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आदिवासी दर्शन

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लेखक : हरि राम मीणा

आदिवासी का सीधा सम्बन्ध आदिमयुगीय जीवनशैली से है. विश्व की सम्पूर्ण मानवता के आदि-पुरखे आदिम युग में ऐसा ही जीवन जिया करते थे. कालयात्रा के साथ अर्जित ज्ञान-विज्ञान के सहारे उस मूल मानवता का अधिकांश आदिमता के उस खोल से बाहर निकलता चला गया. इस मानवता का जो हिस्सा वर्तमान में भी आदिम जीवन शैली को अपनाये हुए हैं उसे हम आदिवासी समाज के रूप में चिह्नित करते हैं. विश्व के पृथक पृथक भू-भागों में इन मानव समुदायों को ‘आदिवासी’ (tribe), आदिम (aborigine), देशी (native), मूलनिवासी (indigenous) जैसे नाम दिए जाते रहे हैं.

भारतीय सन्दर्भ में जो परिदृश्य हम रामायण, महाभारत, पुराणों तथा अन्य अभिलेखों में देखते हैं तो पता चलता है कि अनेक प्रकार के आदिवासी समुदाय आज के मध्यभारत के साथ उत्तरभारत में भी अस्तित्व में थे. इन मानव-समूहों को गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, किम्पुरुष, नाग, सुपर्ण, विद्याधर, वाल्किल्य, कालकेय, वानर, राक्षस, असुर, दानव, दैत्य आदि संज्ञाओं से जाना जाता रहा. यहाँ हम महाभारत का एक सन्दर्भ ग्रहण कर सकते हैं. यह वह दौर था जब आर्य लोग मध्य एशिया से भारत में प्रवेश कर चुके थे. यद्यपि आर्य-अनार्य संघर्ष अभी भी जारी थे. प्रसंग आता है खांडव वन-दहन का जहाँ नाग जनजाति निवास करती थी. नागों का मुखिया था वासुकी. वह आर्य नृप इंद्र का मित्र था. श्रीकृष्ण के परामर्श से पाण्डव कृषि-योग्य भूमि तैयार करने और इंद्रप्रस्थ के रूप में अपना राजनगर बसाने के उद्देश्य से भरतपुर-मथुरा-दिल्ली अंचल में प्रसरित खांडव वन को जलाने लगे तो नागों ने इसका तीव्र विरोध किया और इंद्र ने धारासार वर्षा करके उनका साथ दिया. तब भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर अपने लोगों को आश्रय दिया. यह वह युग था जब मानवता आखेट युग से कृषि-कर्म की ओर मुड़ रही थी. अपनी आदिम परम्परानुसार आखेट व वनोपज पर आश्रित नाग आदिम समुदाय ने वन-दहन का विरोध किया. संताल, मुंडा, असुर व मीणा सहित कई आदिवासी समुदायों का सम्बन्ध सिन्धु घाटी की सभ्यता से रहा है. भाषा, लिपि, राजचिह्न एवं मुहरों से सम्बंधित उत्खनित अवशेषों के आधार पर यह सिद्ध किया गया है. वेरियर एल्विन की एल-वन व एल-टू जैसी प्रस्थापनाएं इसे पुष्ट करती हैं, जो डी.एन.ए. के आधार पर आदिवासी कबीलों के स्थान-परिवर्तन के मार्गों को चिह्नित करती हैं. स्पष्ट है कि आर्यों के आगमन से पूर्व सिन्धु नदी के सैन्धव, गंगा-यमुना के गांगेय और बहुत पहले लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी के सारस्वत प्रदेशों पर आर्यों से पूर्व आदिवासी कबीलों का अधिकार था जिन्हें आर्यों के आक्रमणों की श्रृंखला के काल–खंड में पहाड़ी व घने जंगली क्षेत्रों की ओर धकेला गया या उन्हें विस्थापन के पश्चात् उन अंचलों में पुनर्वासित होना पड़ा. इससे यह सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में वर्तमान हिंदी पट्टी के आदिवासियों को अपने अस्तित्व के लिये बहुत संघर्ष करने पड़े. मध्यकाल में आदिवासी संघर्षों के सन्दर्भ नहीं के बराबर मिलते हैं. मुग़ल सेना से लड़नेवाली आज के झारखण्ड की स्त्रियों ‘सिनगीदई’ के अतिरिक्त कोई उदहारण हमें नज़र नहीं आता. ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौरान हुए आदिवासी संघर्षों की चर्चा पृथक अध्याय में की जाएगी.

