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ब्रहस्पति देव

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भारतीय संस्कृति में “बृहस्पतिवार व्रत कथा” का बहुत ही अधिक महत्व है| भारत के कई क्षेत्रों जैसे बिहार व् उत्तरप्रदेश में ब्रहस्पतिवार व्रत का काफी ज्यादा महत्त्व है| इस दिन महिलाऐं व्रत पूजा कर भगवान् ब्रहस्पति को पप्रसन्न कर सुख सम्रद्धि की कामना करती है|


ब्रहस्पति देव पूजन[सम्पादन]

गुरुवार के व्रत में पीली वस्तुओं का दान एवं भोजन मुख्य है। महिलाओं को इस व्रत के करने पर कदली वृक्ष का पूजन करना चाहिए। पीली गाय के घी से बनाए गए भोजन से ही ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। इस दिन पुरुष बाल और दाढ़ी नहीं बनावें तथा महिलाएँ सिर भिगोकर स्नान नहीं करें।

बृहस्पतिवार को जो भी स्त्री-पुरुष व्रत करें, उनको चाहिए कि वह दिन में एक ही समय भोजन करें, क्योंकि इस दिन बृहस्पतेश्वर भगवान का पूजन होता है, भोजन पीले चने की दाल का करें, परन्तु नमक नहीं खावें। पीले वस्त्र पहनें, पीले ही फलों का उपयोग करें, पीले चंदन से पूजन करें।

पूजन के बाद प्रेमपूर्वक गुरु महाराज की कथा सुनना चाहिए। इस व्रत को करने से मन की इच्छाएँ पूरी होती हैं और बृहस्पति महाराज प्रसन्न होते हैं। धन, पुत्र, विद्या तथा मनवांछित फल की प्राप्ति होती है। परिवार को सुख-शांति मिलती है। इसलिए यह व्रत सर्वश्रेष्ठ और अति फलदायक है।

इस व्रत में केले का पूजन करना चाहिए। कथा और पूजन के समय मन, क्रम, वचन से शुद्ध होकर जो इच्छा हो बृहस्पतिदेव की प्रार्थना करनी चाहिए। उसकी इच्छाओं को बृहस्पति देव अवश्य पूर्ण करते हैं, ऐसा मन में दृढ़ विश्वास रखना चाहिए।

बृहस्पति देव कथा[सम्पादन]

एक समय की बात है, भारत में एक नृपति नाम का राजा राज्य करता था, वह बड़ा ही प्रतापी और दानी था। वह नित्य प्रतिदिन मंदिर में दर्शन करने जाता था तथा ब्राह्मण और गुरु की सेवा किया करता था।

उसके द्वार से काई निराश होकर नहीं लौटता तथा वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत पूजा दान किया करता था।  वह हर दिन गरीबों की सहायता करता, किन्तु ये सब बातें रानी को अच्छी नहीं लगतीं, वह न व्रत करती और न किसी को एक दमड़ी दान में देती थी तथा राजा से भी ऐसा करने को मना करती।

एक बार की बात है कि राजा शिकार खेलने वन गए हुए थे, घर पर रानी और दासी थी, उस समय गुरु भगवान एक साधु का रूप धारण कर

राजा के द्वार पर भिक्षा माँगने गए। तब रानी कहने लगी-“हे साधू महात्मा, मैं इस दान-पुण्य से तंग आ गई हूँ। मेरे से घर का कार्य तो समाप्त

नहीं होता, इस कार्य के लिए तो मेरे पतिदेव ही बहुत हैं।

अब आप ऐसी कृपा करें कि यह सब धन नष्ट हो जाए तथा मैं आराम से रह सकूँ।’ साधू बोले,  “हे देवी! तुम तो बड़ी विचित्र हो, संतान और धन से कोई दु:खी होता है| इसको सभी चाहते हैं, पापी भी पुत्र और धन की इच्छा करता है|

