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मनोमय कोश

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मनोमय कोष

आओ एक प्याज को लें | इसकी परतों को उतरना शुरू करें तो कई परतें दिखाई देंगी| इसी तरह आत्मा के उपर भी परतें (आवरण) चढ़ी हुई हैं| मनुष्य की मात्र एक ही परत दिखाई देती है जिसे शरीर कहते हैं| इस पहली परत को शरीर, दूसरी परत प्राण, तीसरी मन, चौथी में  बुद्धि तथा पांचवीं परत में आत्मा है| भारतीय शास्त्रों में आत्मा के ऊपर चढ़े आवरणों को कोष कहा गया है| यह पांच कोष - अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय मोश एवं आनन्दमय कोष से संबोधित किए जाते हैं | थियोसोफिकल सोसायटी एक अन्तराष्ट्रीय अध्यात्मिक संस्था है जिसका नाम थियोसोफी ग्रीक भाषा के दो शब्दों थियोस (God) + सोफिया (Holy Wisdom) से बना है | इनके अनुसार मनुष्य के पांच शरीर या पांच लोक हैं| जिनको  क्रमश: 1) फिजिकल बाड़ी 2) ईथरिक बाडी 3) एस्ट्रल बाडी 4) मेन्टल बाडी 5) काजल बाडी कहा गया है|

पांच कोषों में से तृतीय कोष मनोमय कोष को हम इस भाग में विस्तारपूर्वक जानने का प्रयास करेंगे|

मनोमय कोष- मन दो अक्षरों से बना है म+न इसमें न अक्षर को यदि पहले न के साथ जोड़ दिया जाए तो मनन बन जाता है यदि न को म से पहले ले आएं तो यह नमन बन जाएगा | मन का कार्य मनन करते हुए नमन करना भी है | संस्कृत के शब्द मनस, हिंदी मन तथा अंग्रेजी शब्द माइंड का सम्बन्ध मनोमय कोष से है | मन यनि मनोमय कोष मस्तिष्क में माना जाता है| मन प्राणों से भी सूक्ष्म है किसी का भी सहारा लिए बिना रहता है| मन इच्छा करता है, मन द्वन्द्धात्मक है| मन को अरुचि-रूचि, हर्ष-शोक, राग-द्वेष, सुख-दुःख,संकल्प-विकल्प होते हैं| 

      मनोमय कोष (मन-सामग्री-स्पष्ट-शीथ) मानसिक और भावनात्मक म्यान (तलवार का खोल) है, जो सूक्ष्म शरीर में भी शामिल है। यह दो परतों में समझा जाता है: बुद्धी (ओडीक्यूशल म्यान) और मन (ओडिसी-ऐफ्रल शीथ)।

कहीं पर मन अंत: करण चतुष्ठय अर्थात मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार चारों का समावेश करने वाला कहा गया है |

प्रत्येक व्यक्ति चाहवान रहता हैं कि अच्छी आदतें आएं तथा बुरी आदतें छोड़ देवें|  लेकिन हमारा मन हमेशा विद्रोह करता रहता है | उद्धाहरण के लिए हमारे सामने किताब खुली है और हम पढ़ रहे हैं आँखों से देख रहे हैं लेकिन मन कहीं और ही है तब ऐसी स्थिति में क्या हम अपने पाठ को समझ रहे हैं ? हम बैठे यहाँ हैं मन कहीं घूम रहा है आखिर ऐसा क्यूँ ? मन हमारा सबसे बड़ा शत्रु है यह मन सबसे तेज गति से भागता है, उसे काबू में रखना मुश्किल रहता है|

माला तो कर में फिरै , जीभ फिरै मुख माँहि ।

मनवा तो चहु दिशा फिरै , ये तो सुमिरन नाहिं ॥ — कबीर

मनुष्य का स्वभाव है कि जैसा वह आचरण करता है, अनुभव करता है ,सोचता है , व्यवहार करता है यह सब उसके मन की सरंचना पर ही निर्भर करता है|

मनुष्य शरीर की पांच कर्म इन्द्रियां हैं जो संसारी कार्यों को करने में इस्तेमाल होती हैं | १) हाथ - हाथों से करने वाले सभी कार्य २) पैर - चलना  ३) मुंह(मुख) - बोलना , खाना ४) लिंग - सम्भोग, मूत्र विसर्जन  ५) गुदा - मल विसर्जन

     मनुष्य शरीर की पांच ज्ञानइन्द्रियां हैं जो विभिन्न प्रकार का ज्ञान हासिल करने में इस्तेमाल होती हैं | १) आंख - रूप , आकार का ज्ञान २) नाक - गंध(सुगंध, दुर्गन्ध ) का ज्ञान  ३) कान - ध्वनी , आवाज, शब्द का ज्ञान ४) जीभ - रस(मीठा , नमकीन , कडवा , तीखा , कसेला, फीका इत्यादि ) का ज्ञान ५) त्वचा (चमड़ी ) - स्पर्श (छूना ) का ज्ञान इन्हीं क्रियाओं को ज्ञानइन्द्रियों कहा गया है |

हमारा मन उपरोक्त इन्दिर्यों का राजा है| हमरी इन्द्रियां मन के संयोग से ही कार्य करती हैं, तभी तो हम कभी कभी कह देते हैं कि मेरा मन अन्यंत्र था, इस लिए मैंने नहीं देखा, इसलिए मैंने नहीं सुना | मनुष्य जो कहता है, इसी से निश्चित होता है कि वह मन से देखता है और मन से ही सुनता है|

गीता में मन को 11वीं इन्द्रिय माना जाता है, जो ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच नियामक का काम करता है। स्वामी शंकराचार्य जी ने भी कहा है कि “सबसे उत्तम तीर्थ अपना मन है जो विशेष रूप से शुद्ध किया हुआ हो |”

      मन ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का समूह है | व्यक्ति जैसा देखता है मन में उसका शब्द चित्र बनता है वैसा उसका विचार बनता है| विचारों के अनुसार वह क्रिया करता है| क्रियाओं के आधार पर व्यक्ति की आदतें बनती है ,आदतों से उसका स्वभाव बनता है जैसा स्वभाव होगा वैसा उसका चरित्र बनता है | जैसा चरित्र होगा वही मनुष्य का व्यक्तित्व कहलाता है| अपने व्यक्तित्व अनुसार ही व्यक्ति शब्दों को जन्म देता है|  

      मन का एक प्रमुख काम भाषा को जन्म देना भी है। आम व्यक्ति का मस्तिष्क हर समय अनियंत्रित विचारों के रूप में भाषा पैदा करता रहता है। मनुष्य कभी-कभी अपने चिंतन को बंद करके अपने मन और मस्तिष्क को शांत करना चाहता है, पर इसमें उसे प्राय: सफलता नहीं मिलती। शब्दों के कोहरे के परे न देख पाने के कारण मनुष्य अपने जीवन में उन शब्दों से निर्देशित होता रहता है, जो उसे अपने परिवार, समाज, शिक्षा तथा राजनीतिक और धार्मिक वर्गों से मिले हैं।  उसका जीवन कुछ विश्वासों, सिद्धांतों और विचारधाराओं तक सीमित रहता है और वह उनके परे जाने की बात सोच भी नहीं सकता। ऐसी दशा में रहने वाला व्यक्ति अंतिम सत्य को नहीं जान सकता, क्योंकि अंतिम सत्य शब्दों से परे है। केवल भाषातीत चैतन्य की अवस्था में ही उसे जाना जा सकता है। आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दोनों प्रकार की प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि हम भाषा की सीमा को जानें और शब्दों से उत्पन्न होने वाली भ्रांति से अपने आप को दूर करें। गीता हमें शब्दों से ऊपर उठने का संदेश देती है, भले ही वे शब्द धर्मग्रंथों के ही क्यों न हों।

जब मैं स्वयं पर हँसता हूँ तो मेरे मन का बोझ हल्का हो जाता है |-– रविन्द्रनाथ टैगोर

गीता अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच संवाद है, जो क्रमश: व्यक्तिगत चेतना और विश्व चैतन्य के प्रतीक हैं। ये दोनों ही हमारे अंदर हमारी व्यक्तिगत चेतना और विश्व चैतन्य के रूप में विद्यमान हैं। अर्जुन द्वारा उठाए गए प्रश्न हमारे मन में हर रोज उठते हैं। उनका उत्तर हमें अपने हृदय की उस मौन गहराई में मिलेगा, जहां श्रीकृष्ण परमात्मा पूर्ण शब्दातीत नीरवता की भाषा में हमसे संवाद करने के लिए सदा विद्यमान हैं। (परमात्मा केवल एक ही भाषा का प्रयोग करता है और वह है पूर्ण आंतरिक नीरवता।)

 पतंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना (चित्तवृत्तिनिरोधः) ही योग है। अर्थात मन को इधर-उधर भटकने न देना, केवल एक ही वस्तु में स्थिर रखना ही योग है।

कबिरा मन निर्मल भया , जैसे गंगा नीर ।

पीछे-पीछे हरि फिरै , कहत कबीर कबीर ॥ — कबीर

नाव जल में रहे लेकिन जल नाव में नहीं रहना चाहिये, इसी प्रकार साधक जग में रहे लेकिन जग साधक के मन में नहीं रहना चाहिये ।— रामकृष्ण परमहंस

विषयों का चिंतन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से मूढ़ता और बुद्धि भ्रष्टता उत्पन्न होती है। बुद्धि के भ्रष्ट होने से स्मरण शक्ति क्षीण हो जाती है , यानी ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है। और जब बुद्धि तथा स्मृति का विनाश होता है, तो सब कुछ नष्ट हो जाता है।–                            गीता (अध्याय 2/62, 63)

माया मरी न मन मरा , मर मर गये शरीर ।

आशा तृष्ना ना मरी , कह गये दास कबीर ॥— कबीर

जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखा जा सकता है - वेदव्यास

एक चीनी कहावत में कहा जाता है कि -उदार मन वाले विभिन्न धर्मों में सत्य देखते हैं। संकीर्ण मन वाले केवल अंतर देखते हैं ।

