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अर्कवंशी क्षत्रिय (अरख)

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राजा त्रिलोकचंद अर्कवंशी

राजा त्रिलोकचंद अर्कवंशी



2: अर्कवंश के मध्यकालीन महानायक राजा तिलोकचन्द अर्कवंशी

राजा तिलोकचन्द के विषय में पता चलता है कि वह दिल्ली का शासक था दिल्ली पर उनकी 10 पीड़ियों ने राज किया था, जो निम्नलिखित है (1) तिलोकचन्द (2) विक्रमचन्द (3) कार्तिकयन्द (अमीनचन्द्र ) ( 1 )

रामचन्द (5) अधरचन्द (हरीचन्द) (6) कल्याणचन्द (7) भीमचन्द (8) चीन्द (लोकचन्द) (9) गोविन्दचन्द (10) प्रेमादेवी (भीमादेवी) । पुस्तक 'अर्कवंशी क्षत्रियों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के अनुसार दिल्ली पर

अर्कवंश का शासन दसवीं शताब्दी के प्रारंभ में राजा तिलोकचन्द द्वारा स्थापित किया गया था। राजा तिलोकचन्द की 10 जिन पीढ़ियों ने यहाँ पर राज किया था,

उनका विवरण निम्नलिखित है

(1) तिलोकचन्द ( 918 से 972 ई. = 54 वर्ष) (2) राजा विक्रमचन्द ( 972 से 984 ई. 12 वर्ष)

(3) राजा अमीनचन्द (984 से 994 ई. 10 वर्ष)

(4) राजा रामचन्द (994 से 1007 ई. 13 वर्ष) (5) राजा हरिचन्द ( 1007 से 1021 ई. 14 वर्ष)

(6) राजा कल्यानचन्द ( 1021 से 1031 ई. 10 वर्ष) (7) राजा भीमचन्द (1031 से 1046 ई. = 15 वर्ष)

(8) राजा लोकचन्द ( 1046 से 1071 ई. 25 वर्ष)

(9) राजा गोविन्दचन्द ( 1071 से 1092ई. = 21 वर्ष) (10) रानी भीमादेवी (1092 से 1093ई. 1 वर्ष)

राजा गोविन्दचन्द के कोई संतान नहीं थी। पति के मृत्यु के बाद रानी

भीमादेवी ने एक वर्ष तक राज किया। उत्तराधिकारी के अभाव में वह अपने धर्मगुरु

हरगोविन्द को राज्य दान कर परलोक सिधार गईं। पुस्तक 'क्षत्रिय वंशावली' के अनुसार राजा अनंगपाल तोमर प्रथम ने 736 ई. में दिल्ली को बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया तथा उसके वंशज निरन्तर दिल्ली पर सत्तासीन रहे। महाराज अनंगपाल तोमर प्रथम से लेकर अन्तिम शासक अनंग पाल द्वितीय तक हुये 19 तोमर राजाओं का क्रमबद्ध सत्ता विवरण इस


पुस्तक में लिखा गया है। लेखक की यह शोध त्रुटिपूर्ण है क्योंकि इसके हिसाब से चौहानों से पूर्व दिल्ली पर निरन्तर तोमरों का राज था, जो कि वास्तविकता से कोसों दूर है। ब्रिटिशकाल के गजेटियर भी ये सिद्ध करते हैं कि अर्कवंशी राजा तिलोकचन्द ने तोमर राजा विक्रमपाल को हराकर दिल्ली की सत्ता पर कब्जा किया था और उनकी नी पीढ़ियों ने दिल्ली पर राज किया था।

'क्षत्रिय वंशावली' के तथ्यों के विपरीत अन्य प्रमाण भी मिलते हैं (1) पुस्तक 'बुन्देलखण्ड का इतिहास' के अनुसार पाण्डव वंश के अन्तिम राजा क्षेमक को सोते समय उसके ब्राह्मण मंत्री विश्रवा ने मारकर इन्द्रप्रस्थ पर अधिकार करके उसकी 14 पीढ़ियों (500 वर्षों तक) ने राज किया। इसके उपरांत नीचे लिखे राजा इन्द्रप्रस्थ की गद्दी पर बैठे। (2) सोमवंशी बीरमहा की 16 पीढ़ियों ने इन्द्रप्रस्थ पर शासन किया।