अगर आपके पास धन अधिक है, तो भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राह्मणों को दान दो, धर्मशाला, तालाब, कुआँ, बावड़ी, बाग- बगीचे आदि का निर्माण कराओ, निर्धन मनुष्यों की कुंवारी कन्याओं का ब्याह कराओ और अनेकों यज्ञादि धर्म करो। इस प्रकार के कर्मों से आपके कुल और आपका नाम परलोक में सार्थक होगा एवं स्वर्ग की प्राप्ति होगी।”

मगर रानी साधू की इन बातों से खुश नहीं हुई। वह बोली-“हे साधु महाराज! मुझे ऐसे धन की भी आवश्यकता नहीं, जिसको और मनुष्यों को दान दें तथा जिसको रखने-उठाने में मेरा सारा समय बराबर हो जाए।”

साधु ने कहा- हे देवी! तुम्हारी ऐसी इच्छा है, तो ऐसा ही होगा। मैं तुम्हें बताता हूँ वैसा ही करना। बृहस्पतिवार के दिन घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से कहना वह हजामत करवाये, भोजन में मांस-मदिरा खाना, कपड़े धोबी के यहाँ धुलने डालना।

इस प्रकार सात बृहस्पतिवार करने से तुम्हारा सब धन नष्ट हो जाएगा। ऐसा कहकर साधु वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गए। रानी ने साधु के कहे अनुसार वैसा ही किया। तीन बृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसका सारा धन नष्ट हो गया और भोजन के लिए दोनों समय तरसने की नौबत आ गई।

सांसारिक भोगों से दु:खी रहने लगे। तब राजा ने रानी से कहा कि- “तुम यहाँ रहो मैं दूसरे देश जाता हूँ, क्योंकि यहाँ पर मुझे सभी मनुष्य जानते हैं। इसलिए कोई कार्य नहीं कर सकता, देश चोरी परदेश भीख बराबर है।

ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया। वो वहाँ जंगल से लकड़ी काटकर लाता, शहर में बेचता। इस तरह जीवन व्यतीत करने लगा। इधर राजा

के घर रानी और दासी दु:खी रहने लगीं। किसी दिन भोजन मिलता और किसी दिन सिर्फ पानी पीकर ही रह जातीं।

एक समय रानी और दासी के सात दिन बिना भोजन के ही बीत गए, तो रानी ने दासी से कहा-“हे दासी! यहाँ से पास के गाँव में मेरी बहन रहती है। वह बड़ी धनवान है, तू उसके पास जा और पाँच सेर बेझर माँग ला, जिससे कुछ समय के लिए गुजर हो जाएगी।

इस तरह रानी की आज्ञा मानकर दासी उसकी बहन के पास गई। रानी की बहन उस समय पूजन कर रही थी, क्योंकि उस रोज बृहस्पतिवार था, जब दासी रानी की बहन से बोली-“हे रानी! मुझको तुम्हारी बहन ने भेजा है, पाँच सेर बेझर दे दो।’

इस प्रकार अनेक बार कहा-परन्तु रानी ने कुछ उत्तर न दिया, क्योंकि वह उस समय बृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी। इस प्रकार

जब दासी को कोई उत्तर नहीं मिला, तो वह बहुत दु:खी हुई एवं क्रोध भी आया और लौटकर रानी के पास आकर बोलीं-“हे रानी! तुम्हारी बहन तो बड़ी अभिमानी है, वह छोटे मनुष्यों से बात भी नहीं करती, जब मैंने उससे कहा तो उसने कोई उत्तर नहीं दिया, इसलिए मैं वापस चली आई।”

रानी बोली-“हे दासी! इसमें उसका कोई दोष नहीं है, जब बुरे दिन आते हैं, तो कोई सहारा नहीं देता, अच्छे-बुरे का पता आपत्ति में ही लगता है, जो ईश्वर की इच्छा होगी, वही होगा, यह सब हमारे भाग्य का दोष है। उधर, उस रानी ने सोचा मेरी बहन की दासी आई थी, परन्तु मैं उससे नहीं बोली।

इससे वह बहुत दुःखी हुई होगी, यह सोच कथा सुन विष्णु भगवान का पूजन समाप्त कर वह बहन के घर चल दी और जाकर अपनी बहिन से बोली- हे बहन! तुम्हारी दासी आई, तब मैं बृहस्पति की कथा सुन रही थी और जब तक कथा होती है, न उठते हैं न बोलते हैं, इसलिए मैं न बोली।

