नरसिंह नारायण मिश्र
श्री नरसिंह नारायण मिश्र "महात्मा जी"
उपनाम:'महात्मा जी'
पिता : श्री रामरंग मिश्र
माता : श्रीमती रामदुलारी
धर्मपत्नी :श्रीमती रामलली उर्फ कान्ति देवी संतान : गीतानाथ मिश्र, रामप्रकाश मिश्र(गुरुदेव),बाँकेेबिहारी मिश्र, कंचन देवी जन्म : 1930 बलरामपुर उ.प्र. मृत्यु : 13 जून 2012 बहराइच अन्त्येष्टि:14 जून 2012 बलरामपुर(सरदारगढ़) राष्ट्रीयता : भारतीय
कृतियां : गीता तत्व सुरसरी(अपूर्ण), भरत महिमा(अनुपलब्ध) गीता का दिव्य इतिहास, गीता का प्रथम श्लोक, कथातीर्थ सरदारगढ़ का इतिहास कार्यक्षेत्र :कथावाचक,कवि,लेखक
जीवन परिचय[सम्पादन]
नरसिंह नारायण मिश्र "महात्मा जी" का जन्म उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले में (तत्कालीन गोण्डा जिला) सरदारगढ़ जोकि राप्ती नदी के किनारे बसा हुआ है नामक गाँव में सन् 1930 में पौष मास में ऋषि गौतम गोत्रीय ब्राह्मण श्री रामरंग मिश्र के यहाँ हुआ। आप जब करीब दस साल के ही थे तभी आपके सिर से आपके पिताजी की छाया उठ गयी और आपके पालन-पोषण की पूरी जिम्मेदारी आपके भाइयों पर आ गयी। आप चार भाई(श्री करिंगन मिश्र, श्री छोटेलाल मिश्र,श्री बलभद्र मिश्र,श्री नरसिंह नारायण मिश्र) एवं दो बहनें (धन्नाजी, चननपता) थीं। आप अपने चारों भाइयों में सबसे छोटे थे। धन्नाजी भाई एवं बहनों में सबसे बड़ी थीं लेकिन चननपता आपसे छोटी हैं। आपका बचपन आपके तीन ज्येष्ठ भाइयों के सानिध्य में बीता। आपकी बुनियादी शिक्षा आपके मझले भाई श्री छोटेलाल के द्वारा सम्पन्न हुआ जिससे आपको अक्षरों का ज्ञान हुआ।आप स्कूली शिक्षा से वंचित रहे परन्तु आपने अपने अक्षर ज्ञान के माध्यम से हनुमान चालीसा जैसी एकाध पुस्तकों का अध्ययन करने में सक्षम थे। तत्कालीन समय में प्रचलित आल्हखण्ड जो वीर रस का ग्रन्थ है ने आपको आकृष्ट किया और आपने पूरा आल्हखण्ड मौखिक रूप से कण्ठस्थ कर लिया और उसे गाने लगे क्योंकि उस समय समाज के और लोग भी आल्हखण्ड का सामूहिक रूप से गायन करते थे।
योगदान[सम्पादन]
आपने समाज में लोगों को सत्य सनातन धर्म के प्रति जागरूक करने का काम किया तथा सबसे बड़ा काम यह किया कि अपने क्षेत्र में गोस्वामी तुलसीदास जी की रचना श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश जन-जन तक पहुंचाने का अतुलनीय प्रयास किया है।
दिनचर्या[सम्पादन]
आपकी दिनचर्या बड़ी सम्यक थी। आपने अपने पूूरे जीवन में मृत्यु पर्यन्त ब्रम्ह मुहूर्त में उठना, नित्यकर्म से निवृृत्तिऔर तत्पश्चात संध्या वंदन और पाठ करना(श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीरामचरितमानस) अनवरत चलने दिया। आपने अपने जीवन के 45 वर्ष तक अनवरत राप्ती नदी में नित्यप्रति ब्रम्ह मुहूर्त में स्नान करते और वहीं राप्ती नदी के तट पर पूजा-पाठ करके सबके जागने से पहले घर आ जाते थे।
आपके जीवन की सत्य घटनायें
महात्मा जी योग सिद्ध पुरुष थे। आप अपने सूक्ष्म शरीर से कहीं भी आने जाने में समर्थ थे, क्योंकि इस संबंध में कुछ ऐसी घटनाएं देखने को मिली जिससे यह सिद्ध होता है कि आप परम योगी थे और अपने सूक्ष्म शरीर से जहां तहां विचरण किया करते थे। इसी संबंध में कुछ घटनाएं नीचे प्रकाशित की जा रही हैं जिसे पढ़कर आप स्वयं में अनुमान लगा सकते हैं कि महात्मा जी एक सिद्ध पुरुष थे ।
