नमक स्वादानुसार
निखिल सचान का कहानी संग्रह है |
नमक स्वादानुसार | |
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[[चित्र:|200px]] नमक स्वादानुसार | |
लेखक | निखिल सचान |
देश | भारत |
भाषा | हिंदी |
विषय | साहित्य |
प्रकाशक | हिंद युग्म |
प्रकाशन तिथि | २०१३ |
पृष्ठ | 160 |
आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ | ९७८-९३-८१३९४-५०-२ |
'' इसकी कहानियाँ जहन में उसी तरह आई हैं, जिस तरह देह को बुखार आता है। ये पन्नों पर जैसे-जैसे उतरती गईं, बुखार भी उतरता रहा। ये कहानियाँ ‘बस हो गयी’ हैं, और अब आपके सामने हैं। इसमें से एक-एक कहानी को मैंने सालों-साल, अपने दिमाग़ के एक कोने में, तंदूर पर चढ़ाकर, धीमी आँच पर बड़ी तबियत से पकाया है | ''
कहानी क्रम[सम्पादन]
क्र० | कहानी क्रम |
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0१ | परवाज |
0२ | हीरो |
0३ | मुगालते |
0४ | पीली पेंसिल |
0५ | टोपाज |
0६ | साफ़े वाला साफा लाया |
0७ | सुहागरात |
0८ | विद्रोह |
0९ | बाजरे का रोटला, टट्टी और गन्ने की ठूंठ |
कहानी एवम्ं कथानक [१][सम्पादन]
हीरो-[सम्पादन]
कहानी बताती है कि '' भीड़ पहचान छीन लेती है '' इसी पह्चान को बनाने हेतु कहानी का नायक लोगो की भीड़ से बाहर निकलने की जद्दोजहद करता नज़र आता है यह कहानी साथ ही समाज की उस संकीर्ण् मानसिकता पर कुठाराघात करती है जो संपन्न या उच्च शिखर पर स्थित व्यक्ति को ''सात खून माफ होने'' जैसी सोच रखती हैं |
'' इंसानी कान एक ऐसे दरबान की तरह होता है जो हैसियत, औकात और मौके के हिसाब से सिर्फ चुनिंदा लोगों को अंदर आने की इजाजत देता है और हर एक गैर-जरूरी, गैर-मामूली को दरवाजा भेडकर रुखसत फरमाता है ''
''अब्सट्रैक्ट् चीजों में मतलब खोजना बेबकुफी होती है''
मुगालते-[सम्पादन]
कहानी अंधी-सकरी गलियों में स्थित वेश्यालयों या कोठों की है; जिसे लेखक '' नालियाँ '' कहता है क्योंकि यह वह स्थान है जहां घरों की गंदगी उफन-उफनकर शरीफ लोगों के आंगन में न फ़ैल जाये को रोक कर समाज को साफ़-सुथरा बनाये रखने में मदद करती है | लेखक वेश्यालयों को केवल सेक्स की दुकान नहीं मानता बल्कि उसे लिफ़ाफ़े की भांति मानता है जिसके अंदर बहुत कुछ छुपा होता है
ये वैश्यालय समाज के सदस्यों के मन में शांत से दिखाई देने वाले किंतु मूलत्ः फट पडने हेतु उतारू भावों की हिलोर को थामे रखने , शांत व मंद करने का काम करते हैं | कहानी में वैभव नामक एक साहित्यकार वेश्या के अंदर मूलत्ः एक स्त्री को खोजने का कार्य भी करता है |
'' जमाना मॉडर्न नहीं होता ; लोगों को मॉडर्न होना पड़ता है ''
'' भाव शून्य चेहरा, ऐसा चेहरा होता है; जिस पर कुछ भी उकेरा नहीं जा सकता, और उकेर भी दो तो उसे पढ़ा नहीं जा सकता ''
पीली पेंसिल-[सम्पादन]
इस कहानी का एक-एक शब्द आपको अपने बचपन में पहुंचाने की ताकत रखता है; साथ ही कहानी उस मासूमियत पर '' जो शायद कभी न कभी किसी बच्चे के सामने एक वास्तविकता किंतु अबूझ स्थिति जो उस बाल-मन की समझ से परे है '' पर जाकर खत्म होती है और वह स्थिति शायद ही कोई वय उम्र से पहले सुलझा सकता है |
टोपाज-[सम्पादन]
कहानी '' लास्ट लीफ '' की धारणा से जुड़ी है लेखक कहता है कि '' दिमाग कमाल की चीज होती है अगर आंखें ' अ ' से अनार देखती हो और दिमाग कहे की ये ' अ ' से अनार नहीं बल्कि ' ह ' से हरामजादा है तो आंखों को अनार, हरामजादा लगने लगेगा | जिस कारण प्रत्येक व्यक्ति अपने लक्ष्यो की प्राप्ति हो या जीवन की डोर सब कुछ के लिये वह '' लास्ट लीफ '' के इंतजार में जीवन व्यतीत करता रहता है |
इस कहानी में केशव जो की विचित्र, अजीब और संजीदा किस्म का इंसान होने के साथ-साथ एक हिन्दुस्तान का सबसे ज्यादा बिकने वाला लेखक है; गुड्डू नामक बिहारी लड़के को अपनी '' लास्ट लीफ '' की तरह देखता है वो भी इसलिए क्योंकि गुड्डू '' एकदम साधारण आदमी '' है और केशव के लिये साधारण होना ही असाधारण है | साथ ही केशव, हिंदुस्तान में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक एवं स्वयं हेतु लिखने वाले लेखक दोनों में से क्या बने के अंतर्द्वंद में फ़सा रहता है |
इस कहानी के अन्त मे फ़िल्म '' आनंद '' मे गुलज़ार द्वारा लिखित बेहतरीन संवाद " बाबूमोशाय , ज़िंदगी और मौत ऊपरवाले के हाथ है…उसे न आप बदल सकते हैं न मैं ! " की याद तरोताजा हो जाती है जब केशव अपने जीवन की डोर ऊपर बाले के हाथ मे ना देकर कहता है की '' you can't fire me, I quit !!
