं; मुख्य बात यह है कि उन समान तथा असमान बिन्दुओं को पहचाना जाए । सम्प्रेषण के सन्दर्भ में समानता एक लचीली स्थिति बन जाती है । अनुवाद में मूल्यगत समानता ही उपलब्ध करनी होती है । अनुवादगत सममूल्यता लक्ष्य भाषापाठ की दृष्टि से यथासम्भव स्वाभाविक तथा मूलभाषापाठ के यथासम्भव निकटतम होती है । इसका एक उल्लेखनीय गुण है। गत्यात्मकता, जिसका तात्पर्य यह है कि अनुवाद के पाठक की अनुवाद सममूल्यों के प्रति वही स्वीकार्यता है जो मूल के पाठकों की मूल की सम्बद्ध अभिव्यक्तियों के प्रति है । स्वीकार्यता या प्रतिक्रिया की यह समानता उभयपक्षीय होने से गतिशील है, और यही अनुवाद सममूल्यता की गत्यात्मकता है ।
द्वन्द्वात्मकता[सम्पादन]
अनुवाद का सम्बन्ध दो स्थितियों के साथ है । इसे अनुवादक द्वन्द्वात्मकता कहेते हैं। यह द्वन्द्वात्मकता केवल भाषा के आयाम तक सीमित नहीं, अपितु समस्त अनुवाद परिस्थिति में व्याप्त है । इसकी मूल विशेषता है सन्तुलन, सामंजस्य या समझौता । एक प्रक्रिया, सम्बन्ध, और निष्पत्ति के रूप में अनुवाद की द्वन्द्वात्मकता के विभिन्न आयामों को इस प्रकार निरूपित किया जाता है :
(क) अनुवाद का बाह्य सन्दर्भ[सम्पादन]
१. अनुवाद में, मूल लेखक तथा दूसरे पाठक (अनुवाद का पाठक) के बीच सम्पर्क स्थापित होता है । मूल लेखक और दूसरे पाठक के बीच देश या काल या दोनों की दृष्टि से दूरी या निकटता से द्वन्द्वात्मकता के स्वरूप में अन्तर आता है । स्थान की दृष्टि से मूल लेखक तथा पाठक दोनों ही विदेशी हो सकते हैं, स्वदेशी हो सकते हैं, या इनमें से एक विदेशी और एक स्वदेशी हो सकता है । काल की दृष्टि से दोनों अतीतकालीन हो सकते हैं, दोनों समकालीन हो सकते हैं, या लेखक अतीत का और पाठक समसामयिक हो सकता है । इन सब स्थितियों से अनुवाद प्रक्रिया प्रभावित होती है।
२. अनुवाद में, मूल लेखक और अनुवादक में सन्तुलन अपेक्षित होता है । अनुवादक को मूल लेखक की चिन्तन पद्धति और अभिव्यक्ति पद्धति के साथ अपनी चिन्तन पद्धति तथा अभिव्यक्ति पद्धति का सामञ्जस्य स्थापित करना होता है।
३. अनुवाद में, अनुवादक तथा अनुवाद के पाठक के मध्य अनुबन्ध होता है । अनुवादक का अनुवाद करने का उद्देश्य वही हो जो अनुवाद के पाठक का अनुवाद पढ़ने के सम्बन्ध में है । अनुवादक के लिए आवश्यक है कि, वह अपने भाषा प्रयोग को अनुवाद के सम्भावित पाठक की बोधनक्षमता के अनुसार ढाले ।
४. अनुवाद में, अनुवादक की व्यक्तिगत रुचि (अनुवाद कार्य तथा अनुवाद सामग्री दोनों की दृष्टि से) तथा उसकी व्यावसायिक आवश्यकता का समन्वय अपेक्षित है ।
५. अपनी प्रकृति की दृष्टि से पूर्ण अनुवाद असम्भव है तथा अनूदित रचना मूल रचना के पूर्णतया समान नहीं हो सकती, परन्तु सामाजिक-सांस्कृतिक तथा राजनीतिक-आर्थिक दृष्टि से अनुवाद कार्य न केवल महत्त्वपूर्ण है अपितु आवश्यक और सुसंगत भी । एक सफल अनुवाद में उक्त दोनों स्थितियों का सन्तुलन होता है।