(3) प्रयाग के धन्थर वंशियों ने 9 पीढ़ियों तक इन्द्रप्रस्थ पर शासन किया।

(4) राजा राजपाल के अमात्य महानपाल ने 14 वर्षों तक इन्द्रप्रस्थ पर

शासन किया। (5) उज्जैन के राजा वीर विक्रमादित्य ने 93 वर्षों तक इन्द्रप्रस्थ पर शासन किया। ज्ञात रहे कि गुप्तवंश के प्रतापी राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय की उपाधि भी विक्रमादित्य थी और वे उज्जैन पर शासन करते थे। दिल्ली में कुतुबमीनार के प्रांगण में एक विशाल लौह स्तम्भ पर राजा चन्द्र की प्रशास्ति अंकित है। विद्वानों का मानना है कि यह चन्द्रगुप्त (विक्रमादित्य) की ही प्रशस्ति है, जो एक अकाट्य प्रमाण है।

(6) शालिवाहन के उमराव समुद्रपाल की 16 पीढ़ियों ने इन्द्रप्रस्थ पर शासन किया। (7) राजा तिलोकचन्द ने बिक्रमपाल को युद्ध में हरा करके इन्द्रप्रस्थ पर

शासन किया। (8) रानी पद्मावती (भीमादेवी), जो राजा गोविन्दचन्द की धर्मपत्नी थीं, ने

दरबारियों की सम्मति से हरिप्रेम बैरागी (गुरु हरगोविन्द) को राजा बनाया। हरिप्रेम की चार पीढ़ियों ने राज किया। अन्तिम राजा महाबाहु राज्य त्यागकर तपस्या करने वन को चला गया।

(9) बंगाल के राजा अधिसेन ने साम्राज्य पर अधिकार करके 12 पीढ़ियों तक राज्य किया। (10) इस वंश के अन्तिम राजा दामोदर को मारकर उसके उमराव ने राज गद्दी पर कब्जा कर लिया और उसकी छः पीढ़ियों ने इन्द्रप्रस्थ पर राज्य किया (11) उपरोक्त वंश के अन्तिम राजा जीवन सिंह को युद्ध मे मारकर बैराठ के राजा पृथ्वीराज चौहान ने 12 वर्षों तक इन्द्रप्रस्थ पर शासन किया। सम्वत् 1249 में शहाबुद्दीन गोरी द्वारा पृथ्वीराज मारा गया और हिन्दू राज्य का अन्त हो गया।

उपरोक्त वर्णनों में तोमर वंशी शासन का कुछ अता-पता नहीं चलता है। अंग्रेज विद्वानों ने अपने शोधपरक विवरणों को गजेटियरों में लिखा है। अवध गजेटियर भाग दो, पेज संख्या 354 पर लिखता है कि तिलोकचन्द की 9 पीढ़ियों ने दिल्ली पर राज किया था। गजेटियर आगे लिखता है कि इस वंश का शासन राजा गोविन्द चन्द, जो बिना उत्तराधिकारी के मर गया था, की पत्नी रानी भीमा देवी के साथ समाप्त हुआ। उन्होंने अपना राज्य अपने धर्मगुरु हरगोविन्द को दान में दे दिया था।

उपरोक्त कथनों से ज्ञात होता है कि राजा तिलोकचन्द पर बैस क्षत्रिय और अर्कवंशी क्षत्रिय दोनों का दावा है, जो उन्हे अपने-अपने राज्य का राजा होना मानते हैं।

हमने इसी पुस्तक में पीछे लिखा है कि शाक्यवंशी राजा विशाल से बैस वंश

की उत्पत्ति हुई है और शाक्य वंश की उत्पत्ति सूर्य के दूसरे पुत्र आर्यमा के ज्येष्ठ

पुत्र आर्यक से होना सिद्ध है, जिन्हें अर्यक, हर्यक और सूर्यक भी कहा गया है।

अतः बैसवंश अर्कवंशी क्षत्रियों की शाखा सिद्ध होती है। परिस्थियों ने एक

दूसरे को अलग करने में अहम भूमिका निभाई है।

अर्कवंशी क्षत्रिय कुलगौरव दिल्ली अधिपति महाराजा तिलोकचन्द अर्कवंशी

राजा सलहचन्द ( सल्हीय सिंह)

