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महाशिवपुराण

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महाशिवपुराण[सम्पादन]

प्रथम अध्याय - शौनकजी के साधन विषयक प्रश्न पूछने पर सूतजी का उन्हें शिव पुराण की उत्कृष्ट महिमा सुनना[सम्पादन]

    श्री शौनकजी ने पूछा - महाज्ञानी सूतजी ! आप सम्पूर्ण सिद्धांतो के ज्ञाता है | प्रभो ! मुझसे पुराणो के कथाओ के सारतत्व. विशेष रूप से वर्णन कीजिये | ज्ञान और वैराग्य सहित भक्ति से प्राप्त होनेवाले विवेक की वृद्धि कैसे होती है ?तथा साधुपुरुष किस प्रकार अपने काम क्रोध आदि मानसिक विकारो का निवारण करते है ? इस घोर कलिकाल में जीव प्रायः आसुर स्वभाव के हो गए है | उस जीव समुदाय को शुद्ध ( दैवीसंपति से युक्त ) बनाने के लिए सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है ? आप इस समय मुझे ऐसा कोई शास्वत साधन बताइये , जो कल्याणकारी वस्तुओ में सबसे उत्कृष्ट एवं परम मंगलकारी हो तथा पवित्र करने वाले उपयो में भी सबसे उत्तम पवित्रकारी उपाय हो | तात ! वह साधन ऐसा हो , जिसके अनुष्ठान से शीघ्र ही अन्तः कारन की विशेष शुद्धि हो जाये तथा उसमे निर्मल चित्तवाले पुरुषो को सदा के लिए शिव की प्राप्ति हो जाये | अब सूतजी कहते है -- मुनिश्रेष्ठ शौनक ! तुम धन्य हो ; क्योंकि तुम्हारे ह्रदय में पुराण कथा सुनने का विशेष प्रेम एवं लालसा है | इसलिए मै शुद्ध बुद्धि से विचारकर तुमसे परम उत्तम शाश्त्र का वर्णन करता हु | वत्स ! यह सम्पूर्ण शास्त्रो के सिद्धांत से संपन्न , भक्ति आदि को बढ़ाने वाला , तथा शिव को संतुष्ट करने वाला है | कानो के लिए रसायन अमृत स्वरूप तथा दिव्य है , तुम उसे  करो | मुने ! वह परम उत्तम शास्त्र है -- शिव पुराण , जिसका पूर्वकाल मे भगवान शिव ने ही प्रवचन किया था | यह काल रूपी सर्प से प्राप्त होने वाले महान त्रास का विनाश करने वाला उत्तम साधन है | गुरुदेव व्यास ने सनत्कुमार मुनि का उपदेश पाकर बड़े आदर से इस पुराण का संक्षेप में ही प्रतिपादन किया है | इस पुराण के प्रणय का उदेश्य है --कलयुग में उत्पन होने वाले मनुष्यो के परम हित का साधन |

यह शिव पुराण बहुत ही उतम शास्त्र है। इसे इस भुतल पर शिव का वाक्मय स्वरुप समक्षना चाहीये और सब प्रकार से इसका सेवन करना चाहिये । इसका पठन और श्रवण सर्वसाधारणरुप है । इससे शिव भक्ति पाकर श्रेष्ठम स्थितियों में पहुंचा हुआ मनुष्य शीघ्र ही शिव पद को प्राप्त कर लेता है | इसलिए सम्पूर्ण यत्न करके मनुष्यो ने इस पुराण को पढ़ने की इच्छा की है - अथवा इसके अध्ययन को अभीष्ट साधन माना है | इसी तरह इसका प्रेम पूर्वक श्रवण भी सम्पूर्ण मनोवांछित फलों को देने वाला है | भगवान शिव के इस पुराण को सुनने से मनुष्य सब पापो से मुक्त हो जाता है तथा इस जीवन में बड़े बड़े उत्कृष्ट भोगो का उपभोग करके अंत में शिव लोक को प्राप्त होता है |

यह शिव पुराण नामक ग्रन्थ चौबीस हजार श्लोको से युक्त है | इसकी सात सहिताये है | मनुष्य को चाहिए की वो भक्ति ज्ञान वैराग्य से संपन्न हो बारे आदर से इसका श्रवण करे | सात संहिताओं से युक्त यह दिव्य शिवपुराण परब्रम्हा परमात्मा के समान विराजमान है और सबसे उत्कृष्ट गति प्रदान करने वाला है | जो निरंतर अनुसन्धान पूर्वक शिव पुराण को बोलता है या नित्य प्रेमपूर्वक इसका पाठ मात्र करता है वह पुण्यात्मा है -- इसमें संशय नहीं है | जो उत्तम बुद्धि वाला पुरुष अंतकाल में भक्तिपूर्वक इस पुराण को सुनता है , उसपर अत्यंत प्रसन्न हुए भगवन महेश्वर उसे अपना पद ( धाम ) प्रदान करते है | जो प्रतिदिन आदरपूर्वक इस शिव पुराण की पूजा करता है वह इस संसार मे संपुर्ण भोगो को भोगकर अन्त मे भगवान शिव के पद को प्राप्त कर लेता है ।जो प्रतिदिन आलस्यरहित हो रेशमी वस्त्र आदि के वेष्टन से इस शिव पुराण का सत्कार करता है , वह सदा सुखी रहता है । यह शिव पुराण निर्मल तथा भगवान का सर्वस्व है ; जो इहलोक और परलोक मे भी सुख चाहता हो , उसे आदर के साथ प्रयत्नपुर्वक इसका सेवन करना चाहिये । यह निर्मल एवं उतम शिव पुराण धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष रुपी चार पुरुशार्थो को देने वाला है । अतः सदा इसका प्रेमपुर्वक श्रवन एवं इसका विशेष पाठ करना चाहिये ।