घटना एक
आप धर्म शास्त्रों के मर्मज्ञ थे और साथ ही साथ आप लोगों को आध्यात्मिक जगत से जोड़ने का भी कार्य करते थे। लोगों में भक्ति का प्रचार भी करते थे और अपने घर पर ही रोज सायंकाल एक कार्यक्रम आयोजित किया जाता था, जिसमें किसी ना किसी ग्रंथ से संबंधित कथाएं कही जाती थी और गांव के भी तथा अन्य आसपास के गांव के लोग भी इस कथा को श्रवण करने के लिए आते थे। जब आप की अवस्था ऐसी हो गई कि आपको कोई पुस्तक पढ़ने में दिक्कत होने लगी अर्थात एक अवस्था के बाद यह चर्म चक्षु कमजोर पड़ने लगती है फिर आपने पास के ही एक गांव रानी जोत के रहने वाले हरिहर प्रसाद मिश्र जिन्हें थानेदार मिस्र के नाम से जाना जाता है उन्हें आपने मंचासीन नियुक्त किया कि वह कोई भी पुराण पढ़ेंगे और आप उसकी व्याख्या करेंगे क्योंकि आपके चर्म चक्षु कमजोर हुई थी नाकि अंतर्दृष्टि। यह सिलसिला चल रहा था प्रतिदिन सायंकाल को लोग जमा होते थे, थानेदार मिश्रा जी मंच पर बैठकर किसी भी पुराण का अध्ययन करते वाचिक रूप से और उसकी फिर व्याख्या आप करते थे। रानी जोत गांव सरदारगढ़ गांव से करीब 2 किलोमीटर की दूरी पर होगा इसलिए थानेदार मिश्र प्रतिदिन नदी के किनारे से होकर कथा स्थल पर आते थे कभी कभी रात भी हो जाती थी और कथा होने के बाद फिर पुनः अपने घर चले जाते थे।एक दिन की बात है मिश्रा जी आए आरती हुई उसके बाद कथा प्रारंभ हुआ, कथा के बाद फिर पुनः आरती होती थी उसके बाद प्रसाद वितरण होता था। प्रसाद वितरण के बाद सभी श्रोता अपने अपने घर को चाहते थे सब कुछ ऐसा हुआ उसके बाद थानेदार जी ने भी अपने घर को चल दिए रात को करीब 1:30 से 2:00 बज गए थे अकेले आपको घर जाना था रास्ते में नदी के किनारे से होकर करीब 1 किलोमीटर का सफर तय करना होता था थानेदार जी जा रहे थे रास्ते में इन्हें क्या लगा कि कोई व्यक्ति नदी में तेज से छलांग लगाया है और इन्हें नदी में किसी के गिरने की आवाज सुनाई दी क्योंकि रात के 2:00 बज रहे थे ऐसे में कोई भला व्यक्ति वहां क्या करेगा यह काफी डर गए कि कहीं कोई प्रेतात्मा तो नहीं है जो उन्हें डराने की कोशिश कर रहा है। फिर किसी तरह से वह अपने घर पहुंचे दूसरे दिन जब कथा स्थल पर आए तो महात्मा जी ने उनसे पूछा क्यों थानेदार जी कल रात को आप डर गए थे जबकि यह बात उन्होंने किसी से नहीं बताई थी फिर भी महात्मा जी को यह बात पता चल गई थी, थानेदार जी ने कहा कि हां भैया मैं तो कल रात को डर गया था। महात्मा जी ने कहा डरने की कोई जरूरत नहीं जो आवाज आपने सुनी वह मैं ही था नदी में स्नान कर रहा था और फिर कहा कि अब कभी भी अगर आपको डर लगे तो मेरा नाम ले लीजिए कोई डर नहीं रहेगा। आप यह सोचेंगे कि हो सकता है वह नहाने ही चले गए हो लेकिन यह बताइए कि जब साथ में ही कथा समाप्ति हुई और थानेदार जी गए तो उनसे पहले वहां भला वो कैसे पहुंच गए इसका एक ही अर्थ निकल रहा है कि वह अपने सूक्ष्म शरीर से निकलकर कहीं भी विचरण कर लेते थे।
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