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तराएन का युद्ध

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'पृथ्वीराजरासो' की कथा संक्षेप में इस प्रकार है : पृथ्वीराज जिस समय दिल्ली के सिंहासन पर था, कन्नौज के राजा जयचन्द ने राजसूय यज्ञ करने का निश्चय किया और इसी अवसर पर उसने अपनी कन्या संयोगिता का स्वयंवर भी करने का संकल्प किया। राजसूय का निमंत्रण उसने दूर दूर तक के राजाओं को भेजा और पृथ्वीराज को भी उसमें सम्मिलित होने के लिये आमंत्रित किया। पृथ्वीराज और उसके सामंतों को यह बात खली कि बहुवचनों के होते हुए भी कोई अन्य राजसूय यज्ञ करे और पृथ्वीराज ने जयचंद का निमंत्रण अस्वीकार कर दिया। जयचंद ने फिर भी राजसूय यज्ञ करना ठानकर यज्ञमंडप के द्वार पर द्वारपाल के रूप में पृथ्वीराज की एक प्रतिमा स्थापित कर दी। पृथ्वीराज स्वभावत: इस घटना से अपमान समझकर क्षुब्ध हुआ। इसी बीच उसे यह भी समाचार मिला कि जयचंद की कन्या संयोगिता ने पिता के वचनों की उपेक्षा कर पृथ्वीराज को ही पति रूप में वरण करने का संकल्प किया है और जयचंद ने इसपर क्रुद्ध होकर उसे अलग गंगातटवर्ती एक आवास में भिजवा दिया है।

इन समाचारों से संतप्त होकर वह राजधानी के बाहर आखेट में अपना समय किसी प्रकार बिता रहा था कि उसकी अनुपस्थिति से लाभ उठाकर उसके मंत्री कैवास ने उसकी एक करनाटी दासी से अनुचित संबंध कर लिया और एक दिन रात को उसके कक्ष में प्रविष्ट हो गया। पट्टराज्ञी को जब यह बात ज्ञात हुई, उसने पृथ्वीराज को तत्काल बुलवा भेजा और पृथ्वीराज रात को ही दो घड़ियों में राजभवन में आ गया। जब उसे उक्त दासी के कक्ष में कैवास को दिखाया गया, उसने रात्रि के अंधकार में ही उन्हें लक्ष्य करके बाण छोड़े। पहला बाण तो चूक गया किंतु दूसरे बाण के लगते ही कैंवास धराशायी हो गया। रातो रात दोनों को एक गड्ढे में गड़वाकर पृथ्वीराज आखेट पर चला गया, फिर दूसरे दिन राजधानी को लौटा। कैंवास की स्त्री ने चंद से अपने मृत पति का शव दिलाने की प्रार्थना की तो चंद ने पृथ्वीराज से यह निवेदन किया। पृथ्वीराज ने चंद का यह अनुरोध इस शर्त पर स्वीकार किया कि वह उसे अपने साथ ले जाकर कन्नौज दिखाएगा। दोनों मित्र कसकर गले मिलते ओर रोए। पृथ्वीराज ने कहा कि इस अपमानपूर्ण जीवन से मरण अच्छा था और उसके कविमित्र ने उसकी इस भावना का अनुमोदन किया। कैंवास का शव लेकर उसकी विधवा सती हो गई।

चंद के साथ थवाइत्त (तांबूलपात्रवाहक) के शेष में पृथ्वीराज ने कन्नौज के लिए प्रयाण किया। साथ में सौ वीर राजपूत सामंतों सैनिकों को भी उसने ले लिया। कन्नौज पहुँचकर जयचंद के दरबार में गया। जयचंद ने उसका बहुत सत्कार किया और उससे पृथ्वीराज के वय, रूप आदि के संबंध में पूछा। चंद ने उसका जैसा कुछ विवरण दिया, वह उसके अनुचर थवाइत्त में देखकर जयचंद कुछ सशंकित हुआ। शंकानिवारणार्थ उसने कवि को पान अर्पित कराने के बहाने अन्य दासियों के साथ एक दासी को बुलाया जो पहले पृथ्वीराज की सेवा में रह चुकी थी। उसने पृथ्वीराज को थ्वाइत्त के वेष में देखकर सिर ढँक लिया। किंतु किसी ने कहा कि चंद पृथ्वीराज का अभिन्न सखा था इसलिये दासी ने उसे देख सिर ढँक लिया और बात वहीं पर समाप्त हो गई। किंतु दूसरे दिन प्रात: काल जब जयचंद चंद के डेरे पर उससे मिलने गया, थवाइत्त को सिंहासन पर बैठा देखकर उसे पुन: शंका हुई। चंद ने बहाने करके उसकी शंका का निवारण करना चाहा और थवाइत्त से उसे पान अर्पित करने का कहा। पान देते हुए थवाइत्त वेशी पृथ्वीराज ने जो वक्र दृष्टि फेंकी, उससे जयचंद को भली भाँति निश्चय हो गया कि यह स्वयं पृथ्वीराज है और उसने पृथ्वीराज का सामना डटकर करने का आदेश निकाला।