(ख) अनुवाद का आन्तरिक सन्दर्भ[सम्पादन]
६. अनुवाद में, दो भाषाओं के मध्य सम्बन्ध के परिप्रेक्ष्य में, एक और भाषा-संरचना (सन्दर्भरहित) तथा भाषा-प्रयोग (सन्दर्भसहित) के मध्य द्वन्दात्मक सम्बन्ध स्पष्ट होता है, तो दूसरी ओर भाषा-प्रयोग के सामान्य पक्ष और विशिष्ट पक्ष के मध्य सन्तुलन की स्थिति उभरकर सामने आती है ।
७. अनुवाद में, दो भाषाओं की विशिष्ट प्रयुक्तियों के दो विशिष्ट पाठों के मध्य विभिन्न स्तरों और आयामों पर समायोजन अपेक्षित होता है । ये स्तर/आयाम हैं - व्याकरणिक गठन, शब्दकोश के स्तर, शब्दक्रम की व्यवस्था, सहप्रयोग, शब्दार्थ, व्यवस्था, भाषाशैली की रूढ़ियाँ, भाषा-प्रकार्य, पाठ प्रकार, साहित्यिक सामाजिक-सांस्कृतिक रूढ़ियाँ ।
८. गुणात्मक दृष्टि से अनुवाद में विविध प्रकार के सन्तुलन दिखाई देते हैं। किसी भी पाठ का सब स्तरों/आयामों पर पूर्ण अनुवाद असम्भव है, परन्तु सब प्रकार के पाठों का अनुवाद सम्भव है । एक सफल अनुवाद में निम्नलिखित युग्मों के घटक सन्तुलन की स्थिति में दिखाई देते हैं - विशुद्धता और सम्प्रेषणीयता, रूपनिष्ठता और प्रकार्यात्मकता, शाब्दिकता और स्वतन्त्रता, मूलनिष्ठता और सुन्दरता (रोचकता), और उद्रिक्तता तथा सामासिकता । तदनुसार एक सफल अनुवाद जितना सम्भव हो, उतना विशुद्ध, रूपनिष्ठ, शाब्दिक, और मूलनिष्ठ होता है तथा जितना आवश्यक हो उतना सम्प्रेषणीय प्रकार्यात्मक, स्वतन्त्र, और सुन्दर (रोचक) होता है । इसी प्रकार एक सफल अनुवाद में उद्रिक्तता (सूचना की दृष्टि से मूलपाठ की अपेक्षा लम्बा होना) की प्रवृत्ति है, परन्तु लक्ष्यभाषा प्रयोग के कौशल की दृष्टि से उसका संक्षिप्त होना वाञ्छित होता है।
९. कार्यप्रणाली की दृष्टि से, क्षतिपूर्ति के नियम के अनुसार अनुवाद में मुख्यतया निम्नलिखित युग्मों के घटकों में सह-अस्तित्व दिखाई देता है : छूटना-जुड़ना (सूचना के स्तर पर) और आलंकारिकता-सुबोधता (अभिव्यक्ति के स्तर पर) । लक्ष्यभाषा में व्यक्त सन्देश के सौष्ठवपूर्ण पुनर्गठन के लिए मूल पाठ में से कुछ छूटना तथा लक्ष्यभाषा पाठ में कुछ जुड़ना अवश्यम्भावी है । यदि कुछ छूटेगा तो कुछ जुड़ेगा भी; विशेष बात यह है कि न छूटने लायक यथासम्भव छूटे नहीं तथा न जुड़ने लायक जुड़े नहीं । मूलपाठ की कुछ आलंकारिक अभिव्यक्तियाँ, जैसे रूपक, अनुवाद में जब लक्ष्यभाषा में संक्रान्त नहीं हो पातीं तो अनलंकृत अभिव्यक्तियों का प्रयोग करना होता है - अलंकार की प्रभावोत्पादकता का स्थान सामान्य कथन की सुबोधता ले लेती है । यही बात विपरीत ढंग से भी हो सकती है - मूल की सुबोध अभिव्यक्ति के लिए लक्ष्यभाषा में एक अलंकृत अभिव्यक्ति का चयन कर लिया जाता है, परन्तु वह लक्ष्यभाषा की बहुप्रचलित रूढि हो जो प्रभावोत्पादक होने के साथ-साथ सुबोध भी हो ये अत्यावश्यक होता है।