समाजशास्त्रीय द्रष्टिकोण से देखा जाये तो वर्तमान भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा वर्ण-अवतरित जाति प्रणाली पर आधारित है और शेष छोटा तबका आदिवासी समुदायों से बना हुआ है. सन दो हज़ार ग्यारह की जनगणना में भारत की कुल आबादी करीब एक अरब इक्कीस करोड़ में अनुसूचित जनजातियों की तादात दस करोड़ चालीस लाख पायी गयी जो 8.60 % है. पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, चंडीगढ़ व पोंडिचेरी में यह आबादी शून्य दर्शायी गयी है. भौगोलिक स्तर पर आदिवासी जनसँख्या के वितरण को देखा जाये तो स्पष्ट होता है कि पूर्वोत्तर भारत के प्रान्तों में वहां की कुल जनसँख्या के अनुपात में सर्वाधिक आबादी आदिवासियों की है. मिजोरम 94.5 %, नागालैंड 89.1 %, मेघालय 85.9 %, अरुणाचल प्रदेश 64.2 %, मणिपुर 34.2 % और त्रिपुरा 31.1 %. हैं. लक्षद्वीप का प्रतिशत 94.5 है. इसके बाद राज्य स्तरीय जनसँख्या का 31.8 % छत्तीसगढ़, 26.2 % झारखण्ड, 22.2 % ओड़िशा, और 20.3 % मध्यप्रदेश आता है. गुजरात, असम, राजस्थान तथा जम्मू व कश्मीर में इन राज्यों की जनसँख्या का दस प्रतिशत से अधिक आदिवासीजन हैं. राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी जनसँख्या की दृष्टि से देखा जाये तो करीब 71 % आदिवासी आबादी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओड़िशा, गुजरात, झारखण्ड एवं राजस्थान के सात प्रान्तों में पायी जाती है. जनसँख्या एवं प्रजाति के दृष्टिकोण से भारतीय आदिम समुदायों भूगोल का पूर्वोत्तर एक खंड बनता है, जहाँ मंगोलायिड प्रजाति की सर्वाधिक जनसँख्या है. राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासियों का बड़ा हिस्सा मध्य भारत में निवास करता है जो प्रोटो-ऑस्ट्रोलायड हैं. दक्षिण भारत खासकर नीलगिरी पहाड़ी क्षेत्र के आदिवासी निग्रिटो श्रेणी में आते हैं. हम प्राय: भारत के आदिवासी समाज को जब देखते हैं तो हमारा ध्यान संविधान में अनुसूचीबद्ध जनजातियों तक ही जाता है. नृतत्व-विज्ञान की नज़र से देखने पर पता चलता है कि इनके परे भी अनेक आदिवासी समुदाय हैं जो अपरिगणित, घुमंतू एवं अर्द्धघुमंतू श्रेणी में आते हैं. ये करीब दो से ढाई करोड़ आंके गये हैं. हमारे द्वारा किये गए अध्ययन के आधार पर मानव विज्ञान की दृष्टि से भारतीय संविधान की अनुसूची में सम्मिलित एवं किन्हीं कारणों से उससे बाहर रह गए आदिवासी समुदायों की संख्या कुलमिलाकर 1048 हैं.

