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इन्द्रधनुष रौंदे हुये ये

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प्रयोगवादी कवि अपने काव्य में अपने 'परिवेश के प्रति जागरूक' है। उन्होंने यथार्थ को देखा है, पहचाना है और दैनिक जीवन के प्रसंगों पर भलीभांति दृष्टिपात किया है। जीवन के कटु-तिक्त प्रसंग, राजनीति में जमा होते कूड़ा-करकट तथा यांत्रिक एवं कृत्रिम जिन्दगी पर कवियों ने गहरा व्यंग्य किया है। निम्नलिखित पंक्तियों में अज्ञेय ने शहरी सम्भ्यता के प्रति किये गये व्यंग्य में अपना समूचा आक्रोश उगल देते हैं-

"साँप

तुम सभ्य तो हुए नहीं

नगर में बसना

भी तुम्हें नहीं आया

एक बात पूछूं- (उत्तर दोगे ?)

तब कैसे सीखा डसना विष कहाँ पाया ?"

(इन्द्रधनुष रौंदे हुए थे, पृ. 21)

अज्ञेय ने इन पंक्तियों में सांप से आहत होकर प्रश्न किया है और आधुनिक समाज पर व्यंग्य किया है कि सांप कभी मानवों के बीच नहीं रहा तो उसके अंदर जो विष व्यापत है , वह उसने कहां से पाया? इस तरह मानवीय दुष्ट प्रवृति की ओर इशारा कर तंज कसते हैं।


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