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कान्हा रावत

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कान्हा रावत
Born in बहीन, हरियाणा, भारत
💼 Occupation
❤️ Spouse(s) कर्पूरी देवी
तारावती


कान्हा रावत एक धर्म योद्धा थे जो हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए बलिदान हो गए।

कान्हा का बचपन[सम्पादन]

कान्हा रावत का जन्म दिल्ली से ६० मील दक्षिण में स्थित रावत जाटों के उद्गम स्थान बहीन गाँव में चौधरी बीरबल के घर माता लाल देवी की कोख से संवत १६९७ (सन १६४०) में हुआ। वह समय भारत में मुग़ल साम्राज्य के वैभव का था। हर तरफ मुल्ले मौलवियों की तूती बोलती थी। कान्हा ने जन्म से ही मुग़लों के अत्याचारों के बारे में सुना था। यही कारण था कि कान्हा को छोटी अवस्था से ही लाठी, भाला, तलवार, ढाल चलाने की शिक्षा दी गई।

पारिवारिक जीवन[सम्पादन]

युवा होने पर उनका विवाह अलवर रियासत के गाँव धीका की कर्पूरी देवी के साथ कर दिया गया। उनके दो पुत्र हुए लेकिन शीघ्र ही कर्पूरी देवी स्वर्ग सिधार गई। कर्पूरी देवी के चल बसने के बाद रिश्तेदारों के आग्रह पर कान्हा ने गुडगाँव जिले के ग्राम घरोंट निवासी उदयसिंह बड़गुजर की पुत्री तारावती को दूसरी जीवन संगिनी बना लिया।

फाल्गुन मास की अमावस्या सन् १६८४ को कान्हा रावत अपनी दूसरी शादी घर्रोट गांव से करके लाए।

मुगल साम्राज्य के विरोध में विद्रोह[सम्पादन]

औरंगजेब ने ९ अप्रेल १६६९ को फरमान जारी किया- "काफ़िरों के मन्दिर गिरा दिए जाएं"। फलत: ब्रज क्षेत्र के कई अति प्राचीन मंदिरों और मठों का विनाश कर दिया गया। कुषाण और गुप्त कालीन निधि, इतिहास की अमूल्य धरोहर, तोड़-फोड़, मुंड विहीन, अंग विहीन कर हजारों की संख्या में सर्वत्र छितरा दी गयीं।

सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं - "मुसलमानों की धर्मान्धता पूर्ण नीति के फलस्वरूप मथुरा की पवित्र भूमि पर सदैव ही विशेष आघात होते रहे हैं। दिल्ली से आगरा जाने वाले राजमार्ग पर स्थित होने के कारण, मथुरा की ओर सदैव विशेष ध्यान आकर्षित होता रहा है।

मुगल साम्राज्य के विरोध में विद्रोह[सम्पादन]

मुगल साम्राज्य के राजपूत सेवक भी अन्दर ही अन्दर असंतुष्ट होने लगे परन्तु जैसा कि "दलपत विलास" के लेखक दलपत सिंह [सम्पादक: डा. दशरथ शर्मा] ने स्पष्ट कहा है, राजपूत नेतागण मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह करने की हिम्मत न कर सके। असहिष्णु, धार्मिक, नीति के विरुद्ध विद्रोह का बीड़ा उठाने का श्रेय उत्तर प्रदेश के कुछ जाट नेताओं और जमींदारों को प्राप्त हुआ। आगरा, मथुरा, अलीगढ़, इसमें अग्रणी रहे। शाहजहाँ के अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार युद्ध के समय जाट नेता वीर नंदराम ने शोषण करने वाली धार्मिक नीति के विरोध में लगान देने से इंकार कर दिया और विद्रोह का झंडा फहराया। तत्पश्चात वीर नंदराम का स्थान उदयसिंह तथा गोकुलसिंह ने ग्रहण किया।