कहो दासी क्यों आई थी।” रानी बोली-“बहन! हमारे अनाज नहीं था, वैसे तुमसे कोई बात छुपी नहीं है, इसलिए मैंने दासी को पाँच सेर बेझर लेने भेजा था।”

रानी बोली-“देखो बृहस्पतिवार देव सबकी मनोकामना पूर्ण करते हैं, देखो शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो।” इस प्रकार जब रानी ने सुना तो वो घर के अन्दर गई, वहाँ उसे एक घड़ा बेझर का भरा मिला, जिससे रानी और दासी बहुत खुश हुईं, तब दासी कहने लगा-“हे रानी! वैसे हमको अन्न नहीं मिलता है, तो हम रोज ही व्रत करते हैं, अगर इनसे व्रत की विधि और कथा पूछ ली जाए, तो उसे हम भी किया करें।’

तब रानी ने अपनी बहन को बताया कि- “हे बहन! बृहस्पतिवार के व्रत की कथा क्यों तथा यह व्रत कैसा करना चाहिए?” रानी की बहन ने कहा-“गुरु के व्रत में चने की दाल, मनुक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें व कहानी सने तश पीला भोजन करें। इस प्रकार करने से गुरु भगवान प्रसन्न होते हैं, अन्न, पत्र धन देते हैं व मनोकामना पूर्ण करते हैं।

इस प्रकार रानी व दासी ने निर्णय किया कि बृहस्पति भगवान का पूजन जरूर करेंगे। सात रोज बाद जब बृहस्पतिवार आया, तो उन्होंने व्रत रखा और घुड़साल से जाकर चना, गट बीन लाई तथा इसकी दाल से केले की जड़ में विष्णु भगवान का पूजन किया।

अब पीला भोजन कहाँ से आवे, सोचकर बेचारी बड़ी दु:खी हुई, परन्तु उन्होंने व्रत किया था, इसलिए गुरु भगवान प्रसन्न थे, दो थाल में पीला भोजन लेकर आए और दासी को देखकर बोले-“हे दासी! यह तुम्हारे और रानी के लिए है, तुम दोनों करना।”

दासी भोजन पाकर प्रसन्न हुई और रानी से बोली-“चलो रानीजी भोजन कर लो।’ रानी को इस विषय में कुछ पता नहीं था, इसलिए वह बोली-“तू ही भोजन कर, तू क्यों व्यर्थ में हमारी हँसी उड़ाती है।” दासी बोली-“एक महात्मा दे गए हैं।” रानी कहने लगी-“वह भोजन तेरे लिए दे गये हैं तू कर।”

दासी ने कहा-“वह महात्मा हम दोनों के लिए दो थाली में भोजन दे गये हैं, इसलिए हम दोनों साथ-साथ भोजन करेंगी।” इस प्रकार दोनों ने गुरु भगवान को नमस्कार कर भोजन किया तथा अब वे प्रत्येक बृहस्पति को गुरु भगवान का व्रत व विष्णु पूजन करने लगी। बृहस्पति भगवान की कृपा से दोनों के पास फिर धन हो गया|

रानी फिर उसी प्रकार आलस्य करने लगी, तो दासी बोली-“देखो रानी, तुम पहले भी इसी तरह आलस्य करती थीं, बड़ी मुसीबतों के बाद हमने धन पाया है, इसलिए हमें दान-पुण्य करना चाहिए, भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगाओ, ब्राह्मणों को दान दो, कुआँ, तालाब, बावड़ी, मंदिर, पाठशाला आदि का निर्माण करवाओ, कुंवारी कन्याओं का विवाह करवाओं, शुभ कार्यों में खर्च करो, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े,

जब रानी ने इसी प्रकार कर्म करने आरंभ किए, तो काफी यश फैलने लगा। एक दिन रानी व दासी विचार करने लगीं। राजा न जाने किस प्रकार होंगे, उनकी कोई खबर नहीं। गुरु भगवान से उन्होंने प्रार्थना की तो भगवान ने राजा को स्वप्न में कहा-“हे राजा! उठ तेरी रानी तुझको याद करती है, अपने देश को जा।”