जो मनुष्‍य अपने मन का गुलाम बना रहता है वह कभी नेता और प्रभावशाली पुरूष नहीं हो सकता। ~ स्‍वेट मार्डन

स्वामी विवेकानंद कहा करते थे कि मन का विकास करो और उसका संयम करो, उसके बाद जहाँ इच्छा हो, वहाँ इसका प्रयोग करो–उससे अति शीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो, और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्त को प्राप्त करता है, वह अंश को भी प्राप्त कर सकता है। 

बिम्बसार के अनुसार मानव हृदय में भी एक रहस्य है, एक पहेली है | जिस पर क्रोध से भैरव हुंकार करता है| उसी पर स्नेह का अभिषेक करने के लिए प्रस्तुत रहता है|

उपनिषदों में मन की मनोविज्ञानिक व्याख्या भी प्रस्तुत की गई है| छान्दोग्य उपनिषद (6/7) में मन अन्नमय,प्राण जलमय तथा वाक तजोमय है| मन में संकल्प , इच्छा आदि की शक्ति रहती है| पंचमकरों में उसे भी एक स्थान प्राप्त है| उसकी चंचल गति के कारण उस पर प्रतिबन्ध की आवश्यकता है|

मनुस्मृति में भी कहा गया है कि जिस कर्म को करने में लज्जा महसूस नहीं होती – एवं अंतरात्मा संतुष्ट होती है वह सात्विक है | धम्मपद नामक बौद्धग्रन्थ (67/68) में भी इसी प्रकार के विचार पाए गए हैं | कालिदास भी यही कहते हैं कि जब कर्म- अकर्म का निर्णय करने में कुछ संदेह हो तब –

सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमंत: करणप्रवृत्तय: |

“सत्पुरुष लोग अपने अंत:करण

श्री राम कृष्ण देव कहते हैं कि जो शुद्ध मन है, वही शुद्ध बुद्धि है और शुद्ध बुद्धि ही आत्मा है| 

मानस ( संस्कृत : मनस, "मन") मूल व्यक्ति से , "सोचने के लिए" या "मन" - रिकॉर्डिंग संकाय है; भावनाओं को बाहर की दुनिया से इकट्ठा होने वाले छापों को प्राप्त करता है यह ज्ञान (ज्ञान) या विद्या (समझ) की बजाय इंद्रियों और पैदावार विज्ञान (सूचना) के लिए बाध्य है। वह संकाय जो चेतना को प्रस्तुत किए जाने से पहले संवेदी प्रभावों का समन्वय करता है मन से संबंधित; जो मनुष्य से पशुओं को अलग करता है एक इंस्ट्रूमेंट में से एक है जो इंद्रियों की सहायता से बाहरी दुनिया से जानकारी प्राप्त करता है और इसे बुद्धी (बुद्धि) के उच्च संकाय में पेश करता है। मानस अंतःकरण के चार हिस्सों में से एक है ("आंतरिक विवेक" या "प्रकट मन") और अन्य तीन भागों में बुद्धी (बुद्धि), चिट्टा (स्मृति) और अहंकार (अहं) है।

मन (मानस) के लक्षण[सम्पादन]

  • अनुभव वाले संकाय जो इंद्रियों के संदेश प्राप्त करता है।
  • सहज मन, मोटर और संवेदी अंगों के शासक
  • इच्छा की सीट
  • अनुशासित दिमाग को मन कहा जाता है
  • विरोधाभासों से भरा है: संदेह, विश्वास, विश्वास की कमी, शर्म की बात है, इच्छा, डर, दृढ़ता, स्थिरता की कमी।
  • इस विशेष संकाय को संदेह और संकल्प की विशेषता है।
  • मानसिक संकाय, जो मनुष्य से मात्र जानवरों को अलग करता है
  • व्यक्तिगत सिद्धांत; जो कि व्यक्ति को यह जानने में सक्षम बनाता है कि वह मौजूद है, लगता है और जानता है
  • मनुष्य ही नश्वर है, मौत पर टुकड़े हो जाता है - जैसे कि उसके निचले हिस्से का संबंध है|

दो भागों में विभाजित[सम्पादन]

  1. बुद्ध मन (उच्च मन)
  2. काम मन (निचले मन), निचले मन को संदर्भित करता है; काम का अर्थ "इच्छा"

मानस इंद्रियों के माध्यम से अनुभव करते हैं[सम्पादन]

मानस (मन) जीवन के कारखाने में पर्यवेक्षक की तरह है, और इन्द्रियों को निर्देशित करता है। मानस दिशा देने का एक बढ़िया काम करता है, लेकिन कारखाने में यह महत्वपूर्ण निर्णय निर्माता नहीं माना जाता है। यही बुद्धि का काम है। अगर बुद्धि घबरा जाती है, तो मानस को अच्छी अनुदेश मांगने के लिए सवाल जारी रखने की आदत है। फिर यह अक्सर उस व्यक्ति की बात सुनता है जो कारखाने में सबसे ऊंचा शब्द बोल रहा है, जो कि चित्त के मेमोरी बैंक में संग्रहित इच्छाएं, आकर्षण और अचेतन है।

वेदों में मन का वर्णन  [सम्पादन]

  • जाग्रत चित्त  (जागरूक दिमाग, "जागृत चेतना") साधारण, जागने, मन की सोच वाली स्थिति जिसमें अधिकांश लोग दिन के सबसे अधिक कार्य करते हैं।
  • संस्कार चित्त  (अवचेतन मन, "छाप मन") मन का "सचेत मन" के नीचे, सभी अनुभवों के भंडार या रिकॉर्डर (चाहे वह जानबूझकर याद किया जाता है या नहीं) - पिछले छापों, प्रतिक्रियाओं और इच्छाओं के धारक इसके अलावा, अनैच्छिक शारीरिक प्रक्रियाओं की सीट।
  • वसाणा चित्त (उपशोधात्मक मन, "अचेतन गुणों का मन")। अवचेतन दिमाग का क्षेत्र जब दो विचार या तीव्रता के समान दर के अनुभव अलग-अलग समय पर अवचेतन में भेजे जाते हैं, और एक दूसरे से मिलकर, कंपन की एक नई और पूरी तरह से भिन्न दर को जन्म देते हैं। यह अवचेतन संरचना बाद में इन संचित कंपनों के अनुसार स्थितियों पर प्रतिक्रिया देने के लिए बाहरी मन का कारण बनती है, वे सकारात्मक, नकारात्मक या मिश्रित होते हैं।
  • कराना चित्त  ( बेहोश मन) प्रकाश का मस्तिष्क, आत्मा की सर्वज्ञानी बुद्धि मनोवैज्ञानिक शब्द ट्यूरिया है , "चौथा," अर्थ का अर्थ जागृत राज्यों (जाग), स्वपन (सपना) और सुशपति (गहरी नींद) से परे है। अपने सबसे गहरे स्तर पर, अतिसंवेदनशील पराशक्ति , या सच्चिदानंद , भगवान शिव के दिव्य मन हैं। संस्कृत में , विभिन्न स्तरों और अतिसंवेदनशीलता के राज्यों के लिए कई शब्द हैं। विशिष्ट विशेषाधिकार जैसे राज्यों: विश्वचैतन्य("सार्वभौमिक चेतना"), अद्वैत चैतन्य ("नैतिक चेतना"), अध्यात्म चेतना ("आध्यात्मिक चेतना")
  • अनुराण चित्ता बेहोश मन जो जागरूक और अवचेतन राज्यों के माध्यम से काम करते हैं, जो अंतर्ज्ञान, स्पष्टता और अंतर्दृष्टि को आगे बढ़ाता है।

फ्रायड के अनुसार- ‘‘मन से तात्पर्य व्यक्तित्व के उन कारकों से होता है जिसे हम अन्तरात्मा कहते है। तथा जो हमारे व्यक्तित्व में संगठन पैदा करके हमारे व्यवहारों को वातावरण के साथ समायोजन करने में मदद करता है।’’

चेतन मन[सम्पादन]

मन का वह भाग जिसका सम्बन्ध तुरन्त ज्ञान से होता है, या जिसका सम्बन्ध वर्तमान से होता है। जैसे- कोर्इ व्यक्ति लिख रहा है तो लिखने की चेतना है, पढ़ रहा है तो पढ़ने की चेतना है। व्यक्ति जिन शारीरिक और मानसिक क्रियाओं के प्रति जागरूक रहता है वह चेतन स्तर पर घटित होती है। इस स्तर पर घटित होने वाली सभी क्रियाओं की जानकारी व्यक्ति को रहती है। यद्यपि चेतना में लगातार परिवर्तन होते रहते हैं परन्तु इसमें निरन्तरता होती है अर्थात् यह कभी खत्म नहीं होती है।

चेतन मन की विशेषताएँ[सम्पादन]

  • यह मन का सबसे छोटा भाग है।
  • चेतन मन का बाहरी जगत की वास्तविकता के साथ सीधा सम्बन्ध होता है।
  • चेतन मन व्यक्तिगत, नैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आदर्शों से भरा होता है।
  • यह अचेतन और अर्द्धचेतन पर प्रतिबन्ध का कार्य करता है।
  • चेतन मन में वर्तमान विचारों एवं घटनाओं के जीवित स्मृति चिन्ह होते हैं।

अर्द्ध चेतन मन

अर्द्धचेतन का तात्पर्य वैसे मानसिक स्तर से होता है। जो वास्तव में में न तो पूरी तरह से चेतन हैं और ही पूरी तरह से अचेतन। इसमें वैसी इच्छाएँ, विचार, भाव आदि होते हैं। जो हमारे वर्तमान चेतन या अनुभव में नहीं होते हैं परन्तु प्रयास करने पर वे हमारे चेतन मन में आ जाती है। अर्थात् यह मन का वह भाग है, जिसका सम्बन्ध ऐसी विषय सामग्री से है जिसे व्यक्ति इच्छानुसार कभी भी याद कर सकता है। इसमें कभी-कभी व्यक्ति को किसी चीज को याद करने के लिए थोड़ा प्रयास भी करना पड़ता है। जैसे- अलमारी में रखी पुस्तकों में से जब किसी पुस्तक को ढूँढते हैं और कुछ समय के बाद पुस्तक न मिलने पर परेशान हो जाते हैं| फिर कुछ सोचने पर याद आता है कि वह पुस्तक  हमने अपने मित्र को दी थी। अर्थात् अर्द्धचेतन मन चेतन व अचेतन के बीच पुल का काम करता है।

