रघुनाथ विष्णुपंत शिरढोणकर
जिस कालखंड में बाल गंगाधर तिलक, विष्णु शास्त्री चिपलूनकर जैसे दिग्गज, पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत थे, उन्हीं दिनों महाराष्ट्र से सैंकड़ों मील दूर एक युवक के ह्रदय में इन महान व्यक्तियों का ध्येयवाद और आदर्श कुलांचे मार रहा था। उस युवक का नाम था रघुनाथ विष्णुपंत शिरढोणकर.सन १९३१ में मात्र बाईस वर्ष की आयु में र.वि. शिरढोणकर ने जोर शोर से एक मराठी मासिक पत्रिका का पहला अंक प्रकाशित किया और उसे अपने स्वभाव और कार्यशैली के अनुकूल ''हितचिंतक'' शीर्षक दिया। इसी मासिक पत्रिका की शुरूआत मात्र १५ वर्ष की आयु में हस्त लिखित माध्यम से वे कर चुके थे।
उत्तर भारत में मराठी पत्रकारिता की नींव रखनेवाले रघुनाथ विष्णुपंत शिरढोणकर का जन्म एक मध्यम वर्गीय परिवार में १७ मार्च १९०८ को ग्वालियर (म.प्र.) में हुआ था। उनमें पढ़ने और ज्ञानार्जन की जबर्दस्त इच्छा शुरू से ही थी। ग्वालियर में तब विश्व विद्यालय नहीं था, अत: उन्होंने बी.ए. की डिग्री आगरा विश्व विद्यालय से हासिल की। डिग्री प्राप्त करने के बाद तत्कालीन ग्वालियर रियासत की ओर से उनका शानदार स्वागत किया गया। उन्हें हाथी पर बिठाकर उनकी शोभायात्रा निकाली गई और उस समय के रिवाज़ के अनुसार रियासत के सभी रहवासियों के बीच चीनी बांटकर ख़ुशी व्यक्त की गई। इसी वजह से उनके माता -पिता एवं अन्य परिजनों की एक स्वाभाविक आकांक्षा थी कि वे सरकारी नौकरी करें, लेकिन र.वि. शिरढोणकर ने सिरे से इस इच्छा को नकार दिया और ''हितचिंतक'' के प्रकाशन में जुट गए। 'हितचिंतक'' कोई एक साधारण पत्रिका नहीं थी, उसके पीछे एक दृष्टी थी, एक विचार था। चार वर्ष के अल्प जीवन में इस मासिक पत्रिका के दो अभूतपूर्व विशेषांक र.वि. शिरढोणकर के संपादन में निकले। इन दो विशेषांकों ''पानीपत विशेषांक'' और ''शिंदेशाही विशेषांक'' ने पूरे देश में धूम मचा दी। लेकिन आज ये सब लिखना जितना आसान लग रहा है, उस समय करना उतना ही कठिन था। ग्वालियर में प्रिंटिंग प्रेस तक नहीं थी। प्रतिमाह वे आगरा जाकर पत्रिका की छपाई करवाते थे, फिर ग्वालियर आकर उसका वितरण स्वयं ही करते थे। परिवारजनों का विरोध था, स्टाफ रखने की हैसियत नहीं थी। सबकुछ अकेले के दम पर करना पड़ता था, लेकिन एक जिद थी, एक जज़्बा था।
''पानीपत विशेषांक'' में अत्यंत दुर्लभ नक़्शे,सेना की रचना के वैशिष्ट्यपूर्ण चित्रांकन एवं रेखांकन , साथ ही तत्कालीन इतिहासकारों द्वारा लिखे गए स्तरीय तथा जानकारीपूर्ण आलेख समाहित थे। ऐसी सम्पूर्ण सामग्री की वजह से उपरोक्त विशेषांक अनमोल साबित हुआ और आज भी, इतने वर्षों बाद अनेक लोग संदर्भ ग्रन्थ की तरह उसका उपयोग करते हैं। शिंदेशाही विशेषांक भी उन्होंने इसी तरह श्रमपूर्वक तैयार किया। हितचिंतक के प्रकाशन तक ही उनकी गतिविधियां सिमटी हुई नहीं थीं।
मातृभाषा के सम्मान और संवर्धन के लिए उन्होंने बीड़ा उठाया था.उस समय ग्वालियर में मराठी साहित्य उपलब्ध नहीं हो पाता था,अत : र.वि. शिरढोणकर ने मराठी किताबों का एक डिपो शुरू किया। मराठी भाषा के विद्वतजनों को सुनने का अवसर ग्वालियर के मराठी भाषियों को मिले इस विचार से ''शरद व्याख्यान माला '' की शुरुआत की, जो आज भी चालू है। उनके पिता विष्णुपंत शिरढोणकर, इस सारी कवायद को बेकार का झमेला मानते थे और इसी वजह से बड़ा परिवार होने के बावजूद ,उनकी सहचरी राजाबाई शिरढोणकर के अलावा, परिवार की ओर से किसी का सहारा नहीं था। महाराष्ट्र से जो भी मेहमान आते उनकी आवभगत अल्प साधनों के साथ राजाबाई ही किया करती थीं। न तो कोई पूँजी थी, न ही किसी की ओर से कोई आर्थिक सहायता मिलती थी, बस एक जिद थी। उस जिद के लिए उन्होंने ऐसे ऐसे कई काम किए जिनके बारे में आज का पढ़ा-लिखा , उच्च शिक्षित युवा सोच भी नहीं सकता.
