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महाराजा शैलेन्द्र

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शताब्दी में जाटों में एक ऐसा महापुरुष पैदा होता है जो कि उनके नाम को फिर चमका देता है। उसका राज्य पंजाब से लेकर मालवा और राजपूताने तक फैला हुआ था, क्योंकि कर्नल टाड को उनके सम्बन्ध की लिपि कोटा राज्य में प्राप्त हुई थी। तब अवश्य ही उनके राज्य की सीमा कोटा तक रही होगी, अथवा कोटा उनकी सीमा के अन्तर्गत रहा होगा। टाड साहब को यह लिपि कोटा राज्य में कनवास नामक गांव में सन् 1820 ई. में मिली थी। इस प्राप्त शिलालेख को हम यहां ‘टाड राजस्थान’ से ज्यों का त्यों उदधृत करते हैं -

“जटा आपकी रक्षक हों। जो जटा जीवन समुद्र पार की नौका स्वरूप हैं, जो कुछ एक श्वेत वर्ण और कुछ एक लाल वर्ण युक्त हैं, उन जटाओं का विभव न देखा जाता है। जिन जटाओं में कुछ भीषण शब्दकारी सर्प विराजमान है, वह जटा कैसी प्रकाशमान हैं, जिन जटाओं के मूल से प्रबल तरंगे निकल रही हैं, उन जटाओं के साथ क्या किसी की तुलना की जा सकती है। उन जटाओं द्वारा आप रक्षित हों। जिनके वीरत्व-बाहुबल से शालपुर देश रक्षित होता था, मैं अब उन राजा जिट का वर्णन करूंगा। प्रबल अग्नि-शिखा जिस प्रकार अपने शत्रु को भस्मीभूत करके फेंक देती है, राजा जिट का प्रताप भी उसी प्रकार प्रबल था। महाबली जिट शालेन्द्र (2) परम रूपवान् पुरुष थे, और वह केवल अपने बाहुबल से वीर पुरुषों के आग्रणी हुए थे। चन्द्र जिस प्रकार पृथ्वी को प्रकाशमान करते हैं, उसी प्रकार वह भी अपने शासित देश, शालपुरी को देदीप्यमान करते थे। सम्पूर्ण संसार जिट राजा की जय घोषणा कर रहा है। वह मनुष्य लोक में चन्द्रमा स्वरूप्प दुर्द्धर्ष, साहसी, महामहा बलिष्ठ लोंगों में पंक के बीच कमल के समान बैठ कर स्वजातीय गौरव गरिमा प्रकाश करते थे। उनकी अमित बलशाली दोनों भुजाओं के मनोहर मणि-माणिक्य के आभूषणों का प्रकाश उनकी मूर्ति को उज्जवल कर देता था। असंख्य सेना के अधिनायक थे और उनका धनरत्न असीम था। वह उदार चित्त और समुद्र के समान गम्भी थे। जो राजवंश महाबली वंशों में विद्यमान है, जिस वंश के राजा लोग विश्वासघातकों के परम शत्रु थे, जिनके चरणों पर पृथ्वी ने अपना सम्पूर्ण धन-धान्य अर्पण किया था और जिस वंश के नरपतियों ने शत्रुओं के सब देश अपने अधिकार में कर लिए थे, यह वही शूरवंश घर हैं। (3) होम यज्ञादि के द्वारा यह नरेश्वर पवित्र हुए थे। इनका राज्य परम रमणीय तक्ष का दुर्ग भी अजेय है। इसके धनुष की टंकार से सब ही महा भयभीत जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-208

होते थे। यह क्रुद्ध होने पर महासमराग्नि प्रज्वलित कर देते थे, किन्तु मोती जिस प्रकार गले की शोभा बढ़ाता है, अनुगत लोगों के प्रति, इनका आचरण भी वैसा ही था। लाल तरंगों से समर क्षेत्र रंगने पर भी यह संग्राम से नहीं हटते थे। प्रचण्ड मार्तण्ड की प्रखर किरणों से पद्मिनी जिस प्रकार मस्तक नवाती है, उसी प्रकार इनके शत्रु दल इनके चरणों पर नवते थे और भीरू-कायर लोग युद्ध छोड़कर भागते थे।