वैश्विक सन्दर्भ ग्रहण करते हुए विशेषकर भारतीय आदिवासी मानवता के दर्शन व समाज को समझने का प्रयास इस पुस्तक में किया जा रहा है. दार्शनिकों ने दर्शनशास्त्र के तीन मुख्य विभाग निर्धारित किए ; तत्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा और मूल्य मीमांसा. सबसे जटिल प्रश्न तत्व मीमांसा का रहा है जिसके माध्यम से सृष्टी की उत्पत्ति को समझने का प्रयास किया जाता रहा. इस गूढ़ पहेली को सुलझाने के लिए सृष्टि के मूल तत्व की खोज के प्रयास किये गए. आध्यात्मवादियों ने ईश्वर को और भौतिक-वैज्ञानिकों पदार्थ मूल तत्व माना. ज्ञानमीमांसा के अन्तर्गत ज्ञान के स्त्रोत, स्वरूप, सत्यापन व सीमाओं का विश्लेषण किया जाता है. इसके प्रमुख सिद्धांतों में बुद्धिवाद, अनुभववाद व अन्तःप्रज्ञावाद हैं. मूल्य मीमांसा मूल्य-व्यवस्था का अध्ययन है जिसमें शुभ-अशुभ, नैतिक-अनैतिक, सामाजिक-असामाजिक व्यवहार की परख की जाती है.

दर्शनशास्त्र का सबसे बड़ा सवाल सृष्टि की उत्पत्ति को लेकर किया जाता रहा है. इस रहस्य को उद्घाटित करने के लिए ब्रह्म बनाम पदार्थ की बहस प्राचीनकाल से अबतक चली आ रही है. आध्यात्मवादियों ने परम ब्रह्म की इच्छा (Idea) को सृष्टि के उद्भव का मूल तत्व माना किन्तु उस विचार को व्यावहारिक स्वरूप देने के लिए पंच महाभूतों के उपयोग को भी स्वीकार किया गया. इसलिए विचार-तत्व की तुलना में ‘पदार्थ तत्व’ सृष्टि का मूल आधार रहा. यही अवधारणा आदिवासी दर्शन में हमें मिलती है. दुनिया के अधिकांश 'भद्र नायकों' ने विश्वासघात, छलछद्म, गृहभेद, दुष्कर्म, आतंक, युद्ध, हिंसा जैसे मनुष्यविरोधी कृत्य करने में अपनी भूमिका निभाई है ठेठ ईश्वरों से लेकर देव-देवियों तथा नरपुंगवों तक ने. सहिष्णुता जैसे शीलों के सृजन, संरक्षण व संवर्द्धन का काम किया है परिश्रमी एवं बहुमुखी किंतु संश्लिष्ट लोक ने, जिसके वेद-उपनिषद, पुराण, महाकाव्य, इतिहास एवं अन्य विषयक शास्त्र व विज्ञान के ग्रन्थ अभी लिखे जाने हैं. लोक के इस चिंतन और व्यवहार के सूत्र हमें आदिवासी दर्शन और समाज में मिलते हैं.