अर्द्ध चेतन मन की विशेषताएँ

  • मन का वह भाग जो चेतन से बड़ा व अचेतन से छोटा होता है।
  • अचेतन से चेतन में जाने वाले विचार या भाव अर्द्धचेतन से होकर गुजरते हैं।
  • अर्द्धचेतन में किसी चीज को याद करने के लिए कभी-कभी थोड़ा प्रयास करना पड़ता है।

अचेतन मन

       हमारे कुछ अनुभव इस तरह के होते हैं जो न तो हमारी चेतना में होते हैं और न ही अर्द्धचेतना में। ऐसे अनुभव अचेतन होते हैं। अर्थात् यह मन का वह भाग है जिसका सम्बन्ध ऐसी विषय वस्तु से होता है जिसे व्यक्ति इच्छानुसार याद करके चेतना में लाना चाहे, तो भी नहीं ला सकता है।

       अचेतन में रहने वाले विचार एवं इच्छाओं का स्वरूप कामुक, असामाजिक, अनैतिक तथा घृणित होता है। ऐसी इच्छाओं को दिन-प्रतिदिन के जीवन में पूरा कर पाना सम्भव नहीं है। अत: इन इच्छाओं को चेतना से हटाकर अचेतन में दबा दिया जाता है और वहाँ पर ऐसी इच्छाएँ समाप्त नहीं होती है। बल्कि समय-समय पर ये इच्छाएँ चेतन स्तर पर आने का प्रयास करती रहती है।

फ्रायड ने इस सिद्धान्त की तुलना आइसबर्ग से की है। जिसका 9/10 भाग पानी के अन्दर और 1/10 भाग पानी के बाहर रहता है। पानी के अन्दर वाला भाग अचेतन तथा पानी के बाहर वाला भाग चेतन होता है तथा जो भाग पानी के ऊपरी सतह से स्पर्श करता हुआ होता है वह अर्द्धचेतन कहलाता है।

अचेतन मन की विशेषताएँ[सम्पादन]

  • अचेतन मन अर्द्धचेतन व चेतन से बड़ा होता है।
  • अचेतन में कामुक, अनैतिक, असामाजिक इच्छाओं की प्रधानता होती है।
  • अचेतन का स्वरूप ज्ञानात्मक होता है। अर्थात् अचेतन मन में जाने पर इच्छाएँ समाप्त नहीं होती है। बल्कि सक्रिय होकर ये चेतन में लौट आना चाहती है। परन्तु चेतन मन के रोक के कारण ये चेतन में नहीं आ पाती है और रूप बदलकर स्वप्न व दैनिक जीवन की छोटी-मोटी गलतियों के रूप में व्यक्त होती है और जो अचेतन के रूप को गत्यात्मक बना देती है।
  • अचेतन के बारे में व्यक्ति पूरी तरह से अनभिज्ञ रहता है क्योंकि अचेतन का सम्बन्ध वास्तविकता से नहीं होता है।
  • अचेतन मन का छिपा हुआ भाग होता है। यह एक बिजली के प्रवाह की भाँति होता है। जिसे सीधे देखा नहीं जा सकता है परन्तु इसके प्रभावों के आधार पर इसको समझा जा सकता है।

स्पष्ट है कि अचेतन अनुभूतियों एवं विचारों का प्रभाव हमारे व्यवहार पर चेतन, अर्द्धचेतन अनुभूतियों एवं विचारों से अधिक होता है। इसी कारण चेतन व अर्द्धचेतन का आकार चेतन की अपेक्षा बड़ा होता है।

       कुछ चीजें ऐसी होती है जिन्हें आप नहीं बदल सकते जैसे ग्रहों की गति, मौसम का परिवर्तन, समुद्र का ज्वार-भाटा या सूर्य का उदय व् अस्त होना चेतन मन जिन विश्वासों, मान्यताओं, रायों और विचारों को स्वीकार करता है, वे सभी आपके अधिक गहरे, अवचेतन मन पर अपनी छाप छोड़ते हैं| अपने अवचेतन मन को सही रस्ते पर कैसे ले जाएँ वह सीखना बहुत जरूरी है | सौन्दर्य, प्रेम, शांति, बुद्धिमानी और सर्जनात्मक विचारों वाली सोच रखें| आप का अवचेतन मन उसी के हिसाव से प्रक्रिया करेगा और आपकी मानसिकता, शरीर तथा जीवन की परस्थितियों को बदल देगा|

       मनोविज्ञान और मनोविश्लेषक बताते हैं कि जब विचार आपके अवचेतन मन तक पहुँचते हैं, तो वे मस्तिष्क की कोशिकाओं पर अपनी छाप छोड़ देते हैं| आपका अवचेतन मन गीली मिट्टी की तरह होता है यह किसी भी तरह के –अच्छे या बुरे – विचार को स्वीकार कर उसी आकार में ढल जाता है| आपके विचार सक्रिय होते हैं| उन्हें वे बीज मान लें, जो आप अपने अवचेतन मन की मिट्टी में बोते हैं | नकारात्मक विनाशकारी विचार आपके अवचेतन मन में नकारात्मक ढंग से काम करते हैं निश्चित रूप से समय आने पर आपको उनके अनुरूप ही फसल मिलेगी| आपके चेतन मन के आदतन विचार आपके अवचेतन मन में गहरे खांच बना देते हैं यदि आपके आदतन विचार सामंजस्यपूर्ण शांति और सृजनात्मक है, तो यह आपके लिए बहुत फायदेमंद होता है इसलिए यह बात जान लें कि विचार ही वस्तु है|   

व्यक्तित्व के तत्व :-[सम्पादन]

कामतत्व  ID –– ऐसी इच्छाएँ जो शीघ्र संतुष्टि चाहती हैं कामतत्व कहलाती है जैसे भूख-प्यास , ख़ुशी- गम, क्रोध, आक्रामकता आदि

अहम  EGO- - मन का सचेतन भाग जो मनुष्य को तनाव व् चिंता से बचाता है उसे अहम कहते हैं| जैसे वास्तविकता ,तर्क,स्मरण शक्ति, निर्णय शक्ति आदि की प्रवृति को विकसित करना है|

पराहम  Super Ego- – यह अवस्था समाजिक नैतिक जरूरतों के पैदा अनुसार होती है| यह सही मायनों में अनुभवों का हिस्सा है|

फ़्राईड का मानना है कि कामतत्व तथा पराहम का संतुलन ही सन्तुलित व्यक्तित्व है |

       युंग ने इसका प्रतिवाद किया है उसने कहा कि अचेतन मन केवल दमित इच्छाओं का भंडार नहीं है, इसमें अच्छे संस्कार भी हैं| युंग ने ‘माइंड’ के स्थान पर ‘सायक’ शब्द का प्रयोग किया है किन्तु पश्चिम के यह मनोविद मन की वास्तविक स्थिति तक पहुँचने में सफल नहीं हो सके|

        रेबर के अनुसार- ‘‘मन का तात्पर्य परिकल्पिक मानसिक प्रक्रियाओं एवं क्रियाओं की सम्पूर्णता से है, जो मनोवैज्ञानिक प्रदत्त व्याख्यात्मक साधनों के रूप में काम कर सकती है। अत: मन की हम मात्र कल्पना कर सकते हैं। इसको न तो किसी ने देखा है और न ही हम इसकी कल्पना कर सकते हैं।’’

        श्री अरविन्द ने मन के स्तरों का अत्यन्त ही विशदरूप से वर्णन किया है| उन्होंने मन के विकास को ध्यान में रखते हुए इसके लिए छ: स्तरों का उल्लेख किया है :- समान्य मानस, उच्चतर मानस, प्रदीप्त मानस, अंतर्भासिक मानस, अधिमानस , अतिमानस | अतिमानस मन की उच्चतम अध्यात्मिक अवस्था है| इस अवस्था में मन सत्य का दृष्टा बन जाता है| मन ,प्राण,शरीर का रूपांतरण अतिमानस की शक्ति करती है| ऐसा कहा जाता है कि “मन चंगा तो कठौती में गंगा |”

      सर्वपल्ली राधाकृष्णन :- केवल निर्मल मन वाला व्यक्ति ही जीवन के आध्यात्मिक अर्थ को समझ सकता है। स्वयं के साथ ईमानदारी आध्यात्मिक अखंडता की अनिवार्यता है। 

मन के अध्ययन के भिन्न भिन्न क्षेत्र :-

मन-  यह चिन्तन शक्ति ,स्मरण शक्ति, निर्णय लेने में सक्षम बनाता है

मनोविज्ञान – मन के और इसके कार्य करने के भिन्न-भिन्न पहलूओं का अध्ययन करना है|

मनोविश्लेष्ण- मन के अंदर छुपी उन जटिलताओं को निकालने की विधा है|

समाजिक मनोविज्ञान- समाजिक परिस्थितियों में व्यक्ति के मानसिक व्यवहार का अध्ययन करना है|

शिक्षा मनोविज्ञान- शिक्षा में विद्यार्थी के मानसिक कार्यों के प्रभाव का अध्ययन शिक्षा मनोविज्ञान कहलाता है| 

       (Psychology) में मनुष्य के मन को अलग अलग भागों में देखा जाता है  है| मुख्य रूप से मन को दो भागों – चेतन मन एंव अचेतन मन के रूप में बाँटा गया है|