राजा सलहचन्द को हस्तिनापुर (दिल्ली) के सम्राट तिलोकचन्द का वंशज बताया जाता है। पुस्तक 'अर्कवंशी क्षत्रियों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के अनुसार सम्राट तिलोकचन्द के वंशजों में अर्क शिरोमणि दो भाई सलहचन्द और मलहचन्द हुये हैं, जो कालान्तर में सल्हीय और मल्हीय के नाम से भी जाने गये। उन्होंने तेरहवीं सदी के प्रारंभ मे सण्डीला राज्य की नींव डाली।

अवध गजेटियर के द्वारा इस बात की पुष्टि होती है कि सण्डीला और मलिहाबाद क्रमशः सल्हीय और मल्हीय द्वारा स्थापित किये गये थे। अवध गजेटियर पृ. 301 पर कहता है कि अर्कवंशी जाति के दो भाइयों सल्हीय और मल्हीय में से एक ने सल्हीयपुर, जिसे सण्डीला कहा जाता है तथा जो कि हरदोई परगने का मुख्य नगर है, बसाया था, तथा दूसरे ने मलिहाबाद, जो कि लखनऊ जिले के अंतर्गत आता है, की स्थापना की थी।

स्पष्ट है कि सण्डीला और मलिहाबाद की स्थापना सलहचन्द और मलहचन्द ने की थी। इनके पिता उदयन्त अवध प्राप्त में एक इलाके के राजा थे। वे सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय के सहयोगी थे और तराइन के दूसरे युद्ध में तुर्क सेना से लड़ते हुये मारे गये। पिता की मृत्यु के समय सलहचन्द 15 वर्ष और मलहचन्द 8 वर्ष के थे। दोनों राजकुमार बड़े होनहार थे। जब मोहम्मद गौरी अपने देश गजनी को वापस लौट गया और वहां उसकी मृत्यु हो गई तो उसके उत्तराधिकारी के रूप में कुतुबुद्दिन ऐबक ने सत्ता संभाल ली। इस मौके का फायदा उठाकर सल्हीय सिंह ने अपने नाम पर सण्डीला नगर बसाकर सण्डीला राज्य की स्थापना कर डाली, जो 14वीं शताब्दी तक चलता रहा। राजा सल्हीय के अन्तिम वंशज शीतलसिंह हुये, जिन्होंने सण्डीला में शीतलादेवी का मन्दिर बनवाया और नगर का नाम शीतलपुर रखा। मुसलमानों को सण्डीला राज्य बहुत खल रहा था। अतः उन्होंने उस पर चढ़ाई कर डाली। लोहगांजर नामक स्थान पर अर्कवंशी राजा शीतलसिंह और मखदूम अलाउद्दीन की सेनायें आपस में भिड़ गयीं और मारकाट करने लगीं। अर्कवंशियों ने बड़ी वीरतापूर्वक युद्ध किया। मखदूम अलाउद्दीन के तीन बेटे थे, जो भंयकर लड़ाई कर रहे थे । अर्कवंशियों ने तीनों को मार डाला। उसके पहले बेटे की मजार सण्डीला के मंडई मोहल्ले में बनी है, दूसरे की मजार लखनऊ में बनी है और तीसरे लड़के की मजार काकोरी में बनी मिलती है। तुर्की की भारी सेना खत्म कर दी गई। तब उन्होंने दूसरी सेनायें बुलवायीं मुसलमानी


सेना का भारी जमावड़ा हो गया। अनेकों अर्कवंशी क्षत्रिय मारे गये। राजा शीलतसिंह भी शहीद हो गये। तब सण्डीला पर तुर्कों का अधिकार हो गया।

राजा मलहचन्द (मल्हीय सिंह)