द्वन्द्वात्मकता के विभिन्न आयामों के विवेचन से अनुवादसापेक्ष सम्प्रेषण की प्रकृति पर व्यापक प्रकाश पड़ता है । यह सन्तुलन जितना स्वीकार्य होता है, अनुवाद उतना ही सफल प्रतीत होता है।
अनुवाद परिवृत्ति[सम्पादन]
अनुवाद कार्य में अनुवाद परिवृत्ति एक अवश्यम्भावी तथा वांछनीय एवं स्वाभाविक स्थिति है । परिवृत्ति से अभिप्राय है दोनों भाषाओं के मध्य विभिन्न स्तरीय सम्वादिता से विचलन । विचलन की दो स्थितियाँ हो सकती हैं - अनिवार्य तथा ऐच्छिक । अनिवार्य विचलन भाषा की शब्दार्थगत एवं व्याकरणिक संरचना का अन्तरङ्ग है; उदाहरण के लिए मराठी नपुंसकलिङ्ग संज्ञा हिन्दी में पुल्लिंग या स्त्रीलिंग संज्ञा के रूप में ही अनूदित होगी । कुछ इसी प्रकार की बात अंग्रेजी वाक्य I have fever के हिन्दी अनुवाद 'मुझे ज्वर है' के लिए कही जा सकती है, क्योंकि 'मैं ज्वर रखता हूँ' हिन्दी में सम्प्रेषणात्मक तथ्य के रूप में स्वीकृत नहीं । ऐच्छिक विचलन में विकल्प की व्यवस्था होती है । अंग्रेजी "The rule states that" को हिन्दी में दो रूपों में कहा जा सकता है - “इस नियम में यह व्यवस्था है कि/ कहा गया है कि " या "यह नियम कहता है कि "। इन दोनों में पहला वाक्य हिन्दी में स्वाभाविक प्रतीत होता है, उतना दूसरा नहीं यद्यपि अब यह भी अधिक प्रचलित माना जाता है । एक उपयुक्त अनुवाद में पहले अनुवाद को प्राथमिकता मिलेगी । अनुवाद के सन्दर्भ में ऐच्छिक विचलन की विशेष प्रासङ्गिकता इस दृष्टि से है कि, इससे अनुवाद को स्वाभाविक बनाने में सहायता मिलती है । अनिवार्य विचलन, तुलनात्मक-व्यतिरेकी भाषा विश्लेषण का एक सामान्य तथ्य है, जिसमें अनुवाद का प्रयोग एक उपकरण के रूप में किया जाता है।
अनुवाद-परिवृत्ति की संकल्पना[सम्पादन]
अनुवाद-परिवृत्ति की संकल्पना का सम्बन्ध प्रधान रूप से व्याकरण के साथ माना गया है।[३] यह दो रूपों में दिखाई देता है - व्याकरणिक शब्दों की परिवृत्ति तथा व्याकरणिक कोटियों की परिवृत्ति ।
व्याकरणिक शब्दों की परिवृत्ति[सम्पादन]
व्याकरणिक शब्दों की परिवृत्ति का एक उदाहरण उपर्युक्त वाक्ययुग्म में दिखाई देता है । अंग्रेजी का निर्धारक या निश्चयत्मक आर्टिकल the हिन्दी में (सार्वनामिक) सङ्केतवाचक विशेषण 'यह/इस' हो गया है, यद्यपि यह अनिवार्य विचलन के अन्तर्गत है ।
व्याकरणिक कोटियों की परिवृत्ति[सम्पादन]