चेतन या अचेतन मन का विभाजन कोई वास्तविक भौतिक आधार पर नहीं किया जाता बल्कि यह तो एक मनोविज्ञान की अवधारणा है या मन की अवस्थाएँ है|

इस अवधारणा को समझकर हम अपने जीवन में एक बड़ा परिवर्तन ला सकते है|

चेतन मन हमारी चेतन या सक्रिय (Active) अवस्था है, जिसमें हम सोच विचार और तर्क के आधार पर निर्णय लेते है या कोई कार्य करते है|

अवचेतन मन एक Storage Room की तरह है, जो हमारे सभी विचारों, अनुभवों, धारणाओं आदि को Store (संग्रहित) करता है| अवचेतन मन तर्क एंव सोच विचार के निर्णय नहीं लेता बल्कि यह हमारे पिछले अनुभवों एंव धारणाओं के आधार पर स्वचालित तरीके से कार्य करता है|

चेतन मन और अवचेतन मन को एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है –

जब भी कोई व्यक्ति पहली बार साईकिल चलाना सीख रहा होता है, तो उसे साईकिल को ध्यानपूर्वक नियंत्रित करना होता है| शुरुआत में वह संतुलन नहीं बना पाता और थोड़ा डरा हुआ भी रहता है|

लेकिन कुछ दिनों बाद जब वह साईकिल चलाना सीख जाता है तो अब उसे साइकिल को नियंत्रित करने के बारे में सोचने की भी आवश्यकता नहीं होती| अब साइकिल अपने आप नियंत्रित हो जाती है और अब तो वह मित्रों के साथ बातचीत करते हुए या कोई और कार्य करते हुए भी साइकिल चला सकता है|  

ऐसा क्यों होता है ?

Subconscious Mind – Autopilot System

       शुरुआत में जब व्यक्ति पहली बार साइकिल चलाना सीख रहा होता है तो वह अपना “चेतन मन (Conscious Mind)” इस्तेमाल कर रहा होता है| लेकिन जब वह बार-बार साइकिल चलाने की प्रैक्टिस करता है, तो अब यह अनुभव उसके अवचेतन मन में संग्रहित (Store) होने शुरू जाते है और धीरे धीरे अवचेतन मन, चेतन मन की जगह ले लेता है|

हमारा अवचेतन मन एक ऑटोपायलट सिस्टम (Autopilot System) की तरह है जो अपने आप स्वचालित तरीके से कार्य करता है|

सभी स्वचालित कार्यों जैसे साँस लेना, दिल धड़कना आदि कार्य अवचेतन मन के द्वारा ही किए जाते है| हमारी आदतें एंव रोजमर्रा के सभी कार्यों में अवचेतन मन का महत्वपूर्ण योगदान होता है|

मन कैसे काम करता है ? How Mind Works ? 

       अवचेतन मन एक सॉफ्टवेयर या रोबोट की तरह है, जिसकी प्रोग्रामिंग चेतन मन द्वारा की जाती है| अवचेतन मन एक रोबोट की तरह है जो स्वंय कुछ अच्छा बुरा सोच नहीं सकता, वो तो केवल पहले से की गई प्रोग्रामिंग के अनुसार स्वचालित तरीके से कार्य करता है|

हमारे हर एक विचार का हमारे अवचेतन मन पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है या यह कह सकते है कि हम जो कुछ भी सोचते है या करते है उससे हमारे अवचेतन मन की प्रोग्रामिंग होती जाती है और फिर बाद में धीरे धीरे अवचेतन मन उस कार्य को नियंत्रित करने लगता है|

हमारी आदतों और धारणाओं का निर्माण भी ऐसे ही होता है और बाद में वह आदत स्वचालित रूप से अवचेतन मन के द्वारा नियंत्रित होती है|

अवचेतन मन की प्रोग्रामिंग कैसे ?How to Program our Subconscious Mind

       यह हम पर निर्भर करता है कि हम अपने अवचेतन मन की प्रोग्रामिंग कैसे करते है| एक बार प्रोग्रामिंग हो जाने के बाद अवचेतन मन उसी के अनुसार कार्य करने लगता है – चाहे वह कार्य गलत हो या सही|

चेतन मन (Conscious Mind) को विचारों का चौकीदार या गेटकीपर भी कहा जा सकता है| दरअसल हमारा हर विचार एक बीज की तरह है और हमारा अवचेतन मन एक बगीचे की तरह है| हमारा चेतन मन यह निर्णय करता है कि अवचेतन मन में कौनसा बीज बौना है और कौनसा नहीं|

हम कभी कभी अनजाने में अपने अवचेतन मन की गलत प्रोग्रामिंग कर देते है – जैसे अगर मैं यह सोचता हूँ आज मैं यह लेख नहीं लिखूंगा तो यह छोटा सा विचार धीरे धीरे मेरे कार्य को कल पर टालने की आदत बन सकता है|

योग वशिष्ठ:- प्राणशक्तौ निरुद्धायां मनो राम विलीयते

           द्र्वयच्छायानु तद् द्रव्यं प्राणरूपं हि मानसं (83)    

     परमात्मा में उठनेवाला विचार ही वैयक्तिक चेतना होता है| जब विचार और वैयक्तिकरण से चेतना मुक्त होती है, तब मुक्ति होती है| असीम चेतना में उठनेवाला विचार ही इस दृश्य संसार का एकमात्र कारण या बीज होता है जो कुछ मात्र में सिमित वैयक्तिक चेतना को भी उत्पन्न करता है इस प्रकार चेतना जब अपनी नितांत निष्क्रिय स्थिति से आगे बढती है तब वह विचारों से कलुषित हो उठती है, तब चिन्तन शक्ति उत्पन्न होती है और मन ब्रह्मांड के बारे में सोचने लगता है|

     जिस प्रकार प्राण शक्ति को नियंत्रित करने पर मन भी नियंत्रित हो जाता है ठीक वैसे ही किसी पदार्थ को हटा दिए जाने पर छाया भी चली जाती है| इसी प्रकार जब प्राण शक्ति को नियंत्रित किया जाता है तो मन भी नहीं रह जाता| प्राणशक्ति में होने वाली हलचल के  कारण ही व्यक्ति को किसी अन्य स्थान पर हुए अनुभवों का स्मरण हो आता है| इसको मन इसलिए कहते है कि यह प्राणशक्ति की हलचल को अनुभूत करता है| प्राणशक्ति पर जिन उपायों से नियन्त्रण कर सकते हैं वे इस प्रकार हैं:- अनासक्ति या वैराग्य के द्वारा, प्रणायाम के द्वारा, प्राणशक्ति की हलचल के फलस्वरूप अनुसन्धान के द्वारा, दुःख का अंत करने वाले बुद्धिमतापूर्ण उपायों के द्वारा और परम सत्य के अनुभव या प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा|

“जडत्वान  नि:स्वरूपपत्वात सर्वदैव मृतं मन:

मृतेन मर्यते लोकक्षत्रियें मौखर्यचक्रिका “(13/100)

      वशिष्ठ – यह मन जड़ है कोई वास्तविक इकाई नहीं | अत: यह सदा से मृत है | परन्तु इस संसार में इस मृत पदार्थ के द्वारा प्राणी मारे जाते हैं | यह मुर्खता भी कितनी रहस्यमयी है ! मन के पास न आत्मा है, न शरीर है, न कोई सहायक ही है, और न ही अपना स्वरूप है, फिर भी वह संसार कि हर वस्तु का भक्षण करता है | यह सचमुच बहुत बड़ा रहस्य है जो यह कहता है कि उसे मन ने नष्ट कर डाला है उसके कथन में रत्ती भर भी वास्तविकता नही | यह तो वही बात हुई कि कमल कि पंखुड़ी ने किसी के सिर को कुचल डाला हो | किसी का यह कहना है कि मूक-बधिर और दृष्टिविहीन जड़ मन से घायल हुआ हूँ वैसा ही है जैसा कि पूर्णिमा की चांदनी से जल गया हूँ | यह बचित्र बात है कि इस अवास्तविक और मिथ्या मन को प्राणी सशक्त करने में लगे रहते हैं |

         गुरु वशिष्ठ श्री राम से कहते हैं कि हे राम, दुःख की जड़ लालसा है और समझदारी का रास्ता यह है कि उसे पूर्णत: त्याग दिया जाए,  बाली कि तरह अपना मन बदलो इसके लिए वह श्री राम को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि – विरोचन का पुत्र बाली पाताल लोक का शासक था | ब्रह्मांड के स्वामी स्वयं हरी इस राज्य के रक्षक थे, इसलिए स्वर्ग का राजा इंद्र भी बाली का आदर करता था| बाली की आँखों से निकलने वाले तेज के ताप से समुद्र सूख जाते थे| उसकी आँखों में इतनी शक्ति थी कि देखने भर से पहाड़ हिल जाते थे | बाली ने बड़े लम्बे समय तक पाताल पर राज किया था | बहुत समय बीत जाने पर बाली के मन में उत्कट विराग उत्पन्न हुआ | उसने अपने मन से पूछा कि कब तक इस पाताल लोक का शासन करता रहूँगा ? और कब तक इन तीनों लोकों में विचरण करता रहूँगा ? इस राज्य का भोग करने से मुझे क्या मिलने वाला है ? जब इन तीनो लोकों का सब कुछ नष्ट हो जाने वाला है तो कोई सुख भोग कि आशा कर सकता है |  

       कामायणी – कामायणी में मन के विश्लेषण की प्रधानता है | मानव मन का प्रतीक मनु इस चिन्तन का आधार है और उसके माध्यम से मन की स्थिति का उद्धघाटन होता है| वास्तव में मन वह केन्द्र स्थल है जहाँ से प्रत्येक वस्तु का आरंभ होता है| सब कुछ मन की क्रीडा है|

मन की अवस्थाएँ:-

मन को पांच अवस्थाओं में बिभाजित किया गया है:- क्षिप्त, मूढ़,विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध|

