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देवधर धाम

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Jai Maa Durgaदेवसर धाम मंदिर का इतिहास

Jai Maa Durgaदेवसर धाम मंदिर का इतिहास

कहा जाता है कि करीब आठ सौ साल पहले पहाड़ी के पास से एक बंजारा जब अपनी गायें लेकर जा रहा था तो उसकी गऊएं कहीं खो गई। रात को सपने में उसे देवी मां ने दर्शन दिए और कहा कि पहाड़ी पर दबी प्रतिमा को स्थापित करवाया जाए तो उसकी गाएं मिल जाएंगी। बंजारे ने ऐसा ही किया तथा उसकी सभी गऊएं भी मिल गई। तब से माता की वह प्रतिमा मंदिर में ही है। .ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः अनुष्टप् छन्दः, श्रीमह्मकाली महालक्ष्मी महासरस्वत्यो देवताः, श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः। सती, चंद्रघंटा, अभव्या, पट्टाम्बरपरिधाना, वैष्णवी, निशुंभशुंभहननी, कैशोरी, कालरात्रि, साध्वी, महातपा, सदागति, कलमंजरीरंजिनी, चामुंडा, महिषासुरमर्दिनी, युवती, तपस्विनी, भवप्रीता, बुद्धि, शाम्भवी, अमेयविक्रमा, वाराही, मधुकैटभहंत्री, यति, नारायणी, भवानी, अहंकारा, देवमाता, क्रूरा, लक्ष्मी, चंडमुंडविनाशिनी, अप्रौढ़ा, भद्रकाली, भवमोचनी, चित्तरूपा, चिंता, सुन्दरी, पुरुषाकृति, सर्वसुरविनाशा, प्रौढ़ा, विष्णुमाया, आर्या, चिता, रत्नप्रिया, सुरसुन्दरी, विमला, सर्वदानवघातिनी, वृद्धमाता, जलोदरी, दुर्गा, चिति, सर्वविद्या, वनदुर्गा, उत्कर्षिनी, ज्ञाना, सर्वशास्त्रमयी, बलप्रदा, शिवदुती, जया, सर्वमंत्रमयी, दक्षकन्या, मातंगी, क्रिया, सत्या, महोदरी, कराली, आद्या, सत्ता, दक्षयज्ञविनाशिनी, मतंगमुनिपूजिता, नित्या, सर्वास्त्रधारिनी, मुक्तकेशी, अनंता, त्रिनेत्रा, सत्यानंदस्वरुपिणी, अपर्णा, ब्राह्मी, बुद्धिदा, अनेकशस्त्रहस्ता, घोररूपा परमेश्वरी, शूलधारिणी अनंता, अनेकवर्णा, माहेश्वरी, बहुला, अनेकास्त्रधारिनी, महाबला, कात्यायनी, पिनाकधारिणी, भाविनी, पाटला, एंद्री, बहुलप्रिया, कुमारी, अग्निज्वाला, सावित्री, चित्रा, भव्या, पाटलावती, कौमारी, सर्ववाहनवाहना, एककन्या, रौद्रमुखी, प्रत्यक्षा, ब्रह्मावादिनी।

ब्रह्माजी ने कहा ॥७२॥ देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा, तुम्हीं वषट्कार (पवित्र आहुति मन्त्र) हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हीं जीवदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार - इन तीन अक्षरों के रूप में तुम्ही स्थित हो ॥७३॥ तथा इन तीन अक्षरों के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेषरूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्ही हो। तुम्हीं सन्ध्या, तुम्हीं सावित्री (ऋकवेदोक्त पवित्र सावित्री मन्त्र), तुम्हीं समस्त देवीदेवताओं की जननी हो। (पाठान्तर : तुम्हीं सन्ध्या, तुम्हीं सावित्री, तुम्हीं वेद, तुम्हीं आदि जननी हो) ॥७४॥ तुम्हीं इस विश्व ब्रह्माण्ड को धारण करती हो, तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती है। तुम्हीं सबका पालनहार हो, और सदा तुम्ही कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। ॥७५॥ हे जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो और पालनकाल में स्थितिरूपा हो। हे जगन्मयी माँ! तुम कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो।॥७६॥ तुम्हीं महाविद्या, तुम्हीं महामाया, तुम्हीं महामेधा, तुम्हीं महास्मृति हो तुम्हीं महामोहरूपा, महारूपा तथा महासुरी हो। ॥७७॥ तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। ॥७८॥ तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्री और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। ॥७९॥ तुम खड्गधारिणी, घोर शूलधारिणी, तथा गदा और चक्र धारण करने वाली हो। तुम शंख धारण करने वाली, धनुष-वाण धारण करने वाली, तथा परिघ नामक अस्त्र धारण करती हो। ॥८०॥ तुम सौम्य और सौम्यतर हो। इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य और सुन्दर पदार्थ हैं उन सबकी अपेक्षा तुम अधिक सुन्दर हो। पर और अपर - सबसे अलग रहने वाली परमेश्वरी तुम्हीं हो। ॥८१॥ सर्वस्वरूपे देवि ! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उनकी सबकी जो शक्ति है, वह भी तुम्हीं हो ऐसी स्थिति में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है?॥८२॥ जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं उन भगवान को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में कौन समर्थ हो सकता है? ॥८३॥ मुझको, भगवान विष्णु को और भगवान शंकर को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है। अतः तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है?॥८४॥ देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो।। ये जो दो दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इन दोनों को मोह लो। ॥८५॥ जगत के स्वामी भगवान विष्णु को शीघ्र जगा दो। तथा इनके भीतर इन दोनों असुरों का वध करने की बुद्धि उत्पन्न कर दो। ॥८६॥ नवार्ण मंत्र:॥ॐ एं ह्रीं क्लीं चामुडायै विच्चे॥