इतिहास के इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ेगा कि राठौर वीर दुर्गादास के पहले ही उत्तर प्रदेश के जाट वीरों को कट्टरपंथी मुग़ल सम्राटों की असहिष्णु नीतियों का पूर्वाभास हो चुका था। गोकुल सिंह मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन तथा हिंडौन और महावन की समस्त हिंदू जनता के नेता थे तिलपत की गढ़ी उसका केन्द्र थी। जब कोई भी मुग़ल सेनापति उसे परास्त नहीं कर सका तो अंत में सम्राट औरंगजेब को स्वयं एक विशाल सेना लेकर जन-आक्रोश का दमन करना पड़ा।

गोकला जाट ने, अथक साहस का परिचय देकर मथुरा, सौख, भरतपुर, कामा, डीग, गोवर्धन, छटीकरा, चांट, सुरीर, छाता, भिडूकी, होडल, हसनपुर, सोंध, बंचारी, मीतरोल, कोट, उटावड, रूपाडाका, कोंडल, गहलब, नई, बिछौर के पंचों व मुखियों को रावत पाल के बडे गांव बहीन के बंगले पर एकत्र कर एक विशाल पंचायत बुलाई। इस पंचासत में औरंगजेब से निपटने की योजना तैयार की गई। इस पंचायत में बलबीर सिंह ने गोकला जाट को आश्वासन दिया कि वे अपनी आन बान और शान के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर देंगे, लेकिन विदेशी आक्रांताओं के समक्ष कभी नहीं झुकेंगे। युद्ध करने की समय सीमा तय हो गई। जंगल की आग की तरह खबर विदेशी आंक्राता औरंगजेब तक पंहुच गई। उसने अपना सेनापति शेरखान को तुंरत बहीन भेजा।

माघ माह की काली घनी अंधेरी रात में देव राज इंद्र द्वारा किसानों की फसलों के लिए बरस रहे मेघ की बूंदों, काले बादलों के बीच नागिन की तरह चमकती बिजली, जानलेवा कडकडाती शीत लहर में गांव के चुनिंदा लोग वर्णित पंचायत में लिए गए फैसले की तैयारी कर रहे थे, कि अचानक गांव के चौकीदार चंदू बारिया ने औरंगजेब के सेनापति दूत शेरखान के आने की सूचना दी। बंगले पर विराजमान वृद्धों ने भारतीय संस्कृति की रीतिरिवाज के अनुसार शेरखान को आदर सहित बंगले पर बुलवाया तथा उससे आने का कारण पूछा। शेरखान शाह मिजाज से वृद्धों का अपमान करता हुआ बोला - हम बादशाह औरंगजेब का फरमान लेकर आए है। यहां के लोग सीधे-सीधे ढंग से इस्लाम स्वीकार करते हैं, तो तुम्हारे मुखिया को नवाब की उपाधि से सम्मानित करेंगे। खास चेतावनी यह है कि यदि तुम लोगों ने गोकला जाट का साथ दिया तो अंजाम बुरा होगा।


मुग़ल सेना से युद्ध[सम्पादन]

तारावती को लाने से पूर्व रावतों के पांच गावों (बहीन, नागल जाट, अल्घोप, पहाड़ी, और मानपुर) की एक महापंचायत हुई थी जिसमे कान्हा रावत के अध्यक्षता में निर्णय लिए गए थे -

हम अपना वैदिक सनातन धर्म नहीं बदलेंगे। मुसलमानों के साथ खाना नहीं खाएंगे। कृषि कर अदा नहीं करेंगे।

