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जाट इतिहास

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जाट एक जाति है, हालांकि इसने बहुत तीव्रता से विकास किया है । जाट ऐसी भारतीय जाति रही है जिसके लोग इस देश में राजा भी बने हैं। जाटों ने स्वंय की एक सभ्यता खड़ी करी, पंचायत इन्हीं की देन मानी जाती है। जाटों में बड़े स्तर पर पलायन हुये और ये लोग जंगलों से नगरों की ओर भी बढ़े। जाट प्रकृति पूजक होते हैं और सनातन धर्म को मानते हैं।

जाटों का इतिहास[सम्पादन]

मुग़ल सल्तनत के आखरी समय में जो शक्तियाँ उभरी; जिन्होंने ब्रज क्षेत्र के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, उन जाट सरदारों के नाम इतिहास में बहुत मशहूर हैं । जाटों का इतिहास पुराना है । जाट मुख्यतः खेती करने वाली जाति है; लेकिन औरंगजेब के अत्याचारों और निरंकुश प्रवृत्ति ने उन्हें एक बड़ी सैन्य शक्ति का रूप दे दिया। मुग़लिया सल्तनत के अन्त से अंग्रेज़ों के शासन तक ब्रज मंड़ल में जाटों का प्रभुत्व रहा। इन्होंने ब्रज के राजनीतिक और सामाजिक जीवन को बहुत प्रभावित किया । यह समय ब्रज के इतिहास में 'जाट काल' के नाम से जाना जाता है । इस काल का विशेष महत्व है।

राजनीति में जाटों का प्रभाव[सम्पादन]

ब्रज की समकालीन राजनीति में जाट शक्तिशाली बन कर उभरे। जाट नेताओं ने इस समय में ब्रज में अनेक जगहों पर, जैसे सिनसिनी, डीग, भरतपुर, मुरसान और हाथरस जैसे कई राज्यों को स्थापित किया। इन राजाओं में डीग−भरतपुर के राजा बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इन राजाओं ने ब्रज का गौरव बढ़ाया, इन्हें 'ब्रजेन्द्र' अथवा 'ब्रजराज' भी कहा गया। ) के पश्चात् जिन कुछ हिन्दू राजाओं ने शासन किया,उनमें डीग और भरतपुर के राजा विशेष थे। इन राजाओं ने लगभग सौ सालों तक ब्रजमंडल के एक बड़े भाग पर राज्य किया। इन जाट शासकों में महाराजा सूरजमल (शासनकाल सन् 1755 से सन् 1763 तक )और उनके पुत्र जवाहर सिंह (शासन काल सन् 1763 से सन् 1768 तक )ब्रज के इतिहास में बहुत प्रसिद्ध हैं ।

जाटों के क्रियाकलाप

इन जाट राजाओं ने ब्रज में हिन्दू शासन को स्थापित किया। इनकी राजधानी पहले डीग थी, फिर भरतपुर बनायी गयी। महाराजा सूरजमल और उनके बेटे जवाहर सिंह के समय में जाट राज्य बहुत फैला। भरतपुर, मथुरा और उसके आसपास अंग्रेज़ों के शासन से पहले जाट बहुत प्रभावशाली थे और अपने राज्य के सम्पन्न स्वामी थे। वे कर और लगान वसूलते थे और अपने सिक्के चलाते थे। उनकी टकसाल डीग, भरतपुर, मथुरा और वृन्दावन के अतिरिक्त आगरा और इटावा में भी थीं। जाट राजाओं के सिक्के अंग्रेज़ों के शासन काल में भी भरतपुर राज्य के अलावा मथुरा मंडल में प्रचलित थे।

औरंगज़ेब और सूरजमल के पूर्वज[सम्पादन]

कुछ विद्वान् जाटों को विदेशी वंश-परम्परा का मानते हैं,तो कुछ दैवी वंश-परम्परा का। कुछ अपना जन्म किसी पौराणिक वंशज से हुआ बताते हैं।

