You can edit almost every page by Creating an account. Otherwise, see the FAQ.

जीवन की सच्चाई

EverybodyWiki Bios & Wiki से
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

यह बात कहां तक सिद्ध होती है कि जीवों का विकास क्रमिक हुआ है। प्रारंभ में जीवों का विकास एक कौशिकी से प्रारंभ हुआ । उस में ना सुनने की शक्ति थी ,ना देखने की शक्ति थी उसमें ना बुद्धि थी। ना आत्मा थी पर क्या आवश्यकता पड़ी उसे अपने आप का विकास करने की।

,उत्थान -पतन तो उस रूप में भी सम्भव था। क्या कारण रहा होगा उसे अपने आप में बदलाव करने का

वैज्ञानिक भाषा में आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है पर उसे एक कौशिकी जीव में ऐसा क्या था जो उसने विकास करने के लिए सोचा

 

यदि उसमें ऐसा कुछ था जो ध्वनि तरंगों को सुनने के लिए कान विकसित कर सकती है कान को महज सोचा जाए तो एक ध्वनि तरंगों को रीड करने वाला यंत्र समझा जा सकता है वैज्ञानिक भाषा में ।

इसी सिलसिले में उसने आंखों का निर्माण किया जो वैज्ञानिक भाषा में प्रकाश तरंग को रीड करने वाला यंत्र समझा जा सकता है।

थोड़ा गहराई में चलते है क्या उस जीव ने इन सूक्ष्म तंरगों को कान नाक आँख के विकास से पहले महसूश कर लिया था।

जब यह अद्भुत वैज्ञानिक शक्तिया या कहे शोच जीवो के शरीर में लाखों वर्ष पहले से मौजूद थी वह अपने शरीर को बदल सकने मे समर्थ था। तो मनुष्य ने अपना रास्ता क्यों बदला क्या आवश्यकता पड़ी कि मानव ने वैज्ञान को यांत्रिक रूप दिया क्या मानव ने अपने विकास का रास्ता बदल दिया था या रास्ता भटक चुका था

क्या कोई जवाब नहीं आपके दिमाग में क्या मैं मान सकता हूं कि प्राचीन समय की वह परियों की कहानी सच हो सकती हैं जिनका शरीर विचित्र शक्तियों से युक्त था ।

एक परिहास्य है, जीवन को समझ पाना इतना कठिन है जितना कि मकड़ी के जाल की शुरुआत ढूंढना जब हम हमारी जिंदगी के बारे में विचार करते हैं तो हमें प्राथमिक रूप से यही नजर आता है कि जीवन में खेलना कूदना और मौज मस्ती करना ही जीवन है थोड़ी उम्र का तकाजा हमें यह सिखलाता है की धनोपार्जन कर सुख पाना ही जीवन है कुछ परिस्थितियों में सम्मान प्रतिष्ठा जीवन का एक रूप धारण करती हैं मनुष्य जीवन भर उपरोक्त कारणों पर निर्भर रहकर अपने जीवन के अंतिम दौर की यात्रा कर इस संसार से निकल जाता है पर क्या नहीं लगता कि कुछ अधूरा है इस अधूरे पन मे ही जिंदगी है।


आधुनिक मानव विकास की सीमाओं में निरंतर वृद्धि करता जा रहा है अन्य ग्रहों पर अपने निवास स्थान बनाने के प्रयास मैं दिन-रात जुड़ा हुआ है मैं इस आधुनिक मानव के विकास की गति का सम्मान करता हूं मैं उसके विकास की योग्यता को बड़े पुरस्कार का भागी समझता हूं पर एक सवाल जो मैं इस आधुनिक मानव से पूछना चाहता हूं क्या उसकी सफलता में जीवन छिपा है या फिर आगे भी यह संघर्ष जारी रहेगा इस संघर्ष का अंतिम बिंदु क्या होगा इसको कैसे पाना है क्या यह आधुनिक मानव के दिमाग से परे नहीं लगता।

 

अब तक के संवाद में आप शायद विचारों के दोराहे पर खड़े हैं आपको लगता है कि कुछ करना भी बेहतर नहीं है तो कुछ ना करना भी बेहतर नही है।दोराहे की जिंदगी के बीच में जीवन पीसकर दूरी अवस्था धारण कर लेता है पर जीवन का असली मकसद पूरे जीवन भर नहीं निकल पाता है

 

आओ इसे उदाहरण से समझते हैं एक सघन रेगिस्तान के मध्य में एक प्यासा व्यक्ति जो चलकर रेगिस्तान पार नहीं कर सकता रुक कर अपनी मौत का इंतजार नहीं कर सकता क्या रास्ता है उसके पास दोनों ही तरह से मौत निश्चित है जीने का कोई रास्ता है क्या ईश्वर को उसके प्राणों की रक्षा के लिए कुछ करना चाहिए इसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है पर यदि इसका जवाब," हा "मान लिया जाए तो उस सघन रेगिस्तान में ऐसे जीव जो रात्रि में जन्म लेते हैं सुबह बेहद गर्म वातावरण में अपने प्राणों को त्याग देते हैं उनके लिए भी ईश्वर को ऐसा ही करना आवश्यक लगता है यदि नहीं तो जीवन कि आपके शब्दों में क्या परिभाषा है?

 

जीवन की एक और सच्चाई से रूबरू कराता हूं आओ कुछ समय के लिए करोड़ों वर्ष पहले चलते हैं जहां से जीवन की उत्पत्ति का पहला अध्याय शुरू हुआ था उस प्रथम अध्याय को वैज्ञानिक रूप में यह माना जाता है कि वातावरण की सुलभता के अनुसार जीवों की उत्पत्ति हो पाई । जीव प्रारंभ मे जलीय क्षेत्र में उत्पन्न हुए। थोड़ा सा तारकिक क्षेत्र का सहारा लेते हुए मैं बताना चाहूंगा कि एक ही स्थान एक ही परिवेश ,एक ही वातावरण ,एक ही स्थिति, एक ही समय पर पैदा होने वाले जीवो में भिन्नताएं क्यों पाई गई।

 

थोड़ा इस प्रकार समझाया जाए कि उस प्राचीन समय के उस जलीय 1 किलोमीटर के दायरे में जीवों की उत्पत्ति में देखा जाए तो विभिन्न प्रकार के जीव जो कि समान वातावरण समान परिवेश के होते हुए भी अलग-अलग प्रजाति के पैदा हुए ऐसा क्यों उनमें भिन्नताएं क्यों पाई गयी यदि सभी परिस्थितियों मे समानता है तो उनके शारीरिक एवं जैविक निर्माण में समानताएं होनी चाहिए वर्तमान परिस्थिति के निर्माण में अगर सोचा जाए तो कुछ बह्यय परिस्थिति का हस्तक्षेप नजर आता है इस चीज को नकारा नहीं जा सकता पर ऐसा क्या है जो उस समय भी हस्तक्षेप कर रहा था क्या वह इस समय भी हस्तक्षेप कर रहा है यह एक बड़ा प्रश्न जीव धारियों के समक्ष प्रस्तुत होता है जिसका जवाब दे पाना जीव धारियों के मानसिक सोच से परे हैं


This article "जीवन की सच्चाई" is from Wikipedia. The list of its authors can be seen in its historical and/or the page Edithistory:जीवन की सच्चाई.



Read or create/edit this page in another language[सम्पादन]