भडोच का गुर्जर राज्य
आधुनिक गुजरात राज्य का नाम गुर्जर जाति के नाम पर पड़ा हैं। गुजरात शब्द की उत्पत्ति गुर्जरत्रा शब्द से हुई हैं जिसका अर्थ हैं- वह (भूमि) जोकि गुर्जरों के नियंत्रण में हैं। गुजरात से पहले यह क्षेत्र लाट, सौराष्ट्र और काठियावाड के नाम से जाना जाता था।[१][२] [३]
भडोच के गुर्जरों का कालक्रम निम्नवत हैं
नाम | सन् |
---|---|
दद्दा गुर्जर | 580 ई. |
जयभट्ट गुर्जर | 605 ई. |
दद्दा गुर्जर II | 633 ई. |
जयभट्ट गुर्जर II | 655 ई. |
दद्दा गुर्जर III | 680 ई. |
जयभट्ट गुर्जर III | 706-734 ई. |
सबसे पहले गुर्जर जाति ने छठी शताब्दी के अंत में आधुनिक गुजरात के दक्षिणी इलाके में एक राज्य की स्थापना की।[४] हेन सांग (629-647 ई.) ने इस राज्य का नाम भडोच बताया हैं। भडोच के गुर्जरों के विषय में हमें दक्षिणी गुजरात से प्राप्त नौ तत्कालीन ताम्रपत्रों से चलता हैं। इन ताम्रपत्रो में उन्होंने खुद को गुर्जर नृपति वंश का होना बताया हैं।[५][६] इस राज्य का केन्द्र नर्मदा और माही नदी के बीच स्थित आधुनिक भडोच जिला था, हालाकि अपने उत्कर्ष काल में यह राज्य उत्तर में खेडा जिले तक तथा दक्षिण में ताप्ती नदी तक फैला था। गौरी शंकर ओझा के अनुसार इस राज्य में भडोच जिला, सूरत जिले के ओरपाड ‘चोरासी’ और बारदोली तालुक्के, आस-पास के बडोदा के इलाके, रेवा कांठा और सचीन के इलाके होने चाहिए।[७] इस राज्य की राजधानी नंदीपुरी थी। भडोच की पूर्वी दरवाज़े के दो मील उत्तर में नंदिपुरी नामक किला हैं, जिसकी पहचान डा. बुहलर ने ताम्रपत्रो में अंकित नंदिपुरी के रूप में की हैं। कुछ इतिहासकार भडोच से 36 मील दूर, नर्मदा के काठे में स्थित, नाडोर को नंदिपुरी मानते हैं।[५][६][६]
उस समय भारत के पश्चिमी तट पर भडोच सबसे प्रमुख बंदरगाह और व्यपारिक केन्द्र था। भडोच बंदरगाह से अरब और यूरोपीय राज्यों से व्यापार किया जाता था। यह पता नहीं चल पाया हैं कि भडोच के गुर्जर किस गोत्र (क्लैन) के थे। संभवतः आरम्भ में वे भीनमाल के चप (चपराणा राजवंश) गुर्जर राजाओ के सामंत थे। यह भी सम्भव हैं कि वे भीनमाल के चप वंशीय गुर्जरों की शाखा हो। भीनमाल के गुर्जरों कि तरह भडोच के गुर्जर भी सूर्य के उपासक थे।[८] भारत में हूण साम्राज्य (490-542 ई.) के पतन के तुरंत बाद आधुनिक राजस्थान में एक गुर्जर राज्य के अस्तित्व में होने के प्रमाण मिलते हैं। , इस गुर्जर राज्य की राजधानी भीनमाल थी। तत्कालीन ग्रंथो में राजस्थान को उस समय गुर्जर देश कहा गया हैं। हेन सांग (629-647 ई.) ने भी अपने ग्रन्थ “सी यू की” में गुर्जर “क्यू-ची-लो” राज्य को पश्चिमी भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य बताया हैं। प्राचीन भारत के प्रख्यात गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त की पुस्तक ब्रह्मस्फुत सिद्धांत के अनुसार 628 ई. में श्री चप (चपराना/चावडा) वंश का व्याघ्रमुख नामक राजा भीनमाल में शासन कर रहा था। गुर्जर देश से दक्षिण-पूर्व में भडोच की तरफ गुर्जरों के विस्तार का एक कारण सभवतः विदेशी व्यापार मार्ग पर कब्ज़ा करना था|[९][१०] बाद में भडोच के गुर्जर संभवतः वल्लभी के मैत्रक वंश के आधीन हो गए| भगवान जी लाल इंद्र आदि इतिहासकारों ने मैत्रक राजवंश को भी हूण-गुर्जर समूह का माना हैं। भगवान जी लाल इंद्र के अनुसार भीनमाल से गुर्जर मालवा होते हुए भडोच आये वह एक शाखा को छोड़ते हुए गुजरात पहुंचे ज़हाँ उन्होंने मैत्रक वंश के नेतृत्व में वल्लभी राज्य की स्थापना की।