अब हम आदिवासी समाज की पृष्ठभूमि पर चर्चा करते हैं. ‘आदिम’ से आदिवासी होने का अर्थ समाजशास्त्रीय है जिसकी अपनी सीमाएं हैं. इस शब्द की व्यापक व्याख्या आदिम दर्शन है जो एक तरफ संसार की समस्त मानवता के आदि-पुरखों के प्रकृति प्रेम की महत्ता स्थापित करता है. दूसरी ओर यह दर्शन आधुनिक अति-भौतिकवादी सभ्यता व सोच से उत्पन्न बहुआयामी संकटों का समाधान के संकेत देता है. सहज व सरल सी एक बात हमें ध्यान में रखनी चाहिए कि सभ्यताओं के उद्भव से पूर्व विश्व की समस्त मानवता आदिम युग में कबीलाई जीवन पद्धति में हुआ करती थी. उन आदिम मानव-समूहों का जीवन मुख्य रूप से आखेट व वनोपज पर निर्भर रहता था. एक तरह से कहा जा सकता है कि मनुष्यों की दुनिया में केवल और केवल आदिवासी समुदायों का समाज हुआ करता था. सभ्यता के सूत्र पकड़ कर धीरे धीरे मानवता प्रगति के पथ पर अग्रसर होती गयी. इसी के साथ उसकी आदिमता छूटती गयी. यहीं वह प्रस्थान बिंदु-पट्ट द्रष्टिगत होता है जहाँ आदिवासी समाज और शेष समाज भिन्न भिन्न नजर आने लगते हैं. भारतीय राष्ट्र-समाज के परिप्रेक्ष्य में सोचा जाये तो हम एक ओर देखते हैं वर्ण व्यवस्था से अवतरित जाति आधारित भारतीय समाज. इस समाज के बारे में हम बहुत कुछ जानते हैं. काफी शोध, अध्ययन, विवाद, विमर्श, प्रतिरोध, बदलाव एवं बहतर भविष्य की योजनाएं बनती-बिगड़ती दिखायी देती हैं. दूसरी ओर हमें नज़र आता है आदिवासी भारत, जो भौगोलिक स्तर पर अलग थलग रहता आया. शेष भारतीय समाज समतलीय, सुरक्षित व सुविधाजनक जीवन की खोज में आगे बढ़ता गया और यह आदि-समाज जंगलों, पहाड़ों, नदी-नालों एवं वन्य-जीवों के बीच प्राकृतिक यथास्थितिवादी जीवन शैली को अपनाकर ही चलता गया.

इस आदिवासी दर्शन और समाज के प्रति बाहरी बुद्धिजीवियों का दृष्टिकोण सदैव से ही पूर्वाग्रहों से प्रभावित रहा है. भारतीय मिथक-शास्त्र की द्रष्टि से चिह्नित तीनों युगों अर्थात सतयुग-त्रेता-द्वापर में इस आदिवासी समाज को मनुष्यों की श्रेणी से खारिज कर असुर, दैत्य, दानव, राक्षस आदि न जाने क्या क्या संज्ञाएँ दी जाती रहीं. संज्ञाओं के इन प्रस्थापित मिथकों को आदिवासी दृष्टि से कभी किसी ने डि-कोड करने का प्रयत्न नहीं किया. इस तरह राष्ट्रीय परम्परा में भारतीय आदिवासी समाज सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं अकादमिक क्षेत्रों का हिस्सा व्यवस्था व भावना दोनों ही स्तरों पर नहीं बन सका. आदिवासी समाज को लेकर प्रथम बार ब्रिटिश काल में व्यवस्थित अध्ययन किये गये. इन अध्येताओं में नृतत्व-वैज्ञानिक व समाज शास्त्री प्रमुख थे. एल्विन वेरियर सबसे ऊपर. सन उन्नीस सौ इकत्तीस में पहली बार जाति-आधारित जनगणना की गयी तब कुछ आदिवासी समुदायों को चिह्नित किया गया. लेकिन इन गिने-चुने अध्येताओं को छोड़ दें तो उपनिवेशवादी रवैया कुल मिला कर हिकारत भरा रहा. उस दौर में भी आदिवासी समाज को पृथकत्व की भावना से ही देखा गया. इसलिये प्रमुख आदिवासी इलाकों को ‘एक्सक्लूडेड’ घोषित कर दिया गया. बेशक इसके पीछे आदिवासी अंचलों में होने वाले ब्रिटिश विरोधी आन्दोलन व विद्रोह रहे हों, जिनकी परिणति आपराधिक जनजातीय अधिनयम के रूप में हुई जब विद्रोही आदिवासी समूहों को आपराधिक नाम देकर उनकी बाकायदा विधिसम्मत घेराबंदी की गयी. भारतीय मुख्य समाज ने जब आज़ादी का बिगुल बजाया उससे बहुत पहले से आदिवासी विदेशी सत्ता के खिलाफ़ अपनी लड़ाई लड़ रहा था, मगर विडम्बना यह रही कि उसे देश की लड़ाई के रूप में मान्यता नहीं दी गयी. इसकी वज़ह थी भारतीय मानस के भीतर भी आदिवासी एक तरह से ग़ैर ही माना जाता रहा.

