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रण: धैर्य का.. (कविता)

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आज सम्पूर्ण विश्व कोरोना जैसी महामारी से जूझ रहा है। और ये महामारी लगातार अपने अपने पैर पसारती जा रही है। जिसके के कारण हर देश जूझ रहा है और इससे निपटने का निजात खोज रहा है। वहीं अगर भारत की बात करें तो यहाँ भी ये महामारी रुकने का नाम नहीं ले रही है जिसके चलते सम्पूर्ण भारत को लॉकडाउन कर दिया गया है। और प्रत्येक नागरिक इसका पालन करते हुए अपने घर में रुक कर वर्तमान स्थिति को रोकने व कम करने की कोशिश कर रहे हैं। इन्ही परिस्थितियों की उपज का एक उदाहरण है ये कविता जिसे अतुल कुमार ने बखूब ही परिस्थितियों में ढाला है आप भी पढ़ें।

कविता[सम्पादन]

बंद दिहाड़ी घर बैठे हैं,

कूचे, गलियाँ सब सुन्न हो गए।

उदर रीते और आँख भरीं हैं

कुछ घर इतने मजबूर हो गए।


कहें आपदा या रण समय का,

जिसमे स्वयं के चेहरे दूर हो गए।

“घर” भरे हैं “रणभूमि” खाली

मेल-मिलाप सब बन्द हो गए।


घर का बेटी-बेटा दूर रुका है

कई घर मे बिछड़े पास आ गए।

हर घर में कई स्वाद बने हैं

कई रिश्ते मीठे में तब्दील हो गए।


बात हालातों की तुम समझो

तुम्हारे लिए कुछ अपनों से दूर हो गए।

जो है अपना वो पास खड़ा है।

मन्दिर-मस्जिद आदि सब दूर हो गए।


धैर्य रखो, बस ये है रण धैर्य का

सशस्त्र बल आदि कमजोर पड़ गए।

है बलवान धैर्य स्वयं में..

अधैर्य के बल पे सब हार गए।

- अतुल कुमार




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