रावत पंचायत के निर्णयों की खबर जब औरंगजेब को लगी तो वह क्रोध से आग बबूला हो उठा। उसने अब्दुल नवी सेनापति के अधीन एक बहुत बड़ी सेना बहीन पर आक्रमण के लिए भेजी। सन १६८४ में बहिन गाँव को चारों तरफ से घेर लिया। फाल्गुन मास की अमावस्या सन् १६८४ को कान्हा रावत अपनी दूसरी शादी घर्रोट गांव से करके लाए औरंगजेब ने इसी अवसर का लाभ उठाना चाहा था। उन्होंने उसने बहीन गांव को चारों ओर से घेर लिया जब कान्हा रावत अपनी नई नवेली दुल्हन तारावती को लेकर बहीन पहुंचा तो मुगल सेना को देखकर दंग रह गया। कान्हा रावत को इस्लाम स्वीकार करने के लिए बहुत प्रलोभन दिए गए, परन्तु मात्रभूमि के मतवाले को गुलामी की जंजीरे मंजूर नहीं थी। इसलिए कंगन बंधे हाथों से मुगल सेना से भिड गया। बताया जाता है कि शाही हथियारों का मुकाबला, लाठी, फरसा, बल्लम और भालों से किया। रावतों और मुग़ल सेना में युद्ध छिड़ गया। रावत जाटों ने मुग़ल सेना के छक्के छुडा दिए। यदि फिरोजपुर झिरका से मुग़लों को नई सैन्य टुकड़ी का सहारा नहीं मिलता तो मैदान रावत जाटों के हाथ रहता। लेकिन मुगलों की बहुसंख्यक, हथियारों से सुसज्जित सेना के आगे शास्त्र-विहीन रावत जाट आखिर कब तक मुकाबला करते।कई दिनों तक चले इस युद्ध में जब कान्हा निहत्था रह गया तो अब्दुन नबी ने उसे बंदी बना लिया। इस युद्ध में पांचों रावत गांवों के अलावा अन्य रावत जाट भी लड़े थे और अनुमानतः २००० से अधिक रावत वीरगति को प्राप्त हुए थे. रावत जाटों के नेता कान्हा रावत को गिरफ्तार कर लिया गया।

कान्हा रावत को जिन्दा जमीन में गाड़ा[सम्पादन]

सात फ़ुट लम्बे तगड़े बलशाली युवा कान्हा रावत को गिरफ्तार करके मोटी जंजीरों से जकड़ दिया गया। उसके पैरों में बेडी, हाथों में हथकड़ी तथा गले में चक्की के पाट डालकर कैद करके दिल्ली लाया गया। वहां उसको अजमेरी गेट की जेल में बंद कर दिया गया। उसी जेल के आगे गढा खोदा गया। कान्हा को प्रतिदिन उस गढे में गाडा जाता था तथा अमानवीय यातनाएं दी जाती थी लेकिन वह इन अत्याचारों से भी टस से मस नहीं हुआ।

शेर पिंजरे में बंद होकर भी दहाड़ रहा था -

'जिन्दा रहा तो फिर क्रांति की आग सुलगाऊंगा' रावतों के इतिहास के लेखक सुखीराम लिखते हैं कि - कान्हा रावत के कष्टों की दास्ताँ से निर्दयी औरंगजेब का दिल भी पसीज गया। एक दिन वह प्रात काल की वेला में अजमेरी गेट की जेल गया। कान्हा रावत की हालत देख वह बोला -

"वीर रावत मैं तुम्हारी वीरता का कायल हूँ और तुम्हें माफ़ करना चाहता हूँ। तेरी युवा अवस्था है, घर में बैठी तेरी प्राण प्यारी विरह में रो-रोकर सूख कर कांटा हो गई है। तेरी माँ, बहन-भाई और रिश्तेदार बेहाल हैं। बहुत दिनों से हिन्दूओं के घर में दीपक नहीं जले हैं। किसी ने भी भर पेट खाना नहीं खाया है। तुम्हारे जैसा सात फ़ुट का होनहार जवान अपने दिल की उमंगों को साथ लिए जा रहा है। मुझे इसका अफ़सोस है। यदि तू मेरी बात मानले तो तुझे मैं जागीर दे सकता हूँ। सेनापति बना सकता हूँ। तेरी मांगी मुराद पूरी हो सकती है। मेरे साथ चल बाल कटवा, नहा धो और अच्छे कपडे पहन। दोनों साथ मिलकर खाना खायेंगे। अब बहुत हो चूका तेरी हिम्मत ने मुझे हरा दिया। अब तो दोस्ती का हाथ बढा दे।" औरंगजेब की बात सुनकर वीर कान्हा रावत ने जवाब दिया था -

"बादशाह तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ है। खाना ही खाना होता, जागीर ही लेनी होती तो यहाँ इस तरह नहीं आता, इतना जान माल का नुकसान नहीं होता। मैंने सुब कुछ सोच विचार कर यह करने का निश्चय किया है। तुम ज्यादा से ज्यादा मुझे फांसी लगवा सकते हो, गोली से मरवा सकते हो या जमीन में दफ़न करवा सकते हो लेकिन मेरे अन्दर विद्यमान स्वाभिमान तथा देश एवं धर्म के प्रति प्रेम को तुम मार नहीं सकते। हाँ यदि तुझे मुझ पर रहम आता है तो बिना शर्त रिहा करदे।" औरंगजेब अपमान का घूँट पीकर चला गया।

