युवाधन सुरक्षा
वर्तमान मे युवा मन कई बातों के बारे में प्रश्न होते हैं उसमें आन्तरिक शारिरिक स्वास्थ्य के सम्बंध मैं प्रश्न होते हैं क्या सही है या क्या विज्ञान सम्मत हैं चिकित्सा व आयुर्वेद व शास्त्र क्या कहते हैं इस हेतु सब का विवेचन करना ठीक है
यूरोप के प्रतिष्ठित चिकित्सक भी भारतीय योगियों के कथन का समर्थन करते हैं | डॉ. निकोल कहते हैं :
“यह एक भैषजिक और दैहिक तथ्य है कि शरीर के सर्वोत्तम रक्त से स्त्री तथा पुरुष दोनों ही जातियों में प्रजनन तत्त्व बनते हैं | शुद्ध तथा व्यवस्थित जीवन में यह तत्त्व पुनः अवशोषित हो जाता है | यह सूक्ष्मतम मस्तिष्क, स्नायु तथा मांसपेशिय ऊत्तकों का निर्माण करने के लिये तैयार होकर पुनः परिसंचारण में जाता है | मनुष्य का यह वीर्य वापस ऊपर जाकर शरीर में विकसित होने पर उसे निर्भीक, बलवान्, साहसी तथा वीर बनाता है | यदि इसका अपव्यय किया गया तो यह उसको स्त्रैण, दुर्बल, कृशकलेवर एवं कामोत्तेजनशील बनाता है तथा उसके शरीर के अंगों के कार्यव्यापार को विकृत एवं स्नायुतंत्र को शिथिल (दुर्बल) करता है और उसे मिर्गी (मृगी) एवं अन्य अनेक रोगों और मृत्यु का शिकार बना देता है | जननेन्द्रिय के व्यवहार की निवृति से शारीरिक, मानसिक तथा अध्यात्मिक बल में असाधारण वृद्धि होती है |” परम धीर तथा अध्यवसायी वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला है कि जब कभी भी रेतःस्राव को सुरक्षित रखा जाता तथा इस प्रकार शरीर में उसका पुनर्वशोषण किया जाता है तो वह रक्त को समृद्ध तथा मस्तिष्क को बलवान् बनाता है | डॉ. डिओ लुई कहते हैं : “शारीरिक बल, मानसिक ओज तथा बौद्धिक कुशाग्रता के लिये इस तत्त्व का संरक्षण परम आवश्यक है |” एक अन्य लेखक डॉ. ई. पी. मिलर लिखते हैं : “शुक्रस्राव का स्वैच्छिक अथवा अनैच्छिक अपव्यय जीवनशक्ति का प्रत्यक्ष अपव्यय है | यह प्रायः सभी स्वीकार करते हैं कि रक्त के सर्वोत्तम तत्त्व शुक्रस्राव की संरचना में प्रवेश कर जाते हैं | यदि यह निष्कर्ष ठीक है तो इसका अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति के कल्याण के लिये जीवन में ब्रह्मचर्य परम आवश्यक है |” पश्चिम के प्रख्यात चिकित्सक कहते हैं कि वीर्यक्षय से, विशेषकर तरुणावस्था में वीर्यक्षय से विविध प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं | वे हैं : शरीर में व्रण, चेहरे पर मुँहासे अथवा विस्फोट, नेत्रों के चतुर्दिक नीली रेखायें, दाढ़ी का अभाव, धँसे हुए नेत्र, रक्तक्षीणता से पीला चेहरा, स्मृतिनाश, दृष्टि की क्षीणता, मूत्र के साथ वीर्यस्खलन, अण्डकोश की वृद्धि, अण्डकोशों में पीड़ा, दुर्बलता, निद्रालुता, आलस्य, उदासी, हृदय-कम्प, श्वासावरोध या कष्टश्वास, यक्ष्मा, पृष्ठशूल, कटिवात, शोरोवेदना, संधि-पीड़ा, दुर्बल वृक्क, निद्रा में मूत्र निकल जाना, मानसिक अस्थिरता, विचारशक्ति का अभाव, दुःस्वप्न, स्वप्न दोष तथा मानसिक अशांति | उपरोक्त रोग को मिटाने का एकमात्र ईलाज ब्रह्मचर्य है | दवाइयों से या अन्य उपचारों से ये रोग स्थायी रूप से ठीक नहीं होते |
(अनुक्रम)