जब सम्पूर्ण जगत् जलमग्न था और भगवान विष्णु शेषनाग की शय्या बिछाकर योगनिद्रा का आश्रय ले सो रहे थे, उस समय उनके कानों के मैल से मधु और कैटभ दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए। वे दोनों ब्रह्माजी का वध करने को तैयार हो गये। भगवान विष्णु के नाभिकमल में विराजमान प्रजापति ब्रह्माजी ने जब उन दोनों भयानक असुरों को अपने पास आया और भगवान को सोया हुआ देखा, तब एकाग्रचित्त होकर उन्होंने भगवान विष्णु को जगाने के लिये उनके नेत्रों में निवास करनेवाली योगनिद्रा का स्तवन आरम्भ किया। जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत् को धारण करनेवाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेज:स्वरूप भगवान विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रादेवी की भगवान ब्रह्मा स्तुति करने लगे। ब्रह्माजी ने कहा- देवि! तुम्हीं इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाली हो। तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो। देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो। तुम्हीं इस विश्व-ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत् की सृष्टि होती है। तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। जगन्मयी देवि! इस जगत् की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन-काल में स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करनेवाली हो। तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो। तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करनेवाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्री और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करनेवाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ- ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं। तुम सौम्य और सौम्यतर हो-इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो। पर और अपर-सबके परे रहनेवाली परमेश्वरी तुम्हीं हो। सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्-असत्रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो। ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? जो इस जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है? मुझको, भगवान शंकर को तथा भगवान विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है; अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है? देवि! ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोह में डाल दो और जगदीश्वर भगवान विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो। इस प्रकार स्तुति करने पर तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा भगवान के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्ष:स्थल से निकलकर ब्रह्माजी के समक्ष उपस्थित हो गयीं। योगनिद्रा से मुक्त होने पर भगवान जनार्दन उस एकार्णव के जल में शेषनाग की शय्या से जाग उठे। उन्होंने दोनों पराक्रमी असुरों को देखा जो लाल आँखें किये ब्रह्माजी को खा जाने का उद्योग कर रहे थे। तब भगवान श्रीहरि ने दोनों के साथ पाँच हजार वर्षो तक केवल बाहुयुद्ध किया। इसके बाद महामाया ने जब दोनों असुरों को मोह में डाल दिया तो वे बलोन्मत्त होकर भगवान से ही वर माँगने को कहा। भगवान ने कहा कि यदि मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरे हाथों मारे जाओ। असुरों ने कहा जहाँ पृथ्वी जल में डूबी न हो, वहीं हमारा वध करो। तब भगवान ने तथास्तु कहकर दोनों के मस्तकों को अपनी जाँघ पर रख लिया तथा चक्र से काट डाला। इस प्रकार देवी महामाया (महाकाली) ब्रह्माजी की स्तुति करने पर प्रकट हुई। कमलजन्मा ब्रह्माजी