सलहचन्द के समय में ही मलहचन्द ने मलीहाबाद को बसाकर अलग राज्य स्थापित कर दिया था। सण्डीला राज्य जीतने के बाद तुर्की ने मलीहाबाद पर आक्रमण कर दिया। तुर्की और अर्कवंशियों की आपस में झड़पें होती रहीं, परन्तु तुर्क मलीहाबाद का कुछ नहीं बिगाड़ सके। कालान्तर में अर्गल राज्य से निष्काषित देवराय और नयाराणा नाम के दो गौतम भाईयों ने, जो अर्कवंशी राज्य में शरणार्थी के रूप में आये थे, दोनों शरणार्थी गद्दार भाइयों ने तुर्कों से मिलकर मलीहाबाद राज्य को नष्ट करवा दिया। अर्कवंशी राजाओं ने लोहगांजर, बहराइच, सरसांडी, अरखा (रायबरेली), मुरादाबाद, हरदोई, दांतली, पडरी, उन्नाव, कुकरा-कुकरी, खागा, अयाह, काथू, ललोरा, कठगढ़िया, गढ़ाकोटा, रेह नरवल, साढ़-सलेमपुर, बम्हरौली, सुजातपुर, पारखी आदि अनेक जगहों पर अर्कवंशी क्षत्रियों के राज्य कायम किये थे, जो क्षत्रियों की फूट के कारण धीरे-धीरे नष्ट होते चले गये।

इक्ष्वाकु वंश

सूर्य के सातवें पुत्र वैवस्वत मनु थे। मनु के ज्येष्ठ पुत्र का नाम इक्ष्वाकु था। राजा इक्ष्वाकु के बाद अयोध्या का राज्य उनके पुत्र विकुक्षी को प्राप्त हुआ था। उनके छोटे पुत्र दण्ड को दण्डक राज्य दिया गया था। इक्ष्वाकु के कुलज होने के कारण वे सभी इक्ष्वाकुवंशी राजा कहलाने लगे। अर्कवंश के समान ही यह सूर्य वंश की परम्परा का ही वंश था। प्रारम्भ में इक्ष्वाकु वंश और अर्कवंश सूर्यवंश की दो विभिन्न शाखायें होने के बजाए समानार्थी शब्द ही थे, जिसकी पुष्टि इस तथ्य से हो जाती है कि इक्ष्वाकु वंश के पितामह माने जाने वाले मनु को 'अर्क तनय' यानि 'अर्कवंश का पुत्र' भी कहा जाता था। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य के शाप से दण्डक राज्य समाप्त हो गया। विकुक्षी का भाई निमि था, जिन्हें अलंकारिक भाषा में निमि और जनक भी कहा जाता था। सूर्यवंशी अयोध्या नरेश विकुक्षी से लेकर भगवान राम तक इस वंश में अनेक वैभवशाली महापराक्रमी राजा हुये हैं, जिन्होंने आर्यावर्त की प्रगति में अनेकानेक अध्याय जोड़े हैं। यह भारत का प्राचीन क्षत्रिय राजवंश माना जाता है।

सूर्यवंशी इक्ष्वाकु महानायक

वैवस्वत मनु के ज्येष्ठ पुत्र इस्याकु थे। उनके सौ पुत्र होने की बात कही

जाती है, जिनमें दो पुत्रों का ही विवरण मिलता है। विकुती को अयोध्या का राजा बनाया गया था और छोटे पुत्र दण्ड को दण्डक राज्य दिया गया था। राजा की संतान होने के कारण वे सभी इक्ष्वाकु वंशी कहलाने लगे।

हरिश्चन्द्र राजा हरिश्चन्द्र के पिता का नाम त्रिशंकु था। हरिश्चन्द्र चक्रवर्ती सम्राट थे। उसी नगर की पुत्री राजकुमारी तारा ने स्वयंवर में राजा हरिश्चन्द्र हो वरण किया था। वह सैव्या भी कहलाती थी। इनके एक पुत्र था जिसका नाम रोहित था। इनकी राजधानी अयोध्या नगरी थी। राजा हरिश्चन्द्र महान सत्यवादी राजा ये और सूर्यवंश की दान और त्याग की परम्परा के पालक थे।

सगर :- राजा सगर सम्राट हरिश्चन्द्र की नौवीं पीढ़ी में पैदा हुये थे। इनके पिता का नाम राजा असित मिलता है। भगवान परशुराम ने इन्हें युद्ध विद्या सिखाई थी। महाराज सगर के अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा जब चोरी चला गया था तो उसे ढूंढते हुये सुमति के साठ हजार पुत्र महर्षि कपिल के आश्रम जा पहुंचे और ऊथम मचाने लगे। तब कपिल ऋषि ने क्रोध करके श्राप दे दिया तो वे सब भस्म हो गये।

