दलित मनोविज्ञान
दलित मनोविज्ञान[सम्पादन]
“...दुनिया ऐसी है जिसमें स्त्रियों से अधिक मर्दों पर, बच्चों से अधिक प्रोढ़ों पर, पारम्पारिक और जंगली से अधिक आधुनिक या प्रगतिशील पर, अऐतिहासिक से अधिक ऐतिहासिक पर, अमानव और लघुमानव से ज्यादा मानव की पूर्ण श्रेष्ठता में विश्वास रखा जाता है.”[१] दलितों का दमन कोई नई परिघटना नहीं है, और इसपर पहली बार नहीं लिखा जा रहा है। दलितों के सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, व्यावसायिक आदि प्रकार के दमन का परिणाम उनके अवचेतन को बना रहा है, और इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण कारक जिसकी ओर दलित सिद्धांतकारों की नजर कम ही गई वह है मनोविज्ञान. बुल्हान ए. एच. अपनी किताब Frantz Fanon and Psychology of oppression में लिखते है कि मनोविज्ञान ने समाज को समझने के विपरीत समाजिक दमन में सक्रीय भागीदारी निभाते हुए अपने भरपूर विशेषाधिकारों से शांतिपूर्ण तरीके से लाभ प्राप्त किए हैं। [२] फ्रान्त्ज़ फानों इस मामले की गुत्थी थोड़ी सुलझाते हैं, और इस लिए उन्होंने कृष्णवर्णीय के पक्ष में मुख्यधारा के मनोविज्ञान को नकारते हुए, उनके लिए अलग मनोविज्ञान एवं फ्रायड के मनोविश्लेषण से अलग मनोविश्लेषण की मांग की। भारतीय दलितों में ऐसी कोई मांग उठती नजर नहीं आती इसका मतलब ही है कि भारतीय दलित चिन्तक या तो मनोविज्ञान की ताकत को नहीं जानते या फिर अब तक इन्हें इससे अलग-थलग रखा गया है। फ्रान्त्ज़ फानों से प्रेरित आशीष नंदी भारतीय सन्दर्भ में उपनिवेश काल को रेखांकित करते हुए उपनिवेशिक मानसिकता का राजनैतिक मनोविज्ञान समझाने की कोशिश द इंटिमेट एनिमी (१९८३) में करते हैं, किन्तु इसमें भी वह केवल अंग्रेजी शासन तक के समय का ही विश्लेषण शामिल कर पाते है। भारतीय दलितों के लिए यह इसलिए बेबुनियादी हो जाता है क्यों कि इसमें उनके पूरे समग्र चेतन एवं अवचेतन की समालोचना नहीं हो पाती. फानों के अनुसार दुनिया में एक तबका हर समय में अपने आपको बाकी से अलग एवं उच्च दर्शाने के लिए अन्य तबकों को दबाता आ रहा है। इन दमितों में महिला, बच्चे, बूढ़े, अपाहिज, को प्राकृतिक रूप से भेद्यतापूर्ण (Vulnereble) के रूप में रेखांकित किया जाता है, और वर्गीय दमन में मालिक और गुलाम, गौरवर्णीय और कृष्णवर्णीय, सामंत और दास, आदि को देखा जाता है। हालांकि वैश्विक धरातल पर दमन प्रत्येक देश-काल में देखा जाता है, इसमें गुलामी प्रथा भी महत्त्वपूर्ण थी। परन्तु भारत के सन्दर्भ में यह बिलकुल अलग है। क्योंकि भारत में दमन के महामारी की शुरुआत वर्ण व्यवस्था से शुरू होती है और जाति व्यवस्था उसे और भी ज्यादा मजबूत बना देती है। कर्मकांडों की गिरफ्त से गैरदलितों ने दलितों के ऊपर जो अत्याचार किए वह सब आज भी दलितों के अवचेतन में भरे पड़े हैं। इसलिए आज भी जन्म के साथ पूर्वजों से जो ‘सामूहिक स्मृति‘ प्राप्त होती है, उससे वह उसे प्राप्त कर लेते हैं। समाजीकरण के साथ-साथ उस दमन में और इजाफा होते रहता है। इसका साफ़ मतलब है कि विश्व में अन्य जगहों पर ज्यादातर ‘एक तरह’ (one fold) का दमन दिखता है, किन्तु भारत में जो दलित है वह ‘दोहरे दमन’ (Two fold) का