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राव लाखनसी

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इतिहास[सम्पादन]

चौहान नरेश वाक्पतिराज प्रथम के तृतीय पुत्र लक्ष्मण थे, जिन्हें राव लाखनसी के नाम से जाना जाता है। इन्होंने नाडोल में अपना नया राज्य स्थापित किया।


चौहान नरेश वाक्पतिराज के तीन पुत्र सिंहराज, वत्सराज और लक्ष्मण हुए। उनके पिता वाक्पतिराज की मृत्यु के बाद सिंहराज सांभर की गद्दी पर बैठे और राज्य के बंटवारे में सबसे छोटे पुत्र लक्ष्मण को कम हिस्सा दिया गया। लक्ष्मण एक महत्वाकांक्षी पुरूष था। वह अपने पराक्रम एवं पुरुषार्थ के द्वारा नया राज्य प्राप्त करना चाहता था, इसलिए इन्होनें सांभर राज्य को त्यागकर अपनी पत्नी व सेवक के साथ दक्षिण दिशा की तरफ बढ़ते हुए पुष्कर तीर्थ पहुंचे। यहां पर स्नान करके अरावली पर्वतों को पार करते हुए सप्तशत की ओर प्रस्थान किया। दिन ढलने की वजह से लक्ष्मण नाडोल के समीप नीलकंठ महादेव के मंदिर परिसर को सुरक्षित समझ यहां आश्रय लिया। थकावट की वजह से तीनों वहीं गहरी नींद में सो गये। ब्राह्य मुहूर्त में वहां पुजारी आया। प्रस्तर पर लेटे हुए तीनों को देखते ही समझ गया कि यह परदेशी है। पुजारी इनसे ध्यान हटा कर भगवान शिव की पूजा-अर्चना करने लगे। पूजा-अर्चना पूर्ण होने पर पुजारी लौट कर सोये हुए लक्ष्मण के पास आये। लक्ष्मण के दीप्त मुखमण्डल को देखते ही वह समझ गया कि यह किसी राजकुल का सदस्य है। अतः पुजारी ने लक्ष्मण के मुख पर पुष्पवर्षा कर उसे जगाया। पुजारी ने परिचय व इधर आने का प्रयोजन जानकर इनसे आग्रह किया कि वह नाडोल शहर की सुरक्षा का दायित्व संभाले। पुजारी ने नगर के महामात्य संधिविग्रहक से मिलकर लक्ष्मण को नाडोल नगर का मुख्यरक्षक नियुक्त करवा दिया। उस समय नाडोल नगर उस क्षेत्र का मुख्य व्यापारिक नगर था। पंचतीर्थी होने के कारण जैन श्रेष्ठियों ने इस नगर को धन-धान्य से पाट डाला था। नाडोल नगर सुरक्षा की दृष्टि से एक मजबूत प्राचीर से घिरा हुआ था, फिर भी मेद लुटेरों से नाडोल प्रतिदिन लुटता रहता था। मेदों ने नाडोल में आतंक मचा रखा था। यहां का शासक सामन्तसिंह चावड़ा गुजरातियों का सामन्त था। वह एक अयोग्य-विलासी शासक था, जिसके प्रति प्रजा का असन्तोष पूरे उफान पर था। नगर के मुख्यरक्षक के रूप में लक्ष्मण हमेशा की तरह उस रात भी अपनी नियमित गश्त पर था। वह नगर की परिक्रमा करते-करते अपनी प्यास बुझाने हेतु नगर के बाहर समीप ही बहने वाली भारमली नदी के तट पर जा पहुंचा। प्यास बुझाने के बाद नदी किनारे बसी चरवाहो की बस्ती पर उसने अपनी सतर्क नजर डाली, तब एक झोपड़ी के प्रकाश ने उसे आकर्षित किया। उसके बाद वे उस