भागीरथ :- सूर्यवंश की पैंतालीसवीं पीढ़ी में राजा भागीरथ उत्पन्न हुये थे। कहा जाता है कि वे अपने पूर्वजों के मोक्ष के लिये गौकर्ण तीर्थ से गंगाजी को पृथ्वी पर लाये थे। इस कारण गंगा का एक नाम भागीरथी भी है। राजा रघु:- महाराज रघु के पिता का नाम राजा दिलीप था। राजा रघु ने अपने

अन्तिम समय में विश्व विजय नाम का यज्ञ किया था। उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम

अज था। रघु के नाम पर उनके वंशधर खुद को रघुवंशी कहकर पुकारते थे।

भगवान राम अर्क शिरोमणि श्रीरामचन्द्र जी के पिता का नाम राजा दशरथ था। वह अयोध्या के राजा थे। वे अपने पिता की आज्ञापालन में अयोध्या का राज्य छोड़कर 14 वर्ष के लिये वन चले गये थे। वन में से लंका का राजा रावण श्रीराम की भार्या सीताजी का हरण कर ले गया। तब राम लंका पर चढ़ाई कर, रावण को मारकर सीता को ससम्मान वापिस ले आये।

राणाप्रताप:- राणा प्रताप मेवाड़ के राणा उदय सिंह के पुत्र थे। उन्हें गुहलोत वंशी क्षत्रिय माना जाता है, जो सूर्यवंश की शाखा कही जाती है। उनकी वंश परंपरा विवादों में घिरी हुई मिलती है। अकबर बादशाह के दरबारी अबुल फजल ने एक प्रमाण रहित बेसिर-पैर की कहानी गढ़कर गुहलोतों को ईरान के बादशाह र खान से जोड़ दिया। ऐसा लगता है कि उसी को आधार मानकर कर्नल टाड ने उन्हें


ईरान के बादशाह आदिल शाह नौशेर खान का वंशज मान लिया है।

'क्षत्रिय वंशावली' के लेखक डा. शेखावत का कहना है कि टाड महोदय ने एक जगह लिखा है कि 580 वि. में वल्लभी का नाश हुआ था और उसी समय गुहिल जन्मा था। वहीं दूसरी तरफ लिखते हैं कि नौशेर खान 588 वि. में सुल्तान बना था। उनके तर्क विरोधाभासी है, अतः उनके तर्कों में कोई दम नहीं है। श्री मनोज तोमर का मत है कि आदिल शाह नौशेर खान, 531 वि. में ईरान की गद्दी पर बैठा और उसी वर्ष उसके विद्रोही पुत्र नौशहजाद ने उसकी हत्या कर दी। जब वह भारत आया ही नहीं तो गुहिल उसके वंशज कब और कैसे हुये? रामकृष्ण भंडारकर गुहलोतों को नागरवंशी ब्राह्मण मानते हैं। वल्लभी राज्य नष्ट होने पर गुहिल की मां अपनी ब्राह्मण सहेली कमला नागर को अपना पुत्र गुहिल सौंप कर सती हो गई थी। अनेक भारतीय ग्रन्थ इसकी पुष्टि करते हैं। नागरवंशी ब्राह्मणों के घर गुहिल का पालन पोषण होने से ब्राह्मणों ने उन्हें नागर वंशी ब्राह्मण बता दिया