शिव पुराण के श्रवण से देवराज को शिवलोक कि प्राप्ति[सम्पादन]
   श्रीशौनक जी ने कहा - महाभाग सूतजी ! आप धन्य है , परमार्थ तत्व के ज्ञाता है , आपने कृपा करके हमलोगो को यह दिव्य कथा सुनाई है | भूतल पर इस कथा के समान कल्याण का सर्वश्रेष्ठ साधन दूसरा कोई नहीं है , यह बात आज हमने आपकी कृपा से निश्चय पूर्वक समाज ली | सूतजी ! कलयुग में इन कथाओ के द्वारा कौन कौन से पापी शुद्ध होते है ? उन्हें कृपा पूर्वक बताइये और इस जगत को कृतार्थ कीजिये | 
   अब सूत जी बोलते है - मुने ! जो मनुष्य पापी , दुराचारी , खल तथा काम क्रोध आदि में निरंतर लिप्त रहले वाले है , वो भी इस पुराण के श्रवण पाठन से शुद्ध हो जाते है | इसी विषय में जानकर मुनि इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते है , जिसके श्रवण मात्र से सम्पूर्ण पापो का नाश हो जाता है | 
     
       पहले की बात है , कही किरातो के नगर मे एक ब्रामण रहता था , जो ज्ञान मे अत्यन्त दुर्बल, दरिद्र, रस बेचनेवाला तथा वैदिक धर्म से विमुख था । वह स्नान सन्धया आदि कर्मो से भ्रष्ट हो गया था एवं वैश्या वृति में तत्पर रहता था | उसका नाम था देवराज | वह अपने ऊपर विस्वास करनेवाले लोगो को ठगा करता था | उसने ब्राह्मणो , क्षत्रियो , वैश्यों , छुद्र तथा दुसरो को भी अपने बहानो से मारकर उन सबका धन हडप लिया था । परन्तु उस पापी का थोडा सा भी धन धर्म के काम मे नही लगा । वह वेश्यागामी तथा सब प्रकार से आचारभ्रष्ट था  ।  
      एक दिन वह घुमता घामता प्रतिष्ठानपुर (झुसी - प्रयाग ) मे जा पहुचा । वहॉ उसने एक शिवालय देखा , जहा बहुत से साधू महात्मा एकत्र हुए थे । देवराज उस शिवालय मे ठहर गया , किन्तु वहॉ उसे ज्वर आ गया । उस ज्वर से उसको बहुत पिडा होने लगी । वहा एक ब्राह्रण देवता शिव पुराण कि कथा सुना रहे थे ।  ज्वर मे पडा हुआ देवराज ब्राह्रण के मुखारविन्द से निकली हुइ उस शिव कथा को निरंतर सुनता रहा । एक मास के बाद वह ज्वर से अत्यन्त पिडित होकर चल बसा । यमराज के दुत आये और उसे पाशो मे बांध कर बलपुर्वक यमपुरी ले गये । इतने मे हि शिव लोक से भगवान शिव के पार्षदगण आ गये । उनके गौर अंग कर्पुर के समान उज्जवल थे , हाथ त्रिशूल से सुशोभित हो रहे थे ,उनके सम्पूर्ण अंग भस्म से चमक रहे थे और रुद्राक्ष की मालाएँ उनके शरीर की शोभा बढ़ा रही थी | वे सब के सब क्रोध पूर्वक यमपुरी गए और यमराज के दूतो को मारपीट कर बारम्बार धमकाकर उन्होंने देवराज को उनके चंगुल से छुड़ा लिया और अत्यंत अद्भुत बिमान पर बैठा कर जब वे शिव दूत कैलास जाने को उद्धत हुए , उस समय यमपुरी में भारी कोलाहल मच गया उस कोलाहल को सुनकर धर्मराज अपने भवन से बाहर आये | साक्षात दूसरे रुद्रो के समान प्रतीत होनेवाले उन चारो दूतो को देखकर धर्मज्ञ धर्मराज उनका विधिपूर्वक पूजन किया और और ज्ञान दृष्टि से देख कर सारा वृतांत जान लिया | उन्होंने भय के कारण भगवान शिव के उन महात्मा दूतो से कोई बात नहीं पूछी , उलटे उन सब की पूजा एवं प्रार्थना की | तत्पश्चात वे शिव दूत कैलाश को चले गए और वहां पहुंचकर उन्होंने उस ब्राह्मण को दयासागर साम्ब शिव के हाथ में दे दिया |

चंचुला का पाप से भय एवं संसार से वैराग्य[सम्पादन]

