उपेन्द्र
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उपेंद्र परमार[सम्पादन]
उपेंद्र उर्फ कृष्णराज (800-818 इ.) मालवा के परमार साम्राज्य के संस्थापक माने जाते हैं। यह अग्निवंशीय परमार राजवंश के शासक थे। नवसाहसांकचरित के एक श्लोक से ज्ञात होता है कि सीता नामक एक महान तेजस्वीनी विदुषी ने इनकी प्रशंसा में कोई काव्य रचा है। सीता पंडिता वास्तव में कृष्णराज प्रमार के समकालिन थी। पद्मगुप्त परिमल ने नवसाहसाङकचरित में राजा मुंज पोवार पर भी प्रामाणिक लेखन किया है।
उदयपुर प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उसने अपने नीजी शौर्य से राजत्व का उच्च पद प्राप्त किया।
उपेंद्रराजो द्विजवर्ग्गरत्नं शौर्यार्ज्जितोत्तुंगनृपत्वमाणः। [३] यह श्लोक राजा उपेंद्र को शौर्य अर्जित करने वाला,उच्च कोटि का राजत्व का पद प्राप्त करने वाला, कहकर उसके पराक्रमी राजसी प्रकृति की सराहना करता है। तत्कालीन क्षुब्ध राजनीतिक परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए एक कुशल राजनितिज्ञ और कुटनितिज्ञ के रूप में उसने अपने राजवंश की खोई हुई स्वतंत्र सत्ता फिर से स्थापित कर लीं। किंतु इस उपलब्धि की वास्तविक तिथि और परिस्थितियाँ अज्ञात है। विभिन्न विद्वानों के इस संबंधित मत प्राय उलझे हुए साक्ष्यों फर उद्धृत होने के कारण आपत्तिजनक है। पुरी नवीं सदी में सौराष्ट्र पर प्रतिहारों का भी आधिपत्य रहा। मालवा पर परमारों का अधिकार रहा। अमोघवर्ष और कृष्ण द्वितीय के समय कृष्णराज ने उज्जैन के आसपास के प्रदेशों को परास्त कर अपना स्थित आधिपत्य हासिल किया था। नवसाहसांकचरित उपेंद्र को प्रजाओं पर लगने वाले करों में कमी करने का भी श्रेय देता है। इससे स्पष्ट है कि वह एक अच्छे शासक के रूप में उज्जैन समेत वहां के शासक के रूप में उभरा। कुछ इतिहासवेत्ता इसे अपनी सत्ता का दृढ़ीकरण और प्रजा का रंजन करने के लिए उठाया गया कुटनितिक कदम भी मानते हैं। उपेंद्र ने अनेक यज्ञों का भी सम्पादन किया। उपेंद्र की महारानी लक्ष्मीदेवि से दो पुत्र रत्नों की उन्हें प्राप्ति हुई - वैरिसिंह और डंबरसिंह। उपेंद्र के बाद वैरिसिंह ही मालवा का उत्तराधिकारी हुआ। डंबरसिंह बांसवाड़ा का सामंत अधिकारी हुआ। [४]
संदर्भ[सम्पादन]
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- ↑ mar’, A.J. Brahttriyie Aur Dharma(जर्मन में). Prabhat Prakashan. पृ॰ 54. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-82901-91-4. अभिगमन तिथि 14 April 2019
- ↑ नवसाहसांकचरित, 11वाँ, पृ.76-78.
- ↑ उदयपुर प्रशस्ति,श्लोक 7,एइ. जि.1,पृ. क्र. 235
- ↑ वाक्पति मुंज के लेख इऐ.जिल्द 6 पृ.क्र 51, जि. 14 पृ. 160. एइ. जि.1 पृ. क्र.225, जि.6 पृ. क्र.167