        स्वामी विवेकानंद के शब्दों में क्षिप्त में मन चारों ओर बिखर जाता है और कर्मवासना पर्वल रहती है| इस अवस्था में मन की प्रवृति केवल सुख और दुःख दो भागों में ही प्रकाशित होती है| मन की जब चंचल अवस्था होती है, उसका नाम है- क्षिप्त-। हम मन में जल्दी-जल्दी विचारों को बदलते रहते हैं। आप पांच मिनिट बैठिये। मन में देखिए, आप फटाफट पचास विचार उठा लेंगे। वहाँ जाना है, यह करना है, उसको यह बोलना, उससे यह लेना है, उसको वो देना है, ये खरीदना है, वो काम करना है, अभी यह कर लूँ, यह खा लूँ, फिर वहाँ सो जाऊँ, फिर यूँ बात कर लूँ। फटाफट विचार बदलते रहना मन की ‘क्षिप्त-अवस्था’ है। सक्षिप्त अवस्था में रजोगुण की प्रधानता होती | चंचल मन जल्दी विचार बदलता है –इस अवस्था में व्यक्ति जल्दी जल्दी समृतियाँ उठाता है| कभी इसको याद किया तो कभी उसको याद किया |

मूढ़ अवस्था – जब तमोगुण का प्रभाव अधिक होता है- तब मूढ़ अवस्था उत्पन्न होती है I मूर्छा जैसी, थोड़ी नशीली, नशे जैसी अवस्था या तमोगुणी अवस्था मूढ़ता प्रधान अवस्था है I  जैसी थोड़ी नींद सी आ रही है , झटके आ रहे है, आलस्य आ रहा है I या कोई शराब पी लेता है तो नशे की स्थिति हो जाती है I ये सारी मूढ़अवस्था कहलाती है I उस समय व्यक्ति का मन पूरा स्वस्थ नही होता I बुद्धि काम नही करती, समझ नही आता है, उसको पता नही चलता, की क्या करना, क्या नही करना I इस तरह की जो स्थिति है, उसको मूढ़अवस्था कहते है I मूढ़ अवस्था त्मोगुनात्मक है और इसमें मन की प्रवृति केवल औरों का अनिष्ट करने में होती है I विक्षिप्त वह अवस्था है जब मन अपने केंद्र की ओर जाने का प्रयत्न करता है I

विक्षिप्त अवस्था – इस अवस्था में सतत्व्गुण प्रभावशील होता है, सत्तत्व गुण प्रधान होता है I  लेकिन बीच बीच में रजोगुण और – तमोगुण स्थिथि को बिगाड़ते रहते है I जैसे कोई व्यक्ति ध्यान में दो चार मिनट – बैठा, उसका मन ठीक लगा I उसका मन थोडा थोडा टिकने लगता है- फिर किसी कारण से वो ध्यान टूट जाता है, इस लिए एकाग्रता बिगड़ जाती है I इसको बोलते है- विक्षिप्त अवस्था I दो चार मिनट बाद उसने फिर कोई वृत्ति उठा ली और वो स्थिति बिगड़ गयी I इस बिगड़ी हुई अवस्था का नाम है विक्षिप्त I विक्षिप्त का अर्थ – बिगड़ा हुआ होता है I इस तरह रजोगुण के कारण ध्यान की अवस्था जब बिगडती है, मन की शांत स्थिर अवस्था जब बिगडती है- तब उसका नाम है – विक्षिप्त अवस्था I

एकाग्र अवस्था’- इसमें पूरा सतत्व्गुण का प्रभाव होता है I अब रज और तम पूरे चुपचाप बैठ गये, ठंडे हो गयेI अब वो बीच में गडबड नही कर सकते I मन के ऊपर आत्मा का पूरा प्रभाव है, पूरा कंट्रोल है, पूरा नियत्रण है I स ‘एकाग्र अवस्था’ – का मतलब है, कि मन अब पूरा नियंत्रण में आ गया, पूरा अधिकार में आ गया I मन अब हमारी इच्छा के विरुद्ध नही जा सकता I  जैसे पहले कही इधर लगता था, की हम विचार उठाना नही चाहते, फिर भी आ जाते है I लेकिन अब ऐसा नहीं होता है| अब तो हम जो चाहते हैं, वही विचार लाते हैं| इस अवस्था का नाम है एकाग्र अवस्था| “दिल है ,कि मानता नहीं” वाली शिकायत खत्म हो गई| पहले शिकायत थी न, दिल है कि मानता नहीं, वो क्षिप्त अवस्था थी| और अब दिल पूरा मान लेता है सौ प्रतिशत कंट्रोल में आ जाता है| इस अवस्था का नाम है एकाग्र अवस्था | यानि अब सत्त्वगुण प्रबल है| व्यक्ति का मन के ऊपर वैसा ही कंट्रोल है,जैसा कार वाले का कार के ऊपर है| ऐसा ही आत्मा का मन के उप्पर जब पूरा कंट्रोल होता है, तो वो एकाग्र अवस्था है| इस अवस्था में जीवात्मा को समाधि में अपने आत्मस्वरूप की अनुभूति होती है और सूक्ष्म प्राकृतिक तत्वों की भी अनुभूति होती है और सूक्ष्म प्राकृतिक तत्वों की भी अनुभूति होता है| इसका नाम एकाग्र अवस्था| इस अवस्था में एक समाधि होती है, उसको बोलते हैं “संप्रज्ञातसमाधि” –एकाग्र अवस्था तभी होती है जब मन निरूध होता है|  

निरुध अवस्था – यह एकाग्र अवस्था से भी ऊँची अवस्था है I इसमें भी मन पर पूरा नियंत्रण होता है I इसमें भी एकाग्र की तरह से ही मन पर पूरा कंट्रोल है | एकाग्र में और निरुध में क्या अंतर है ?  अंतर मात्र इतना है कि एकाग्र अवस्था में प्राकृतिक तत्वो और जीवात्मा व सकारात्मक चीजों की अनुभूति होती है|  यह मन को एकाग्र करने की उच्चतम अवस्था है| I क्षिप्त और मूढ़ अवस्था निम्न स्तर की है I इससे विकसित विक्षिप्त है और उससे अच्छी एकाग्र अवस्था मानी जाती है | सबसे अच्छी है निरुध अवस्था को कहा जाता है बार –बार अभ्यास करने से यह स्थिति पाई जा सकती है|  पतंजली योगशास्त्र में कहा गया है “योगशाचितवृति निरोध” अर्थात मन के विचारो को रोको I जैसे जैसे मन के विचारों को रोकते जायेंगे वैसे ऊँची स्थिति बनती जाएगी| जब विक्षिप्त अवस्था आ जाएगी और पूरे विचार रोक देंगे तो सम्पूर्ण   एकाग्र अवस्था आ जाएगी I

चित की अनुभूति उसके क्रिया अर्थात कार्य करने के तरीके से होती है जिसे वृति कहते है. वृति के कारण ही दुख या सुख का अनुभव होता है किन्तु यह सदेव सत्य को आवर्त करती है. जब तक वृतिया रहती है, चित क्रियाशील है, ऐसा समझना चाहिए. चित की वृतिया  प्रमुखतया पांच है – प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति I

1.      प्रमाण – जानने या उपाय प्रमाण कहलाता है, प्रमाण के तीन प्रकार’ है – प्रत्यक्ष,अनुमान और शब्द I ज्ञानेन्द्रियो के द्वारा सीधे जो अनुभव होता है वह प्रत्यक्ष प्रमाण है, जब किसी वस्तु की सत्ता का ज्ञान अन्य वस्तु के ज्ञान द्वारा प्राप्त हो वह अनुमान प्रमाण कहलाता है, पूर्वज्ञान के पश्चात् होने वाला ज्ञान अनुमान है अर्थात जो प्रत्यक्ष पर आधारित हो. जब किसी तथ्य की सूचना शब्द अथवा लिखित माध्यम से प्राप्त होती है तो उसे शब्द प्रमाण कहते है.

2.      विपर्यय – गलत आभास को मिथ्याज्ञान अर्थात विपर्यय कहते है I  इसके अंतर्गत संयश या भ्रम को ले सकते है I जैसे रस्सी को देखकर हम उसे साप समझने की भूल करते है विपर्यय, अविद्या, अस्मिता, राग,  द्वेष, और अभिनिवेश इस पांचो क्लेशो से युक्त है.

3.      विकल्प – जिसके विषय में असमंजस हो और उसकी मन से कल्पना की जाये उसको  विकल्प कहते है. शब्ज्ञान अर्थात सुनी सुनाई बातो पर पदार्थ की कल्पना अर्थात अय्थार्थ चिंता करना ही विकल्प वृति है. इसमें व्यक्ति वर्तमान से अलग होकर अपने एक संसार का निर्माण क्र दुखो को निम्रित कर लेता है I

4.      निद्रा – विषयागत बोध का आभाव निद्रा है. नींद में भी चित की समस्त वृतिया सक्रिय रहती है तभी अच्छे और बुरे स्वप्न आते है I

5.      स्मृति – संस्कारजन्य ज्ञान है, जिन अनुभूतियो को हम भूल नही पाते है या अनुभवमें आये विषयों का बार बार स्फुरित होना समृति है I अच्छी या बुरी घटनाओ की स्मृति रहने से कलेश उत्पन्न होते है I

      प्रथम दो वृतियो का सम्बन्ध वायः परिस्थितियों से है और अंतिम तीन का आंतरिक. मन इधर-उधर स्वभावत: इन्ही वृतियो में तब तक भटकता रहता है, जब तक की उसको प्रशिक्षित नही किया जाये. वृतियो के रहते सत्य को जाना नही जा सकता इसलिए उनकी विलय करना अनिवार्य है. वृतियो के निरोध के बिना ईश्वर सम्बन्धी विषयों को सम्यक रूप से ग्रहण नही किया जा सकता. इसके लिए शरीर और मन दोनों का प्रशिक्षण अनिवार्य है. वृतिया पूर्व संस्कारो और वर्तमान में ग्रहण किये जाने वाले विषयों से प्रभावित होती है. यम,नियम,आसन,प्रत्याहार शारीरिक प्रशिक्षण का अंग है जो की वर्तमान वृतियो को संतुलित करती है. मन का प्रशिक्षण प्राणायाम, धरना  और ध्यान के द्वारा किया जाता है, इससे पूर्व जनम की वृतिया रूपांतरित होती है|

