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भारत का वैधानिक इतिहास

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भारत का वैधानिक इतिहास

भारत में हिंदू न्याय व्यवस्था


प्राचीन भारतीय मानव समाज धर्म को विशेष महत्व देता था जिसके कारण उस काल का मानव, धर्म में समाहीत नियमों का पालन करता था जो उसके लिए अनिवार्य था जिसका उल्लेख प्राचीन भारत के धर्मग्रंथों में भी देखने को मिलता है । भारत की तत्कालिन न्याय व्यवस्था भी इन धर्मग्रंथों की ही देन है इसी वजह से हमारे प्राचीन वेद पुराण शास्त्र उपनिषद आदि को तत्कालिन विधि का आधार माना जाता है।


भारत की प्राचीन हिंदू विधि

प्राचीन काल में विधि अथवा न्याय प्रशासन को धर्म का ही एक अंग माना जाता था। इस कारण उस काल में नैतिकता पर अधिक बल दिया जाता था अधिकांश धर्मग्रंथ संस्कृत भाषा में होने के कारण हिंदू विधि का आविर्भाव पुरातन होते हुए उसका बोध जनसाघारण को नहीं हो सका। जिसके कारण उक्त व्यवस्था मेें निरंंतर बदलाव होता रहा और कहीं कहीं तो मूल विधि में इतने परिवर्तन हुए हैं कि उसका वर्तमान विधि से कोई तालमेल ही नहीं बैठता है। प्राचीन हिंदू काल की विधि के विषय में एक बात उल्लेख्ननिय यह है कि वह अधिकांशतः तत्कालिन प्रचलित रुढ़ियों, प्रथाओं तथा रीतियों पर अधारित है यही कारण है कि हिंदू विधि की विभिन्न शाखाओं का विकास तथा उनकी व्यवस्थायें स्थानीय परम्पराओं पर आधारित होने कारण वे एक दूसरे से भिन्न है तथा उनमे समता का प्रायः अभाव है। यधपि इन शाखाओं का मूल स्त्रोत एक ही है परन्तु कालान्तर मे इन अधिकृत सूत्रों पर टीकाकारों ने अनेक टीकायें तथा व्याख्यायें जोड़ी, उक्त व्याख्याओं को देश के कुछ भागों में मान्यता दी गई तथा कुछ भागों में उन्हें महत्वहीन समझा गया। जिसके करण हिंदू विधि की विभिन्न शाखाओं का प्रादुर्भाव हुआ।


हिंदूकालीन न्याय व्यवस्था

भारत के हिंदू शासन काल में न्याय तथा दण्ड व्यवस्था का पूर्ण उत्तरदायित्व शासक पर हुआ करता था उस समय की साधारण धारणा थी कि राजा ईश्वर का अन्श होता है तथा उसके द्वारा दिया गया न्याय ईश्वरीय इच्छा के अनुसार होने के कारण उसके आदेशो का अनुपालन करना ही चाहिए धार्मिक बन्धन तथा नैतिक सदाचण पर सर्वाधिक बल दिया जाने के कारण अधिकांश लोग धर्म के प्रति कट्ट्र्र्र्रर हुआ करते थे तथा वे दुराचार एवं अपराध से दूर रहा करते थे राजा से यह अपेक्छा की जाती थी कि वह लोकनीति के अनुसार विधि उलंधनकारीयों तथा अपराधियों को दण्डीत करें तत्कालीन न्यायप्रणाली मुख्यतः कर्तव्य की भावना पर आधारित थी प्रत्येक व्यक्ति को अपना कर्तव्य निभाना आवश्यक था अन्यथा उसे कर्तव्य पालन न करने के लिए दण्डीत किया जाता था


वैदिक काल तथा स्मृतिकाल

 