दस महाविद्याएँ • काली,तारा,छिन्नमस्ता,षोडशी,भुवनेश्वरी,त्रिपुरभैरवी,धूमावती,बगलामुखी,मातंगी,कमला • ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा। ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥ ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा • ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः। ॐ नमः परमात्मने, श्रीपुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तैकदेशे पुण्यप्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने यथानामसंवत्सरे अमुकामने महामांगल्यप्रदे मासानाम् उत्तमे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरान्वितायाम् अमुकनक्षत्रे अमुकराशिस्थिते सूर्ये अमुकामुकराशिस्थितेषु चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रशनिषु सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेषणविशिष्टायां शुभ पुण्यतिथौ सकलशास्त्र श्रुति स्मृति पुराणोक्त फलप्राप्तिकामः अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुक नाम अहं ममात्मनः सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रहकृतराजकृतसर्व-विधपीडानिवृत्तिपूर्वकं नैरुज्यदीर्घायुः पुष्टिधनधान्यसमृद्ध्यर्थं श्री नवदुर्गाप्रसादेन सर्वापन्निवृत्तिसर्वाभीष्टफलावाप्तिधर्मार्थ- काममोक्षचतुर्विधपुरुषार्थसिद्धिद्वारा श्रीमहाकाली-महालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताप्रीत्यर्थं शापोद्धारपुरस्परं कवचार्गलाकीलकपाठ- वेदतन्त्रोक्त रात्रिसूक्त पाठ देव्यथर्वशीर्ष पाठन्यास विधि सहित नवार्णजप सप्तशतीन्यास- धन्यानसहितचरित्रसम्बन्धिविनियोगन्यासध्यानपूर्वकं च 'मार्कण्डेय उवाच॥ सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः।' इत्याद्यारभ्य 'सावर्णिर्भविता मनुः' इत्यन्तं दुर्गासप्तशतीपाठं तदन्ते न्यासविधिसहितनवार्णमन्त्रजपं वेदतन्त्रोक्तदेवीसूक्तपाठं रहस्यत्रयपठनं शापोद्धारादिकं च किरष्ये/करिष्यामि। • 'ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशागुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा' (07) • ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।' (21) • 'ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।' (108) • ॐ अस्य श्रीचण्डिकाया ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापविमोचनमन्त्रस्य वसिष्ठ-नारदसंवादसामवेदाधिपतिब्रह्माण ऋषयः सर्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गा देवता चरित्रत्रयं बीजं ह्री शक्तिः त्रिगुणात्मस्वरूपचण्डिकाशापविमुक्तौ मम संकल्पितकार्यसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः। • ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, चामुण्डा देवता, अंगन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठांगत्वेन जपे विनियोगः। द्वारा स्तवित महाकाली अपने दस हाथों में खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, मस्तक और शंख धारण करती हैं। त्रिनेत्रा भगवती के समस्त अंग दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं। पहली शैलपुत्री कहलावे ! दूसरी ब्रह्मचरिणी मन भावे !! तीसरी चंद्रघंटा शुभ नाम ! चौथी कुश्मांड़ा सुखधाम !! पांचवी देवी अस्कंद माता ! छटी कात्यायनी विख्याता !! सातवी कालरात्रि महामाया ! आठवी महागौरी जग जाया !! नौवी सिद्धिरात्रि जग जाने ! नव दुर्गा के नाम बखाने !! महासंकट में बन में रण में ! रुप होई उपजे निज तन में !! महाविपत्ति में व्योवहार में ! मान चाहे जो राज दरबार में !! शक्ति कवच को सुने सुनाये ! मन कामना सिद्धी नर पाए !! चामुंडा है प्रेत पर, वैष्णवी गरुड़ सवार ! बैल चढी महेश्वरी, हाथ लिए हथियार !! कहो जय जय जय महारानी की ! जय दुर्गा अष्ट भवानी की !! हंस सवारी वारही की ! मोर चढी दुर्गा कुमारी !! लक्ष्मी देवी कमल असीना ! ब्रह्मी हंस चढी ले वीणा !! ईश्वरी सदा बैल सवारी ! भक्तन की करती रखवारी !! शंख चक्र शक्ति त्रिशुला ! हल मूसल कर कमल के फ़ूला !! दैत्य नाश करने के कारन ! रुप अनेक किन्हें धारण !! बार बार मैं सीस नवाऊं ! जगदम्बे के गुण को गाऊँ !! कष्ट निवारण बलशाली माँ ! दुष्ट संहारण महाकाली माँ !! कोटी कोटी माता प्रणाम ! पूरण की जो मेरे काम !! दया करो बलशालिनी, दास के कष्ट मिटाओ ! चमन की रक्षा को सदा, सिंह चढी माँ आओ !! कहो जय जय जय महारानी की ! जय दुर्गा अष्ट भवानी की !! अग्नि से अग्नि देवता ! पूरब दिशा में येंदरी !! दक्षिण में वाराही मेरी ! नैविधी में खडग धारिणी !! वायु से माँ मृग वाहिनी ! पश्चिम में देवी वारुणी !! उत्तर में माँ कौमारी जी! ईशान में शूल धारिणी !! ब्रहामानी माता अर्श पर ! माँ वैष्णवी इस फर्श पर !! चामुंडा दसों दिशाओं में, हर कष्ट तुम मेरा हरो ! संसार में माता मेरी, रक्षा करो रक्षा करो !! सन्मुख मेरे देवी जया ! पाछे हो माता विजैया !! अजीता खड़ी बाएं मेरे ! अपराजिता दायें मेरे !! नवज्योतिनी माँ शिवांगी ! माँ उमा देवी सिर की ही !! मालाधारी ललाट की, और भ्रुकुटी कि यशर्वथिनी ! भ्रुकुटी के मध्य त्रेनेत्रायम् घंटा दोनो नासिका !! काली कपोलों की कर्ण, मूलों की माता शंकरी ! नासिका में अंश अपना, माँ सुगंधा तुम धरो !! संसार में माता मेरी, रक्षा करो रक्षा करो !! ऊपर वाणी के होठों की ! माँ चन्द्रकी अमृत करी !! जीभा की माता सरस्वती ! दांतों की कुमारी सती !! इस कठ की माँ चंदिका ! और चित्रघंटा घंटी की !! कामाक्षी माँ ढ़ोढ़ी की ! माँ मंगला इस बनी की !! ग्रीवा की भद्रकाली माँ ! रक्षा करे बलशाली माँ !! दोनो भुजाओं की मेरे, रक्षा करे धनु धारनी ! दो हाथों के सब अंगों की, रक्षा करे जग तारनी !! शुलेश्वरी, कुलेश्वरी, महादेवी शोक विनाशानी ! जंघा स्तनों और कन्धों की, रक्षा करे जग वासिनी !! हृदय उदार और नाभि की, कटी भाग के सब अंग की ! गुम्हेश्वरी माँ पूतना, जग जननी श्यामा रंग की !! घुटनों जन्घाओं की करे, रक्षा वो विंध्यवासिनी ! टकखनों व पावों की करे, रक्षा वो शिव की दासनी !! रक्त मांस और हड्डियों से, जो बना शरीर ! आतों और पित वात