शिकार है। सही मायने में दलित और दमन में अंतर करना हो तो इसी आधार पर किया जा सकता है कि जो एक बार किसी व्यवस्था से दबाया जाता है वह दमित होता है और जो बार-बार न चाहते हुए भी ऐसी कई सारी व्यवस्थाओं से दमित होता है वह दलित कहलाता है। इस आलेख में इसी दमन की महामारी का विश्लेषण किया जाएगा. दलितों के दमन की सूचि इतनी बड़ी है कि इसे केवल दोहरा दमन कहना भी एक तरह से अन्याय ही होगा। फिर भी अकादमिक तौर पर बात रखने के लिए इसे दो भागों में वर्गीकृत कर समझा जा सकता है। दलितों पर पहला दबाव है मनुष्य बनने का और दुसरे में सभ्यता के साथ चलने का दबाव है। परन्तु लगातार दलितों के मनुष्यत्व को नकारा जाता है और साथ ही सभ्यता के अनुरूप संस्कृति से भी बाहर खदेड़ दिया जाता रहा है, इसलिए दलित गैरदलितों के इस दोहरे दमन का सदा से शिकार रहे है। इसी दमन की संस्कृति और इससे बनने वाले दलितों के संयुक्त अवचेतन पर इस आलेख में चर्चा की जाएगी. इस आलेख में भारतीय दलितों के दोहरे दमन को समझने के लिए अंग्रेजी शासन पुर्व समय को मनुष्य बने रहने का दबाव के रूप में व्याख्यायित किया गया है। लेखक का मानना है कि अंग्रेजों के आने से पूर्व दलितों का जिस तरह से दमन शुरू थाउसमें मुख्यत: सेवक बानाए रखने तक सिमित था। अंग्रजों के आने के बाद व्हाईट कॉलर दबाव ने भारतीय जनमानस को सभ्यता के प्रति सजग किया जिसमें अपना अस्तित्व बनाने की कोशिश सबने की और लगातार करते आ रहें हैं। पहले दबाव से मुक्ति मिली नहीं थी की दुसरे दबाव ने दलितों को और दबा दिया। मनुष्य बने रहने का दबाव आर्यों के आगमन से दलितों को लगातार कई सारी व्यवस्थाओं का निर्माण कर मनुष्य बनने से रोका गया है, प्रत्येक बार नयी तिकड़म बिछा कर गैरदलित जनमानस ने इनके मनुष्य होने पर सवाल उठाये हैं। भारतीय साहित्य में इसके कई सारे साक्ष्य मिलते हैं जिसमें दलितों का जानबूझकर अमानवीयकरण किया गया है। नाम बदल गए, प्रक्रिया बदली लेकिन शोषित वही रहे, इसका उदाहरण है यह पक्तियां जो हर बार दलितों को जानवरों के समक्ष लाकर खड़ी कर देती है; ढोर शुद्र पशु और नारी सब है ताडन के अधिकारी.इस तरह के हजारों मिथकों से भरा पड़ा है पूरा गैरदलित साहित्य. ऐसे मिथकों के सन्दर्भ में पाओलो फ्रेरे अपनी किताब पेड्गोजी ऑफ़ ओप्रेस्ड में लिखते है, व्यक्ति स्वतंत्रता से डरता है, फ्रेरे के अनुसार वह ‘स्वतंत्रता का डर’ होता है, इसलिए वह मिथक गढ़ता है जिससे संकीर्णवाद (Sectarianism) पैदा होता है चूँकि संकीर्णतावाद मिथक गढ़ता है और यहीं से अविवेक पैदा होता है और फिर यह यथार्थ को एक मिथ्या (अपरिवर्तनीय) ‘यथार्थ’ में बदल देता है। फ्रेरे का मानना है कि ‘संकीर्णतावाद, जो मतांधता पर पलता है,हमेशा नपुंसक बनाता है.