        शौनकजी कहते है -- महाभाग सूतजी ! आप सर्वज्ञ है | महामते ¡ आपके कृपा प्रसाद से मैं बारम्बार कृतार्थ हुआ | इस इतिहास को सुनकर मेरा मन अत्यंत आनंद में निमग्न हो रहा है | अतः अब भगवन शिव में प्रेम बढ़ाने वाली शिव सम्बंधित दूसरी कथा को  भी कहिये |

     अब सुतजी कहते है - शौनक ! सुनो , मै तुम्हारे सामने गोपनिये कथावस्तु का भी वर्णन करुंगा; क्योंकि तुम शिव भक्तो में अग्रगण्य तथा वेद वेदताओ में श्रेष्ठ हो ।
समुद्र के निकटवर्ती प्रदेशो मे वाष्कल नामक एक ग्राम है । जहा वैदिक धर्म से च्युत महापापी द्विज निवास करते है  , वे सब के सब बड़े दुष्ट है | उनका मन दूषित विषय भोगो में ही लगा रहता है | वे न देवो पर विश्वास करते है न भाग्य पर ; वे सभी बड़े कुटिल वृति वाले है | किसानी करते और भाती भाती के घातक अस्त्र शस्त्र रखते है | वे व्यभिचारी और खल है | ज्ञान , वैराग्य तथा सधर्म का सेवन ही मनुष्यो के लिए परम पुरुषार्थ है - वे इस बात को बिलकुल नहीं जानते है | वे सभी पशु बुद्धि वाले है | ( जहां के द्विज ऐसे बुद्धि वाले हो वह| के अन्य वर्णो के बारे में क्या कहा जाय ) अन्य वर्णो के लोग भी उन्ही कि भाती कुत्सित विचार रखने वाले , स्वधर्म-बिमुख एवं खल है । वे सदा कुकर्म मे लगे रहते और नित्य बिषय भोगो मे ही डुबे रहते है । वहा कि सब औरते भी कुटिल स्वभाव कि ,स्वेक्छाचारणी , पापासक्त , कुत्सित विचार वाली और व्यभीचारणी है । वे सदव्यावहार तथा सदाचार से सर्वथा सुन्य है । इस प्रकार वहॉ दुष्टो का ही निवास है। 
      उस वाष्कल नामक ग्राम मे किसी समय एक बिन्दुग नामक ब्राह्रण रहता था, वह बडा अधम था । दुरात्मा और महापापी था । यधपि उसकी पत्नी बहुत सुन्दर थी, तो भी वो कुमार्ग पर ही चलता था । उसकी पत्नी का नाम चंचुला था ; वह सदा उतम धर्म के पालन मे लगी रहती थी । तो भी वह दुष्ट ब्राह्रण उसे छोड़कर वेश्यागामी हो गया था । इस तरह कुकर्म मे लगे हुए उस बिन्दुग के बहुत वर्ष व्यतीत हो गये । उसकी पत्नी चंचुला काम से पीडित होने पर भी  स्वधर्म नाश के भय से क्लेश सहकर भी दिर्घकाल तक धर्म से भ्रष्ट नहीं हुइ । परन्तु दुराचारी पति के आचरण से प्रभावित हो आगे चलकर वो भी दुराचारणी हो गयी । 
    इस तरह दुराचार में डुबे हुए उन मुढ चित वाले पति -पत्नी का बहुत सा समय व्यर्थ बित गया । तदन्नतर शुद्र जातिये वेश्या का पति बना हुआ वह दुषित बुद्धी वाला दुष्ट ब्राह्रण बिन्दुग समयानुसार मर कर नरक मे जा पडा । बहुत दिनो तक नरक का दुख भोग कर वह मुढ बुद्धि पापी विन्ध्य पर्वत पर भयंकर पिचाश हुआ । 
         इधर उस दुराचारी पती बिन्दुग के मर जाने पर वह मुढ ह्रदया चंचुला बहुत समय तक अपने पुत्रो के साथ अपने घर मे ही रही । 
    एक दिन दैवयोग से किसी पुन्य पर्व के आनेपर वह अपने भाइ - बन्धुओ के साथ गोकर्ण प्रदेश मे गयी । तिर्थयात्रियो के संग से उसने भी उस समय जाकर किसी तिर्थ के जल मे स्नान किया । फिर वह साधारणतया ( मेला देखने कि द्रिष्टी से ) बन्धुजनो के साथ यत्र तत्र घुमने लगी ।घुमती -घामती किसी देव मंदिर मे गयी और वहॉ उसने एक दैवज्ञ ब्राह्रण के मुख से भगवान शिव कि परम पवित्र एवं मंगलकारिणी उतम पौराणिक कथा सुनी । कथावाचक ब्राह्रण कह रहे थे कि " जो स्त्री पुरुषो के साथ व्यभीचार करती है , वो मरने के बाद यमलोक जाती है तब यमराज के दुत उनकी योनि मे तपे हुए लोहे का परिध डालते है ।" पौराणिक ब्राह्रण के मुख से ये वैराग्य बढाने वाली कथा सुनकर चंचुला भय से व्याकुल हो कर वहॉ पर कापने लगी । कथा समाप्त हुइ और सुनने वाले सब लोग बाहर चले गये , तब वह भयभीत नारी एकान्त मे शिव पुराण कथा बोलने वाले ब्राह्रण देवता से बोली  - ब्राह्रण ! मै अपने धर्म को नही जानती थी । इसलिये मेरे द्वारा बडा दुराचार हुआ है । स्वामीन् ! मेरे उपर अनुपम क्रिपा करके आप मेरा उद्धार किजिये । आज आपके वैराग्य रस से ओत प्रोत इस प्रवचन को सुनकर मुझे बडा भय लग रहा है । मै कांप उठी हु और मुझे इस संसार से वैराग्य हो गया है । मुझ मुढ चित वाली पापीनी को  धिक्कार है । मै सर्वथा निन्दा के योग्य हु । कुत्सित विषयो में फंसी हुई हूँ और अपने धर्म से विमुख हो गयी हूँ | हाय ! न जाने किस किस घोर कष्टदायक दुर्गति में मुझे पड़ना पड़ेगा और वहां कौन कौन बुद्धिमान पुरुष कुमार्गमे मन लगनेवाली मुझ पापिनी का साथ देगा | मृत्युकाल में उन भयंकर यमदूतों को मै कैसे देखूंगी ? जब वे बलपूर्वक मेरे गले में फंदे डालकर मुझे बंधेंगे तब मैं कैसे धीरज धारण कर सकुंगी | नरक में जब मेरे शरीर के टुकड़े -टुकड़े किये जायेंगे , उस समय विशेष दुःख देने वाली उस महायतना को वहां मैं कैसे सहूंगी ? हाय ! मैं मरी गयी ! मैं जल गयी ! मेरा हृदय विदीर्ण हो गया और मैं सब प्रकार से नष्ट हो गयी ; क्योंकि मैं हर तरह से पाप में ही डूबी रही हूँ | ब्राह्मण ! आप ही मेरे गुरु , आपही माता और आपही पिता है | आपकी शरण में आई हूँ , मुझ दीन अबला पर आप ही उद्धार कीजिये | 
    अब सूत जी कहते है - शौनक ! इस प्रकार खेद और वैराग्य से युक्त चंचुला ब्राह्मण देवता के चरणो में गिर गयी | तब उन बुद्धिमान ब्राह्मण ने उसे कृपा पूर्वक उठाया और इस प्रकार कहा |