इन राजा शालेन्द्र से दोगला की उत्पत्ति हुई। आज इतने समय के पीछे भी उनका यश फैला हुआ है। उनसे शाम्बुक ने जन्म लिया, शाम्बुक के औरस से दोगाली ने जन्म लिया। उन्होंने यदुवंश की दो कन्याओं से विवाह किया था। (4) उनमें से एक के गर्भ से प्रफुल्लित कमल के समान वीर नरेन्द्र नामक पुत्र ने जन्म लिया था। आमों के कुंज अर्थात् जिन आमों के वृक्षों की मिली हुई मंजरी में सहस्त्रों मधुमक्षिका विराजमान हैं, जिन वृक्षों के नीचे थके हुए यात्री आकर विश्राम करते हैं, उन आमों के वृक्षों की कुंज में यह मन्दिर स्थापित हुआ। जब तक समुद्र की तरंगें बहेंगी और जब तक चन्द्र सूर्य आ पर्वत माला विराजमान रहेंगी, तब तक मानो इस मन्दिर और मन्दिर-प्रतिष्ठा का यश फैला रहेगा। 597 संवत् में तावेली नदी के तट पर मालवा के शेष सीमान्त में वीरचन्द्र के पुत्र शालिचन्द्र के द्वारा (5) मन्दिर प्रतिष्ठित हुआ। जो पुरुष इन वचनों को स्मृति पट पर अंकित करेंगे, उनके सब पाप दूर हो जाएंगे। द्वार शिव के पुत्र खोदक शिवनारायण द्वारा खोदित और बुतेना ने यह कविता निर्माण की है।”

उपर्युक्त शिलालेख के पढ़ने से निम्न बात सहज ही में समझ में आ जाती है-

(1) यह शालपुरी के शासक थे, जोकि आज श्यालकोट कहलाता है। यह राज्य उन्होंने अपनी भुजाओं के बल से प्राप्त किया था। क्योंकि शिलालेख में साफ लिखा हुआ है कि “यह केवल अपने बाहुबल से वीर पुरुषों में अग्रणी हुए।” इस वाक्य से यह भी सिद्ध होता है कि वह किसी प्रजातन्त्रवादी समूह के सरदार से एक तन्त्री शासक बन गए और उनका प्रताप यहां तक बढ़ा कि “राजा लोगों के सिर उनके चरण अंगूठे की पूजा करते थे।” (2) उनके पास असंख्य सेना थी और साथ ही उनके कोष मणि-माणिक्यों से भरे पड़े थे। 1. टाड परिशिष्ट पृ. 1134 खड्ग विलास प्रेस बांकीपुर का संस्करण। जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-209

(3) पंजाब के जाटों में जहां कि चन्द्रवंशी जाट अधिक हैं, ये अपने कुल की इसलिए अधिक प्रशंसा किया करते थे, क्योंकि ये सूर्यवंशी थे। (4) यह भी मालूम होता है कि ये बुद्ध धर्म को छोड़कर पौराणिक धर्म में दीक्षित होम यज्ञ आदि करने लग गये थे। (5) तक्षशिला का किला भी उनके ही अधिकार में था। (6) इन महाराज ने किसी ऐसी जाति की स्त्री से शादी की थी जो कि इनकी जाति से इतर थी। क्योंकि इनके एक दोगला की उत्पत्ति होने का वर्णन भी शिला-लेख में है। (7) इनके प्रपौत्र ने यादववंश की कन्याओं के साथ विवाह किया था। इससे ऐसा मालूम होता है कि यह तक्षक दल के सूर्यवंशी जाट थे। अथवा पंजाब में यादवों का कोई ऐसा समूह रहा होगा कि अहीरों में यादव हैं। इस तरह से जाट और अहीरों के विवाह की प्रणाली का शिलालेखक ने उल्लेख किया है। (8) इस शिलालेख से निम्न वंशावली बनती है - 1. महाराज शालेन्द्र, 2. दोगला, 3, शाम्बुक, 4. देगाली, 5. वीर नरेन्द्र। (9) सम्बत् 597 में ताबेली नदी के किनारे पर, जिन वीरचन्द्र के पुत्र शालीचन्द्र ने इनकी स्मृति के लिए मन्दिर बनवाया था तथा शिलालेख खुदवाया था, वे अवश्य ही शलेन्द्र जित के निकट सम्बन्धी रहे होंगे, और बहुत सम्भव है कि वीर नरेन्द्र का पुत्र शालीचन्द्र हुआ हो और संबत् 597 में शालीवाहनपुर को छोड़कर मालवा में आ गये हों। उनके शालीवाहनपुर को छोड़ने का कारण हूणों का आक्रमण हो सकता है। डॉक्टर हार्नले और कीलहार्न ने लिखा है कि ईसवी सन् 547 में कहरूर में यशोधर्मा ने मिहिर-कुल हूण को हराया था। मिहिर कुल तूरमान हूण का पुत्र था। तूरमाण के साथी हूणों के द्वारा इनसे शालीवाहन पुर छीन लिया गया हो, यह बहुत सम्भव है। अगर ऊपर के 597 को ईसवी सन बनाया जाए तो 597 - 57 = 540 ई. होता है। तूरमाण के पंजाब पर हमलों का लगभग यही समय रहा होगा।