में, भरा अग्न और नीर !! बल बुद्धि अंहकार और, प्राण ओ पाप समान ! सत रज तम के गुणों में, फँसी है यह जान !! धार अनेकों रुप ही, रक्षा करियो आन ! तेरी कृपा से ही माँ, चमन का है कल्याण !! आयु यश और कीर्ति धन, सम्पति परिवार ! ब्रह्मणी और लक्ष्मी, पार्वती जग तार !! विद्या दे माँ सरस्वती, सब सुखों की मूल ! दुष्टों से रक्षा करो, हाथ लिए त्रिशूल !! भैरवी मेरी भार्या की, रक्षा करो हमेश ! मान राज दरबार में, देवें सदा नरेश !! यात्रा में दुःख कोई न, मेरे सिर पर आये ! कवच तुम्हारा हर जगह, मेरी करे सहाए !! है जग जननी कर दया, इतना दो वरदान ! लिखा तुम्हारा कवच यह, पढे जो निश्चय मान !! मन वांछित फल पाए वो, मंगल मोड़ बसाए ! कवच तुम्हारा पढ़ते ही, नवनिधि घर मे आये !! ब्रह्माजी बोले सुनो मार्कंड़य ! यह दुर्गा कवच मैंने तुमको सुनाया !! रहा आज तक था गुप्त भेद सारा ! जगत की भलाई को मैंने बताया !! सभी शक्तियां जग की करके एकत्रित ! है मिट्टी की देह को इसे जो पहनाया !! चमन जिसने श्रद्धा से इसको पढ़ा जो ! सुना तो भी मुह माँगा वरदान पाया !! जो संसार में अपने मंगल को चाहे ! तो हरदम कवच यही गाता चला जा !! बियाबान जंगल दिशाओं दशों में ! तू शक्ति की जय जय मनाता चला जा !! तू जल में तू थल में तू अग्नि पवन में ! कवच पहन कर मुस्कुराता चला जा !! निडर हो विचर मन जहाँ तेरा चाहे ! चमन पाव आगे बढ़ता चला जा !! तेरा मान धन धान्य इससे बढेगा ! तू श्रद्धा से दुर्गा कवच को जो गाए !! यही मंत्र यन्त्र यही तंत्र तेरा ! यही तेरे सिर से हर संकट हटायें !! यही भूत और प्रेत के भय का नाशक ! यही कवच श्रद्धा व भक्ति बढ़ाये !! इसे निसदिन श्रद्धा से पढ़ कर ! जो चाहे तो मुह माँगा वरदान पाए !! इस स्तुति के पाठ से पहले कवच पढे ! कृपा से आधी भवानी की, बल और बुद्धि बढे !! श्रद्धा से जपता रहे, जगदम्बे का नाम ! सुख भोगे संसार में, अंत मुक्ति सुखधाम !! कृपा करो मातेश्वरी, बालक चमन नादाँ ! तेरे दर पर आ गिरा, करो मैया कल्याण !! !! जय माता दी !! अस्यश्री अर्गला स्तोत्र मंत्रस्य विष्णुः ऋषि:। अनुष्टुप्छन्द:। श्री महालक्षीर्देवता। मंत्रोदिता देव्योबीजं। नवार्णो मंत्र शक्तिः। श्री सप्तशती मंत्रस्तत्वं श्री जगदन्दा प्रीत्यर्थे सप्तशती पठां गत्वेन जपे विनियोग:।। नमश्चण्डिकायै नम: मार्कण्डेयजी ककते हैं – जयन्ती मंगला, काली, भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा धात्री, स्वाहा और स्वधा इन नामों से प्रसिद्ध देवी! तुम्हें मैं नमस्कार करता हूँ, हे देवी! तुम्हारी जय हो। प्राणियों के सम्पूर्ण दुख हरने वाली तथा सब में व्याप्त रहने वाली देवी! तुम्हारी जय हो, कालरात्रि तुम्हें नमस्कार है, मधु और कैटभ दैत्य का वध करने वाली, ब्रह्मा को वरदान देने वाली देवी! तुम्हें नमस्कार है। तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो और काम क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो। महिषासुर का नाश करने वाली तथा भक्तों को सुख देने वाली देवी तुम्हें नमस्कार है। तुम मुझे सुन्दर स्वरुप दो, विजय दो और मेरे शत्रुओं को नष्ट करो। हे रक्तबीज का वध करने वाली! हे चण्ड-मुण्ड को नाश करने वाली! तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो और काम क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो। हे शुम्भ निशुम्भ और धूम्राक्ष राक्षस का मर्दन करने वाली देवी! मुझको स्वरूप दो, विजय दो, यश दो और मेरे शत्रुओं का नाश करो। हे पूजित युगल चरण वाली देवी! हे सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान करने वाली देवी! तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो और काम क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो। हे देवी! तुम्हारे रूप और चरित्र अमित हैं। तुम सब शत्रुओं का नाश करने वाली हो। मुझे रूप जय यश दो और काम क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो, पापों को दूर करने वाली चण्डिके! इस संसार में जो भक्ति से तुम्हारा पूजन करते हैं उनको तुम रूप तथा विजय और यश दो तथा उनके शत्रुओं का नाश करो। रोगों का नाश करने वाली चण्डिके! जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी पूजा करते हैं उनको तुम रूप विजय और यश दो, तथा उनके शत्रुओं का नाश करो। हे देवी! जो मुझसे बैर रखते हैं, उनका नाश करो और मुझे अधिक बल प्रदान कर रूप, जय, यश दो और मेरे शत्रुओं का संहार करो। हे देवी! मेरा कल्याण करो और मुझे उत्तम सम्पत्ति प्रदान करो, रूप, जय, यश दो और काम क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो। हे देवता तथा राक्षसों के मुकुट रत्नों से स्पर्श किए हुए चरणों वाली देवी! हे अम्बिके! मुझे स्वरुप दो, विजय तथा यश दो और मेरे शत्रुओं का नाश करो, हे देवी! अपने भक्तों को विद्वान, कीर्तिवान और लक्ष्मीवान बनाओ और उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो, और उनके शत्रुओं का नाश करो। हे प्रचण्ड दैत्यों के अभिमान का नाश करने वाली चण्डिके! मुझ शरणागत को रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे शत्रुओं का नाश करो। हे चार भुजाओं वाली! हे ब्रह्मा द्वारा प्रशंसित परमेश्वरि! मुझे रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे क्रोध आदि शत्रुओं को नष्ट करो। निरन्तर भक्ति से भगवान विष्णु से सदा स्तुति की हुई हे अम्बिके! मुझे रूप, यश, जय दो और मेरे शत्रुओं को नष्ट करो। हिमाचल कन्या पार्वती के भगवान शंकर से स्तुति की हुई हे परमेश्वरी! मुझे रूप, जय, यश दो और मेरे शत्रुओं का नाश करो। इन्द्राणी के पति (इन्द्र) के द्वारा सद्भाव से पूजित होने वाली परमेश्वरी! मुझे तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम, क्रोध आदि शत्रुओं को नष्ट करो। प्रचण्ड भुदण्ड से दैत्यों के घमण्ड को नष्ट करने वाली! मुझे रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे शत्रुओं का नाश करो। हे देवी! तुम अपने भक्तों को सदा असीम आनन्द देती हो। मुझे रूप, जय, यश दो और मेरे काम क्रोध आदि शत्रुओं को नष्ट करो।