     साधक जब साधना के मार्ग में प्रवेश करता है और मन को एकाग्र करने का प्रयास करता है तो उत्साह से आरंभ करता है और शांति का अनुभव अधिकाशत: साधको को होता है. प्रथम अवस्था सहज और प्रेरणादायक प्रतीत होती है किन्तु मन की स्थिति हमेशा एक सी नही रहती, जब शरीर और मन को स्थिर करने का प्रयास करते है तो कई बाधाये समक्ष  आ जाती है|

मन को स्थिर रखने में बाधाएं:-

·        व्याधि – यह शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की हो सकती है , यदि दोनों रूप से स्वस्थ

      नहीं होंगे अधिक दूर नहीं चल पाएंगे | प्रमाण उर्जा जहाँ भी विकार होता है वहां एकत्र

         होकर अवरुद्ध हो जाति है |

·        सत्यान- चित्त अकमन्यता – इसमें व्यक्ति सब प्रकार की बातें अवश्य करता है किन्तु क्रियान्वय

         के लिए प्रत्न्शील नही हो पता है |

·        संशय / संदेह – इसके कारण दृढ़ता में कमी होती है |

·        प्रसाद-  जान बूझकर व्यर्थ के कामो के पड़ना और असावधानी के साथ कार्या करना |

·        आलस- शरीर व मन में एक प्रकार का भारीपन आ जाने से योग साधना नही कर पाना |

·        अविरति-अछी अथवा बुरी बैटन का चिन्तन |

·        भंतिदर्शन-वास्तविकता  से प्रे अपने मन के अनुसार अर्थ निकलना |

·        अल्बध्भुमिकत्व-फल की प्राप्ति नही दिखने पर कार्य को छोड़ देना अर्थात सतत प्रयास नही करना |

·        अनवस्थितत्व-अगली अवस्था तक पहुंचने अर्थात उन्नति होने पर भी मन स्थिर न रहना किसी एक स्थान या कार्य में ज्यादा देर मन नही लगना ही  अनवस्थितत्व है | यह भी मन की चंचलता  के कारण  उत्त्पन्न विकृति है |

   इन  सब  बाधाओं  के लक्षण  इन  रूपों में व्यक्त  होते  है – दुःख,  निराशा, क्म्पक्म्पी और अनियमित श्वसन रोग,    अक्म्रन्न्यता, संदेह , प्रसाद, आलस्य, विषयासक्ति , भ्रान्ति , उपलब्धि न होने से उपजी दुर्बलता और अस्थिरता | मन एकाग्र करना अत्यंत दुष्कर कार्य है | यह बार बार विचलित होता रहता है और विभिन्न विषयों की और भटकता रहता  है | मन प्रकृति से उत्पन्न हुआ है, इसलिए वह प्रकृति अर्थात माया से अधिक प्रभावित होता है |

मन मस्त भया जब क्या बोले – All’s gone if the mind is gone.

मन अटका तन झटका- Absence from mind, absence from body.

मन एक है और वह एक  समय में , एक ही विषय को ग्रहण तथा अनुभव करता है |  संकल्प के द्वारा उसको एक लक्षय पर टिकने का बारम्बार अभ्यास मन की चंचलता को समाप्त करने के लिए एक महत्वपूर्ण कूंजी है | एकाग्रता प्राप्त करने के लिए  बार बार प्रयतन करना अभ्यास है | अभ्यास तभी सफल होता है जब लम्बे समय तक दृढ संकल्प और समर्पण के साथ  करते है  | बहुत अधिक चंचल और विशाल वृतियां होने के कारण इसको धीरे धीरे प्रकाशित किया  जाता है . प्रशिक्षण के  विभिन्न चरणों में मन की स्थिति अलग अलग इस प्रकार विकसित होती है –

मन में बसे सो सपना देखे – The thought is the father of the action.

   सबसे पहले समस्त घटनाओं , समस्याओं, विचारों और भावनाओं से स्वयं को दूर करने का प्रयास किया जाता है और मन   को एक विषय पर टिकाया जाता है . इससे उर्जा का व्यर्थ क्षय रुक जाता है. यह एकाग्रता की प्राप्ति के लिए प्रथम चरण है |    

    द्वितीय चरण में मन को बार बार विषयों से खीचकर वापिस शुद्ध विषय पर टिकाने का  अभ्यास किया जाता है. इस स्थिथि में मन की स्थिर  होने की प्रवृति थोड़ी सी ठीक होती है |आलस्य इत्यादि में कमी आती है और दिशा निर्देशों का पालन करने के लिए मन प्रवर्त होता है, अपनी भावनाओं  और इच्छाओं  को देखने की क्षमता आती है.

निरंतर अभ्यास के फलस्वरूप जब तृतीय चरण में पहुँचते है तो आत्मविश्वास में वृद्धि होती है. मन में विक्षेप तो होता है किन्तु उसके लिए द्रष्टा का भाव जाग्रत होता है. जिसके कारण मन को अपने विषय पर केन्द्रित करना पहले की तुलना में अधिक सहज होता है,

चतुर्थ चरण की अवस्था में मन के भटकने की चिंता नही रहती |भले ही भटकना तो है किन्तु उससे अधिक सही चीज़े के करने पर ध्यान अधिक रहता है और मन के विचलन की चिंता नही रहती है|

स्वेट मार्डेन ने अपनी पुस्तक जीत के दावेदार में चाणक्य सूत्र का उद्धाहरण देते हुए लिखा है –

“न चलोचेत्तस्य फार्गावाप्ति :”

अर्थात- चकचित अस्थिर, डावांडोल मन वाले आदर्शहीन और लक्ष्य भ्रष्ट व्यक्ति के काम पूरे नहीं होते | इस लिए स्थिर रहो, मन में दृढ़ता हो, आदर्श सामने हो और दृष्टि लक्ष्य पा रहे, ऐसा व्यक्ति सफलता, सुख और समृद्धि का समान अधिकारी है |     

पांचवे चरण में कभी कभी आनंद की अनुभूति होती है किन्तु कुछ अनुभव भ्रम भी उत्पन्न कर सकते है. मन में स्थिरता की वृद्धि होती है किन्तु भ्रमो से मुक्त नही होता है. |

छठे चरण में पहुँच कर मन में थोड़ी स्पष्टता और बढती है और अधिक कार्य करने के लिए उत्साह में वृद्धि होती है |

सातवें चरण में पहुँच कर एकाग्रता में वृद्धि होती है और मन की व्याकुलता में बहुत कमी आती है.|

मन की स्पष्टता और जाग्रति की स्थिति आठवे चरण में पहुँच कर अधिक प्रत्यक्ष होने लगती है. इस स्थिति में निरंतर अभ्यास के पश्चात ध्यान की अंतिम स्थिति में पहुँच जाते  है  इस स्थिति में मन बिल्कुल  स्थिर ,सशक्त और आनंदमयी हो जाता है |

मनोमय कोष के विकास के आयाम :-

      शरीर रथ है, बुद्धि सारथी है, इन्द्रियां घोड़े हैं, मन लगाम है, सारे विषय गोचर हैं और आत्मा उस रथ में बैठा रथी है| पांच कर्मेन्द्रियाँ और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ को वश में रखने वाला कार्य में प्रवृत करने वाला मन है| कर्मेन्द्रिय के रूप में मन का सम्बन्ध प्राण और शरीर के साथ है, ज्ञानेन्द्रिय के रूप में मन का सम्बन्ध बुद्धि के साथ के साथ है|

एकाग्रता :- मन स्वभाव से चंचल है, अनेकाग्र है, गतिमान है| उसकी गति अकल्पनीय है| उसकी अनेकाग्रता भी अदभुत है| मन एक सेकंड में 300 विषय पर एक के बाद एक अपने आप को लगाता है| परन्तु इसको एकाग्र करने से उतनी ही अकल्पनीय शक्ति सम्पादित होती है| मन एकाग्र होता है तभी बुद्धि किसी विषय पर सम्यक ज्ञान प्राप्त कर सकती है|

शांति:-  सामान्य रूप से मन उतेजनाग्रस्त रहता है| भय से प्रेरित होकर तनावग्रस्त रहता है| भय ,शोक,चिंता,हर्ष आदि सभी इसी के विकार हैं उतेजना के कारण बुद्धि की धारणा शक्ति को हानी होती | मन की उतेजित अवस्था उबलते हुए पानी के समान है जिसमे किसी भी पदार्थ का प्रतिबिम्ब खंड-खंड होकर ही दिखाई देता है| इस उतेजना और तनाव को दूर करके मन को शान्त बनाना ही मानसिक विकास है|

अनासक्ति:- अनासक्ति –मन का स्वभाव है कहीं न कहीं चिपक जाना इस आसक्ति को कम करते-करते नि:शेष करना मानसिक विकास है|

द्वंदों की  समाप्ति:- मन दुविधा में फंसा रहता है | मन का स्वभाव है इस दुविधा की स्थिति को मिटाकर निश्चयात्म्कता को ओर लेकर जाने से मन का विकास होगा|

विकारों से मुक्ति:- काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि मन के विकार हैं| इन विकारों को दूर करके मन का विकास किया जा सकता है|

सद्गुण एवं सदाचार – मन को दया, करूणा, स्नेह, कृतज्ञता, विनयशीलता ,अनुकम्पा ,मित्रता आदि गुणों से युक्त करना और इन गुणों से प्रेरति होकर सेवा, दान ,परोपकार आदि से युक्त सदाचारी बनाना मानसिक विकास है|