आइये इस विषय में जानने की कोशिश करें कि मेवाड़ के गुहिलोतों के वंश का निकास कहां से हुआ है। भट्टार्क मगध के गुप्त राजाओं का सेनापति था, जो बाद में सौराष्ट्र आकर वल्लभी राज्य का शासक हुआ। भट्टार्क कौन था? साक्ष्य मिलते हैं कि गुजरात में छठी शताब्दी में सूर्यवंशी क्षत्रियों की एक शाखा शासन करती थी। विद्वानों ने इनको मैत्रकवंशी बताया है। मैत्रक वंश से ही मेवाड़ का गुहिल वंश निकला है ('क्षत्रिय वंशावली', पृ. 162)। अब हमें देखना है कि मैत्रक वंश का इतिहास क्या है। 'अर्कवंशी क्षत्रियों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि' के पृ.क्र. 14-16 के अनुसार, 'अर्कवंशी राजा बालार्क के अनेक वंशजों में एक वीर राजा भट्टार्क हुये हैं। उन्होंने गुजरात (सौराष्ट्र) पर पुनः अर्कवंशी (सूर्यवंशी) राज्य की स्थापना की। कुछ इतिहासकारों ने उन्हें मैत्रकवंशी बताया है, पर वास्तव में वह अर्कमण्डल में सम्मिलित अर्कवंशी क्षत्रियों के वंशज थे, जिन्हें उक्त संघ के अन्य क्षत्रिय मित्रवंशी (अर्थात सूर्यवंशी) कहकर पुकारते थे। 'मित्र' को ही सम्भवतः इतिहासकारों ने मैत्रक नाम दे दिया है।"

हमें ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं कि अनेक अवसरों पर विभिन्न भारतीय शासकों ने विशेष उपाधियां ग्रहण की थीं, जैसे चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने विदेशी आक्रमणकारी शकों को मारकर देश की रक्षा की थी, तो उन्होंने 'शकारि´ उपाधि ग्रहण की उपाधि का अर्थ उपाधि स्वयं बताती है, जैसे शक+अरि शकारि, यानि शको का अरि या दुश्मन। खंगार क्षत्रिय राजाओं ने देवताओं की रक्षा करने में दैत्यों का संहार कर खर्गन उपाधि ग्रहण की थी। यहां भी उपाधि का अर्थ स्वयं पता लगत


जैसे खरगन खर्गन, 'खर' माने दुष्ट और 'गन' माने यम, यानि पुष्टों के प्राण लेने वाले यमराज। इसी तरह प्राचीन अर्कवंशी योद्धा अपने पूर्वजों की महानता के प्रदर्शन में अपने वंश नाम को जोड़कर उपाधियाँ ग्रहण किया करते थे, जैसे भट्टार्क (भट्ट + अर्क = भट्टार्क)। भट्ट माने योद्धा और अर्क माने यानि अर्कवंशी योखा। इसी प्रकार 'परमभट्टारक' उपाधि का प्रयोग हुआ है। परन माने श्रेष्ठ, भट्ट माने योद्धा और अरक माने अर्कवंशी क्षत्रिय। अर्क और सूर्य पर्यायवाची शब्द हैं। इन्हें अर्क की जगह सूर्य भी कहा गया है (देखें इसी पुस्तक में अर्क प्रशस्ती)

उल्लेखनीय है कि शोध करने पर ज्ञात हो चुका है कि मगध के गुप्त शासक अर्कवंश की शाखा सिद्ध होते हैं। गुप्तों का सेनापति भट्टार्क कही बाहर से नहीं आया था। वह अर्कवंश का कुलज और मगय राज्य का मूलनिवासी था। इतिहास के अनुशीलन करने से पता चलता है कि मगध सम्राट छत्रोजा या जयसेन की उपाधि महापद्मनन्द थी। उसको इतिहास में महापद्मनन्द के नाम से ही जाना गया है। उसका मूल नाम छत्रोजा अथवा जयसेन गौड़ कोई नहीं जानता। ठीक इसी तरह सेनापति भट्टार्क का मूल नाम जो भी था, वह इतिहास से लुप्त है। उसने भी अपनी 'मट्टार्क' उपाधि से ही प्रसिद्धि पायी। भट्टार्क का मूल नाम क्या था, यह शोध का विषय है। उसका भट्टार्क नाम उसके अर्कवंशी क्षत्रिय होने की घोषणा करता है।