ॐ अस्य श्री कीलक स्तोत्र महामंत्रस्य। शिव ऋषि:। अनुष्टुप् छन्द:। महासरस्वती देवता। मंत्रोदित देव्यो बीजम्। नवार्णो मंत्रशक्ति। श्री सप्तशती मंत्र स्तत्वं स्री जगदम्बा प्रीत्यर्थे सप्तशती पाठाङ्गत्वएन जपे विनियोग

श्री दुर्गा मन्त्र ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्ज्वल प्रज्ज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ॥ नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनी । नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनी ॥1॥

नमस्ते शुम्भहन्त्रयै च निशुम्भासुरघातिनी । जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे ॥2॥

ऐंकारी सृष्टिरुपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका । क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते ॥3॥

चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी । विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणी ॥4॥

धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी । क्रां क्रीं क्रूं कालिकादेवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु ॥5 श्रीदुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला दुर्गा दुर्गार्त्तिशमनी दुर्गापद्विनिवारिणी । दुर्गमच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी ॥ दुर्गतोद्धारिणी दुर्गनिहन्त्री दुर्गमापहा । दुर्गमज्ञानदा दुर्गदैत्यलोकदवानला ॥ दुर्गमा दुर्गमालोका दुर्गमात्मस्वरूपिणी । दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविद्या दुर्गमाश्रिता ॥ दुर्गमज्ञानसंस्थाना दुर्गमध्यानभासिनी । दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गमार्थस्वरूपिणी ॥ दुर्गमासुरसंहन्त्री दुर्गमायुधधारिणी । दुर्गमाङ्गी दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्री ॥ दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गभा दुर्गदारिणी । नामावलिमिमां यस्तु दुर्गाया मम मानवः ॥ पठेत सर्वभयान्मुक्तो भविष्यति न संशयः । ॥इति श्रीदुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला समाप्त॥ सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते । दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते हे सुरों पर वरदानों का वर्षंण करने वाली, दुर्मुख और दुर्धर नामक दैत्यों का संहार करने वाली, सदा हर्षित रहने वाली, तीनों लोकों का पालन-पोषण करने वाली, शिवजी को प्रसन्न रखने वाली, कमियों को, दोषों को दूर करने वाली, हे (नाना प्रकार के आयुधों के) घोष से प्रसन्न होने वालीं, दनुजों के रोष को निरोष करने वाली – निःशेष करने वाली, तात्पर्य यह कि दनुजों को ही समाप्त करके उनके रोष (क्रोध) को समाप्त करने वाली, दितिपुत्र अर्थात् दैत्यों (माता दिति के पुत्र होने से वे दैत्य कहलाये) पर रोष (क्रोध) करने वाली, दुर्मद दैत्यों को, यानि मदोन्मत्त दैत्यों को, भयभीत करके उन्हें सुखाने वाली, हे सागर-पुत्री ! हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

