बाल पत्रिका : साइकिल
साइकिल इकतारा भोपाल से प्रकाशित बाल पत्रिका है। इकतारा बाल साहित्य के विकास के लिए प्रतिबध्द संस्था है। अपने समय के महत्वपूर्ण रचनाकार बच्चों के लिए भी लिखें, इसके लिए इकतारा ने सृजनपीठ की शुरुआत की है। सृजनपीठ पर कृष्णकुमार, अरुण कमल, विनोद कुमार शुक्ल, राजेश जोशी और प्रियम्वद जैसे नामचीन रचनाकार रहे हैं। और बच्चों के लिए लिखा है।
गुलज़ार, इरशाद कामिल, वरुण ग्रोवर आदि साइकिल के नियमित लेखक हैं।
बाल साहित्य के बारे में साइकिल के सम्पादकों की समझ को साइकिल के पहले अंक के प्रकाशन के मौके पर उनकी इस टिप्पणी से समझा जा सकता है।
“हमारी यह धरती कितनी खूबसूरत है। इसके चप्पे-चप्पे को छानने का एक मन हम सबमें कहीं रहता है। उसी एक मन के लिए हमने साइकिल तैयार की है। बचपन में मन में कितनी ही नावें बनी थीं। जो तैरने बाहर न आ पाई थीं। उन सब नावों को ही खोलकर कागज़ बनाए हैं। और कागज़ों को खोलकर पेड़, परिन्दे, घोंसले, हवाएँ, बादल, खेत... सब बनाए हैं।
और इन सबसे साइकिल बनाई है।
कभी कभी मन करता है कि साइकिल उठाकर अंतरिक्ष में चला जाऊँ...। जब थक जाऊँ तो पृथ्वी से साइकिल टिकाकर वहीं बैठ जाऊँ। कभी जब साइकिल उठाकर यूँ ही घूमने निकल जाता हूँ तो लगता है कि जैसे अंतरिक्ष में घूम रहा हूँ। किसी गुमठी पर साइकिल टिकाकर बैठता हूँ तो लगता है कि साइकिल पृथ्वी पर टिका दी है। तब इस धरती, पृथ्वी, इस हमारी पृथ्वी के प्रति प्रेम से भर उठता हूँ। साइकिल उठाता हूँ और देखता हूँ कि कहीं साइकिल के हैंडल से पृथ्वी को चोट तो नहीं पहुँची।
एक ही शहर में हज़ारों हज़ार ग्रह और पृथ्वियाँ और तारे नज़र आते हैं। साइकिल से घूमते हुए।
एक दिन अपनी साइकिल पर मुझे एक चीटी दिखी। वह सीट की तरफ जा रही थी। मैंने उसे कैरियर पर बिठाया और पूरे शहर का एक चक्कर लगाकर उसे वहीं छोड़ दिया। उसे कैसा लगा होगा?...शायद वैसा ही जैसा कि अंतरिक्ष में साइकिल से घूमता तो मुझे लगता।
उस दिन से मैं सोच रहा हूँ कि चींटी का ब्रह्मांड कितना बड़ा होगा। उसे कितनी पृथ्वियाँ दिखती होंगी और कितने आसमान और कितने सितारे...।
...उस दिन मुझे साइकिल से प्रेम हो गया। उसी ने तो बताया था कि एक ही दुनिया में असल में कितनी-कितनी दुनियाँ रहती हैं।
...रोज़ साइकिल उठाता हूँ और दुनिया को देखने, उसे निहारने, उसे समझने नहीं उसे जीने, उससे प्रेम करने निकल पड़ता हूँ।
जैसे बचपन में सिक्के के ऊपर कागज़ रखकर पेसिंल से घिसते थे तो एक सिक्का छप जाता था।...छपाई का वही सूत्र लेकर, असल साइकिल से एक छापा साइकिल निकाली है। वह छापे का सिक्का कहीं जैसे खो गया है। जिसे पाकर आनंद आता था। छापा साइकिल बची तो छापा सिक्का बचा रहेगा और बचा रहेगा आनंद।
कितना अच्छा है कि दुनिया में एसी चीज़ें बनीं जो खर्च नहीं होतीं। और जिनसे आनंद के सिवा कुछ नहीं आता। हमारी यह ताज़ी पत्रिका साइकिल उस दुनिया की पड़ताल करेगी जो सिक्के से आगे की है...जो आनंद के नाम होगी और सिक्के के बदले एक छापे सिक्के के प्रस्ताव की तरह होगी।”
साइकिल के अंक यहां से हासिल किए जा सकते हैं। www.ektaraindia.in
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