नदीम हसनैन ने अपनी पुस्तक ‘ट्राईबल इंडिया’ में स्पष्ट जिक्र किया है कि ‘भारतीय राजनैतिक व बौद्धिक नेतृत्व ने भी ब्रिटिश काल में आदिवासी समाज पर कोई ध्यान नहीं दिया. सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, अरविन्द घोष, विपिनचन्द्र पाल, महादेव गोविन्द रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले व बाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रनायकों द्वारा सम्पूर्ण भारतीय समाज, सत्ता, धर्म आदि की चिंता व इन विषयों पर चिंतन करने के बावज़ूद आदिवासी समाज उनके एजेंडा में शामिल नहीं रहा.’ भारतीय सन्दर्भ में आदिवासी समाज को समझने के लिये ज़रूरी है कि हम आदिवासियों के प्रति तथाकथित मुख्यधारा के समाज द्वारा अपनाये जाते रहे नजरिया को समझें. मिथकों में मानवेतर भयानक प्राणी माना गया. अब दो धारणाएं. एक, जंगली बर्बर मानने की. इस सिद्धांत को गढा था अंग्रेजों ने और अपनाया जाता रहा बाद में भी. दूसरा, रोमांटिक द्रष्टिकोण यथा समृद्ध प्रकृति की गोदी में मस्ती से नाचते-गाते रहनेवाले वाले लोग आदिवासी. दोनों ही नज़रिये दोषपूर्ण हैं जो अनेक प्रकार की भ्रांतियां उत्पन्न करते रहे हैं.

‘आदिवासी’ शब्द या उसकी अवधारणा को समझने के लिये जब हम किसी शब्द कोष, विश्व कोष, सन्दर्भ ग्रन्थ या इंटरनेट का सहारा लेते हैं तो जोर दिया गया है समुदाय की भाषा, संस्कृति, वंश व रक्त परम्परा, राजनैतिक मुखिया, निश्चित भौगोलिकता आदि पर. नृतत्व वैज्ञानिकों ने आदिवासी शब्द को परिभाषित करते हुए वंश एवं रक्त के तत्व पर सर्वाधिक जोर दिया है. भारत सरकार ने किसी भी आदिवासी समुदाय की पहचान के लिये जिन पांच तत्वों को अनिवार्य माना है वे हैं अलग थलग भौगोलिकता, अनूठी सांस्कृतिक परम्परा, आदिम प्रवृत्तियां, आर्थिक पिछड़ापन और बाहरी लोगों से मिलने में हिचकिचाहट. आदिवासी समाज को जानने के लिये हमें अंतर्रानुशासनीय ज्ञान पद्धति का सहारा लेना होगा, परन्तु आधार रहेगा नृतत्व-विज्ञान. इस दृष्टि से हम दो श्रेणी के आदिवासी समुदायों को देखते हैं. एक वे जो भौतिक विकास की यात्रा में धीरे धीरे शेष समाज से जुड़ते जा रहे हैं यथा पूर्वोत्तर, मध्य भारत और दक्षिण के कई हिस्से. दूसरे वे जो अभी भी आदिम अवस्था में हैं जैसे बस्तर के अबूझमांड के इलाके के वासिंदे या अंडमानी आदिवासी समुदाय. अन्य वर्गीकरण संविधान में अनुसूचीबद्ध और उससे बाहर रह गये अपरिगगणित, घुमंतू व अर्द्ध घूमंतू समुदायों के रूप में किया जा सकता है.

