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कन्डीर

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यही साच बात है

परिचय[सम्पादन]

पशु-पक्षी, वृक्ष-पौधों पर व्यक्ति, गण, जाति या जनजाति का नामकरण अत्यंत प्रचलित सामाजिक प्रथा है जो सभ्य और असभ्य दोनों प्रकार के समाजों में पाईं जाती है। असभ्य समाजों में यह प्रथा बहुत प्रचलित हैं और कहीं कहीं इसे जनजातीय धर्म का स्वरूप भी प्राप्त है। उत्तरी अमरीका के पश्चिमी तट पर रहनेवाली हैडा, टिलिगिट, क्वाकीटुल आदि जनजातियों में पशु आकार के विशाल और भयानक खंभे पाए जाते हैं, जिन्हें इन जातियों के लोग देवता मानते हैं। इनके लिए इन जातियों में टोडेम, ओडोडेम आदि शब्दों का प्रयोग होता है, जिसकी ध्वनि टोटेम शब्द में हैं। मध्य आस्ट्रेलिया के अरुंटा आदिवासी, अफ्रीका के पूर्वी मध्य प्रदेशों तथा भारत की जनजातियों में यह प्रथा प्रचलित हैं।

संसार के विभिन्न प्रदेशों में इस प्रथा का विभिन्न रूप पाया जाता है। परंतु इतिहासकारों का ऐसा मत है कि प्राचीन काल में कभी टोटेमीयुग रहा होगा, जिसके अवशेष आज के टोटेमी रीति-रिवाज है। ऐसे इतिहासकारों में राईनाख और मैकलैनन के नाम उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार की विचारधारा के अनुसार राईनाख ने (1900 ई. में) टोटेमिज्म़ के प्रधान लक्षणों की एक तालिका प्रस्तुत की। इस तालिका के अनुसार,

  • (1) कुछ पशु मारे या खाये नहीं जाते और ऐसे पशुओं को उन समुदायों में व्यक्ति पालते हैं।
  • (2) ऐसा कोई पशु यदि मर जाय, तो उसकी मृत्यु शोक मनाते हैं। मृतक पशु का कहीं कहीं विधिवत्‌ संस्कार भी किया जाता है।
  • (3) कहीं कहीं पशुमांस भक्षण पर निषेध विशिष्ट पशु के विशिष्ट अंग पर होता है।
  • (4) ऐसे पशु को यदि मारना या बलि देना पड़ जाए तो प्रार्थना आदि के साथ निषेध का उल्लंघन विधिपूर्वक किया जाता है।
  • (5) बलि देने पर भी उस पशु का शोक मनाया जाता है।
  • (6) त्यौहारों पर उसे पशु की खाल आदि पहनकर उसका स्वाँग भरा जाता है
  • (7) गण और व्यक्ति उस पशु पर अपना नाम रखते हैं।
  • (8) गण के सदस्य अपने झंडों और अस्रों पर पशु का चित्र अंकित करते हैं या उसे अपने शरीर पर गुदवाते हैं।
  • (9) यदि पशु खूँखार हो तो भी उसे मित्र और हितैषी मानते हैं।
  • (10) विश्वास करते हैं कि टोटेम-पशु उन्हें यथासमय चैतन्य और सावधान कर देगा।
  • (11) पशु गण के सदस्यों को उनका भविष्य बताकर उनका मार्गदर्शन करता है, ऐसी उनकी धारणा है।
  • (12) टोटेमवादी उस पशु से अपनी उत्पत्ति मानते हैं और उससे घनिष्ठ संबंध बनाये रखते हैं।

संसार में गणचिह्नवाद (टोटेमिज्म़) के लक्षण सब कहीं एक से नहीं पाये जाते। उदाहरणत: हैडा तथा टिलिंगिट जातियों में गणचिह्नवाद सामाजिक प्रथा हैं, परंतु उसका धार्मिक स्वरूप विकसित नहीं है। मध्य आस्ट्रेलिया की अरुन्टा जाति में टोटेम-धर्म और रीतियाँ पूर्ण विकसित हैं, टोटेमी पशु की नकल या स्वाँग नहीं उतारते। अफ्रीका की बंगडा जाति में गणचिह्नवाद का धार्मिक रूप अप्राप्य है। भारत की मुंडा, उराँव, संथाल आदि जातियों में टोटेम केवल गणनाम और गणचिह्न के रूप में प्रयुक्त होता हैं। वहाँ टोटेम-बलि और टोटेम-पूजा की परंपराएँ नहीं पाई जातीं।

आदिवासी कला पर गण का प्रभाव प्रचुर मात्रा में मिलता है। छोटा नागपुर तथा मध्य प्रदेश में घरों की दीवारों पर टोटेम के चित्र देखने में आते हैं। न्यूजीलैंड के माओरी अपनी नौकाओं पर अपने टोटेम का चित्र उकेर देते हैं। कई अन्य जनजातियों में पहनने के वस्र, शस्र, उपकरण और झंडे सब पर टोटेम चित्रित रहता है। विशेषत: उत्तरी अमरीका और आस्ट्रेलिया की आदिवासी कला पर गणचिह्न का प्रभाव बहुत गहरा है।

टोटेमगण के सदस्य अपने को टोटेम की अलौकिक और मानसिक संतान मानते हैं। वे अपने गण में विवाह नहीं करते। इस प्रकार टोटेमवादी समाजों में बहिर्विवाह की रीति मान्य होती है। सर जेम्स फ्ऱेजर का विचार है कि टोटेमवाद और बहिर्विवाह में कार्यकरण का संबंध है और वे सदैव साथ साथ पाए जाते हैं। टोटेम को अलौकिक रूप से गणचिह्न मानने के कारण टोटेमी गण के सदस्य आपस में रक्तसंबध मानते हैं और इस कारण परस्पर विवाह नहीं करते।


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