वैदिक काल मे कल्पों को विशेष महत्व प्राप्त था तथा धर्म आडम्बरो की प्रचुरता थी तत्पश्चात स्मृतिकाल में हिंदू विधि का पर्याप्त विकास हुआ समृतियों का स्वरुप मौलिक न होकर व्युत्पन्न होने के कारण उनका उद्देश्य वैदिक मन्त्रो का विश्लेषण करना था यदि स्मृति या वेद मे किसी विषय पर विरोधाभास हो तो वेद मे दी गई व्यवस्था ग्राह्य होगी तथा स्म्र्ति मे दी गई तत्स्म्ब्नधी व्यवस्था अमान्य होगी स्मृतिकालीन विधि व्यवस्था का स्वरुप धर्मसूत्र, धर्मशास्त्र,पूराण तथा गाथाओ मे दृश्टीगोचर होता है न्यायालयो द्वारा स्मृतियों को अधिकारपूर्ण माना गया है मनु,याग्यवल्क्य,नारद,ब्र्हस्पति,कात्यायन आदि धर्मशास्त्रगो ने विधिसम्बन्धी सभी नियमो का स्वरचित धर्मशास्त्रो मे श्लोकबध करने का प्रयास किया विशेषतः मनुस्मृति तथा याग्य्वल्क्य स्मृति को विधिक दृष्टि से महत्वपुर्ण स्थान प्राप्त है । विग्यानेश्वर द्वारा रचित मिताक्छरा भारत के विभिन्न भागों में लागू होती रही है। उस समय धर्म,नैतिकता तथा विधि अनुसरण आदि सभी मनुष्यों के कर्तव्यों पर निर्भर थे। हिंदू विधि के अंतर्गत पुत्र के नैतिक तथा वैधानिक दायित्वों का स्पष्ट विवरण मिलता है । कालांतर में हिंदू शासको के संरक्छण में शास्त्रकारों नेे इन स्मृतियों पर टीकायें लिखी जिनका मूल उद्देश्य यह था कि उनमें दी गई विधिसम्बन्धी व्यवस्थाओं को न्याय संथाओं में प्राधिकृत रूप से मान्यता प्राप्त हो तथा वाद निर्णय में उनका प्रयोग किया जाये। दायभाग के टीकाकार जीमूतवाहन बंगाल के प्रमुख राजमंत्रीयों में से एक थे जिन्होने हिंदू विधि की प्रसिदॄ दायभाग शाखा को जन्म दिया। इसी प्रकार उस काल में अनेक टीकाओं की रचनायें की गई जिसका उदाहरण भारत की वर्तमान न्यायिक व्यवस्था में देखने को मिलता है।

पुराणकाल

वेद,स्मृतियों तथा उनकी टीकाओं के अतिरिक्त पुराणों में भी हमें प्राचीन विधि व्यवस्था की झलक दिखाई देती है वेद व्यास दॄारा रचित १८ पुराण मुख्य होने के कारण महापुराण कहलाते है उनमें वर्णित कथानकों में विधिसम्बन्धी उपबंधो का आभास अवश्य मिलता है किंतु उन्हें विधि स्त्रोत के रुप में मान्य नहीं किया गया है।

प्राचीन रुढ़ियाँ प्राचीन भारत में प्रचलित रीतियों रुढ़ियों तथा परम्पराओं क़ो हिंदू क़ालिन विधि में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था उन्हें धर्म के रुप में मान्यता दी गई है। न्यायालयों ने भी रुढ़ियों के महत्व को विधि से बढ़कर माना है। रामानंद के मुकदमें में प्रिवी कौंसिल ने अभिनिर्धारित किया था कि प्रथा के सबूत का महत्व विधि के लीपिबदॄ पाठ से कहीं अधिक है। विधि के स्त्रोत के रुप में प्रथाओं को वेद तथा स्मृतियों से भी अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है क्योंकि वेदों को ईश्वरप्रदत्त माना गया है जबकि स्मृतियों को आर्षवाणी के अवशिष्ट स्मरणों पर आधारित माना गया है परन्तु रुढ़ियों को आलौकिकता से सम्बन्धित रखा गया है। [१]


मीमांसा,भाष्य तथा निबंध
  हिंदू विधि की अनेक समस्याओं का स्पष्टीकरण मीमांसकों द्वारा लिखे गए सूत्रों में उपलब्ध है मीमांसकों में कुमारिल भट्ट,माधवाचार्य तथा भगवान उपवर्ष आदि प्रमुख हैं।आधुनिक टीकाकारों में पं.गंगाधर झा तथा किशोरीलाल सरकार के नाम उल्लेखनीय हैं। मनु के अनुसार केवल श्रुति तथा स्मृतियॉ ही प्राचीन विधि के प्रमुख प्रामानिक स्त्रोत थे,परंतु युग परिवर्तन तथा विधि के उत्तरोत्तर विकास के कारण अन्य स्त्रोतों का अध्ययन अनिवार्य हो गया वैसे तो भाष्य ओर निबंध का आधार स्मृतियॉ ही है परंतु भाष्यों का मूल उद्देश्य स्मृतियों के पारस्परिक विवादपूर्ण सिदॄयांतों का समाधानकारक हल ढूंढ़ निकालना था।

व्यावहारिक दृष्टि से भाष्यों की उपयोगिता स्मृतियों से कहीं अधिक है न्यायालयों ने भाष्यों को अधिकारपूर्ण माना है। स्मृतियों में दिए गए विधि सम्बन्धी नियम मूल प्रमाण ग्रन्थ है तथा भाष्यों में इन्हीं स्मृतियों की टीका अथवा व्याख्या की गई है निबंधों में किसी विशेष विषय पर अनेक स्मृतियों के पाठों को उद्धृत कर निबन्ध के रुप में लिपिबदॄ किया गया है जिससे उस सम्बन्ध में विधि स्पष्ट हो जाये।