[३] इस पूरी प्रक्रिया में देखे तो भारतीय दलितों के साथ भी प्राचीन काल से यही हो रहा है, उनकी स्वतंत्रता को अमान्य कर, मिथक गढ़ते हुए उन्हें नपुंसक बनाया गया. ताकि वह सवतंत्र होने से भी डरे. यही डर उनमें दलितत्व को ज़िंदा रखता है. फ्रेरे उत्पीडित की पांच विशेषताओं पर चर्चा करते है जिसमें, आत्म अवमूल्यन (सेल्फ-डेप्रिसिएशन), भाग्यवादी, निष्क्रियता, पराधीनता एवं एरिक फ्राम के हवाले शवकामी व्यवहार महत्वपूर्ण हैं [४]. यह पांचो विशेषताएं दलितों के निर्धारण में खरी उतरती है. इन विशेषताओं के आधार पर दुनिया का कोई भी विज्ञान ऐसे प्राणी को मनुष्य होने का अधिकार नहीं देगा. वर्ण-व्यवस्था में दलित केवल वस्तु बनकर रह गए, सारे कानून-नियम उच्च वर्णों के हातो में थे. वे सब कुछ जानते थे और दलित कुछ भी नहीं, वे सोचते थे और दलितों के बारे में सोचा जाता था, वे अनुशासन लागू करनेवाले थे और दलित अनुशासित होनेवाले, वे अपनी मर्जी के मालिक है और दलितों को उनके मर्जी के अनुसार चलना पड़ता है, वे सबकुछ प्राप्त कर सकते हैं और दलितों को इस प्राप्ति का भय और भ्रम दोनों दिखाए जाएंगे, इनके पास वह सारे अधिकार थे जिन्हें दलितों के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता हो. इस पूरी प्रक्रिया को लागू करने के लिए पवित्रता की आड़ में दलितों के मनुष्यत्व को नकारा जाता रहा, जोकि उनका पृकृति से से प्रदत्त अधिकार था. सभ्यता में समायोजित होने का दबाव प्रबोधन के पश्चात यूरोपीय राष्ट्रों के ओपनिवेशिक लालच का शिकार भारत भी बना. अंग्रेजों के आने के पश्चात भारत का देशज ज्ञान तितर-बितर हो गया और अंग्रेजों ने अपने व्हाईट कॉलर बर्डन के तले भारतीयों को सभ्यता के एक नए फ्रेम में जकड़ना शुरू किया आशीष नंदी जो एक राजनीतिक मनोवैज्ञानिक है, के अनुसार इसकी “शुरुआत १७५७ के प्लासी की हार से होती है और इसका अंत १९४७ में अंग्रेजों के हातो भारत के स्वाधीनता प्राप्ति पर होता है.” [५] अंगेजों द्वारा लादी गयी नयी सभ्यता में दलितों को लगा की अब मुक्ति का मार्ग खुलेगा, जाति और वर्ण व्यवस्था के बंधन टूटेंगे इस धारणा से ज्यादातर समाज सुधारकों ने ओपनिवेशिक काल में सामाजिक सुधार की मांग के लिए आन्दोलन किए जिसमें फुले, शाहू, पेरियार, आंबेडकर आदि अग्रणी थे। लेकिन हिंदुत्व के नाम पर कभी तिलक ने, सर्वसमावेशकता के नाम पर गांधी ने इस आंदोलन को मोड़ने की कोशिश की। इस समय में दलित नामांतरण धर्मांतरण के प्रक्रिया में व्यस्त रहे और अंत में आरक्षण और संविधानिक सुरक्षा तक सिमित रहे। बाकी जस के तस रहा लोकतंत्र में लिखित स्वातंत्र के अलावे व्यवहार में रूढिवादिता बनी रही। केवल दमन के तरीकों में बदलाव आया। इस समय को समझने के लिए हमारे पास दो प्रमुख टेक्स्ट है पहला फ्रान्त्ज़ फानों का ब्लैक स्किन व्हाईट मास्क (१९५२) जिसमें उसने कृष्ण वर्णीय के दमन की बात की है। दुसरा टेक्स्ट भारत के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण है जिसे आशीष नंदी ने द इंटिमेट एनिमी (१९८३) के नाम से लिखा है। फ्रान्त्ज़ फानों ब्लैक स्किन व्हाईट मास्क में कृष्णवर्णीयों के दमन की बात करते हैं, उसमें वह जिस मालिक और गुलाम की बात करते है। उसकी मानसिकता की बात करते हुए कहते है कि ब्लैक मैन कौन है? और जवाब देते हैं कि ब्लैक मैन वह है जिसमें हीनता की एक मनोग्रंथि होती है और वह दोहरे प्रक्रिया से बनता है जिसमें दो कारक महत्त्वपूर्ण है पहला, आर्थिक और दुसरा, आत्मसातीकरण, इस पूरी प्रक्रिया को वह एक शब्द गढ़ते है Epidermalization जिसका अर्थ है, सामाजिक-आर्थिक असमानता पर