भगवद् गीता और धर्म
भगवद्गीता का प्रारंभ धर्म शब्द से होता है और भगवद्गीता के अंतिम अध्याय में दिए उपदेश को धर्म संवाद कहा है। धर्म का अर्थ है १- धारण करने वाला २- जिसे धारण किया गया है। धारण करने वाला जो है उसे आत्मा कहा जाता है और जिसे धारण किया है वह प्रकृति है। धर्म का अर्थ भगवद्गीता में जीव स्वभाव अर्थात प्रकृति है, क्षेत्र का अर्थ शरीर से है। भगवद्गीता के अन्य प्रसंगों में इसी की पुष्टि होती है। यथा ‘स्वधर्मे निधनम् श्रेयः पर धर्मः परधर्मः भयावहः’, अपने स्वभाव में स्थित रहना, उसमें मरना ही कल्याण कारक माना है। यह धर्म शब्द गीता शास्त्र में अत्याधिक महत्वपूर्ण है। श्री भगवान ने सामान्य मनुष्य के लिए स्वधर्म पालन अर्थात स्वभाव के आधार पर जीवन जीना परम श्रेयस्कर धर्म बताया है। महर्षि व्यास ब्रह्मज्ञानी थे। उनकी दृष्टि से धर्म का अर्थ है आत्मा (धारण करने वाला) और क्षेत्र का अर्थ है शरीर। इस दृष्टिकोण से भगवद्गीता के प्रथम श्लोक में पुत्र मोह से व्याकुल धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं, हे संजय, कुरूक्षेत्र में जहाँ साक्षात धर्म, शरीर रूप में भगवान श्री कृष्ण के रूप में उपस्थित हैं वहाँ युद्ध की इच्छा लिए मेरे और पाण्डु पुत्रों ने क्या किया? गीता की समाप्ति पर इस उपदेश को स्वयं श्री भगवान ने धर्म संवाद कहा। धर्म अर्थात जिसने धारण किया है, वह आत्मतत्व परमात्मा शरीर रूप में जहाँ उपस्थित है, यह ब्रह्मर्षि व्यास जी के चिन्तन में रहा होगा. अतः व्यास जी द्वारा भगवद्गीता में धर्म क्षेत्र शब्द का प्रयोग सृष्टि को धारण करने वाले परमात्मा श्री कृष्ण चन्द्र तथा धृतराष्ट के जीव भाव (जिसे धारण किया है - हे संजय, कुरूक्षेत्र में भिन्न भिन्न जीव स्वभाव को धारण किए अर्थात भिन्न भिन्न प्रकृति से युक्त शरीरधारी मेरे ओर पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?) को संज्ञान में लेते हुए धर्मक्षेत्रे शब्द का प्रयोग किया है। ‘धर्म संस्थापनार्थाय’, से भी इसकी पुष्टि होती है। सन्दर्भ - बसंतेश्वरी भगवद्गीता -प्रो बसंत
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