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राव मधुकरशाह बुंदेला

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मधुकरशाह बुंदेला नाराहट वर्तमानललितपुर उ.प्र.के राव साहब थे जिनके बुन्देला विद्रोह 1842 नाराहट के विद्रोही मधुकरशाह बुन्देला हम अपने ऐसे महायोद्धाओं से भी परिचित नहीं हैं जिन्हें मध्य प्रदेश के पाठ्यक्रम में स्थान मिला हुआ है।और ज्यादातर इतिहास की किताबों में उन्हे स्थान मिला हुआ है। लोग कहते हैं कि अंग्रेजों के खिलाफ पहला संयुक्त सशस्त्र विद्रोह 1857 में हुआ था लेकिन बहुत से इतिहासकारों का मत है कि उससे भी पहले 1842में बुन्देला विद्रोह हुआ था जिसमें सामुहिक रुप से अंग्रेजों का हिंसक प्रतिकार किया गया था जो गोंडवाना,मालवा , बुन्देलखण्ड सहित सारे मध्य भारत में फैला था । और विद्रोहियों में कई फांसी ,कई को गोली मारने और कई को काला पानी की सजा देने के बाबजूद इसे दवाने में अंग्रेजों को लगभग दो बर्ष लगे थे । ललितपुर जिले के दच्छिण पूर्व में नाराहट ताल्लुका स्थित है इसमें दस गांव शामिल थे और यहां के शासक को राव साहब की उपाधि प्राप्त थी ।राव साहब विजय बहादुर सिंह बुंदेला उस समय यहां की व्यवस्था देख रहे थे ।सन अठारह सो छत्तीस में सागर के अंग्रेज कमिश्नर ने नयी व्यवस्था के तहत जागीरदारों, ताल्लुकेदारों के अधिकारों में कई बंन्दिशें लगा दीं । प्रसिद्ध विद्वान आनन्द कुमार दुबे लिखते हैं कि ज्यादातर जागीरदार बुन्देला या उनके सम्बन्धी सहजातीय ठाकुर थे जो स्वाभिमान के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते थे और इस कानून ने सामन्त वर्ग को नाराजगी की सीमा पर ला दिया । इसी समय एक और नाराजगी का मौका आ गया ।राव विजय बहादुर सिंह बहुत सीधे और प्रजा बत्सल थे इसलिए बुन्देलों के समय में तो इनका मान था ही ,लेकिन मराठों के समय में इनका मान और बढ़ गया था ।मराठा इन्हें आदर्श और सज्जन शासक मानकर इज्जत देते थे लेकिन अंग्रेजों ने अपना शासन आते ही इसके विपरीत कृत्य शुरू करना शुरू किया । इतने सज्जन जागीरदार पर पुरानी लगान का वकाया दिखा कर सागर के दीवानी जज ने डिग्री कर दी , इसी के साथ एक हंसी के साथ दुख का प्रसंग जुड़ा है कि चन्दरापुर के इतने बड़े बुन्देला जागीरदार पर पशुओं की चोरी का आरोप लगा कर सागर दीवानी अदालत ने डिग्री कर दी ।और इन लोगो पर डिग्री न जमा करने पर सम्पत्ति कुर्क करने के आदेश दे दिए गये । इसके अलावा उस समय नये पैदा हुए अदालतों के अमीनों और अंग्रेजी पटवारियों की बोलचाल भी इन्हें गड़ने लगी थी जो खुद अपने को साहव मानने लगू थे और कर वेतन होने से भ्रष्टाचार भी मचाने लगे थे । और ऐसे वातावरण से विद्रोह के वीज तैयार होने लगे । वातावरण में धुआं की आहट खुरई तहसीलदार ने भांप ली और उसने कलैक्टर को लिखा कि नाराहट के राव साहब,नन्ने डोंगरा के दीवान प्रताप सिंह बुंदेला,बड़े डोंगरा के भोले जू,गुढ़ा के विक्रमजीत सिंह कभी भी विद्रोह कर सकते हैं । छब्बीस मार्च को होली थी । बुन्देलखण्ड के राजाओं के यहां रिवाज है कि होली पर बेड़नी का नृत्य कराया जाता है जिसे देखने जागीर के प्रमुख लोग व आम जनता जुड़ती है और राज्य परिवार उन्हें मिठाई जलपान के साथ पान ,तम्बाखू ,चिलम की व्यवस्था भी करता है । यह एक परम्परा थी जिसका निर्वहन मन न होने पर भी करना पड़ता था ।