चंचुला की प्रार्थना से ब्राह्मण का उसे पूरा शिव पुराण सुनना और समयानुसार शरीर छोरकर शिव लोक में जा चंचुला का पार्वती जी की सखी एवं सुखी होना[सम्पादन]

     ब्राह्मण बोले - नारी ! सौभाग्य की बात है की भगवान शिव की कृपा से शिवपुराण की इस वैराग्य युक्त कथा को सुनकर तुम्हे समय पर चेत हो गया है | ब्राह्मणपत्नी ! तुम डरो मत | भगवान शिव की शरण में जाओ | शिव की कृपा से सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है | मैं तुमसे भगवान शिव की कीर्तिकथा से युक्त उस परम वास्तु का वर्णन करूँगा , जिससे तुम्हे सदा सुख देने वाली उत्तम गति प्राप्त होगी | शिव की उत्तम कथा सुनने से ही तुम्हारी बुद्धि पश्चाताप से युक्त एवं शुद्ध हो गयी है | साथ ही तुम्हारे मन में विषयो के प्रति वैराग्य हो गया है | पश्चाताप ही पाप करने वाले पापियो के लिए सबसे बड़ा प्राश्चित है | सत्पुरुषों ने सब के लिए पश्चाताप को ही सब पापो का शोधक बताया है , पश्चाताप से ही सब पापो की शुद्धि होती है | जो पश्चाताप करता है , व्ही वास्तव में पापो का प्राश्चित करता है ; क्युकी सत्पुरुषों ने समस्त पापो की शुद्धि के लिए प्राश्चित का उपदेश किया है , वह सब पश्चाताप से संपन्न हो जाता है | जो पुरुष विधि पूर्वक प्राश्चित करके निर्भय हो जाता है , पर अपने कुकर्म के लिए पश्चाताप नहीं करता , उसे प्रायः उत्तम गति प्राप्त नहीं होती है | परन्तु जिसे अपने कुकृत्य पर हार्दिक पश्चाताप होता है , वह अवश्य उत्तम गति का भागी होता है , इसमें संशय नहीं है | इस शिव पुराण की कथा सुनने  से जैसे चिट की शुद्धि होती है , वैसे दूसरे उपयो से नहीं होती | जैसे दर्पण साफ करने पर निर्मल हो जाता है , उसी प्रकार इस शिव पुराण की कथा से चित अत्यंत शुद्ध हो जाता है - इस में संशय नहीं है | मनुष्यो के शुद्ध चित में जगदम्बा पार्वती सहित भगवान शिव विराजमान रहते है | इससे वह विशुद्धात्मा पुरुष श्री साम्ब सदाशिव के पद को प्राप्त होता है | इस उत्तम कथा का श्रवण समस्त मनुष्यो के लिए कल्याण का बीज है | अतः यथोचित ( शास्त्रोक्त ) मार्ग से इसकी आराधना अथवा सेवा करनी चाहिए | यह भवबंधन रूपी रोग का नाश करने वाली है | भगवान शिव की कथा को सुनकर फिर अपने हृदय में उसका मनन एवंम निधि ध्यासन करना चाहिए | इससे पूर्णतः चित शुद्धि  हो जाती है | चित शुद्धि होने से महेश्वर की भक्ति अपने दोनों पुत्रो ( ज्ञान और वैराग्य ) के साथ निस्चय ही प्रकट होती है | तत्पश्चात महेश्वर के अनुग्रह से दिव्य मुक्ति प्राप्त होती है , इसमें संशय नहीं है | जो मुक्ति से वंचित है ; उसे पशु समझना चाहिए ; क्युकी उसका चित माया के बंधन में आसक्त है | वह निश्चय ही संसार बंधन से मुक्त नहीं हो पता | 