व्याकरणिक कोटियों की परिवृत्ति में अनुवादक दो भेदों की ओर विशेष ध्यान देते हैं - व्याकरणिक कोटियों की परिवृत्ति तथा श्रेणी-परिवृत्ति । वाक्य में व्याकरणिक कोटियों की विन्यासक्रमात्मक संरचना में परिवृत्ति का उदाहरण है अंग्रेजी के सकर्मक वाक्य में प्रकार्यात्मक कोटियों के क्रम, कर्ता + क्रिया + कर्म, का हिन्दी में बदलकर कर्ता + कर्म + क्रिया हो जाना । यह परिवृत्ति के अनिवार्य विचलन के अन्तर्गत है; अतः व्यतिरेक है । श्रेणी परिवृत्ति का प्रसिद्ध उदाहरण है मूलभाषा के पदबन्ध का लक्ष्यभाषा में उपवाक्य हो जाना या उपवाक्य का पदबन्ध हो जाना । अंग्रेजी-हिन्दी अनुवाद में इस प्रकार की परिवृत्ति के उदाहरण प्रायः मिल जाते हैं -भारतीय रेलों में सुरक्षा सम्बन्धी निर्देशावली के अंग्रेजी पाठ का शीर्षक है : "Travel safely" (उपवाक्य) और हिन्दी पाठ का शीर्षक है : ‘सुरक्षा के उपाय' (पदबन्ध), जबकि अंग्रेजी में भी एक पदबन्ध हो सकता है - "Measures of safety." इसी प्रकार पदस्तरीय, विशेषतः समस्त पद के स्तर की, इकाई का एक पदबन्ध के रूप में अनूदित होने के उदाहरण भी प्रायः मिल जाते हैं - अंग्रेज़ी "She is a good natured girl" = "वह अच्छे स्वभाव की लड़की है" ('वह एक सुशील लड़की है' में परिवृत्ति नहीं है) । श्रेणी परिवृत्ति के दोनों उदाहरण ऐच्छिक विचलन के अन्तर्गत हैं । अंग्रेज़ी से हिन्दी के अनुवाद के सन्दर्भ में, विशेषतया प्रशासनिक पाठों के अनुवाद के सन्दर्भ में, पाई जाने वाली प्रमुख अनुवाद परिवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं [४] : (१) अं० निर्जीव कर्ता युक्त सकर्मक संरचना = हि० अकर्मकीकृत संरचना :
The rule states that = इस नियम में यह व्यवस्था है कि।
(२) अं० कर्मवाच्य/कर्तृवाच्य = हि० कर्तृवाच्य/कर्मवाच्य :
The meeting was chaired by X = क्ष ने बैठक की अध्यक्षता की।
I cannot drink milk now = मुझसे अब दूध नहीं पिया जाएगा ।
(३) अं० पूर्वसर्गयुक्त/वर्तमानकालिक कृदन्त पदबन्ध = हि० उपवाक्य :
(They are further requested) to issue instructions = (उनसे
अनुरोध है कि) वे अनुदेश जारी करें ।
(४) अं० उपवाक्य = हि० पदबन्ध :
(This may be kept pending) till a decision is taken on the main file = मुख्य मिसिल पर निर्णय होने तक (इसे रोक रखिए)।
सन्दर्भ[सम्पादन]
- ↑ https://books.google.co.in/books?id=xBpEuN9CsTMC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false
- ↑ https://books.google.co.in/books?id=dK3KDgAAQBAJ&pg=PA31&dq=%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%95+%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6&hl=sa&sa=X&ved=0ahUKEwiv-dPboOTdAhVKMo8KHa6eBkQQ6AEIIzAA#v=onepage&q&f=false
- ↑ कैटफोर्ड १९६५ : ७३-८२
- ↑ सुरेश कुमार : १९८० : २८
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