आधारित एक हीनतापूर्ण मनोग्रंथि और जिसकी इच्छा है कि ‘गोरों की दौड़’ में शामिल हो। [६] दूसरी और आशीष नंदी इसे विकृत राजनैतिक-अर्थशास्त्र के उत्पाद मानते है जो ओपनिवेशवाद के बाद के अर्थतंत्र में स्थापित हुए हैं, इस प्रक्रिया में भी दलित ओपनिवेशवादी मानसिकता के अलावा जाति व्यवस्था के अनवरत प्रभुत्व (Perpetual domination) के नीचे दबा पड़ा था। उसे इस ढूढ में शामिल भी होना है और उस जाति के अनवरत प्रभुत्व को नकारना भी है जो उनके मनुष्य होने पर सवाल करती है। इस दमन के महामारी विज्ञान को सुलझना और भी कठिन होता है जब वैश्विक धरातल पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बी. एफ. स्किनर का आगमन होता है, जो व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इसने अमेरिकन सरकार पर सवाल उठाया और अपनी किताब वाल्डेन टू में बताया कि अमेरिका जितना खर्च वेलफेयर, शिक्षा, डिफेन्स, स्वास्थ्य आदि पर कर रही है यह सब गैरजरूरी है और इसपर जितने विभाग चल रहें है कितने लोग काम कर रहे हैं और बडी मात्र में बजट भी खर्च हो रहा है। निर्णय प्रक्रिया में सामान्य बोध या बुद्धि के बदले ज्ञान स्थानापन्न नहीं होगा। ("knowledge is no substitute for wisdom or common sense in making decisions.")[७] इससे बचने के लिए उनका कहना था कि निति निर्माताओं के समिति में बीहेवरियल सायन्स के भी सदस्य हो, उन्होंने यह संभावना जताई, लिखते है “मैं सुझाव दूंगा कि यह सब हम कर सकते है और वह भी इसके बिना.”(Am I suggesting that we can get along without that?)[८] “क्या जरुरी है एक राजनैतिक नेता या एक नई तरह की सरकार, नहीं है लेकिन, आगे जरुरी है मानव व्यवहार का ज्ञान और उस ज्ञान के सांस्कृतिक व्यवहारकुशलता के प्रारूप को लागू करने के नए तरीके.”[९] यह वह तरीके हैं जिससे मानवी मन पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है, और मानवी मन पर नियंत्रण ही विजय का सबसे बड़ा हतियार है। इस नियंत्रित माहोल से भारत भी बच नहीं पाया और उसने अपने कल्याणकारी राज्य के दायित्व से हाथ खींचने शुरू किए ऐसे में दलितों के मुक्ति के मार्ग में बड़ी बाधा पैदा हो गयी है। संज्ञानात्मक विज्ञान एवं बीहेवरियल सायन्स के जमाने में दलितों का मुक्ति का वह अधजला स्वप्न जो पूना पैक्ट की तरह जल रहा है। तब सवाल उठता है कि इतने दबे कुचले लोगों का मानस्य कैसा होगा, कैसा होगा इनका अवचेतन जिसमें वह सारी बर्बरताएं और शर्मनाक व्यवहार भरा पड़ा है, हजारों सालों से इनका मन इस अवचेतन से मुक्ति की लड़ाई लड़ रहा है। समय के अनुसार मुक्तिदाता बदल गए लेकिन लड़ाई वही है जहां से शुरू हुयी थी। कभी वह आर्यों के खिलाफ द्राविड बनकर, कर्मकांडों के खिलाफ बुद्ध बनकर, शान्ति के लिए सम्राट अशोक बनकर प्रतिकार शुरू है। तो कभी फुले, शाहू, आंबेडकर, पेरियार के रूप में दलितों का प्रतिकार शुरू रहा है। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा की भारतीय दलित दोहरे दमन का संयुक्त अवचेतन हैं, इसे अभी इतिहास पुनर्लेखन के माध्यम से निजात दिलाने की कोशिश की जा रही है, लेकिन उसमें भी केवल प्रतिष्ठा ही प्राप्त होगी न की मुक्ति.