       ब्राह्मणपत्नी ! इसलिए तुम बिषयों से मन को हटा लो और भक्ति भाव से इस भगवान शंकर की पावन कथा को सुनो | परमात्मा शंकर की इस कथा को सुनने से तुम्हारे चित की शुद्धि होगी और इससे तुम्हे मोक्ष. की प्राप्ति हो जाएगी | जो निर्मल चित से भगवान शिव के चर्णारविंदो की चिंतन करता है , उसकी एक ही जन्म में मुक्ति हो जाती है | यह मैं तुमसे सत्य कहता हु |          

     अब सूतजी कहते है - शौनक ! इतना कहकर वो श्रेष्ठ शिव भक्त ब्राह्मण चुप हो गए , उनका हृदय करुणा से आद्र हो गया था | वे शुद्ध चित महात्मा भगवान शिव के ध्यान में मग्न हो गए | उसके बाद बिन्दुग की पत्नी चंचुला मन ही मन प्रसन्न हो उठी | ब्राह्मण का उक्त उपदेश सुनकर उसके नेत्रों में आनंद के आंसू छलक आये थे |  वह ब्राह्रण पत्नी चंचुला हर्ष भरे ह्रदय से उन श्रेष्ठ ब्राह्रण के दोनो चरणो मे गिर पडी। और हाथ जोर कर बोली - " मै कृतार्थ हो गयी " | तत्पश्चात उठकर वैराग्य युक्त उतम बुद्धिवाली स्त्री , जो अपने पापो के कारण आतंकित थी , उस महान शिवभक्त ब्राह्रण से हाथ जोरकर गदगद वाणी में बोली ।

चंचुला ने कहॉ - ब्राह्रण ! शिवभक्तो में श्रेष्ठ !  स्वामिन¡ आप धन्य है , परमार्थदर्शी है । और सदा परोपकार मे लगे रहते है । इसलिये श्रेष्ठ साधु पुरुषो में प्रशंसा के योग्य है । साधो ! मैं नरक के समुन्द्र मे गिर रही हु । आप मेरा उद्धार किजिये, उद्धार किजिये । पौराणिक अर्थतत्व से संपन्न जिस सुन्दर शिव पुराण कि कथा को सुनकर मेरे मन मे संपुर्ण बिषयो से वैराग्य उत्पन्न हो गया है । उसी  इस शिवपुराण को सुनने के लिये मेरे मन मे बडी श्रद्धा हो रही है ।