प्रो. पी.के आर्य – (इच्छा शक्ति)  - नेपोलियन बोनापार्ट में अदम्य साहस और वीरता के अलावा ऐसी कौन सी शक्ति थी, जिसके द्वारा उसकी आदित्य और अत्यंत विस्तृत विजय हुई ? उसके जीवन चरित्र का अवलोकन करने से पता चलता है कि उसकी ‘एकाग्रता’ और ‘लक्ष्य’ बुद्धि ही विजय का रहस्य थी |

              सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है मनुष्य अपने तन,,धन की शक्तियाँ एक ही दृढ संकलप को पूरा करने में लगा दे | पचासों मनोहर और ललचाने वाले कार्य और व्यव्हार हमें दिखाई देते हैं | और हमारा मन उनसे ऐसा डावांडोल हो जाता है कि कभी हम एक काम को छोड़ दूसरे को, फिर किसी तीसरे को करने लग जाते हैं | उसका परिणाम यह होता है कि मुख्य लक्ष्य हाथ से जाता रहता है |

  किसी कवि ने कहा है –

     ‘मन लोभी,मन लालची , मन चंचल,मन चोर,

     मन के मते न चालिए, पलक पलक मन और |’

याद रखिए आधे –अधूरे मन से किया गया कोंई भी काम कभी भी हमें निर्धारित लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकता | दरसल जब हम मानसिक स्तर पर कई भागों में बंट जाते हैं, तब स्वाभाविक रूप से हमारी शक्ति विकेन्द्रित हो जाती है इसका परिणाम यह होता है कि कई दिशाओं में शक्ति बंट जाने से उसके परिणाम भी बनते हुए रूप से मिलते हैं | इस लिए जिस भी कार्य को हम करें, उसमे अपनी शत – प्रतिशत शक्ति इस्तेमाल करने का हुनर आना चाहिए |     

मन कि सभी अवस्थाओं का प्रभाव शरीर पर पड़ता है और शरीर का प्रभाव मन पर पड़ता है वास्तव में हमारा सर्वसामन्य व्यवहार मनोकायिक अर्थात मन और शरीर दोनों के एकत्र आधार पर ही चलता है, फिर भी शरीर से मन कहीं अधिक प्रभावी है| मनोविकार शरीर को अस्वस्थ कर देते हैं रक्तदाब, मधुमेह, अम्लपित, हृदय विकार जैसी व्याधियां मनोविकार का ही परिणाम होती हैं|

      द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी कि कविता मन की मजबूती के लिए काफी हद तक उपयुक्त दिखाई देती है -

मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत,

मत निराश हो यों, तू उठ, ओ मेरे मन के मीत!

माना पथिक अकेला तू, पथ भी तेरा अनजान,

और जिन्दगी भर चलना इस तरह नहीं आसान।

पर चलने वालों को इसकी नहीं तनिक परवाह,

बन जाती है साथी उनकी स्वयं अपरिचित राह।

दिशा दिशा बनती अनुकूल, भले कितनी विपरीत ।

मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत॥1॥

तोड़ पर्वतों को, चट्टानों को सरिता की धार

बहती मैदानों में, करती धरती का श्रृंगार।

रुकती पल भर भी न, विफल बाँधों के हुए प्रयास,

क्योंकि स्वयं पथ निर्मित करने का उसमें विश्वास।

लहर लहर से उठता हर क्षण जीवन का संगीत

मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत॥2॥

समझा जिनको शूल वही हैं तेरे पथ के फूल,

और फूल जिनको समझा तूने ही पथ के शूल।

क्योंकि शूल पर पड़ते ही पग बढ़ता स्वयं तुरंत,

किंतु फूल को देख पथिक का रुक जाता है पंथ।

इसी भांति उल्टी सी है कुछ इस दुनिया की रीत |

मन के हरे हार सदा रे, मन के जीते जीत||

मन की शक्तियाँ :-

मन के भीतर अनन्त शक्तियों का भंडार है| मन की शक्तियों के जागरण में सबसे बड़ी बाधा मन की चंचलता है|

1.      कल्पना - मस्तिष्क में कल्पना शक्ति दी गई हैं, जिसके द्वारा आशाओं और उद्देश्यों को साकार करने के तरीके सुझाएँ जाते हैं। इसमें इच्छा और उत्साह की प्रेरक क्षमता दी गई हैं, जिसके द्वारा योजनाओं और उद्देश्यों के अनुरूप कर्म किया जा सके। इसमें इच्छा शक्ति दी गई हैं, जिसके द्वारा योजना पर लंबे समय तक काम किया जा सके।

2.      आस्था की क्षमता -  इसमें आस्था की क्षमता दी गई हैं, जिसके द्वारा पूरा मस्तिष्क असीम बुद्धि की प्रेरक शक्ति की तरफ मुड जाता हैं तथा इस दौरान इच्छाशक्ति और तर्कशक्ति शान्त रहती हैं।

3.      तर्कशक्ति – इसके द्वारा तथ्यों और सिद्दांतों को अवधारणाओं, विचारों और योजनाओं में बदला जा सकता हैं। तर्क के भीतर इसकी कोई सीमा नहीं हैं, इसकी सीमायें वही हैं, जिन्हें व्यक्ति आस्था के आभाव के कारण स्वीकार करता हैं, यह सच हैं मस्तिष्क जो सोच सकता हैं और जिसमे विश्वास कर सकता हैं, उसे वह हासिल भी कर सकता हैं।

4.      मौन सम्प्रेषण- इसे यह शक्ति दी गई हैं कि यह दूसरे मस्तिष्कों के साथ मौन सम्प्रेषण (Transmission) कर सके, जिसे टेलीपैथी(Telepathy) कहते हैं।

5.       स्मरण शक्ति - अपने हर विचार को ग्रहण करने, Record करने और याद करने के एक अदभुदत फाइलइंग सिस्टम (filing system) दिया गया हैं जिसे स्मरण शक्ति कहा जाता हैं। यह अदभुद तंत्र अपने आप सम्बन्ध विचारों को इस तरह से वर्गीकृत कर देता हैं कि किसी विशिष्ट विचार को याद करने से उससे जुड़े विचार अपने आप याद आ जातें हैं।

6.      ज्ञान- इसके पास सभी विषयों पर ज्ञान प्राप्त करने, संगठित करने, संगृहीत करने और व्यक्त करने की असीमित क्षमता होती हैं, चाहे यह ज्ञान भोतिकी का हो या रहस्यवाद का, बाह्यः जगत का हो या आन्तरिक जगत का।

7.      शारीरिक स्वस्थता - इसके पास शारीरिक सेहत को अच्छा बनायें रखने की शक्ति भी हैं और स्पष्ठ रूप से यह सभी बीमारियों के उपचार का एकमात्र स्त्रोत भी हैं बाकी सभी स्त्रोत तो सिर्फ योगदान देते हैं यह तो शरीर को संतुलित रखने के लिए मरम्मत-तंत्र भी चलाता हैं, जो स्वचालित हैं। इसमें रसायनों का अद्भुद स्वचालित तंत्र भी होता हैं जो शरीर के रखरखाव और मरम्मत के लिए आहार को आवश्यक तत्वों में बदलता हैं।

8.       आत्म-अनुशासन - इस शक्ति द्वारा यह किसी भी अच्छी आदत को ढाल लेता हैं और तब तक कायम रख सकता हैं, जब तक की आदत स्वचलित नहीं हो जाती। यहाँ हम प्रार्थना द्वारा असीम बुद्दिमता से सम्प्रेषण कर सकते हैं इसको प्रक्रिया बहुत आसान हैं इसके लिए आस्था के साथ अवचेतन मस्तिष्क के प्रयोग की जरुरत होती हैं।

9.       अविष्कार का जनक - यह भौतिक जगत के हर विचार, हर औजार, हर मशीन और हर यन्त्र के अविष्कार का एकमात्र जनक हैं।

10.   मानवीय संबंधों का स्त्रोत - समस्त मानवीय व्यवहारों का स्त्रोत हैं इसी से मित्रता और शत्रुता होती हैं, जो इस बात पर निर्भर करता हैं कि इसे किस तरह के निर्देश दियें गए हैं।

11. मन की एकाग्रता – यह सबसे बड़ी शक्ति है| मन की इस एकाग्रता की शक्ति के माध्यम से मनुष्य भीषण शिलाखंडों को चूर चूर कर सकता है| शिक्षा अर्थात ज्ञान की साधना मन की एकाग्रता से ही सम्भव होती है|

उपरोक्त अभ्यास से मन को अपने काबू में रखा जा सकता है जिस व्यक्ति का मन अपने वश में होगा वह जो भी चाहेगा उसे प्राप्त कर लेगा| विद्यार्थी जीवन में मन का संतुलन रहे यह अति आवश्यक है| इस विषय पर श्री गुरु नानक देव जी ने भी फरमाया है कि “मन जीते जग जीते |”

ओशो ने अपने निर्वाण उपनिषद में मन के वारे में विस्तारपूर्वक लिखते हुए कहा है कि- हम जितने भी कार्य करते हैं वह मन का पोषण होता है| हमारे अनुभव ,हमारा ज्ञान, हमारा संग्रह, सब हमारे मन को मजबूत और शक्तिशाली करने के लिए है| ग्रहस्थ व्यक्ति मन की ओर चलता है जबकि सन्यासी अ-मन की तरफ चलता है | सभी लोग मन लेकर पैदा होते हैं, लेकिन धन्य हैं वे, जो मन के बिना मर जाते हैं। सभी लोग मन लेकर जन्मते हैं, लेकिन अभागे हैं वे, जो मन को लेकर ही मर जाते हैं। फिर जीवन में कोई फायदा न हुआ। फिर यह यात्रा बेकार गई। अगर मृत्यु के पहले मन खो जाए, तो मृत्यु समाधि बन जाती है।