  • सर जदुनाथ सरकार ने जाटों का वर्णन करते हुए उन्हें "उस विस्तृत विस्तृत भू-भाग का, जो सिन्धु नदी के तट से लेकर पंजाब, राजपूताना के उत्तरी राज्यों और ऊपरी यमुना घाटी में होता हुआ।
  • चम्बल नदी के पार ग्वालियर तक फैला है, सबसे महत्त्वपूर्ण जातीय तत्त्व बताया है।
  • सभी विद्वान् एकमत हैं कि जाट आर्य-वंशी हैं। जाट अपने साथ कुछ संस्थाएँ लेकर आए, जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है - 'पंचायत' - 'पाँच श्रेष्ठ व्यक्तियों की ग्राम-सभा, जो न्यायाधीशों और ज्ञानी पुरुषों के रूप में कार्य करते थे ।
  • हर जाट गाँव सम गोत्रीय वंश के लोगों का छोटा-सा गणराज्य होता था, जो एक-दूसरे के बिल्कुल समान लेकिन अन्य जातियों के लोगों से स्वयं को ऊँचा मानते थे ।
  • जाट गाँव का राज्य के साथ सम्बन्ध निर्धारित राजस्व राशि देने वाली एक अर्ध-स्वायत्त इकाई के रूप में होता था। कोई राजकीय सत्ता उन पर अपना अधिकार जताने का प्रयास नहीं करती थी, जो कोशिश करती थीं, उन्हें शीध्र ही ज्ञान हो जाता था, कि क़िले रूपी गाँवों के विरुद्ध सशस्त्र सेना भेजना लाभप्रद नहीं है।
  • जाट जन्मजात श्रमिक और योद्धा थे। वे कमर में तलवार बाँधकर खेतों में हल चलाते थे और अपने परिवार की रक्षा के लिए वे क्षत्रियों से अधिक युद्ध करते थे, क्योंकि आक्रमणकारियों द्वारा आक्रमण करने पर जाट अपने गाँव को छोड़कर नहीं भागते थे। अगर कोई विजेता जाटों के साथ दुर्व्यवहार करता, या उसकी स्त्रियों से छेड़छाड़ की जाती थी, तो वह आक्रमणकारी के काफ़िलों को लूटकर उसका बदला लेता था।
  • उसकी अपनी ख़ास ढंग की देश-भक्ति विदेशियों के प्रति शत्रुतापूर्ण और साथ ही अपने उन देशवासियों के प्रति दयापूर्ण, यहाँ तक कि तिरस्कारपूर्ण थी जिनका भाग्य बहुत-कुछ उसके साहस और धैर्य पर अवलम्बित था।
  • प्रोफ़ेसर क़ानून गों ने जाटों की सहज लोकतन्त्रीय प्रवृत्ति का उल्लेख किया है। 'ऐतिहासिक काल में जाट-समाज उन लोगों के लिए महान् शरणस्थल बना रहा है, जो सामाजिक अत्याचार के शिकार होते थे; यह दलित तथा अछूत लोगों को अपेक्षाकृत अधिक सम्मानपूर्ण स्थिति तक उठाता और शरण में आने वाले लोगों को एक सजातीय आर्य ढाँचें में ढालता रहा है। शारीरिक लक्षणों, भाषा, चरित्र, भावनाओं, शासन तथा सामाजिक संस्था-विषयक विचारों की दृष्टि से आज का जाट निर्विवाद रूप से हिन्दुओं के अन्य वर्णों के किसी भी सदस्य की अपेक्षा प्राचीन वैदिक आर्यों का अधिक अच्छा प्रतिनिधि है।

इतिहास में जाट[सम्पादन]

इतिहासकारों ने जाटों के विषय में अधिक नहीं लिखा हैं किन्तु कहीं कहीं राजा पुरू को यदुवंशी बताया गया है जिसने सिकंदर से युध्द किया था।

शिव से जाट की उत्पत्ति[सम्पादन]