मगध राज्य अर्कवंशीय क्षत्रियों की जन्मभूमि और कर्मभूमि रही है। भगवान बुद्ध, राजा बिम्बिसार, अजातशत्रु, शिशुनाग, चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक महान, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, हर्षवर्धन और राजा तिलोकचन्द आदि महान व्यक्ति अर्कवंश की क्षत्रिय परम्परा से ही निकले थे। सेनापति भट्टार्क इसी राजवंश का कुलज था। ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं कि मट्टार्क बुलज राजा शिलादित्य-प्रथम प्रतिवर्ष धार्मिक सभाएं किया करता था, और बौद्धों को बुलाता था। हर्षवर्धन द्वारा आयोजित कन्नौज व प्रयाग की धर्म सभाओं में भी वह सम्मिलित होता था। ऐसे प्रमाण है कि उस काल में अर्कवंशी क्षत्रियों ने अधिकतर बौद्ध मत अपनाया था। ज्ञात होता है कि शिलादित्य बौद्ध धर्म को मानता था। उसे अपने पूर्वजों की आदि-भूमि मगध से लगाव था। उस काल में मगध राज्य अयोध्या का शत्रु राज्य बन गया था क्योंकि मगध सम्राट महापद्मनन्द ने राजा सुमति से अयोध्या का राज्य छीनकर सुमति को अयोध्या से निकाल दिया था। अयोध्या का राजकुमार शत्रु पक्ष की नौकरी करने नहीं आ सकता था और ना ही सेनापति का जिम्मेदार पद उसको दिया जा सकता था। इन तमाम साक्ष्यों और तकों से सिद्ध

होता है कि सेनापति भट्टार्क निश्चित ही अर्कवंशी क्षत्रिय था और मगध राज्य का निवासी था।

इतिहासकारों ने उसको इक्ष्वाकु वंश के अन्तिम राजा सुमति से जोड़ने का प्रयास किया है, जो उचित नहीं है। अयोध्या के राजा सुमति मगध के राजा महापद्मनन्द से पराजित होकर बिहार की तरफ चले गये और रोहतास के आस-पास बस गये। वहां उनकी मृत्यु हो गई, तब उनका परिवार छिन-भिन्न हो गया था। भागवत पुराण के अनुसार राजा सुमति के बाद इक्ष्वाकु वंश समाप्त हो गया। अगर इस बात को सही मानें तो ये प्रतीत होता है कि राजा सुमति का कोई वंशज जीवित नहीं बचा था, हालांकि ये पूर्णतया सच नहीं है।

राजा भट्टार्क के पुत्र धरसेन हुये। धरसेन के पुत्र का नाम ध्रुवसेन था। राजा हर्षवर्धन को अपने सैन्य अभियान में वल्लभी के शासक ध्रुवसेन से भी युद्ध करना पड़ा था। ध्रुवसेन की बहादुरी पर मुग्ध होकर हर्षवर्धन ने अपनी पुत्री का विवाह ध्रुवसेन से कर दिया था। यह प्रमाण भी ध्रुवसेन को हर्षवर्धन का सजातीय क्षत्रिय होना सिद्ध करता है। ध्रुवसेन का पुत्र शिलादित्य प्रथम हुआ, जो बौद्ध धर्म को मानता था। शिलादित्य के कुलज प्रतापी राजा बप्पारावल थे, जिन्होंने मेवाड़ के राजा मानमोरी (मौर्य) से उसका राज्य छीन लिया था। पुस्तक 'भारत के सप्तदुर्ग' में पृ.क्र. 28-29 में लिखा है कि चित्तौड़ दुर्ग का निर्माण मौर्य वंश के राजा चित्रांगद ने कराया था। आगे लिखा है कि गुहिल वंश के बप्पारावल ने इस दुर्ग को मौर्य राजा मान से जीता था। तब से भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति तक, यानि सन् 1947 ई. तक, इसी वंश का अधिकार चित्तौड़ के दुर्ग पर रहा।