        अब सुतजी कहते है - ऐसा कहकर हाथ जोर उनका अनुग्रह पाकर चंचुला उस शिव पुराण कि कथा को सुनने कि इच्छा मन मे लिये उन ब्राह्रण देवता कि सेवा में तत्पर हो वहॉ रहने लगी । तदनन्तर शिव भक्तो मे श्रेष्ठ और शुद्ध बुद्धि वाले ब्राह्रण देवता ने उसी स्थान पर उस स्त्री को शिव पुराण कि उतम कथा सुनाई । इस प्रकार उस गोकर्ण नामक स्थान मे उन्ही श्रेष्ठ ब्राह्रण से उसने शिवपुराण कि परम उतम कथा सुनी , जो भक्ती ,ज्ञान और वैराग्य को बढाने वाली तथा मुक्ती प्रदान करने वाली है । उस परम उत्तम कथा को सुनकर ब्राह्मणपत्नी अत्यंत कृतार्थ हो गयी | उसका चित शीघ्र ही शुद्ध हो गया | फिर भगवान शिव के अनुग्रह से उसके हृदय में शिव के सगुण रूप का चिंतन होने लगा | इस प्रकार उसने भगवान शिव में लगी रहनेवाली उत्तम बुद्धि पाकर शिव के सचिदानंद स्वरूप का बारम्बार चिंतन आरम्भ किया | तत्पश्चात समय के पुरे होने पर भक्ति ,ज्ञान और वैराग्य से युक्त हुई चंचुला ने अपने शरीर को बिना किसी कष्ट के त्याग दिया | इतने में ही त्रिपुरशत्रु भगवान शिव का भेजा हुआ एक दिव्य विमान द्रुत गति से वहां पहुंचा , जो उनके अपने गणो से संयुक्त और भांति भांति के शोभा साधनो से सम्पन्न था | चंचुला उस विमान पर आरूढ़ और भगवन शिव के श्रेष्ठ पार्षदो ने उसे तत्काल शिवपुरी में पहुंचा दिया | उसके सारे मल धूल गए थे | वह दिव्यरूपिणी दिव्याग्ना हो गयी थी | उसके दिव्य अवयव उसकी शोभा बढ़ाते थे | मस्तक पर अर्ध चंद्राकर का मुकुट धारण किये वह गौरांगी देवी शोभाशाली दिव्य आभूषणो से बिभूषित थी | शिवपुरी में पहुंचकर उसने सनातन देवता त्रिनेत्रधारी महादेवजी को देखा | सभी मुख्य मुख्य देवता उनकी सेवा में खड़े थे | गणेश , भृंगी , नन्दीश्वर तथा वीरभद्रेश्वर आदि उनकी सेवा म उत्तम भक्ति भाव से उपस्थित थे | उनकी अंगकांति करोड़ो सूर्यो  की भांति प्रकाशित हो रही थी | कंठ में निल चिन्ह शोभा पाता था | पांच मुख और प्रतेक्य मुख में तीन -तीन नेत्र थे | मस्तक पर अर्धचन्द्राकार मुकुट शोभा देता था | उन्होंने अपने वामांग भाग में गौरी देवी को बिठा रखा था , जो विधुत - पुंज के सामान प्रकाशित थी | गौरीपति महादेवजी की कान्ति कपूर के सामान गौर थी | उनका सारा शरीर स्वेत भस्म से भासित था | शरीर पर स्वेत वस्त्र शोभा परहे थे |  इस प्रकार परम उज्जवल भगवान शंकर का दर्शन कर के वह ब्राह्मण पत्नी चंचुला बहुत प्रसन्न हुई | अत्यंत प्रितियुक्त होकर उसने बड़ी उतावली के साथ भगवान शिव को बारम्बार प्रणाम किया | फिर हाथ जोरकर वह बड़े प्रेम ,आनंद और संतोष से युक्त हो विनीत भाव से खड़ी हो गयी | उसके नेत्रों से आनन्दाश्रुओ के अविरल धारा बहने लगी तथा सम्पूर्ण शरीर में रोमांच हो गया | उस समय भगवती पार्वती और भगवान शंकर ने उसे बड़ी करुणा के साथ अपने पास बुलाया और सौम्य दृष्टि से उसकी और देखने लगे | पार्वती जी ने तो दिव्य रूप धारणी बिन्दुगप्रिया चंचुला को प्रेम पूर्वक अपनी सखी बना लिया | वह उस परमानन्दघन ज्योतिस्वरूप सनातन धाम में अविचल निवास पाकर दिव्य सौख्य से संपन्न हो अक्षय सुख. का अनुभव करने लगी |

चंचुला के प्रयत्न से पार्वती जी कि आज्ञा पाकर तुम्बरु का विन्ध्यपर्वत पर शिवपुराण कि कथा सुनाकर बिन्दुग का पिचाशयोनि से उद्धार करना तथा उन दोनो दम्पति का शिव धाम में सुखी होना[सम्पादन]