कार्ल मार्क्स ने कहा है कि ‘अब तक दार्शनिकों ने समाज की व्याख्या की है, लेकिन सवाल इसे बदलने का है.’ जब हम आदिवासी दर्शन की बात करते हैं तो उस समाज में न दर्शन के सिद्धांत गढ़े जाते हैं, न ही दर्शन के माध्यम से समाज को बदलने की घोषणाएं की जाती हैं, बल्कि वहाँ तो दर्शन को जिया जाता रहा है. आदिवासी दर्शन के सारे सूत्र हमें उनके जीवन में मिलते हैं. प्राय: दर्शन को अनसुलझा रहस्य, जटिल पहेली अथवा गूढ़ ज्ञान के रूप में देखा जाता रहा है. उसी प्रकार से दार्शनिक व्यक्ति को किसी अतिविशिष्ट विभूति की छवि के रूप में स्थापित किया जाता रहा है जिसके साथ साधारण मनुष्य का उठना-बैठना अपवाद जैसा लगता हो. आदिवासी दर्शन और उसके ज्ञाता की अवधारणा ऐसी नहीं है. वहाँ दर्शन को जीवन में व्यवहृत करता रहा है. दर्शन के प्रति नितांत बौद्धिक शास्त्रार्थ के दृष्टिकोण के साथ ही दर्शन को समझने का अंतिम ध्येय तो मनुष्यों के बहतर समाज की रचना ही होता है. दर्शन की अकादमिक परम्परा में प्राय: दार्शनिक सिद्धांतों के आधार पर समाज को सीख दी जाती रही है. आदिवासी दर्शन को समझने के लिए आदिवासी समाज के जीवन में उपलब्ध दार्शनिक सिद्धांतों की परख करनी होगी. कतिपय दृष्टान्तों से इस बात की पुष्टि की जा सकती है.

·        ऋग्वेद का एक सूत्र हैं – ‘ऋतस्य यथा प्रेत’ अर्थात प्राकृत नियमों के अनुसार जीओ’. आदिवासी जीवन इसी दार्शनिक सूत्र पर आधारित है.

·        महावीर स्वामी के ‘अपरिग्रह’, भगवान बुद्ध का ‘संपत्तिविहीन भिक्षु’, कबीर की ‘माया महाठगिनी’ व महात्मा गांधी के ‘लालची मनुष्य की भर्त्सना’ में जो दर्शन निजी संपत्ति को सारे झगड़ों की जड़ बताता है, उसी समझ को लिए ‘आदिम साम्यवाद’ से अब तक आदिवासी समाज में चल रहा है.

·        भर्तृहरि द्वारा मानव दर्शन का जो सूत्र ‘साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः’ श्लोक में दिया है, उसे आदिवासी सांस्कृतिक परम्परा में देखा जा सकता है.  

·        भील समुदाय में ऐसे बुज़ुर्ग व्यक्ति आज भी मिल जायेंगे जो सुबह जागते ही धरती को छूकर यह प्रार्थना करते हैं कि ‘हे धरती माता, जीवनयापन की विवशता के कारण दिन भर मुझे तुम्हारी देह पर पाँव रखकर चलना पड़ेगा. इस पाप के लिए मुझे क्षमा करना.’

·        विभिन्न समुदायों के गणचिह्नों के माध्यम से आदिवासी समाज प्रकृति तत्वों व मानवेतर जीवजगत के प्रति आत्मीय व संरक्षणीय दृष्टिकोण अपनाता रहा है.

·        दिल्ली, पंजाब व हरियाणा जैसे समृद्ध व शिक्षित कहे जाने वाले क्षेत्रों में लिंगानुपात के असंतुलन की समस्या है. इसके ठीक उलट संतोषजनक लिंगानुपात हमें आदिवासी अंचलों में मिलता है.

·        गैर-आदिवासी शहरों अथवा देहातों के कुलीन तथा मध्य वर्गों के परिवारों में घरेलू हिंसा अधिक मात्र में मिलती है. यही स्थिति दुष्कर्म की घटनाओं की हैं. स्त्री के प्रति पुरुषवादी मानसिकता को दहेज़ हत्याओं, लड़का व लड़की के प्रति असमान व्यवहार, महिला उत्पीड़न, वैश्यावृत्ति, देह व्यापार, विज्ञापन आदि के लिहाज़ से भी देखा जा सकता है. कन्या भ्रूण हत्या व सती जैसी बर्बर प्रथाएं उच्च वर्णों में प्रचलित रही हैं. आदिम समुदायों में यह स्थिति नहीं मिलेगी.