हे देवताओं पर वरदान-वर्षण करने वाली, दुर्मुख और दुर्धर नामक दैत्यों का संहार करने वाली, सदा हास करने वाली, तीनों लोकों का पालन-पोषण करने वाली, समस्त जगत का शुभ करने वाले और अपने स्वामी भगवान शंकर को प्रसन्न रखने वाली, कमियों को, दोषों को दूर करने वाली, हे (नाना प्रकार के आयुधों के) घोष में रत और अधर्म में रत रहने वाले दनुजों के रोष को निरोष करने वाली – निःशेष करने वाली, तात्पर्य यह कि दनुजों को ही समाप्त करके उनके रोष (क्रोध) को समाप्त करने वाली, दितिपुत्र अर्थात् दैत्यों (माता दिति के पुत्र होने से वे दैत्य कहलाये) पर रोष (क्रोध) करने वाली, मदोन्मत्त दैत्यों को, भयभीत करके उन्हें सुखाने वाली, तात्पर्य यह कि उनके ओज और जीवनरस को सुखा कर उन्हें प्राणहीन करने वाली हे सागर-पुत्री !  हे महिषासुरमर्दिनी , हे सुकेशिनी, नगेश-नंदिनी ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

देवताओं पर वरदानों की वर्षा करने वाली तथा निहितार्थ (इसके भीतर निहित अर्थ) है, देवों पर सदैव प्रसन्न रहने वाली एवं उन पर अपनी कृपा बरसाने वाली । देवताओं द्वारा प्रार्थना किये जाने पर उनकी रक्षा व सहायतार्थ (सहायता के लिये) वे प्रकट हो जाती हैं । इसीलिये वरवर्षिणी कहा है । क्योंकि देवी या देवता वर उसीको देते हैं, जिन पर वे प्रसन्न होते हैं । उनका प्रकट होना स्वयं ही एक वरदान है । महिषासुर से त्रस्त देवताओं के सम्मुख देवी का प्रकट हो कर,उन्हें अभय देना, युद्ध में उनके शत्रुओं को मृत्यु-शैय्या देना (मार देना), देवों का प्रिय (भला) करना, उनका अभीष्ट सिद्ध करना आदि सुरों पर वरदानों का वर्षण है । देवी ने देवताओ की स्तुति से प्रसन्न हो कर उन्हें वरदान देते हुए आश्वासन दिया था कि “पृथ्वी पर जब जब असुरों की उत्पति बढ़ेगी, मैं विभिन्न रुपों में अवतीर्ण हो कर उनका नाश और तुम्हारी रक्षा करुँगी ।” दुर्मुख तथा दुर्धर महिषासुर के शूरवीर दैत्ययोद्धा थे, जिन्हें रण में देवी ने मार गिराया और वे कवि द्वारा `दुर्धरधर्षिणि` तथा `दुर्मुखमर्षिणि` कह कर पुकारी गईं । जब वे देवों का अभीष्ट सिद्ध करती हैं, तब वे हर्षित होती हैं । देवताओं को कार्यसिद्धि आश्वासन दे कर देवी ने प्रचंड अट्टहास किया, जिसके महाभयानक गर्जन को सुन कर पृथ्वी कांपने लगी, पर्वत चलायमान होने लगे और दानव उस तीव्र ध्वनि को सुन कर डर गए एवं देवतागण प्रसन्न हो गए । इसी प्रकार दैत्यराज के भेजे गए दूत्त से उसका प्रणय-संदेश सुन कर भी देवी जोर से हंसती हैं तथा मेघ-गंभीर वाणी में कहती हैं कि “मैं दैत्यों का नाश करने वाली महालक्ष्मी हूँ । तुम जा कर महिषासुर से कह दो कि हे महामूढ़ ! मैनें युग-युग में तुम्हारे जैसे असंख्य दैत्यों का संहार किया है, उसी प्रकार मैं तुम्हें भी मार दूँगी। काम-पीड़ित तुम रण में मेरे साथ युद्ध करो ।” इस प्रकार देवी के आख्यानों (कथाओं) में अनेक बार उनके `हास` के विभिन्न प्रसंग आते हैं । कहीं पर मंद-मंद मुस्कान बिखेरती, लावण्यमयी नारी के रूप में, कहीं आर्त -जनों की पुकार पर अपने प्राकट्य के समय वे मधुर हास से युक्त होती हैं, तो अधर्मी असुरों को ललकारते समय भीषण हास से गर्जना करती हैं । अपने कृपामय एवं कोपमय- दोनों रूपों में देवी दिव्य हास में रत रहती हैं,