राजा प्रातः उठा और सोचने लगा स्त्री जाति खाने और पहनने की संगीनी होती है, पर भगवान की आज्ञा मानकर वो अपने नगर के लिए रवाना हुआ।

इससे पूर्व जब राजा परदेस आया तो दु:खी रहने लगा| प्रतिदिन जंगल से लकड़ी लाता और उन्हें शहर में बेचकर अपना जीवन व्यतीत करता। एक दिन राजा अपनी पुरानी बातों को याद कर दु:खी हो रोने लगा। तब बृहस्पतिदेव एक साधु का रूप धारण कर आए। राजा के पास आकर बोले-“हे लकड़हारे! तुम इस जंगल में किस चिंता में डूबे हो, मुझको बताओ।”

यह सुन राजा की आँखों में आँसू भर आए और साधु को वंदना कर बोला-“हे प्रभु! आप सब कुछ जानने वाले हो।’ इतना कह साधु को

अपनी सारी कहानी बतला दी। महात्मा दयालु होते हैं, उससे बोले-“हे राजा! तुम्हारी स्त्री ने बृहस्पति देव का अपमान किया था, इस कारण तुम्हारी यह दशा हुई, अब तुम किसी प्रकार की चिंता मत करो।

भगवान तुम्हें पहले से अधिक धन देंगे, देखो तुम्हारी स्त्री ने भी गुरुवार का व्रत आरंभ किया है। अब तुम मेरा कहा मानो-बृहस्पतिवार को व्रत करके चने की दाल, गुड़ जल के लोटे में डालकर केले की जड़ में पूजन करो, कथा कहो और सुनो, भगवान तुम्हारी सब मनोकामनाएँ पूर्ण करेंगे।”

साधु को देख राजा बोला- “हे प्रभु! लकड़ियाँ बेचकर मुझे इतना पैसा नहीं मिलता, जिससे भोजन करने के बाद कुछ बचा सकें, मैंने रात्रि को अपनी रानी को व्याकुल देखा है। मेरे पास कुछ भी नहीं, जिससे उसकी खबर मंगा सकूँ और कौन-सी कहानी कहूँ, यह भी मुझे मालूम नहीं।”

साधु ने कहा-“हे राजा! तुम किसी बात की चिंता मत करो, बृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लुकड़ियाँ लेकर शहर जाओ, तुमको रोज से दुगुना धन प्राप्त होगा, जिससे तुम भली-भाँति भोजन कर लोगे ‘तथा बृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जाएगा|

भगवान की आगया पाकर राजा सकुशल अपने देश लौटा और अपनी पत्नी व दासी के साथ फिर से सुखी जीवन जीने लगा|

ब्रहस्पति जी की आरती[सम्पादन]

ॐ जय ब्रहस्पति देवा, स्वामी जय ब्रहस्पति देवा|

छीन-छीन भोग लगाऊं, कदली फल मेवा||ॐ जय||

तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतर्यामी|

जगत पिता जगदीश्वर, तुम सबके स्वामी||ॐ जय||

चरणामृत निज निर्मल, सब पातक हर्ता|

सकल मनोरथ दायक, कृपा करो भर्ता||ॐ जय||

तन, मन, धन अर्पण कर जो शरण पड़े|

प्रभु प्रकट तब होकर, आकर द्वार खड़े||ॐ जय||

दीनदयाल, दयानिधि, भक्तन हितकारी|

पाप दोष सब हर्ता, भाव बंधन्हारी||ॐ जय||

सकल्मानोरथ दायक, सब संशय तारी|

विषय विकार मिटाओ, संतान सुखकारी||ॐ जय||

जो कोई आरती तेरी प्रेम सहित गावे,

जेष्ठानंद, बंद सो-सो निश्चय फल पावे||ॐ जय||

बाहरी कड़ियाँ[सम्पादन]

ब्रहस्पतिवार व्रत कथा


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