इधर पृथ्वीराज नगर की परिक्रमा के लिये निकला। जब वह गंगा में मछलियों को मोती चुगा रहा था, संयोगिता ने एक दासी को उसको ठीक ठीक पहचानने तथा उसके पृथ्वीराज होने पर अपना (संयोगिता का) प्रेमनिवेदन करने के लिये भेजा। दासी ने जब यह निश्चय कर लिया कि वह पृथ्वीराज ही है, उसने संयोगिता का प्रणयनिवेदन किया। पृथ्वीराज तदनंतर संयोगिता से मिला और दोनों का उस गंगातटवर्ती आवास में पाणिग्रहण हुआ। उस समय वह वहाँ से चला आया किंतु अपने सामंतों के कहने पर वह पुन: जानकर संयोगिता का साथ लिवा लाया। जब उसने इस प्रका संयोगिता का अपहरण किया, चंद ने ललकाकर जयचंद से कहा कि उसका शत्रु पृथ्वीराज उसकी कन्या का वरण कर अब उससे दायज के रूप में युद्ध माँग रहा था। परिणामत: दोनों पक्षों में संघर्ष प्रारंभ हो गया।

दो दिनों के युद्ध में जब पृथ्वीराज के अनेक योद्धा मारे गए, सामंतों ने उसे युद्ध की विधा बदलने की सलाह दी। उन्होंने सुझाया कि वह संयोगिता को लेकर दिल्ली की ओर बढ़े और वे जयचंद की सेना को दिल्ली के मार्ग में आगे बढ़ने से रोकते रहें जब तक वह संयोगिता को लेकर दिल्ली न पहुँच जाए। पृथ्वीराज ने इस स्वीकार कर लिया और अनेक सामंतों तथा शूर वीरों यौद्धाओं की बलि ने अनंतर संयोगिता को लेकर दिल्ली गया। जयचंद अपनी सेना के साथ कन्नौज लौट गया।

दिल्ली पहुँचकर पृथ्वीराज संयोगिता के साथ, विलासमग्न हो गया। छह महीने तक आवास से बाहर निकला ही नहीं, जिसके परिणामस्वरूप उसके गुरु, बांधव, भत्य तथा लोक में उसके प्रति असंतोष उत्पन्न हो गया। प्रजा ने राजगुरु से कष्ट का निवेदन किया तो राजगुरु चंद को लेकर संयोगिता के आवास पर गया। दोनों ने मिलकर पृथ्वीराज को गोरी के आक्रमण की सूचिका पत्रिका भेजी और संदेशवाहिका दासी से कहला भेजा : 'गोरी रत्ततुअधरा तू गोरी अनुरत्त।' राजा की विलासनिद्रा भंग हुई और वह संयोगिता से विदा होकर युद्ध के लिये निकल पड़ा।

शहाबुद्दीन इस बार बड़ी भारी सेना लेकर आया हुआ था। पृथ्वीराज के अनेक शूर योद्धा और सामंत कन्नोज युद्ध में ही मारे जा चुके थे। परिणामत: पृथ्वीराज की सेना रणक्षेत्र से लौट पड़ी और शाहबुद्दीन विजयी हुआ। पृथ्वीराज बंदी किया गया और गजनी ले जाया गया। वहाँ पर कुछ दिनों बाद शहाबुद्दीन ने उसकी आँखें निकलवा लीं।

जब चंद पृथ्वीराज के कष्टों का समाचार मिला, वह गजनी अपने मित्र तथा स्वामी के उद्धार के लिये अवधूत के वेष में चल पड़ा। वह शहाबुद्दीन से मिला। वहाँ जाने का कारण पूछने पर उसने बताया कि अब वह बदरिकाश्रम जाकर तप करना चाहता था किंतु एक साध उसके जी में शेष थी, इसलिये वह अभी वहाँ नहीं गया था। उसने पृथ्वीराज के साथ जन्म ग्रहण किया था और वे बचपन में साथ साथ ही खेले कूदे थे। उसी समय पृथ्वीराज ने उससे कहा था कि वह सिंगिनी के द्वारा बिना फल के बाध से ही सात घड़ियालों को एक साथ बेध सकता था। उसका यह कौशल वह नहीं देख सका था और अब देखकर अपनी वह साध पूरी करना चाहता था। गोरी ने कहा कि वह तो अंधा किया जा चुका है। चंद ने कहा कि वह फिर भी वैसा संधानकौशल दिखा सकता है, उसे यह विश्वास था। शहाबुद्दीन ने उसकी यह माँग स्वीकार कर ली और तत्संबंधी सारा आयोजन कराया। चंद के प्रोत्साहित करने पर जीवन से निराश पृथ्वीराज ने भी अपना संघान कौशल दिखाने के बहाने शत्रु के वध करने का उसका आग्रह स्वीकार कर लिया। पृथ्वीराज से स्वीकृति लेकर चंद शहाबुद्दीन के पास गया और कहा कि वह लक्ष्यवेध तभी करने को तैयार हुआ है जब वह (शहाबुद्दीन) स्वयं अपने मुख से उसे तीन बार लक्षवेध करने का आह्वाहन करे। शहाबुद्दीन ने इसे भी स्वीकार कर लिया1 शाह ने दो फर्मान दिए, फिर तीसरा उसने ज्यों ही दिया पृथ्वीराज के बाण से विद्ध होकर वह धराशायी हुआ। पृथ्वीराज का भी अंत हुआ। देवताओं ने उस पर पुष्पवृष्टि की और पृथ्वी ने म्लेच्छा गोरी से त्राण पाकर हर्ष प्रकट किया।

यहाँ पर 'पृथ्वीराजरासो' की कथा समाप्त होती है।


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