यह कहानी शराब को वह स्थान दिलाने की भी कोशिश करती है जो स्थान बच्चन जी ने अपनी मधुशाला में दिया था-
- '' दारू पीकर कैसे भी दो लोग एक लेवल पर हो जाते हैं अमीर-गरीब, नेता-जनता, शिकार और कातिल, खुद और खुदा सब | ''
- '' पुराना प्यार हो, यारी दोस्ती की उलझन हो या खुद से नाराजगी | दारू की बोतल नॉर्थ-साउथ कंपास की तरह भटके मुसाफिरों को झट से रास्ता सुझा देती है ''
कहानी की सामान्य से दिखने वाली किंतु असाधारण बातें-
- औरत सब कुछ झेल सकती है, लेकिन जिल्लत नहीं ,
- ज्ञान से आनंद होना चाहिए,,,,,,,,, दुख नहीं ,
- अगर अपनी कीमत बढ़ा के लगाना नहीं जानते ,तो कम करके भी ना लगाओ,
- औकात से ज्यादा खाने से बदहजमी ही होती है हमारा 'एपीटाईट' हल्का-फुल्का खाने का ही होता है, भारी खाने से फालतू की बदबू पैदा होती है |
साफ़े वाला साफा लाया-[सम्पादन]
सांप्रदायिकता के तारतम्य में गढ़ी गई कहानी है जो बताती है कि एक छोटा सा बच्चा जिन बातों को समझ जाता है वहीं बड़े-बड़े व्यक्ति भी अपनी मतान्धंता के कारण उन्हें ना तो समझते हैं और ना ही समझना चाहते हैं
'' मोती की कोई जात नहीं होती, मोती का कोई धर्म नहीं होता, इसलिए मोती बेशकीमती होता है '' इसलिए मानव के लिए मानवता ही सर्वश्रेष्ठ है उसे जात-पात व धर्म के बंधनों से मुक्त होना चाहिए |
सुहागरात-[सम्पादन]
महिला-पुरुष समानता पर आधारित कहानी है लेखक यह समानता शरीर के साथ-साथ भावनाओं के स्तर पर भी खोजने की कोशिश करता है | यह कहानी पुरुष के दंभ रूपी भाव को उस स्पष्टता के साथ प्रस्तुत करती है ; जिस तरह सूखे तालाब में दबा हुआ कचरा बरसात के समय तालाब के पानी में उतराता है |
'' एक पुरुष वही देखना चाहता है जितना देखने की औकात उसकी आंखों में होती है और वही सुनना चाहता है जितना सहन करने की सामर्थ उसके कानों में होती है ''
कहानी का किरदार सत्यप्रकाश स्वयं केअन्य महिलाओं से संबंध के बारे में बड़े शान के साथ बतलाता है वही देविका द्वारा उसके दंभ को चूर करने के लिए अपनी कहानी या हो सकता है उसके द्वारा गढ़ी हुई कहानी जिसमे उसके ड्राइवर के साथ संबंध से सत्यप्रकाश के ईगो को चारों खाने चित कर देती है देविका पुरुष के दंभ को बहुत सटीकता से समझती है वह कहती है कि '' ईगो बडी ही कुत्ती किस्म की चीज होती है यदि पुरुष की ईगो हर्ट हो गई तो उसे वापस से शांत कर लेना बहुत जरूरी होता है नहीं तो मर्द वैसे ही तड़पता रहता है जैसे बिच्छू काट लेने पर एक छोटा बच्चा '' यही कारण है कि देविका सत्य प्रकाश से विवाह- विच्छेद कर महिषासुर मर्दिनी की भांति उसके मान का मर्दन कर देती है |
विद्रोह-[सम्पादन]
स्वतंत्रता आंदोलन के इर्द-गिर्द बुनी गई कहानी है जिसमें मणिक नामक एक व्यक्ति गालिब एवम मींर के शेर से इत्तेफाक रखते हुये प्रेम के दरिया में गोते लगाता है | किंतु प्रेम में नाकामी का कारण एक पूंजीपति होने के कारण , उसका मन बुर्जुआ वर्ग के प्रति विद्रोह कर बैठता है | लेखक शायद इस तथ्य को रेखांकित करने की कोशिश करता है कि स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने वालो के सबके अपने-अपने मत रहे होंगे |
बाजरे का रोटला, टट्टी और गन्ने की ठूंठ-[सम्पादन]
बच्चों के बेतूकें से खेल की प्रतिस्पर्धा में बहुत ही गहन मर्म छुपा हुआ है जिसकी कीमत शायद एक माँ ही चुका सकती है |
बाहरी कड़ियाँ[सम्पादन]
- https://play.google.com/store/books/details/Namak_Swadanusar?id=A-_3DAAAQBAJ&hl=en
- https://www.youtube.com/watch?v=Y_lFjRYNNSM
- https://www.goodreads.com/book/show/18322623
- https://www.jagran.com/sahitya/10658670.html
- https://www.thelallantop.com/bherant/kamlapasand-kanpur-ki-manohar-kahaniyan-by-namak-swadanusar-and-zindagi-aais-pais-fame-writer-nikhil-sachan/
- http://samixa.blogspot.com/2013/08/blog-post.html
सन्दर्भ सूची[सम्पादन]
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