को `त्रिभुवनपोषिणि` कहने से तात्पर्य है, उनके द्वारा- जगन्माता द्वारा तीनों लोकों का भरण-पोषण करना । वे स्वयं ही प्रकृति हैं और प्रकृति अपने सभी जीवों के लिए उनकी क्षुधा (भूख) के अनुसार भोजन की व्यवस्था करती हैं । वे ही देवी अन्नपूर्णा हैं, भुवनेश्वरी है । उन्हीं से देवता अपना यज्ञ-भाग पाते हैं । महिषासुर के वध के अनन्तर (पश्चात्) हर्षोल्लास से भरे हुए देवता उनकी स्तुति करते हुए उनसे यह कहते हैं कि वे ही `स्वाहा` के रूप में मुनियों द्वारा विधिवत् प्रदत्त आहुति-रूप यज्ञ-भाग देवताओं को लब्ध कराती हैं । देवों के पुष्ट होने से, तृप्त होने से पृथ्वी पर मेघ बरसते हैं और वह भी पुष्ट व प्रसन्न होती है । `देवी भागवत` के तृतीय स्कंध, छठे अध्याय में वर्णित है कि जब वे `महासरस्वती`, `महालक्ष्मी`, और`महाकाली` नामक अपनी शक्तियों को क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिव को प्रदान करती हैं , तब वे त्रिदेवों तथा अन्य देवगणों से कहती हैं कि “सभी यज्ञों में मेरे नाम का उच्चारण करते ही आप सभी लोग सदैव तृप्त हो जायेंगे ।” त्रिदेव की पुष्टि वास्तव में `त्रिभुवन-पोषण` है, इसीसे देवी को `त्रिभुवनपोषिणि` कह कर पुकारा ।

देवी पार्वती भगवान शंकर की पत्नी हो कर उन्हें `तोष` अर्थात् संतोषमय आनंद देती हैं । शिव-पार्वती सनातन दिव्य दंपति हैं । वे शिव की शक्ति हैं । दोनों के प्रातः विहार तथा सांध्य विहार की अनेक कथाएँ धार्मिक ग्रंथों में प्राप्त होती हैं । शिव-भार्या हो कर वे काशीपुराधीश्वरी भी कहलाती हैं । जब वन के भोलेभाले भीलों के बीच भगवान शिव भील के रूप में पहुंचते हैं तो उनके साथ देवी भी भीलनी रूप में लीलाएं करती हैं । दिव्य-दंपत्ति द्वारा निर्मित शाबर-मन्त्र उनकी इसी नाट्यलीला के सुफल हैं । ‘मल्लिकार्जुन` ज्योतिर्लिंग में वे भी शिवजी के साथ विराजमान हैं । इस प्रकार वे `शंकरतोषिणि` कही गई हैं । किल्विष का अर्थ है त्रुटि, अपराध, दोष, या कमी । देवी सभी का दोषशोषण करने वाली जगज्जननी हैं । अपने अपराध का बोध होने पर, उसका स्वीकार कर लेने से, अपना दोषजन्य दुःख माता के सम्मुख कह देने से वे करुणामयी क्षमा करने में किंचित भी विलम्ब नहीं करती हैं । श्री शंकराचार्य ने `देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्` की रचना की है, जिसमें वे देवी से कहते हैं कि हे माता ! मैं तुम्हारा मन्त्र, यंत्र, स्तुति, आवाहन, ध्यान, स्तुतिकथा, मुद्रा आदि कुछ भी नहीं जानता । आगे कहते हैं कि तुम्हारे चरणों की सेवा करने में जो भूल हुई हो, उसे क्षमा करो । त्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि । एवं ज्ञात्वा महादेवि यथा योग्यं तथा कुरु ।। अर्थात् हे महादेवि ! मेरे समान कोई पापी नहीं है और तुम्हारे समान कोई पाप-नाश करने वाली नहीं है, यह जान कर जैसा उचित समझो वैसा करो । महिषासुर के वध के लिए देवी को सभी देवताओं द्वारा विविध आयुध प्रदान किये गए थे, जो दैत्यों व उनके राजा महिषासुर का संहार करने में समर्थ थे । अठारह भुजाओं वाली देवी ने संग्राम में सहस्रों भुजाएं धारण कर ली थीं और उन हाथों में वे शस्त्राशस्त्र, विविध प्रकार की टंकार और रणकार उत्पन्न करते थे । वह ध्वनि देवी के विजय घोष के समान थी तथा वह घोष, युद्ध करती हुई देवी को प्रसन्न करता था । रत रहने का अर्थ केवल व्यस्त या मग्न रहना ही नहीं है, अपितु इसका अर्थ प्रसन्न होना भी है । युद्ध क्षेत्र के उस निनाद में, घोष में रत भगवती को `घोषरते` कह कर पुकारा गया है ।