महाराणा प्रताप का जन्म इन्हीं बप्पारावल के वंश में उस समय हुआ था जब देश पर मुगल शासन था। भारत के हिन्दू राजपूत राजा अपना स्वाभिमान खोकर मुगलों को अपनी बेटियाँ देकर वैवाहिक संबंध जोड़ रहे थे। राजस्थान के राजपूत राजा मानसिंह की बुआ से अकबर बादशाह का विवाह हो चुका था। एक बार राजा मानसिंह राणाप्रताप के घर ठहरा हुआ था। प्रताप ने उसकी भोजन व्यवस्था करा दी। मानसिंह भोजन करने बैठा तो उसने प्रताप को बुलवाया और उन्हें साथ में भोजन करने का आग्रह किया। प्रताप ने कहला भेजा कि उनके सिर में दर्द है। वे न आ सकेंगे। मानसिंह थाली से उठकर खड़ा हो गया और बोला कि प्रताप के सिरदर्द की दवा लेकर वह शीघ्र लौटेगा। वह ताड़ गया था कि प्रताप उसके साथ खाना क्यों नहीं खा रहे हैं। जब वह जाने लगा तो किसी ने कह दिया था कि जब आप आये तो अपने साथ में अपने फूफा अकबर को भी लेते आयें। हल्दीघाटी के मैदान में मुगल सेना और प्रताप का युद्ध इसी घटना की परिणति माना जाता है। ज्ञातक क्षत्रिय राजवंश ज्ञातक वंश की गणना भारत के प्राचीन ि राजवंशों में की जाती है। भगवान महावीर स्वामी के पिता राजा सिद्धार्थ कु गणराज्य प्रमुख थे। बचपन में महावीर स्वामी का नाम वर्धमान था। इनकी माता त्रिशला लिच्छिवी गणराज्य के मुखिया चेटकराज की बहन थीं। वर्धमान स्वामी राजा सिद्धार्थ के ज्येष्ठ पुत्र नहीं थे। इनकी एक बड़ी बहन और एक बड़े भाई भी थे। भाई का नाम नन्दिवर्धन था। इनकी पत्नी का नाम यशोधरा और पुत्री का नाम प्रियदर्शनी था। वह बचपन से ही निवृत मार्ग के पथिक थे। 30 वर्ष की अवस्था में इनके पिता की मृत्यु के बाद वह पूर्ण रूप से निवृत मार्ग के अनुगामी बन गये। उन्होंने अपने बड़े भाई राजा नन्दिवर्धन से आज्ञा प्राप्त कर घर-बार छोड़ दिया। घर-बार छोड़कर वर्धमान शान्ति वन में आये। उन्होंने कुम्भार ग्राम में जैन मुनि बनकर तपस्या शुरू कर दी। पूर्ण वैराग्य हो जाने पर उन्होंने अपने सम्पूर्ण वस्त्राभूषण सुवर्ण बालूका नदी में फेंक दिये। वे पूरी तरह से नग्न रहने लगे। उन्होंने 12 वर्षों तक घोर तपस्या की। रिजबालिका नदी के किनारे एक साल वृद्धा के नीचे उन्हें वैकल्प ज्ञान की प्राप्ति हुई। वह अहर्त जिन ग्रंथमय हो गये। अतुलित ज्ञान, बल और पराक्रम अर्जित कर लेने के कारण वे महावीर स्वामी कहलाने लगे।

वर्धमान महावीर स्वामी का ज्ञातक वंश में पैदा होना पाया जाता है। ज्ञातक वंश किस क्षत्रिय वंश की शाखा है इसके कम प्रमाण मिलते हैं। पुस्तक 'इतिहास लौटा' पृ. 102 के अनुसार यह सूर्यवंश की शाखा है। हम ऊपर लिख आये हैं कि महावीर स्वामी के पिता सिद्धार्थ की पत्नि लिच्छिवी गणराज्य के मुखिया चेटकराज की बहन त्रिशला थी, जो इक्ष्वाकु सूर्यवंशी क्षत्रिय माने जाते हैं। सूर्यवंश की दूसरी प्राचीन शाखा अर्कवंश थी। ऐसा संभव है ये अर्कवंशी शाखा के सूर्यवंशी क्षत्रिय हो।

इक्ष्वाकु वंश और अर्कवंश के आपस में विवाह संबंध होने के प्रमाण मिलते हैं। उदाहरणार्थ, मगच नरेश बिम्बिसार की शादी इक्ष्वाकु वंशी लिच्छिवी राजा चेटकराज की पुत्री चेलना से होना ज्ञात है। ज्ञातक वंश प्राचीन अर्कवंश की ही शाखा जान पड़ता है। हमें प्रमाण मिलते हैं कि इसी युग में, इसी क्षेत्र में और इसी वंश (अर्कवंश) में राजा नन्दिवर्धन को होना पाते है। संभव है जिन अर्कवंशी राजा नन्दिवर्धन का जिक्र इतिहास में मिलता है वो वर्धमान स्वामी के बड़े भाई नन्दिवर्धन ही रहे हो।


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