ग्वाले की झोपड़ी की तरफ चल पड़े। वहां जाकर देखा तो झोपड़ी के ऊपर कपड़े पर चिपके हुए चमकते हीरे देखें। इन रहस्यमय हीरों की वास्तविकता जानने के लिए लक्ष्मण के मन में तीव्र अभिलाषा जागृत होने लगी। काफी प्रतीक्षा के बाद सवेरा होते ही वह तुरंत झोंपड़ी के ग्वाले के पास पहुंचे और वहां उस वस्त्रखण्ड को नीचे उतारकर चिपके हुए प्रकाशित हीरों का राज पूछा। वस्त्र में चिपके हीरे देख ग्वाले के आश्चर्य की सीमा नहीं रही, उसे भी समझ में नहीं आया कि जिस वस्त्र को उसने झोपड़ी पर डाला था, उस पर तो जौ के दाने चिपके थे। लक्ष्मण द्वारा पूछने पर ग्वाले ने बताया कि वह पहाड़ी की कन्दरा में रहने वाली एक वृद्ध महिला की गाय चराता है। आज उस महिला ने गाय चराने की मजदूरी के रूप में उसे कुछ जौ दिए थे, जिसे वह बनिये को दे आया। कुछ इसके चिपक गए, जो हीरे बन गये। लक्ष्मण उसे लेकर बनिए के पास गया और बनिए ने बरामद किये गये हीरे वापस ग्वाले को दे दिये। लक्ष्मण इस चमत्कार से विस्मृत था अतः उसने ग्वाले से कहा- अभी तो तुम जाओ, लेकिन कल सुबह ही मुझे उस कन्दरा का मार्ग बताना जहाँ वृद्ध महिला रहती है। दूसरे दिन लक्ष्मण जैसे ही ग्वाले को लेकर कन्दरा में गया, कन्दरा के आगे समतल भूमि पर उनकी और पीठ किये वृद्ध महिला गाय का दूध निकाल रही थी। उसने बिना देखे लक्ष्मण को पुकारा- “लक्ष्मण, राव लक्ष्मण आ गये बेटा, आओ।” आवाज सुनते ही लक्ष्मण आश्चर्यचकित हो गया और उसका शरीर एक अद्भुत प्रकाश से नहा उठा। उसे तुरंत आभास हो गया कि यह वृद्ध महिला कोई और नहीं, उसकी कुलदेवी माँ शाकम्भरी ही है और लक्ष्मण सीधा माँ के चरणों में गिरने लगा, तभी आवाज आई- मेरे लिए क्या लाये हो बेटा? बोलो मेरे लिए क्या लाये हो ? लक्ष्मण को माँ का मर्मभरा उलाहना समझते देर नहीं लगी और उसने तुरंत साथ आये ग्वाले का सिर काट माँ के चरणों में अर्पित कर दिया। लक्ष्मण द्वारा प्रस्तुत इस अनोखे उपहार से माँ ने खुश होकर लक्ष्मण से वर मांगने को कहा। लक्ष्मण ने माँ से कहा- "माँ आपने मुझे राव संबोधित किया है, अतः मुझे राव (शासक) बना दो ताकि मैं दुष्टों को दंड देकर प्रजा का पालन करूँ, मेरी जब इच्छा हो आपके दर्शन कर सकूं और इस ग्वाले को पुनर्जीवित कर देने की कृपा करें।" वृद्ध महिला “तथास्तु” कह कर अंतर्ध्यान हो गई। जिस दिन यह घटना घटी वह वि.