दनुज अर्थात् असुरों के रोष (क्रोध) को देवी ने समाप्त किया, स्वयं असुरों को ही समाप्त करके । क्रुद्ध होना व अत्याचार करना दैत्यों की सहज प्रकृति थी, जिसमें रत होकर वे पशुवत् जीवन-यापन करते थे । वस्तुतः (वास्तव में) पुराणों में वर्णित आख्यानों (कथाओं) में हमें अति पुरातन काल के जीवन की अवस्था और व्यवस्था की झांकी मिलती है । जिस समय नदियों के आसपास मानव सभ्यता ने पहलेपहल अपनी आँखें खोलीं, उस समय सब ओर प्राकृतिक वन थे और साथ ही थे, उन वनों में रहने वाले वन्य जीव, जिनसे निपटना सरल नहीं था । मानव की शारीरिक शक्ति उनसे बहुत कम थी । अतः अन्य आपदाओं की तरह इस आपदा से पार पाने के लिये भी दैवीय सहायता की आवश्यकता प्रतीत हुई व फलस्वरूप प्रार्थनाएं की गईं । तब शक्तिरूपिणी देवी अवतरित होने पर बाध्य हुईं । क्योंकि उनकी कृपा के बिना क्रमिक विकास की अगली अवस्था पर पहुंचना संभव नहीं था । महिषासुर सींगों वाला भैंस था । मानव-जीवन के विकास के लिये उसका व मद में अन्धे उसके साथियों का वध भगवती के हाथों हुआ । अतः देवी को `दनुजनिरोषिणि` कहा । इसके तुरंत बाद `दितिसुतरोषिणि` कह कर बताया कि दिति के पुत्रों अर्थात दैत्यों पर वे क्रोध करने वाली देवी हैं । जब उनकी संतान को दुराचारी, अधम, मदान्ध दैत्य पीड़ित करते हैं तो वे चण्डिका क्रोध से आँखें लाल करते हुए उनका सर्वनाश कर देती हैं । सिंह पर सवार हो कर जब वे दैत्यों को ललकारते हुए गगनभेदी गर्जना करती हैं तो दुर्मद अर्थात् मद में अंधे हो कर दुष्ट आचरण करने वाले राक्षसों का दिल दहल जाता है, भय के कारण उनकी ऊर्जा, उनका रक्त सूख जाता है, जिससे वे `दुर्मदशोषिणी` हैं । महालक्ष्मी के सागर से उद्भूत होने की कथा सर्वज्ञात है । अमृत प्राप्ति के लिए किये गये सागर-मन्थन से देवी महालक्ष्मी का प्राकट्य हुआ, जिसके कारण वे सिन्धु-सुता या सागर-सुता कहलाईं । उन्हें स्तुतिकार ने ‘सिन्धुसुते’ कह कर संबोधित किया है । अंतिम पंक्ति में जयजयकार करता हुआ कवि कहता है, हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !


श्री हनुमान चालीसा दोहा श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुर सुधारि. बरनउँ रघबर बिमल जसु जो दायकु फ़ल चारि. बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार. बल बुधि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस विकार. चौपाई जय हनुमान ज्ञान गुन सागर, जय कपीस तिहुँ लोक उजागर. राम दूत अतुलित बल धामा, अंजनी-पुत्र पवन सुत नामा. महाबीर बिक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी. कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडक कुंचित केसा. हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै, काँधे मूँज जनेऊ साजै. संकर सुमन केसरीनंदन, तेज प्रताप महा जग बंदन. बिद्यावान गुनी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर. प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया. सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा, बिकट रुप धरि लंक जरावा. भीम रुप धरि असुर सँहारे, रामचन्द्र के काज सँवारे. लाय सजीवन लखन जियाये, श्री रघुबीर हराषि उर लाये. रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई. सहस बदन तुम्हरो जस गावैं, अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं. सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा, नारद सारद सहित अहीसा. जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते, कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते. तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा, राम मिलाय राज पद दीन्हा. तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना, लंकेस्वर भए सब जग जाना. जुग सहस्त्र जोजन पर भानू , लील्यो ताहि मधुर फ़ल जानू. प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं, जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं. दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते. राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसरे. सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रच्छक काहू को डर ना. आपन तेज सम्हारो आपै, तीनों लोक हाँक ते काँपै. भूत पिचास निकट नहिं आवै, महाबीर जब नाम सुनावै. नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा. संकट से हनुमान छुड़ावै, मन क्रम बचन ध्यान जो लावै. सब पर राम तपस्वी राजा, तिन के काज सकल तुम साजा. और मनोरथ जो कोई लावै, सोइ अमित जीवन फ़ल पावै. चारों जुग प्रताप तुम्हारा, हे प्रसिद्ध जगत उजियारा. साधु संत के तुम रखवारे, ससुर निकंदन राम दुलारे. अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता. राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के पासा. तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावे. अंत काल रघुबर पुर जाई, जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई. और देवता चित्त न धरई, हनुमत से सब सुख करई. संकट कटे मिटे सब पीरा, जो सुमिरै हनुमंत बलबीरा. जै जै जै हनुमान गोसाई, कृपा करहु गुरु देव की नाई. जो सत बार पाठ कर कोई, छूटहि बंदि महा सुख होई. जो यह पढ़े हनुमान चालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा. तुलसीदास सदा हरि चेरा, कीजै नाथ ह्र्दय महँ डेरा. दोहा पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रुप राम लखन सीता सहित, ह्रदय बसहु सुर भूप


राम सिया राम सिया राम, जय जय राम, राम सिया राम सिया राम, जय जय राम।। मंगल भवन अमंगल हारी, द्रबहुसु दसरथ अजर बिहारी। राम सिया-राम सिया राम, जय जय राम। जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करो महाराज। तन मे तुम्हरे शक्ति विराजे, मन भक्ति से भीना। जो जन तुम्हरी शरण मे आये, दुःख दरद हर लीना।

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