एक अन्य पौराणिक मान्यता के अनुसार शिव की जटाओं से जाट की उत्पत्ति मानी जाती है. यह सिद्धान्त देव संहिता में उल्लेखित है. देव संहिता की इस कहानी में कहा गया है कि शिव के ससुर राजा दक्ष ने हरिद्वार के पास कनखल में एक यज्ञ किया था. सभी देवताओं को तो यज्ञ में बुलाया पर न तो महादेवजी को ही बुलाया और न ही अपनी पुत्री सती को ही निमंत्रित किया. शिव की पत्नि सती ने शिव से पिता के घर जाने के लिये पूछा तो शिव ने कहा- तुम अपने पिता के घर बिना बुलाये भी जा सकती हो. सती जब पिता के घर गयी तो वहां शिव के लिये कोई स्थान निर्धारित नहीं था, न उनके पति का भाग ही निकाला गया है और न उसका ही सत्कार किया गया. उलटे शिवजी का अपमान किया और बुरा भला कहा गया. अपने पति का अपमान देखकर, पिता तथा ब्रह्मा और विष्णु की योजना को ध्वस्त करने के उद्देश्य से उसने यज्ञ-कुण्ड में छलांग लगा कर प्राण दे दिये. इससे क्रुद्ध शिव ने अपने जट्टा से वीरभद्र नामक गण को उत्पन्न किया. वीरभद्र ने जाकर यज्ञ को भंग कर दिया. आगन्तुक राजाओं का मानमर्दन किया. ब्रह्मा और विष्णु को यज्ञ से जाना पडा. वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया. ब्रह्मा और विष्णु शिव को मनाने उनके पास गये. उन्होने शिव से कहा कि आप भी हमारे बराबर हैं. इस समझौते के बाद शिव और उसके गण जाटों को बराबर का दर्जा मिला. शिव ने दक्ष का सिर जोड दिया. कहते हैं कि दक्ष को बकरे का सिर जोडा गया था. यह भी धारणा है कि ब्राह्मण इसी अपमान के कारण जाटों का इतिहास नहीं बताते या इतिहास तोड़-मरोड़ कर लिखते है. देवसंहिता के कुछ श्लोक निम्न प्रकार हैं- पार्वत्युवाचः भगवन सर्व भूतेश सर्व धर्म विदाम्बरः । कृपया कथ्यतां नाथ जाटानां जन्म कर्मजम् ।।12।। अर्थ- हे भगवन! हे भूतेश! हे सर्व धर्म विशारदों में श्रेष्ठ! हे स्वामिन! आप कृपा करके मेरे तईं जाट जाति का जन्म एवं कर्म कथन कीजिये ।।12।। का च माता पिता ह्वेषां का जाति बद किकुलं । कस्तिन काले शुभे जाता प्रश्नानेतान बद प्रभो ।।13।। अर्थ- हे शंकरजी ! इनकी माता कौन है, पिता कौन है, जाति कौन है, किस काल में इनका जन्म हुआ है ? ।।13।। श्री महादेव उवाच: श्रृणु देवि जगद्वन्दे सत्यं सत्यं वदामिते । जटानां जन्मकर्माणि यन्न पूर्व प्रकाशितं ।।14।। अर्थ- महादेवजी पार्वती का अभिप्राय जानकर बोले कि जगन्माता भगवती ! जाट जाति का जन्म कर्म मैं तुम्हारी ताईं सत्य-सत्य कथन करता हूँ कि जो आज पर्यंत किसी ने न श्रवण किया है और न कथन किया है ।।14।। महाबला महावीर्या, महासत्य पराक्रमाः । सर्वाग्रे क्षत्रिया जट्‌टा देवकल्‍पा दृढ़-व्रता: || 15 || अर्थ- शिवजी बोले कि अहीर एवं जाट महाबली हैं, महा वीर्यवान और बड़े पराक्रमी हैं क्षत्रिय प्रभृति क्षितिपालों के पूर्व काल में यह जाति ही पृथ्वी पर राजे-महाराजे रहीं । जाट जाति देव-जाति से श्रेष्ठ है, और दृढ़-प्रतिज्ञा वाले हैं || 15 || श्रृष्टेरादौ महामाये वीर भद्रस्य शक्तित: । कन्यानां दक्षस्य गर्भे जाता जट्टा महेश्वरी || 16 || अर्थ- शंकरजी बोले हे भगवती ! सृष्टि के आदि में वीरभद्रजी की योगमाया के प्रभाव से उत्पन्न जो पुरूष उनके द्वारा और ब्रह्मपुत्र दक्ष महाराज की कन्या गणी से जाट जाति उत्पन्न होती भई, सो आगे स्पष्ट होवेगा || 16 || गर्व खर्चोत्र विग्राणां देवानां च महेश्वरी । विचित्रं विस्‍मयं सत्‍वं पौराण कै साङ्गीपितं || 17 || अर्थ- शंकरजी बोले हे देवि ! जाट जाति की उत्पत्ति का जो इतिहास है सो अत्यन्त आश्चर्यमय है । इस इतिहास में विप्र जाति एवं देव जाति का गर्व खर्च होता है । इस कारण इतिहास वर्णनकर्ता कविगणों ने जाट जाति के इतिहास को प्रकाश नहीं किया है || 17 || यद्यपि यह एक पौराणिक कहानी है परन्तु यह कुछ ऐतिहासिक तथ्यों की तरफ़ संकेत करती है. इससे एक बात तो साफ है कि सृष्टि के आदि में जाट प्राचीनतम क्षेत्रीय थे. वीरभद्र शिव का अंश था जिससे जाट उत्पन्न हुए. उस समय जाट गणों के रूप में संगठित थे. 'शिव के जट' का अर्थ 'शिव के गण' लगाया जाना चाहिए परन्तु पुरोहितों ने इसका अर्थ गलत लगाया 'शिव के जट्टा' अर्थात 'शिव के सिर के बाल'. उपर के विवरण में कारण भी निहित है कि ब्राह्मणों ने क्यों इनका इतिहास छुपाया और क्यों गलत व्याख्या की गयी. इसी बात को स्पस्ट करने के लिए देव संहिता का ऊपर विवरण दिया गया है. जिसने भी शिव जैसे कार्य कर उनका स्तर प्राप्त किया उसे शिव कहा गया. शिव के चित्र का अवलोकन करें तो देखते हैं कि इनके सर पर जटा-जूट और चन्द्रमा हैं तथा गले में नाग है. इसकी ऐतिहासिक विवेचना यह हो सकती है कि शिव ने चंद्रवंशी जाटों एवं नागवंशी क्षेत्रियों को संगठित किया. इन क्षत्रिय वर्गों की शक्तियां शिव में समाहित हो गयी. लिंगपुराण में शिव के 1000 नाम दिए हैं. उनका हर नाम किसी क्षत्रिय वर्ग का प्रतीक है. अनेक जाट गोत्र इनमें से निकले हैं. रामस्वरूप जून ने अपनी जाट इतिहास की पुस्तक में वीरभद्र की वंशावली दी है जिसके अनुसार पुरु की वंशावली में संयति के पुत्र वीरभद्र के वंशज पौनभद्र से पूनिया, कल्हण भद्र से कल्हण, दहीभद्र से दहिया, जखभद्र से जाखड, ब्रह्मभद्र से बमरोलिया आदि जाट गोत्रों की शाखायें चली


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