        सुतजी बोलते है - शौनक ! एक दिन परमानन्द मे मग्न हुइ चंचुला ने उमा देवी के पास जाकर प्रणाम किया और दोनो हाथ जोरकर वह उनकी स्तुति करने लगी । 
     चंचुला बोली - गिरिराज नन्दनी ! स्कन्दमाता उमे । मनुष्यो ने सदा आपका सेवन किया है । समस्त सुखो को देने वाली शम्भुप्रिये ! आप ब्रहास्वरुपिणी है । विष्णु और ब्रम्हा आदी देवताओ द्वारा सेव्य है । आप हि सगुणा और निर्गुणा है तथा आप हि सुक्ष्मा सचिदानन्दस्वरुपिणी आघा प्रकृति है | आप ही संसार की सृष्टि ,पालन और संहार करने वाली है | तीनो गुणों का आश्रय भी आप ही है | ब्रम्हा ,बिष्णु और महेश्वर - इन तीनो देवताओ का निवास स्थान तथा उनकी उत्तम प्रतिष्ठा करनेवाली पराशक्ति आप ही है | 
         अब सूतजी कहते है - शौनक ! जिसे सदगति प्राप्त हो चूकि थी , वह चंचुला इस प्रकार महेश्वर पत्नी उमा की स्तुति करके सिर झुकाये चुप हो गयी । उसके नेत्रो मे प्रेम के ऑसू उमड आये थे । तब करुणा से भरी शंकर प्रिया भक्तवत्सला पार्वती देवी ने चंचुला को संबोधित करके इस प्रकार कहा - 
         पार्वती जी बोली - सखी चंचुले ! सुन्दरी ! मै तुम्हारी इस कि हुइ स्तुति से बहुत प्रसन्न हु । बोलो क्या वर मांगती हो ? तुमहारे लिये मुझे कुछ भी न देने योग्य नहीं हैं । 
     चंचुला बोली - निष्पाप गिरिराजकुमारी ! मेरे पति बिन्दुग इस समय कहॉ है , उनकी कैसी गति हुई है - यह मै नही जानती ! कल्याणमयी दिनवत्सले ! मै अपने उन पतिदेव से जिस प्रकार संयुक्त हो सकु , वैसा ही उपाय किजिये । महेश्वरी ! महादेवी ! मेरे पति एक शुद्रजातिये वेश्या के प्रति आसक्त थे और पाप मे हि डुबे रहते थे । उनकी मौत मुझसे पहले हि हो गयी थी , ना जाने वे किस गति को प्राप्त हुए        गिरिजा बोली - बेटी ! तुम्हारा बिन्दुग नामवाला पति बडा पापी था । उसका अंतःकरण बहुत हि दुषित था । वेश्या का उपभोग करने वाला वह महामुढ मरने के बाद नरक मे पडा अनगिनत बर्षो तक नरक मे नाना प्रकार के दुःख भोगकर वह पापात्मा अपने शेष पाप को भोगने के लिये विन्ध्यपर्वत पर पिचाश बन के बैठा है । इस समय वह पिचाश अवस्था मे हि है और नाना प्रकार के क्लेश उठा रहा है । वह दुष्ट वही वायु पिकर रहता और वही सदा सब प्रकार कष्ट सहता है ।
       अब सुतजी कहते है - शौनक ! गौरीदेवी कि यह बात सुनकर उतम व्रत का पालन करनेवाली चंचुला पति के महान दुःख से दुःखी हो गयी । फिर मन को स्थिर कर के उस ब्राह्रणपत्नी ने व्यथित ह्रदय से महेश्वरि को प्रणाम कर के पुनः पुछा । 
      चंचुला बोली - महेश्वरि ¡ महादेवी ¡ मुझपर किरपा किजिये और दुषित कर्म करने मेरे उस दुष्ट पति का अब उद्धार कर दिजिये । देवि । कुत्सित बुद्धी वाले मेरे उस पापात्मा पति को किस उपाय से उतम गति प्राप्त हो सकती है , यह शिघ्र बताइये । आपको नमस्कार है । 
      पार्वतीजी ने कहा - तुम्हारा पति अगर शिव पुराण की पुण्यमयी उत्तम कथा सुने तो सारी दुर्गति को पर कर के उत्तम गति का भागी हो सकता है |    
      अमृत के समान मधुर अक्षरो से युक्त गौरी देवी का वह वचन आदरपूर्वक सुनकर चंचुला ने हाथ जोर मस्तक झुकाकर उन्हे बारंबार प्रणाम किया और अपने पति के समस्त पापो कि शुद्धि तथा उतम गति कि प्राप्ती के लिये पार्वती देवी से यह प्रार्थना कि की, " मेरे पति को शिवपुराण सुनाने कि व्यवस्था होनी चाहिये  " उस ब्राह्रणपत्नी के बारंबार प्रार्थना करने पर शिवप्रिया गौरी देवी को बडी दया आ गयी । उन भक्तवत्सला महेश्वरी गिरिराजकुमारी ने भगवान शिव कि उतम किर्ति का गान करने वाले गन्धर्वराज तुम्बरु को बुलाकर उनसे प्रसन्नता पुर्वक इस प्रकार कहा - तुम्बरो ! तुम्हारी भगवान शिव में प्रिति है । तुम मेरे मन कि बातो को जानकर मेरे अभिष्ट कार्यो को सिद्ध करने वाले हो । इसलिये मै तुमसे एक बात कहती हु । तुम्हारा कल्याण हो । तुम मेरी इस सखी के साथ शिघ्र ही विन्ध्यपर्वत पर जाओ । वहॉ एक महाघोर और भयंकर पिचाश रहता है । उसका वृतांत तुम आरम्भ से ही सुनो | मै तुमसे प्रसन्नतापुर्वक सब कुछ बताती हु । पुर्व जन्म मे वह पिचाश बिन्दुग नामक ब्राह्रण था । मेरी इस सखी चंचुला का पति था , परन्तु वह दुष्ट वेश्यागामी हो गया ।