[११] ‘मैत्रक’ ईरानी मूल के शब्द मिह्र/‘मिहिर’ का भारतीय रूपांतरण हैं, जिसका अर्थ हैं – सूर्य| मिहिर शब्द का हूण-गुर्जर समूह के इतिहास से गहरा नाता हैं। हूण ‘वराह’ और ‘मिहिर’ के उपासक थे। ‘मिहिर’ हूणों का दूसरा नाम भी हैं। ‘मिहिर’ हूण और गुर्जरों की उपाधि भी हैं। हूण सम्राट ‘गुल’ और गुर्जर सम्राट ‘भोज’ दोनों की उपाधि ‘मिहिर’ थी तथा वे मिहिर गुल और मिहिर भोज के रूप में जाने जाते हैं।[१२]मिहिर अजमेर के गुर्जरों की आज भी एक उपाधि हैं। इस बात के सशक्त प्रमाण हैं कि भडोच के गुर्जरों और वल्लभी के मैत्रको के अभिन्न सम्बन्ध थे। वल्लभी के मैत्रको ने भडोच के गुर्जरों और बेट-द्वारका, दीव, पाटन-सोमनाथ आदि के चावडो (चप वंशीय गुर्जर) की सहयता से समुंदरी विदेशी व्यापार पर नियंत्रण स्थापित किया।[१३]
वल्लभी के मैत्रको के बाद भडोच के गुर्जर वातापी के चालुक्यो के भी सामंत रहे थे। भडोच के गुर्जर वंश का सबसे प्रतापी राजा दद्दा II था। उसके द्वारा जारी किये गए ताम्रपत्रो से पता चलता हैं कि वह सूर्य का उपासक था। उसके एक ताम्रपत्र से यह भी ज्ञात होता हैं कि उसने उत्तर भारत के स्वामी हर्षवर्धन (606-647 ई.) द्वारा पराजित वल्लभी के राजा की रक्षा की थी।[१४] जे.बी.बी.आर.एस. खंड 21, 1903}} वातापी के तत्कालीन चालुक्य शासक पुल्केशी II ने भी एहोल अभिलेख में हर्षवर्धन को नर्मदा के कछारो में पराजित करने का दावा किया हैं। वी. ए. स्मिथ ने वातापी के चालुक्यो को गुर्जर माना हैं। होर्नले ने इन्हें हूण मूल का गुर्जर बताया हैं। अतः ऐसा प्रतीत होता हैं कि हर्षवर्धन का युद्ध हूण-गुर्जर समूह के तीनो राजवंशो का एक परिसंघ से हुआ था, जिसमे आरम्भ में वल्लभी क्षेत्र में उसे सफलता मिली, किन्तु नर्मदा के तट पर लड़े गए युद्ध में वह दद्दा II एवं पुल्केशी II से पराजित हो गया।[१५]
दद्दा II के बाद इस वंश के शासक ब्राह्मण संस्कृति के प्रभाव में आ गए| जिस कारण से अपनी कबीलाई पहचान गुर्जर के स्थान पर क्षत्रिय वर्ण की पहचान पर जोर देने लगे तथा सूर्य पूजा के स्थान पर अब उन्होंने शैव धर्म को अपना लिया।[१६] दद्दा III इस परिवार का पहला शैव था। दद्दा III ने मनु स्मृति का अध्ययन किया तथा अपने राज्य में वर्णाश्रम धर्म को कड़ाई से लागू किया। इस वंश के अंतिम शासक जय भट III द्वारा ज़ारी किया गया एक ताम्रपत्र नवसारी से प्राप्त हुआ हैं, जिसके अनुसार उसने भारत प्रसिद्ध कर्ण को अपना आदि पूर्वज बताया हैं। संभवतः मूल रूप से सूर्य ‘मिहिर’ के उपासक गुर्जर भारतीय समाज में अपना रुतबा बढ़ाने के लिए मिथकीय नायक सूर्य-पुत्र कर्ण से अपने को जोड़ने लगे।[१७] 734 ई के बाद हमे भडोच के गुर्जरों के विषय में कुछ पता नहीं चलता। इस वंश के शासन का अंत का कारण अरब आक्रमण या फिर दक्षिण में राष्ट्रकूटो का उदय हैं। भडोच के गुर्जरों के शासन (580-734 ई.) के समय आधुनिक गुजरात की जनसँख्या में गुर्जर तत्व का समावेश से इंकार नहीं किया जा सकता। किन्तु अभी तक आधुनिक गुजरात के किसी भी हिस्से का नाम गुजरात नहीं पड़ा था।[१८][१९][२०]
इन्हें भी देखें[सम्पादन]
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