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रस संप्रदाय

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संस्कृत काव्यशास्त्र का सर्वाधिक प्राचीन संप्रदाय 'रस संप्रदाय' है। जनश्रुति के अनुसार रस के प्रथम निरुपणकर्ता के तौर पर नन्दिकेश्वर का नाम मिलता है, किन्तु प्राप्त सामग्री के आधार पर भरतमुनि इसके प्रवर्तक माने जाते हैं। 'रस' का सामान्य अर्थ पदार्थ आदि के रस से लिया जाता है किन्तु काव्यशास्त्र में इसे 'काव्यानन्द' के अर्थ में समझा जाता है। संस्कृत के प्रायः सभी प्रख्यात आचार्यों ने रस पर चिन्तन किया, जिससे रस सिद्धान्त अधिकाधिक पुष्ट होता गया ।

काव्य को पढ़ने, सुनने और देखने से प्राप्त होने वाला आनंद ही 'रस' है। 'रस' का व्युत्पत्तिपरक अर्थ 'आस्वाद' है। कहा भी गया है- रस्यते आस्वाद्यते इति रसः (जिसका आस्वादन किया जाय, वही रस है)। यह रस काव्य में विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के परस्पर मिल जाने से प्राप्त होता है । विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव ही मिलकर रस की अभिव्यक्ति कराते हैं ।

भरतमुनि के पश्चात् रस सम्प्रदाय को लेकर जो काव्यशास्त्रीय परम्परा विकसित हुई, इसके प्रथम छोर पर आचार्य भामह और अंतिम छोर पर पण्डितराज जगन्नाथ अवस्थित हैं। अलंकरवादी आचार्यों में भामह, दण्डी, वामन, उद्भट और रुद्रट प्रमुख हैं। इन्होंने अलंकार को अंगी (प्रधान) और रस को अंग (गौण) माना और रसवत् अलंकार की परिधि में रस को भी समेट लिया । उन्होंने रस की काव्यगत महत्ता को अवश्यमेव स्वीकार की किन्तु काव्य के आत्मतत्त्व के रूप में उसे स्थान नहीं दिया। कालांतर में रसवादी और ध्वनिवादी आचार्यों ने रस को वरीयता प्रदान की।

रस सम्प्रदाय की परम्परा[सम्पादन]

यद्यपि रस-सम्प्रदाय के आद्य आचार्य भरतमुनि माने जाते हैं किन्तु उनके पूर्व भी ऐसे अनेक रसविवेचक आचार्य हो चुके है जिनका उल्लेख उनके पूर्ववर्ती ग्रन्थों तथा 'नाट्यशास्त्र' में हुआ है। राजशेखर ने अपनी 'काव्यमीमांसा' में रसाधिकारिकः नंदिकेश्वरः की पंक्ति में नंदिकेश्वर नामक रसाधिकारिक आचार्य का नाम उल्लिखित किया है।

भरतमुनि ने दृश्यकाव्य की विवेचना के सन्दर्भ में भी 'नाट्यरस' का विवेचन किया था जो कालान्तर में काव्यशास्त्र का एक प्रमुख विचारणीय विषय बन गया। उन्होंने नाटक के तीन तत्त्व माने हैं - वस्तु, नेता और रस। इसमें रस को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। इसका प्रमाण उनका यह कथन है- नहि रसादृते कश्चिदर्थः प्रकल्पते अर्थात् 'रस केबिना कोई अन्य अर्थ (तत्त्व) प्रवृत्त नहीं होता'। रसों और भावों की विवेचना करते हुए उन्होंने अलंकारों, गुणों और दोषों को भी रसों के आश्रित ( रससंश्रय) माना है।

आनंदवर्धन ने ध्वनिसिद्धान्त की प्रतिष्ठा करते हुए 'रसध्वनि' को 'काव्य की आत्मा' कहा तो विश्वनाथ ने रसात्मकं वाक्यं काव्यम् (रसात्मक वाक्य काव्य है) सूत्र में रस को ही काव्य की आत्मा का अधिवास माना। मम्मट तथा उनके परवर्ती आचार्यो द्वारा रससम्प्रदाय को विशेष महात्मय मिला और पण्डितराज जगन्नाथ ने तो 'रसगंगाधर' नामक ग्रन्थ में उसे पराकोटि तक पहुँचा दिया जिसका विस्तृत और गम्भीर विवेचन आचार्य अभिनवगुप्त के 'ध्वन्यालोकलोचन' नामक ग्रन्थ में मिलता है। रीतिकालीन अलंकारवादी आचार्यो को छोड़ कर रस का प्रतिपादन और समर्थन हिन्दी के आधुनिक आचार्यो ने भी किया है।

विभिन्न आचार्यों द्वारा रस-निरूपण[सम्पादन]

आचार्य भरत ने 'रस' और 'भाव' का विवेचन 'नाट्यशास्त्र' के छठे और सातवें अध्यायों में किया है। उनके अनुसार, 'विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः (विभाव, अनुभव और व्यभिचारिभाव ( संचारी भाव) के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।)। भामह ने 'काव्य रस' की बात की। अलंकारवादी आचार्य होने के कारण रस को उन्होंने अलंकार और विभाव को रस माना । दण्डी के अनुसार माधुर्य गुण रस का पर्यायवाची है। इन्होंने रस की सत्ता को ग्राम्यत्व दोष के परिहार में ही माना। दण्डी के मतानुसार 'काव्य को रसमय करना' सभी अलंकारों का ध्येय है।

रुद्रट ने अलंकारवादी होते हुए भी रस को अलंकार से भिन्न मानते हुए उसका विवेचन किया। इन्होंने रस के अनुकूल रीतियों ओर वृत्तियों के प्रयोग पर बल दिया। आनन्दवर्धन ने रस को केन्द्र बिन्दु मानते हुए समस्त काव्य-तत्त्वों का महत्त्व माना। ये रस को सर्वाधिक महत्त्व देने वाले आचार्य थे। अभिनवगुप्त ने रस को इस प्रकार परिभाषित किया है- सर्वथा रसनात्मक वीतविघ्न प्रतीतिग्राह्यो भाव एवं रसःधनञ्जय ने रस की ये परिभाषा दी है- विभावैरनुभावैश्च सात्विकैर्व्य भिचारिभिः आनीयमानः स्वाद्यत्व स्थायी भावो रसः स्मृतः

मम्मट ने रस को ध्वनि के एक भेद 'असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य ध्वनि' में स्थान दिया है। इन्होंने ही काव्य का 'सकल प्रयोजन मौलिभूतम्' भी स्वीकार किया था और रस की यह परिभाषा दी है- व्यक्तः स तैर्विभावाद्यौः स्थायी भावो रसः स्मृतःक्षेमेंद्र ने अपने 'औचित्य' संप्रदाय की स्थापना 'रस' को आधार मानकर ही की । विश्वनाथ ने 'रस' को इस प्रकार परिभाषित किया है-

विभावेनानुभावेन व्यक्तः संचारिणी तथा ।
रसतामेति रत्यादिः स्थायी भावः सचेतसाम् ॥

भोजराज कृत ' शृंगारप्रकाश', विश्वनाथ कृत 'साहित्यदर्पण', ' भानुदत्त कृत 'रसतरंगिणी' और पंडितराज जगन्नाथ कृत 'रसगंगाधर' रस-सिद्धान्त की दृष्टि से उल्लेख्य ग्रंथ हैं।

इन्हें भी देखें[सम्पादन]

सन्दर्भ[सम्पादन]


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