र.वि. शिरढोणकर ने मुम्बई के प्रतिष्ठित जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्टस से चित्रकारी में उपाधि प्राप्त की थी, उसका उपयोग कर पेंटिंग की दुकान शुरू की, बच्चों को उनके घर जाकर पढ़ाया,हितचिंतक विद्या मंदिर के नाम से एक विद्यालय खोला और वे यहीं नहीं रुके , साईकिल के पंक्चर जोड़ने तक का काम किया। यह सब किसलिए ? न उन्हें मकान बनाना था, न उसे सजाना-संवारना था,न गाड़ी-घोडा खरीदना था, न पत्नी के लिए गहने बनवाने थे, सिर्फ एक ध्येय था--मातृ भाषा की सेवा,उसका संरक्षण और संवर्धन.
इतना सब करने के बाद भी उन्हें हासिल कुछ नहीं हुआ। एक ईमानदार व्यक्ति का जो हश्र होता है,वही उनके साथ भी हुआ। परिवार और समाज दोनों तरफ से उन्हें उपेक्षा ही मिली और अंततः ''हितचिंतक'' का प्रकाशन बन्द कर, पत्नी और दो अबोध बच्चों की खातिर सरकारी नौकरी की शरण में उन्हें जाना पड़ा.उस नौकरी की वजह से ग्वालियर जैसा बड़ा शहर छूट गया.छोटे छोटे गांवों में तबादले होते रहे, लेकिन ठेठ हिंदी माहौल में भी मातृ भाषा मराठी के प्रति खिंचाव बना रहा.उन्होंने हिंदी कहावतों का मराठी अनुवाद, उन पर विशेष टिप्पणियों के साथ प्रकाशित किया.प्रसिद्द रोमन दार्शनिक मार्क्स औरेलियस के विचारों को पुस्तक रूप में मराठी में ''आत्म चिंतन'' शीर्षक से प्रकाशित किया।
इतनी सारी आपाधापी में र.वि. शिरढोणकर का शरीर टूट गया। उच्च रक्तचाप ने घेर लिया और उस समय के असाध्य रोग लकवा से वे ग्रसित हो गए। जिंदगी भर जो व्यक्ति कुछ न कुछ करता रहा , उसे अपने जीवन के अंतिम छ: वर्ष बिस्तर पर गुजारना पड़े.२१ जुलाई १९७० को उनकी देह ने प्राण त्याग दिए। बाद में कई लोगों ने मृत्यु के कारण जानने की कोशिश की, लेकिन ६२ वर्ष का जीवन उन्होंने जिस ध्येय की खातिर जिया उसके बारे में किसी को चिंता नहीं थी। पुणे के प्रसिद्द मराठी समाचारपत्र 'केसरी' ने जरूर, ''उत्तर भारत में मराठी का एकमात्र आधार स्तम्भ ढह गया'' यह उचित शीर्षक देकर उनके निधन के समाचार को प्रकाशित किया।
र.वि. शिरढोणकर की याद को चिर स्थाई बनाने की दिशा में उनके सभी पुत्र-पुत्रियों ने, विशेष रूप से अरूण शिरढोणकर, डॉ. विजय शिरढोणकर और अलकनंदा साने ने प्रति वर्ष कार्यक्रम आयोजित किए। दुर्भाग्यवश डॉ. विजय शिरढोणकर का सन २०१६ में और अरूण शिरढोणकर का २०१७ में निधन हो गया । प्रति वर्ष २१ जुलाई को, लगातार ३९ वर्षों तक स्व. अरूण शिरढोणकर ने उनकी स्मृति में ग्वालियर में कार्यक्रम आयोजित किये, जिसमें अनेक ख्यातनाम पत्रकार, साहित्यकार,वक्ता आदि आमंत्रित अतिथि के रूप में सम्मिलित हुए। तत्पश्चात ७ वर्षों तक डॉ. विजय शिरढोणकर ने भोपाल में कार्यक्रम किये। उन्होंने भोपाल में र.वि. शिरढोणकर सभा गृह भी निर्मित किया एवं इसी सभागृह में बाद के वर्षों में उत्तर भारत के एक मराठी भाषी पत्रकार को ''र.वि. शिरढोणकर स्मृति सम्मान'' से नवाज़ा गया । सम्मान के अंतर्गत स्मृति चिन्ह, शाल और श्री फल के अतिरिक्त एक निश्चित राशि भी दी जाती थी । इस शॄंखला में अशोक वानखेड़े,अभिलाष खांडेकर एवं पीयूष पाण्डे को पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए सम्मानित किया गया। दोनों भाइयों की मृत्यु के बाद यह स्मृति कार्यक्रम नहीं हो पाया।
'सन २०१५ में ''हितचिंतक'' के पानीपत विशेषांक का पुनर्मुद्रण , र.वि. शिरढोणकर के प्रकाशित और हस्त लिखित साहित्य का डिजिटाइजेशन किया गया।
हिंदी की प्रसिद्द कवयित्री स्वरांगी साने और पत्रकार विभास साने र.वि. शिरढोणकर को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहते हैं कि हमें गर्व है कि मातृ भाषा के लिए जीने वाले और अपनी जिंदगी दांव पर लगानेवाले र.वि. शिरढोणकर हमारे नानाजी थे।
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