·        आदिवासी भाषाओँ के मौलिक स्वरूप में दुष्कर्म जैसा शब्द एवं स्त्री सूचक कोई गाली नहीं है.

·        अंडमान के आदिवासी पेट भरने के लिए उन जीवों का आखेट करते हैं जो बहुतायत में हैं, और उनका संरक्षण करते हैं जो बिरले हैं.

·        स्वायत्तता, समानता, सामूहिकता जैसे जिन नैतिक मूल्यों को दर्शनशास्त्र के ‘मूल्य मीमांसा’ विभाग में सम्मिलित किया जाता है वे सब आदिवासी जीवन का हिस्सा है.

·        नाईजीरिया में व्यवसाय करने वाले मेरे एक दोस्त ने जब वहाँ के आदिवासी मुखिया को यह सलाह दी कि ‘आपके यहाँ जंगली गायें काफ़ी हैं. इन्हें पालकर इनके दूध का व्यवसाय आपको करना चाहिए.’ मुखिया ने ज़वाब दिया ‘क्या बेतुकी बात करते हो, इन गायों के दूध पर इनके बछड़ों का प्राकृतिक अधिकार है. हम उसे कैसे छीन सकते हैं?’

·        ब्राजील की आवा जनजाति की महिलाएं बंदरों के अनाथ हो गए बच्चों का खयाल रखती हैं. दर्शन में जोड़ना है.    

·        रेड इंडियन आदिवासियों में सबसे लोकप्रिय कविता प्रकृति को समर्पित ‘प्रार्थना गीत’ है.

·         मंगोलिया के ‘दुखा’ नामक आदिम समुदाय की मान्यता है कि सभी जानवरों के साथ उनका आध्यात्मिक रिश्ता है.

·        बैगा आदिवासियों का अभी भी यह विश्वास है कि ‘जंगल व जमीन जीवनयापन के लिए पर्याप्त हैं. पृथ्वी के साथ अन्य कोई छेड़खानी करना ईश्वर की इच्छा के विरूद्ध होगा.’

‘आदिम’ से आदिवासी होने का अर्थ समाजशास्त्रीय है जिसकी अपनी सीमाएं हैं. इस शब्द की व्यापक व्याख्या आदिम दर्शन है जो एक तरफ संसार की समस्त मानवता के आदि-पुरखों के प्रकृति-प्रेम की महत्ता स्थापित करता है. दूसरी ओर आधुनिक अति-भौतिकवादी सभ्यता व सोच से उत्पन्न बहुआयामी संकटों का समाधान के संकेत देता है. प्रस्तुत कृति के पीछे यही ध्येय रहा है कि वैश्विक पूँजी की गलघोंटू प्रतिस्पर्द्धा के साथ पृथ्वी की सतह को उधेड़ते हुए उसके गर्भ में संरक्षित रस-रत्नों को चूसते हुए कृत्रिम बौद्धिकता से संचालित उत्तर-मानवसमाज (Post-human Society) की दिशा में अग्रसर यह तथाकथित सभ्य व विकसित मनुष्य पृथ्वी ही नहीं, प्रत्युत सम्पूर्ण सृष्टि के लिए जितना खतरनाक सिद्ध होता जा रहा है उसे आदिवासी दर्शन व समाज के पास उपलब्ध उन शील, आदर्श, मूल्य व सूत्रों से अवगत करते हुए यह सोचने के लिए विवश किया जा सके कि जिस राह तुम जा रहे हो, वह राह तो उपनिषद के इस दार्शनिक सन्देश की तरह नहीं ले जाती जिसमें कहा गया है कि-

‘ॐ असतोमा सद्गमय

तमसोमा ज्योतिर्गमय           

मृत्योर्मामृतं गमय॥’


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