वीर्य कैसे बनता है
आयुर्वेद के मौलिक सिद्धान्तों में सप्त धातुओं का बहुत महत्व है। इनसे शरीर का धारण होता है, इसी कारण से इन्हें 'धातु' कहा जाता है (धा = धारण करना)। ये संख्या में सात हैं -[१]
- 1- रस धातु
- 2- रक्त धातु
- 3- मांस धातु
- 4- मेद धातु
- 5- अस्थि धातु
- 6- मज्जा धातु
- 7- शुक्र धातु
सप्त धातुयें वातादि दोषों से कुपित होंतीं हैं। जिस दोष की कमी या अधिकता होती है, सप्त धातुयें तदनुसार रोग अथवा शारीरिक विकृति उत्पन्न करती हैं।
आधुनिक आयुर्वेदज्ञ सप्त धातुओं को 'पैथोलांजिकल बेसिस आंफ डिसीजेज' के समतुल्य मानते हैं।
वीर्य शरीर की बहुत मूल्यवान् धातु है | भोजन से वीर्य बनने की प्रक्रिया बड़ी लम्बी है | श्री सुश्रुताचार्य ने लिखा है : रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते | मेदस्यास्थिः ततो मज्जा[२] मज्जाया: शुक्रसंभवः ||
जो भोजन पचता है, उसका पहले रस बनता है | पाँच दिन तक उसका पाचन होकर रक्त बनता है | पाँच दिन बाद रक्त में से मांस, उसमें से 5-5 दिन के अंतर से मेद, मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा और मज्जा से अंत में वीर्य बनता है | स्त्री में जो यह धातु बनती है उसे ‘रज’ कहते [३]
वीर्य किस प्रकार छः-सात मंजिलों से गुजरकर अपना यह अंतिम रूप धारण करता है, यह सुश्रुत के इस कथन से ज्ञात हो जाता है | कहते हैं कि इस प्रकार वीर्य बनने में करीब 30 दिन व 4 घण्टे लग जाते हैं | वैज्ञनिक लोग कहते हैं कि 32 किलोग्राम भोजन से 700 ग्राम रक्त बनता है और 700 ग्राम रक्त से लगभग 20 ग्राम वीर्य बनता है |
(अनुक्रम) आकर्षक व्यक्तित्व का कारण
इस वीर्य के संयम से शरीर में एक अदभुत आकर्षक शक्ति उत्पन्न होती है जिसे प्राचीन वैद्य धन्वंतरि ने ‘ओज’ नाम दिया है | यही ओज मनुष्य को अपने परम-लाभ ‘आत्मदर्शन’ कराने में सहायक बनता है | आप जहाँ-जहाँ भी किसी व्यक्ति के जीवन में कुछ विशेषता, चेहरे पर तेज, वाणी में बल, कार्य में उत्साह पायेंगे, वहाँ समझो इस वीर्य रक्षण का ही चमत्कार है | यदि एक साधारण स्वस्थ मनुष्य एक दिन में 700 ग्राम भोजन के हिसाब से चालीस दिन में 32 किलो भोजन करे, तो समझो उसकी 40 दिन की कमाई लगभग 20 ग्राम वीर्य होगी | 30 दिन अर्थात महीने की करीब 15 ग्राम हुई और 15 ग्राम या इससे कुछ अधिक वीर्य एक बार के मैथुन में पुरुष द्वारा खर्च होता है |
संयमी पुरुष की स्मरणशक्ति, मेधा, आयु, आरोग्यता, पुष्टि, इन्द्रियों की शक्ति, शुक्र, कीर्ति और शक्ति सभी बढ़ी हुई रहती है तथा उसको बुढ़ापा देर से आता है।"
(अष्टांगहृदय सूत्रः 7.71)[४]
"अति यौन क्रिया से मनुष्य को सदा बचना चाहिए वरना शूल, खांसी, बुखार, श्वासरोग, दुबलापन, पीलिया, क्षय, आक्षेपक (ऐंठन) आदि व्याधियाँ ऐसे व्यक्ति को दबोच लेती है।"
(चरक संहिताः 24.11)
"धर्म के अनुकूल, यश देने वाला, आयुवर्धक, दोनों लोकों में रसायन की तरह हितकारी और सर्वथा निर्मल ऐसे ब्रह्मचर्य का तो हम सदैव अनुमोदन करते हैं।"
(अष्टांगहृदयसूत्र उत्तरः 40.4)
"संग, दर्शन और श्रवण का प्रभाव अवश्य पड़ता हैष सावधान !"