स्नान -सन्धया आदि नित्यकर्म छोरकर अपवित्र रहने लगा । क्रोध के कारण उसकी बुद्धि पर मुढता छा गयी थी - वह कर्तव्याकर्तव्य जा विवेक नहीं कर पाता था । अभक्ष्य भक्षण, सज्जनो से द्वेष और दुषित वस्तुओ का दान लेना - यही उसका स्वभाविक कर्म बन गया था । वह अस्त्र-सस्त्र लेकर हिंसा करता , बायें हाथ से खाता , दीनों को सताता और क्रुरता पुर्वक पराये घरो मे आग लगा देता था । चाण्डालो से प्रेम करता और प्रतिदिन वेश्या के सम्पर्क मे रहता था । बडा दुष्ट था । वह पापी अपनी पत्नी का परित्याग कर के दुष्टो के संग मे हि आनंद मानता था । वह मृत्युपर्यन्त दुराचार में ही  फंसा रहा । फिर अंतकाल आने पर उसकी मौत हो गयी । वह पापीयो के भोगस्थान घोर यमपुर मे गया  और वहॉ बहुत से नरको का उपभोग करके वह दुष्टात्मा जीव इस समय विन्ध्यपर्वत पर पिचाश बना हुआ है । वही वह दुष्ट पिचाष अपने पापो का फल भोग रहा है । तुम उसके आगे यत्न पुर्वक शिवपुराण कि उस दिव्य कथा का प्रवचन करो , जो परम पुण्यमयी तथा समस्त पापो का नाश करने वाली है । शिव पुराण कि कथा का श्रवण सबसे उत्कृष्ट पुण्य कर्म है | उससे उसका हृदय शिघ्र हि समस्त पापो से सुद्ध हो जायेगा और वह प्रेतयोनि का परित्याग कर देगा । उस दुर्गति से मुक्त होने पर बिन्दुग नामक पिचाश को मेरी आज्ञा से विमान पर बैठा कर तुम भगवान शिव के समीप ले आओ । 
       अब सुतजी कहते है - शौनक ! महेश्वरी उमा के इस प्रकार आदेश देने पर गन्धर्वराज तुम्बरु मन - हि - मन बडे प्रसन्न हुए । उन्होने अपने भाग्य कि सराहना की । तत्पश्चात उस पिचाश कि सती साध्वी पत्नी चंचुला के साथ विमान पर बैठकर नारद के प्रिये मित्र तुम्बुरु वेगपुर्वक विन्ध्याचल पर्वत पर गये , जहॉ वह पिचाश रहता था । वहॉ उन्होने उस पिशाच को देखा । उसका शरिर विशाल था । ठोडी बहुत बडी थी । वह कभी हंसता , कभी रोता , कभी उछलता था ।  उसकी आकृति बड़ी विकराल थी | भगवान शिव की उत्तम कृति का गान करने वाले महावली तुम्बुरु ने उस भयंकर पिशाच को पाशो मे बांध लिया । तदन्नतर तुम्बुरु ने शिवपुराण कि कथा बॉचने का निश्चय करके महोत्सवयुक्त स्थान और मंडप आदि कि रचना की । इतने मे ही सम्पुर्ण लोको मे बडे वेग से यह प्रचार हो गया की देवी पार्वती कि आज्ञा से एक पिशाच का उद्धार करने के उद्देश्य से शिव पुराण कि उतम कथा सुनाने के लिये तुम्बुरु विन्ध्यपर्वत पर गये है । फिर तो उस कथा के सुनने के लोभ से बहुत से देवर्षि भी शिघ्र ही वहॉ जा पहुचे । आदर पुर्वक शिव पुराण सुनने के लिये आये हुए लोगो का उस पर्वत पर बडा अधभुत और कल्याणकारी समाज जुट गया ।  फिर तुम्बरु ने उस पिशाच कि पासो मे बांधकर आसन पर बिठाया और हाथ मे वीणा लेकर गौरी -पति कि कथा का आरंभ किया। पहली अर्थात विधेश्वरसहिंता से लेकर सातवीं वायुसहिंता तक महात्मय सहित शिवपुराण कि कथा उन्होने स्पष्ट वर्णन किया । सातों सहिंताओ सहित शिवपुराण का आदरपुर्वक श्रवण करके वे सभी श्रोता पुर्ण रुपसे क्रितार्थ हो गये । उस परमपुण्यमय शिवपुराण को सुनकर उस पिशाच ने अपने सारे पापो को धोकर उस पैशाचिक शरिर को त्याग दिया । फिर तो शिघ्र हि उसका रुप द्विव्य हो गया । अंगकान्ती गौर वर्ण कि हो गयी । शरिर पर स्वेत वस्त्र तथा सब प्रकार से पुरोषोचित आभुषण उसको अंगो को उद्धासित करने लगे । वह त्रिनेत्रधारी चन्द्रशेखर रुप हो गया । इस प्रकार दिव्य देहधारी रुप होकर श्रीमान बिन्दुग अपनी प्राणवल्लभा चंचुला के साथ स्वंम भी पार्वतीवल्लभ भगवान शिव का गुनगान करने लगा । उसकी स्त्री को इस प्रकार से सुशोभीत देख वे सभी देवर्षि बडे विस्मित हुए । उनका चित परमानन्द से परिपुर्ण हो गया । भगवान महेश्वर का वह अदभुत चरित्र सुनकर वे सभी श्रोता परम क्रितार्थ हो प्रेमपुर्वक श्री शिव का यशोगान करते हुए अपने अपने धाम को चले गये । दिव्यरुपधारी श्रीमान बिन्दुग भी सुन्दर विमान पर अपनी प्रियतमा के पास बैठकर सुखपुर्वक आकाश मे स्थित हो बडी शोभा पाने लगे । 
        तदनन्तर महेश्वर के सुन्दर एवं मनोहर गुणो का गान करता हुआ वह अपनी प्रियतमा तथा तुम्बुरु के साथ शिघ्र ही शिवधाम मे जा पहुचा । वहॉ भगवान महेश्वर तथा पार्वती देवी ने प्रसन्नतापुर्वक बिन्दुग का बडा सत्कार किया और उसे अपना पार्षद बना लिया । उसकी पत्नी चंचुला पार्वतीजी की सखी हो गयी । उस घनीभुत ज्योति स्वरुप परमानन्दमय सनातनधाम मे अविचल निवास पाकर वे दोनो दम्पति परम सुखी हो गये ।

नमः शिवाय नमः शिवाय नमः शिवाय

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