कान्हा रावत ने औरंगजेब के साथ खाना खाने से इंकार कर दिया। उसको अपना धर्म त्यागना भी स्वीकार नहीं था। उसने अब्दुन नबी (मुग़ल सेनापति) के विरोध में उठने वाले किसान-आन्दोलन को नंदराम और गोकुला के साथ मिलकर हवा दी थी। इस जाट वीर ने प्राण भय से स्वधर्म और संघर्ष नहीं छोडा था। उसने जजिया कर के खिलाफ डटकर लडाई लड़ी थी।

एक दिन बड़ी मुश्किल से मिलने की इजाज़त लेकर कान्हा का छोटा भाई दलशाह उसे मिलने के लिए आया। उस समय कान्हा के पैर जांघों तक जमीन में दबाये हुए थे तथा हाथ जंजीरों से जकडे हुए थे। कोड़ों की मार से उसका शरीर सूखकर कांटा हो गया था। दलशाह से यह दृश्य देखा नहीं गया तो उसने कान्हा से कहा भाई अब यह छोड़ दें। तब कान्हा तिलमिला उठा और बोला:

"अरे दलशाह यह तू कह रहा है. क्या तू मेरा भाई है क्या तू रावतों की शान में कायरता का कलंक लगाना चाहता है। मैंने तो सोचा था कि मेरा भाई अब्दुन नबी की मौत की सूचना देने आया है। ताकि मैं शांति से मर सकूं। मैंने तो सोचा था कि मेरे भाई ने मेरा प्रतोशोध ले लिया है। मैंने सोचा था कि तू हिन्दूओं का कोई हाल सुनाने आया है और मेरा सन्देश लेने आया है। लेकिन तुझपर धिक्कार है। तू यहाँ आने से पहले मर क्यों नहीं गया। तूने मेरी आत्मा को झंकझोर दिया है।" कान्हा का छोटा भाई दलशाह कान्हा को प्रणाम कर क्षमा मांग कर वापिस गया। कान्हा रावत के छोटे भाई दलशाह ने रावतों के अतिरिक्त उस क्षेत्र के अनेक गावों के जाटों को इकठ्ठा कर अब्दुल नवी पर हमला बोल दिया और उसे मौत के घाट उतार दिया। यह खबर कान्हा को उसकी मृत्यु से एक दिन पहले मिली। इस खबर से कान्हा को बड़ी आत्मिक शांति मिली। इस घटना के बाद औरंगजेब ने कान्हा रावत तथा उस क्षेत्र के हिन्दूओं पर जुल्म बढा दिए। अंत में चैत्र अमावस विक्रम संवत १७३८ (सन १६८२ /सन १६८४) को वीरवर कान्हा रावत को जिन्दा ही जमीन में गाड दिया। वह देशभक्त हिन्दू धर्म की खातिर शहीद होकर अमरत्व को प्राप्त हो गया।

कान्हा रावत के बलिदान ने दिल्ली के चारों तरफ बसे जाटों को जगा दिया। चारों और बगावत की ध्वनि गूंजने लगी यह घटना मुग़ल सल्तनत के हरास का कारण बनी।

जिस स्थान पर कान्हा रावत को जिन्दा गाडा गया था वह स्थान अजमेरी गेट के आगे मौहल्ला जाटान की गली में आज भी एक टीले के रूप में विद्यमान है।

दिल्ली स्थित पहाडी धीरज पर आज भी वह जगह रावतपाडा के नाम से प्रसिद्ध है। कान्हा रावत को विदेशी छतरी को निर्माण कराया, जो आज भी विद्यमान है। रावत पाल के लोगों ने उनकी स्मृति गौशाला का निर्माण कराया, जहां पर हर वर्ष दो दिन का उत्सव मनाया जाता है।

बाहरी कड़ीयाँ[सम्पादन]

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