निष्कर्ष वैश्विक धरातल पर किसी भी समय के गुलाम, दास, सेवको, के साथ तुलना करे तो वह दोहरी प्रक्रिया से हीन होते हैं, किन्तु भारतीय दलितों की हीनता तीहरे प्रक्रिया से बनती है, समाजिक-आर्थिक असमानता, और आत्मसातीकरण के अलावे जन्म/जाति भी दलितों के स्व निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसलिए भारतीय दलित तीहरे प्रक्रिया से दबते है, और इनका अवचेतन इसी तिहरे दमन से ही बनता है। इसके अलावे सभ्य समाज में सभ्य बनने की पूरी प्रक्रिया का दबाव भी इन पर हावी होता ही है। दलित अगर मुक्ति चाहते हैं तो वह गैरदलित न्याय के आधार पर ही मिलेगी और दलित जानते है कि इसके लिए उनको कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ेगी. क्योंकि उनके पास ऐसा कुछ है ही नहीं, अगर कीमत चुकानी पड़ेगी तो वह गैरदलितों को ही चुकानी पड़ेगी इसलिए गैरदलित नहीं चाहेंगे की दलित को मुक्ति मिले और इसलिए जरूरी है कि इन्हें इस मुक्तिगामी मार्ग से हटाया जाए, दलितों में मूल्य भरा जाए ताकि जब न्याय की बारी आए तो इनके पास भी कुछ हो जिसके लिए दलितों को कीमत चुकानी चुकानी पड़े. वैश्वीकरण के माहोल ऐसे ही नहीं कोई आपको मुक्ति के मार्ग पर चलने देगा, कोई चीज अगर ऐसे ही मिल रही है तो खतरा और भी बढ़ जाता है, क्योंकि पूरा विश्व ही नियंत्रित है। ऐसे में अगर दलित यह समझ रहे है कि लोकतंत्र में हमें बाबासाहब के कारण संगठित होने की शक्ति, संघर्ष की जमीन और शिक्षा मिल रही है तो यह केवल भ्रम ही होगा। इस भ्रम को समझना है तो इस पूरी व्यवस्था को समझना होगा और इस व्यवस्था को समझना है, तो वर्तमान के राजनैतिक मनोविज्ञान को समझना होगा, उस पूरे वातावरण को समझना होगा जिससे दलितों का ‘मानस्य’ बन रहा है। ‘बिहेवारियल इंजीनियरिग’ के समय में तो इसपर सवाल भी करना होगा कि यह कहीं मैन्युफ्रेक्चर तो नहीं किया जा रहा, क्योंकि यह दमन का महामारी विज्ञान (Epidemiology of Oppression ) हैऔर इसे बड़े ही व्यवस्थित ढंग से लागू किया जा रहा है। आंबेडकर विचारों के अनुसार उपनिवेशिक समय में इस वर्ग ने इस दमन के खिलाफ आवाज उठायी और खुद आंबेडकर ने ही इसका नेतृत्व किया था। उनके बाद राजनैतिक रूप से दलितों को कभी एकत्रित होने नहीं दिया गया। बौद्धिक स्तर पर भले ही बात आंबेडकर से शुरू होती हो लेकिन फिर वह व्यवहार में आकर कहीं गुम हो जाती है। और यह लगातार हो रहा है। सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? दलितों ने वह सब कुछ प्राप्त करने की कोशिश की जिससे प्रतिष्ठा प्राप्त होनी चाहिए फिर भी गिने-चुने लोगों के अलावा कोई सफलता नहीं दिखती, ‘संस्कृतिकरण’ के दौर से गुजरकने वालों को दलित ब्राम्हण कहा जाता है। और हाल में देखा जाए तो दलित विचारधारा को लेकर आर्मचेयर फिलोसोफर और अकादमिक थ्योरीस्टों की बाढ़ सी आ गयी है, लेकिन जमीनी स्तर पर कमोबेश पारम्पारिक परिदृश्य ही देखने को मिलता है, जिसमें दलितों का दमन निश्चित है।
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