लेकिन सी. बी. वैद्य ने अलबरुनी के लेखों का प्रमाण देकर साबित किया है कि कहरूर का युद्ध 544 ईसवी से बहुत पहले हुआ था। यदि यह कथन ठीक है तो वह बुद्ध शालिचन्द्र के पिता वीरचन्द्र अथवा प्रपिता वीरनरेन्द्र के समय में हुआ होगा। यह तो बिल्कुल ही ठीक बात है कि हूणों ने महाराज शालिचन्द्र के वंशजों को शालिवाहनपुर अथवा श्यालकोट से निकाल दिया था, क्योंकि हम हूणों के इतिहास में श्यालकोट हूणों की राजधानी पाते हैं।

जिस समय पहला हमला शालेन्द्र के राज्य पर हूणों का हुआ होगा, उस समय अवश्य ही उनके वंशजों ने महाराज यशोधर्मा की, जो कि उनके सजातीय और मालवा के प्रसिद्ध राजा थे, मदद ली थी और पहली बार में इस सम्मिलित जाट-

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-210


शक्ति ने हूणों को हराकर पंजाब से निकाल दिया था। जैसा कि चन्द्र के “अजयत् जर्तों हुणान्” अर्थात् जाटों ने हूणों को जीता, वाक्य से सिद्ध होता है।

इस शिलालेख से हम जिस ऐतिहासिक परिणाम पर पहुंचते हैं, वह यह है - पांचवी शताब्दी के आरम्भ में पंजाब में जाट नरेश महाराजा शालेन्द्र राज्य करते थे। जिस प्रकार सिंह स्वयं अभिषिक्त होता है, उसी भांति महाराज ने अपने बाहुबल के प्रताप से बड़ा राज्य प्राप्त करके महती प्रभुता प्राप्त की थी। उनके दरबार में दुर्द्धर्ष साहसी और महा बलिष्ठ लोगों का जमघट रहता था जिनमें वह अपने जातीय गौरव की भी प्रशंसा किया करते थे। उनके अधीनस्थ कई छोटे-छोटे और भी राजागण थे। वह समृद्धिशाली राजा थे। कोष उनका परिपूर्ण था, और बहुत बड़ी सेना उनके पास थी। इतना बड़ा वैभव रखते हुए भी गंभीर और उदार चित्त थे। बौद्ध धर्म को छोड़कर नवीन हिन्दू धर्म को उन्होंने ग्रहण कर लिया था। होम, यज्ञ आदि के बड़े प्रेमी थे, और वे उन जाटों में से थे जो अपने को काश्यप-वंशी (सूर्यवंशी) कहते हैं। उन्होंने ऐसे कुल की स्त्री से भी शादी की थी जिससे उत्पन्न होने वाली संतान को स्वजातीय लोगों ने दोगला नाम से पुकारा।

इनके वंशज दोगाली ने यदुवंशी नाम के अहीर या राजपूतों की लड़कियों से विवाह सम्बन्ध किए और यदि वे यदुवंशी जाट ही थे तो यह कहा जा सकता है कि उन्होंने शालेन्द्र की दोगला सन्तान को धर्मशास्त्र के अनुसार विवाह सम्बन्ध करके जाति से दूर नहीं होने दिया। कुछ भी हो, दोगाली ने यदुवंश की कन्याओं के साथ शादी की थी जिनमें से एक के गर्भ से वीर नरेन्द्र ने जन्म लिया था।

हूणों के आक्रमण के बाद, पंजाब से महाराजा शालेन्द्रजित के वंशज का राज्य नष्ट हो गया और उन्होंने मालवों के पश्चिमी प्रान्त के तावेली नदी के किनारे आकर कोई छोटा सा राज्य स्थापित किया और संबत् 597 या सन् 540 ई. में उन्हीं के वंशज वीरचन्द्र के पुत्र शालिचन्द्र ने आमों के घने बाग में, श्रेष्ठ स्थान पर, मंदिर बनवा करके महाराणा शालेन्द्रजीत की स्मृति स्थापित की। अब उस स्थान पर कनवास नाम का छोटा सा ग्राम है और यह कोटा राज्य में है।


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