इस बार शाहगढ़ से झुकुनिया नामकी बेड़नी बुलायी गयी थी नृत्य चल रहा था लेकिन न जाने कौन सी चिढ़ के कारण या नीचा दिखाने के उद्देश्य से नाराहट का अंग्रेजी जमादार आया और होली उत्सव से बैड़िनी को उठा ले गया ।यह एक वेहद अपमानित करने बाला कृत्य था और ठाकुरों ने हथियार निकाल लिये । लेकिन राव साहब ने सबको शान्त किया क्यों कि वे समय की नजाकत से बाकिफ थे। उन्होंने अपने लाला मुख्तार को जमादार के पास भेजा , लेकिन जमादार ने उसे भी गाली देकर भगा दिया । राव साहब सौम्य थे और न्याय को आशन्वित थे इसलिए वह मालथोन थाना इसकी रिपोर्ट लिखाने गये , लेकिन कुछ नहीं हुआ और धुआं धधकती आग में परिवर्तित हो गया । आठ अप्रेल को बुन्देलों ने नाराहट में दर्जनों अंग्रेजी सिपाहियों की हत्या कर दी ,फिर बुन्देली फोज ने दस अप्रेल को खिमलासा को लूटा और काफी सम्पत्ति प्राप्त कर कई अंग्रेजों को नरक का रास्ता पकड़ाया । इस छोटी चिंगारी ने बड़ा रुप ले लिया ।बुन्देलों के अलावा गोंड़ राजाओं और लोधी राजाओं ने एक साथ विद्रोह कर दिया ।सागर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुरेश आचार्य लिखते हैं कि सागर के तात्कालिक अफसर कर्नल स्लीमेन इस विद्रोह का कारण जागीरदार वर्ग के स्वाभिमान को अपहत करना मानते हैं ।राव विजय बहादुर सिंह को गिरफतार कर लिया गया । लेकिन मधुकरशाह सहित उनके तीनों पुत्रों ने तूफान ला दिया ।इनके साथ सैकड़ों विद्रोहियों की सेना हो गयी और इनके सम्पर्क सूत्र दतिया चिरगांव से लेकर जबलपुर तक फेले थे । सारे मध्य भारत में विद्रोह की आग फैली थी ।अंग्रेज इसे साम दण्ड भेद से शान्त करने में लगे थे ।इसी के तहत फ्रेजर ने राव विजय बहादुर सिंह को जेल से मुक्त कर दिया , लेकिन मधुकर शाह तो क्रान्ति के पथ पर बहुत आगे बढ़ गये थे जहां से लोटना आसान नहीं था । सारे ललितपुर जिले की डांगों में रोज मधुकरशाह की फोजों और अंग्रेजों की मुठभेड़ होने लगी ।अंग्रेजों ने इनके ऊपर भारी इनाम भी रख दिया था । अंग्रेज इनका बरावर पीछा कर रहे थे । अंग्रेज अफसर हैमिल्टन ने जब ये अपनी बहिन के यहां गहरी नींद में सो रहे थे तो इनके यहां छापा मारा और इन्हें इनके भाई गज सिंह उर्फ गणेश जू बुंदेला के साथ पकड़ लिया गया ।इन्हें पकड़वाने में‌ कुछ स्थानीय सजातीय लोगों का भी हाथ था जिन्हें अंग्रेजों द्वारा लालच दी गयी थी। अठारह सौ तैतालीस में न्याय के अंग्रेजी नाटक के बाद मधुकरशाह को फांसी की सजा मुकर्रर हुयी और गणेश जू को काला पानी की । मधुकर शाह उस समय मात्र इक्कीस साल के थे और गणेश जू उन्नीस साल के थे कई साल के काला पानी की सजा काट के आने के वाद गणेश जू ज्यादा नहीं जिये और शीध्र ही स्वर्ग प्रस्थान कर गये ।

वीर के नाम पर सागर में गोपालगंज में एक पार्क है तथा एक बार्ड का नाम भी मधुकर शाह के नाम पर है जेल में भी स्मारक है।

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