कौटिल्य का अर्थशास्त्र
  अर्थ व्यवस्था मानव जीवन की लौकिक समृदॄि से सम्बन्ध होने के कारण उसका राज्य प्रशासन तथा विधि व्यवस्था से सदैव ही घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है ऐतिहासिक दृष्टि से अर्थशास्त्र की रचना प्राचीन भारत के धर्मशास्त्र काल में ही हुई थी परन्तु इस क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण योगदान चन्द्रगुप्त मौर्य के मंत्री कौटिल्य ( चाणक्य ) का रहा है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र उत्तम राज्य व्यवस्था,राजनैतिक दाँव पेंच तथा अनुशासन व्यवस्था के लिए विधि के प्रयोग सम्बन्धी विस्तृत नियम दिए गए हैं। अर्थशास्त्र में दी गई दण्डनीति सम्बन्धी व्यवस्था से तत्कालिन हिंदू शासकों की न्यायपटुता के विषय में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। सारांश यह है कि विधि की दृष्टि से अर्थशास्त्र का महत्व धर्मशास्त्रों से अधिक है। उपर्युक्त तथा अन्य साहित्य के आधार पर यह हो जाता है कि प्राचीन भारत मे एक निश्चित विधि तथा न्याय प्रणाली प्रचलित थी जिसमे विभिन्न अपराधो की परिभाषा तथा व्याख्या स्पष्ट दी गई थी।

प्राचीन हिंदु कालीन न्याय व्यवस्था मे अग्नि परिक्षा को विशेष मह्त्व दिया गया था,अपराधियो के दोषी होने अथवा निर्दोष सिद्ध करने के लिए उनका अग्नि परिक्षण किया जाता था। अग्नि परिक्षा के अनेक स्वरुप प्रचलित थे जिसमे अग्नि अथवा पानी का उपयोग विशेष रुप से किया जाता था। इन परिक्षाओं मे विफल होने पर अपराधियो को सिद्धदोष तथा सफल होने पर निर्दोष माना जाता था। प्राचीन कालीन दण्ड विधान मे अपराधी का सिर कलम कर देने का दण्ड सामान्य रुप से प्रचलित था इस प्रकार कुछ अपराधो के लिए दोषी व्यक्ति को जाति या समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था जिस्से उसे मानसिक क्लेश पहुँचे तथा वह आत्मग्लानि अनुभव करे। गम्भीर अपराधो मे अपराधी के एक या दोनो हाथ अथवा पैर काट दिये जाते थे ताकि अन्य व्यक्ति उस प्रकार के अपराध करने का साह्स न करे। तत्कालीन दण्ड व्यवस्था उदाहरणात्मक दण्ड पद्धति पर आधारित होने के कारण दण्ड का स्वरुप अधिक कठोर था। शास्त्रो मे जारता सम्बन्धी अपराध के लिए विस्तृत उपबन्ध दिए गए है, परस्त्री से सहवास करना,उसके साथ एकांत मे रहना अथवा अशिष्ट वार्तालाप करना आदि सभी जारता के स्वरुप माने जाते थे तथा इनके लिए अर्थदण्ड पर्याप्त माना जाता था। शीलभन्ग के लिए दोषी व्यक्ति का गुप्त अंग काट दिया जाता था तथा उसकी सम्पत्ति पूर्णतः अथवा अंशतः जब्त कर ली जाती थी। हिंदू कालीन दण्ड व्यवस्था के विरुद्ध प्रायः यह दोषारोपण किया जाता है कि इसके अंतर्गत समाज के विशिष्ठ वर्ग ब्राह्मणों के प्रति विशेष उदारता बरती जाती थी जो न्यायिक दृष्टि से उचित नहीं थी।परन्तु यह निवेदित है कि उस समय ब्राह्मणों के आचरण का स्तर इतना आदर्शमय था कि उनकी पवित्रता या सदाचारी होने के विषय मे किसी प्रकार की शन्का नही की जा सकती थी। समाज उन्हें धर्म के संरक्षक के रुप मे आदर की दृष्टि से देखता था तथा तत्कालीन समाज मे उन्हें सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त था अन्य प्राचीन देशों में भी धर्मगुरुओं को इस प्रकार के विशेषाधिकार प्राप्त थे। उदाहरणार्थ,पुरातन आंग्ल विधि में बेनिफिट ऑफ क्लर्जी की व्यवस्था अनेक वर्षों तक प्रचलित थी।

मनुस्मृति मे उल्लेख है कि हिंदूकाल में व्यवहारिक तथा आपराधिक वादों के निपटारे के लिए पृथक न्यायालय विधमान थे जिनके निर्णय पर राजधानी स्थित शासक की न्यायसभा में अपील प्रस्तुत की जा सकती थी। अनेक मामलों में पंचों को मध्यस्थता से निर्णय किया जाता था। इस प्रकार मध्यस्थता से मामलों को निपटाने के लिए बहुधा पंचों की न्यूनतम संख्या पाँच हुआ करती थी।
      अतः उपरोक्त विवरणो से यह प्रतीत होता है कि प्राचीन हिंदू कालीन न्याय व्यवस्था पुर्णतः धर्म पर आधारित थी जिसका उदाहरण हमे भारत के वर्तमान न्यायिक प्रणाली मे भी देखने के लिए मिलता है।

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  1. डा.एन.वी.परांजपे. भारत का विधिक एव्म सांविधानिक इतिहास. सेंटृल ला एजेंसी. 


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