मानो हम रास्ते से गुजर रहे हैं, भूख बिलकुल नहीं है, लेकिन थोड़ी देर बाद रेस्तरां दिखाई पड़ गया। मन कहता है, भूख लगी है। हमारे पैर रेस्तरां की तरफ बढ़ने लगते हैं। यह पूछते भी नहीं कि भूख तो जरा भी न लगी थी, जब तक यह बोर्ड नहीं दिखाई पड़ा था। यह बोर्ड दिखाई पड़ने से भूख लगती है! यह मन है। मन से भूख का कोई संबंध नहीं है, स्वाद की आकांक्षा है। मन को प्रयोजन नहीं है शरीर से, मन को स्वाद से प्रयोजन है। तो भूख तो बिलकुल नहीं लगी थी, लेकिन इसको देखकर भूख लग गई। यह भूख झूठी है। अब आप अगर पैर रेस्तरां की तरफ बढ़ाते हैं, तो मन को आप बढ़ाते हैं, मजबूत करते हैं। सोच से, विवेक से खड़े होकर ठहर जाएं एक क्षण। भीतर खोजें, भूख है? एक क्षण भी अगर रुक सकें, तो रेस्तरां में प्रवेश नहीं करना पड़ेगा। क्योंकि मन कितना ही शक्तिशाली दिखाई पड़े, बहुत निर्बल है विवेक के सामने। लेकिन विवेक हो ही न, तो फिर मन बहुत सबल है। जैसे अंधेरा कितना ही हो, एक छोटा सा दीया पर्याप्त है। हां, दीया हो ही न, तो अंधेरा बहुत सघन है।

स्वेट मार्डेन ने अपनी पुस्तक आत्मविश्वास कैसे बढाएं में लिखा है कि - हमारा मन हमारे प्रत्येक कार्य पर, हमारी प्रत्येक चेष्टा पर, यहाँ तक कि स्वयं पर भी शासन करता है , हम उसी की सर्वाधिक उपेक्षा करते हैं | उसे समझने का प्रयत्न ही नहीं करते | मन के संदर्भ में कहा गया है कि-  

 मनोयस्य वशे तस्य भवेत्सर्व जगद्वशे |

  मनसस्तु वशे योअस्ति स सर्वजगतोवशे ||

जिसने मन को वश में कर लिया, उसने संसार को वश में कर लिया, किन्तु जो मनुष्य मन को न जीत कर स्वयं उसके वश में हो जाता है, उसने समझो सरे संसार की अधीनता स्वीकार कर ली |     

मन को वश में करने का सबसे अच्छा साधन है साधना | मन को वश में करने के संदर्भ में भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है –

  असंशय महाबाहो मनोदुर्निग्रहं चलम् |

  अभ्यासेन तु कौन्तेय वैरागयेण च गृहमते ||

  हे महा बाहो ! निसंदेह मन बड़ा चंचल है, यह रूक नहीं सकता, परन्तु हे कौन्तेयं ! अभ्यास और वैरागय से यह वश में किया जा सकता है | 

      गीता के छठवें अध्याय में भगवन श्री कृष्ण जी ने ध्यानयोग के सम्बन्ध में बताते हुए कहा है कि “ यह स्थिर न रहने वाला चंचल मन जी कारण से सांसारिक पदार्थों  में विचरता है उससे रोक कर बारम्बार परमात्मा में निरोध करें| इस प्रकार योगी निरंतर मन को परमात्मा में लगाता हुआ सुख पूर्वक परब्रह्मा परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनन्द को अनुभव करता है|”

ज्ञान मन की शक्तियों में से एक प्रमुख शक्ति है| ज्ञान का अर्थ सब कुछ जानना नहीं है किन्तु अपने अस्तित्व की तीव्र अनुभूति है| वैराग्य उसका परिणाम है|

       हमारा subconscious mind (अर्धचेतन मन) हमारे conscious mind (चेतन मन) से कई लाख गुना ज्यादा शक्तिशाली है और यही हमारी ज़िंदगी की बहुत सी चीजों को तय करते है। बहुत बार हम अपनी कई खराब आदतों को बदलने की कोशिश करते है लेकिन बहुत सी कोशिश के बाद भी बदल नहीं पाते। क्योकि हमारी आदते हमारे subconscious mind (अर्धचेतन मन) मे इतनी strongly program हो जाती है जिसकी वजह से हमारे conscious mind (चेतन अवस्था), कोशिशे भी उस पर कोई असर नही कर पाती।

अपने फोन और लैपटाप का example लीजिए। मान लो आप कोई गाना सुन रहे और गाने को बदलना चाहते हो। ये गाना आपके कहने या चाहने से नहीं बदलेगा जब तक की आप उसे न बदले। इसी तरह अगर हम अपनी लाइफ मे कुछ बदलाव लाना चाहते है तो हमे उन सभी नकरात्मक और बेकार चीजों को अपने subconscious mind से uninstall करना पड़ेगा और इसमे पॉज़िटिव beliefs install करनी पड़ेगी।

        The biology of belief के लेखक Bruce lipton के अनुसार इसी तरह जब सोलोमन आइलेंड के लोग जब पेड़ों को कोसते है तो वह वास्तव मे पेड़ों के mind मे नकारात्मक (negative) और खतरनाक विचारो (harmful thoughts) को install करते है(yes, tree do have minds too)। जिसकी वजह से पेड़ों का molecular architecture बिगड़ जाता है और पेड़ अपने आप गिर जाते है। उनके अनुसार इस बात की पुष्टि quantum physics भी करती है।

        स्वामी विवेकानंद ने कहा है :- “ मैं तो मन की एकाग्रता को ही शिक्षा का यथार्थ सार समझता हूँ- ज्ञातव्य विषयों के संग्रह को नहीं | यदि मुझे फिरसे अपनी शिक्षा प्राप्त करने काव्स्र मिले तो मैं विषयों का अध्यन नहीं करूँगा अपितु मैं तो एकाग्रता की और मन को विषय से अलग कर लेने की शक्ति को बढ़ाऊंगा |”

        मन का प्रभाव एक ओर शरीर पर पड़ता है तो मन दूसरी ओर बुद्धि को भी प्रभावित करता है| जब तक मन एकाग्र, शान्त तथा अनासक्त नहीं होता तब तक बुद्धि सही प्रकार से अपना कार्य नहीं कर सकती | व्यवहार में या शिक्षा में बुद्धि का कार्य प्रशस्त करने के लिए मन को अच्छा बनाना आवश्यक है| बुद्धि के स्तर पर जो कार्य होते हैं वे महत्वपूर्ण अवश्य होते हैं, पर आज बहुत सारी संभावनाएं जो प्रगट हुईं हैं वे बुद्धि के स्तर पर होने वाली घटनाएँ नहीं हैं| वे सारी घटनाएँ मनुष्य के अन्तरंग से प्रगट हुए स्फुलिंग (फ्लैश) से सम्बंधित हैं|

        श्री अरविन्द ने मन की शक्तियों के विषय में चर्चा करते समय लिखा है कि शिक्षा का उपकरण है मन का अंत:करण जिसके चार स्तर होते हैं | चित्त, मानस, बुद्धि और चरम विवेक जो मनुष्य के अंदर पूरी तरह विकसित नहीं हुआ है|  

गौतम बुद्ध – सभी बुरे कार्य मन के कारण उत्पन्न होते हैं अगर मन परिवर्तित हो जाए तो अनैतिक कार्य नहीं होंगे|

      “चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह

      जिनको कुछ नहि चाहिए वे साहन से साह|”- रहीम  

मन ही बंधन का कारण है और मन ही मुक्ति का कारण है। मन को दुष्ट घोड़े की उपमा दी गई है, जो अनियंत्रित होकर कुमार्ग पर दौड़ता हुआ स्वयं की और सवार की हानि करता है। वैसे ही अनियंत्रित मन भी प्राणी को संकटों में ही डालता है।इस चंचल मन पर नियंत्रण कैसे करें? इस पर नियंत्रण के दो ही मार्ग हैं -या तो इसका दमन किया जाए या इसका मार्ग ही बदल दिया जाए। जिस वस्तु का दमन किया जाता है, कालांतर में वह वस्तु नि:सत्व हो जाती है। किसी पदार्थ को हाथ में लेकर उसे दबाइए, सार तत्व उसमें से निकल जाएगा। मन को निस्सार तो नहीं करना है। ऐसा करने पर वह बलहीन हो जाएगा और मनोबल के टूटने पर साधना-आराधना भी नहीं कर सकेगा।                                                     

       उपरोक्त सभी विश्लेषणों के आधार पर हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि मन के घोड़ों को लगाम लगाकर ठीक दिशा प्रदान की जा सकती है|  यदि मन मजबूत होगा तथा अपने नियन्त्रण में रहेगा तो व्यक्ति जो चाहेगा वह प्राप्त कर सकेगा| विद्यार्थियों व अध्यापकों के लिए मन को समझना, उसके प्रत्येक आयाम व कार्य को जानना, मन के विकास तथा शक्तियों को प्रयोगों द्वारा स्थापित करना अति आवश्यक है| जिस संस्थान में मन की एकाग्रता का अभ्यास, मनोविश्लेष्ण, मनोविज्ञान तथा शिक्षा मनोविज्ञान के आधार पर पाठ योजना की जाएगी उस संस्थान में उत्तम शैक्षिक वातावरण, लक्ष्य पूर्ती का संकल्प तथा जीवन मूल्यों की शिक्षा का क्रम आगे ही बढता जाता है| इस दृष्टि से निम्न लिखित प्रमुख कार्यक्रमों के माध्यम से कार्य किया जा सकता है| संस्थान में अध्यापकों, विद्यार्थियों की परिषदों का निर्माण करना, स्वाध्याय के अवसर देना, तनावमुक्त वातावरण के लिए स्वायत्तता देना, स्वअनुशासन के लिए कार्यक्रम, निष्पक्षता , समान दृष्टिबोध, शैक्षिक भ्रमणों का आयोजन, योग विषय को लागू करना, खेलों का उचित प्रबन्ध, कक्षा में परिचर्चा करना, प्रभावी प्रार्थना सभा का आयोजन, दिन में मौन-ध्यान का प्रावधान करना, कलात्मक कार्यों पर बल देना आदि अनेकों गतिविधियों को लागू करके मन का विकास किया जा सकता है|    

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