"काम-वासना को पूरी तरह से वशीभूत करने की कोशिश करो। ऐसा करने में यदि कोई सफल हो सके तो उसके भीतर मेधा नाम की एक नई सूक्ष्म नाड़ी जागृत होती है। वह अधोगामी शक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाती है। इस मेधा नाड़ी के खुलने के बाद सर्वोच्च परमात्मज्ञान प्राप्त होता है।"
(श्री रामकृष्ण परमहंस)
"जिसके मन से कामिनी-कांचन की आसक्ति मिट गई वह तो जिस क्षेत्र में सफल होना चाहे, हो सकता है। और तो क्या ? वह परब्रह्म परमात्मा को भी पा लेता है।"
(पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू)
"ब्रह्मचर्य वास्तव में एक बहुमूल्य रत्न है। यह एक सर्वाधिक प्रभावशाली औषध है, वास्तव में अमृत है जो रोग, जरा तथा मृत्यु को विनष्ट करता है। शांति, तेज, स्मृति, ज्ञान, स्वास्थ्य तथा आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए जो परम धर्म है। ब्रह्मचर्य सर्वोत्तम ज्ञान है, सर्वश्रेष्ठ बल है। वह आत्मा वास्तव में ब्रह्मचर्यस्वरूप है और यह ब्रह्मचर्य में ही निवास करती है। मैं प्रथम ब्रह्मचर्य को नमस्कार करके ही असाध्य रोगों का उपचार करता हूँ। ब्रह्मचर्य सभी अशुभ लक्षणों को मिटा सकता है।"
(धन्वंतरि)
"ध्यान के लिए ब्रह्मचर्य-व्रत आवश्यक है। ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।"
(गीताः 6.14)h
"अच्छी बातें कहना वाणी का ब्रह्मचर्य है। अच्छी बातें सुनना कानों का ब्रह्मचर्य है। अच्छी चीजें देखना आँखों को ब्रह्मचर्य है।"
(श्री उड़िया बाबा)
मैथुन संबंधी ये प्रवृतियाँ सर्वप्रथम तो तरंगों की भाँति ही प्रतीत होती हैं, परन्तु आगे चलकर ये कुसंगति के कारण एक विशाल समुद्र का रूप धारण कर लेती हैं | कामसबंधी वार्तालाप कभी श्रवण न करें |”
-नारदजी
“जब कभी भी आपके मन में अशुद्ध विचारों के साथ किसी स्त्री के स्वरूप की कल्पना उठे तो आप ‘ॐ दुर्गा देव्यै नमः’मंत्र का बार-बार उच्चारण करें और मानसिक प्रणाम करें |”
-शिवानंदजी
“जो विद्यार्थी ब्रह्मचर्य के द्वारा भगवान के लोक को प्राप्त कर लेते हैं, फिर उनके लिये ही वह स्वर्ग है | वे किसी भी लोक में क्यों न हों, मुक्त हैं |”
-छान्दोग्य उपनिषद
“बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि वह विवाह न करे | विवाहित जीवन को एक प्रकार का दहकते हुए अंगारों से भरा हुआ खड्डा समझे | संयोग या संसर्ग से इन्द्रियजनित ज्ञान की उत्पत्ति होती है, इन्द्रिजनित ज्ञान से तत्संबंधी सुख को प्राप्त करने की अभिलाषा दृढ़ होती है, संसर्ग से दूर रहने पर जीवात्मा सब प्रकार के पापमय जीवन से मुक्त रहता है |”
-महात्मा बुद्ध
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- ↑ http://hi.vikaspedia.in/health/ayush/ayurveda
- ↑ http://literature.awgp.org/book/aayurved_ka_vyapak_kshetra/v1.12
- ↑ https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%81_(%E0%A4%86%E0%A4%AF%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6)
- ↑ http://ayur-veda.guru/books/astanga-hridaya-sutrasthan-handbook-pdf.pdf