स. 1000, माघ सुदी 2 का दिन था। मेदों के साथ भीषण युद्ध– लक्ष्मण द्वारा नगररक्षक के कार्यभार संभालने के कुछ दिन बाद ही मेद नगर को लुटने आये। एक तरफ लक्ष्मण और सैकड़ो शस्त्रधारी लुटेरों के मध्य भीषण युद्ध हुआ। लक्ष्मण की तरफ जो भी मेद आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ते, उसकी तलवार के प्रहार से परकटे पक्षी की भांति जमीन पर गिरने लगते। लक्ष्मण के साहस और पराक्रम से अभिभूत प्रजा दल भी उनका साथ देने पहुंचे। बचे हुए लुटेरे अपनी जान बचाकर भाग चले। मेद इतनी जल्दी हार मानने वाले नहीं थे। वे बड़ी-बड़ी सख्यां में आते, पर हर बार लक्ष्मण ने उनका प्रयत्न निष्फल कर दिया। यहां के नगरवासी योग्य रक्षक पाकर अपने आप को सुरक्षित महसूस करने लगे। लक्ष्मण ने एक सैनिक टुकड़ी का भी गठन किया। एक दिन मेदों ने संगठित होकर लक्ष्मण पर हमला किया। भीषण मारकाट के बाद मेद भाग चले, लक्ष्मण व उसकी छोटी-सी सैनिक टुकड़ी के दल ने मेदो का पहाड़ी इलाके तक पीछा किया। वहां मेदों से खूनी संघर्ष करते हुए स्वयं गम्भीर रूप से घायल हो गया। अर्धविक्षिप्त लक्ष्मण को घोड़े पर लाद कर सैनिक नाडोल की ओर लौटे। इसी बीच मूर्च्छा टूटने पर प्यास से उनका गला सूख रहा था। नजदीक ही एक कच्चे जलाशय से एक सैनिक जल लेकर आया। जल पीकर लक्ष्मण ने अपनी तृष्णा शान्त की। लक्ष्मण की आहत अवस्था से नगरवासी चिन्तित हो उठे। इस बीच लक्ष्मण की अस्वस्थता का लाभ उठाकर मेदों ने लूट-पाट का बाजार इतना गरम कर दिया कि जनता त्राहि-त्राहि कर उठी। लोगों के दुख को सुनकर लक्ष्मण द्रवित हो उठे। लक्ष्मण ने माँ से प्रार्थना की। माँ की स्तुति करते ही लक्ष्मण का शरीर अनिर्वचनीय आनन्द से भर उठा। उनके मानस में माता का संजीवन बिम्ब उभरा। माता का स्वरूप देखते ही लक्ष्मण अभिभूत हो उठे। माँ ने झुककर अपने पुत्र के सिर पर हाथ फेर कर अभयदान दिया और वह उन्हें ढाढ़स बंधाते हुए बोली- "पुत्र ! निराश मत हो, शीघ्र ही मालव देश से असंख्य घोड़ेे तेरे पास आयेंगे। तुम उनके ऊपर केसरमिश्रित जल छिड़क देना जिससे उन घोड़ों का प्राकृतिक रंग बदल जायेगा। उन घोड़ो को प्राप्त कर एक अजेय सेना तैयार करके अपना राज्य स्थापित करो।" ऐसा कहकर माता अन्तर्धान हो गई। दूसरे दिन जैसे माता ने कहा था, वैसी ही घटना घटी। आँधी के समान असंख्य घोड़े आते गये। इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा ने घोड़ों की संख्या १२००० बताई है, वंही मुंहता नैंणसी ने इन घोड़ों की संख्या १३००० बताई है। लक्ष्मण द्वारा केसर मिश्रित जल छिड़कने से घोड़ों का रंग बदल गया। उन घोड़ो को प्राप्त करते ही लक्ष्मण एक नये उत्साह से अपने काम में जुट गये। इस नयी सेना से उन्होंने गोड़वाड से मेदों का समूल उच्छेदन कर प्रजा को सुख-शान्ति प्रदान की। प्रजा ने अपने नायक का अभिनंदन करते हुए नाडोल के अयोग्य शासक सामंतसिंह चावड़ा को सिंहासन से उतार लक्ष्मण को सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया। इस प्रकार लक्ष्मण माँ शाकम्भरी से आशीर्वाद पाकर अपने भाई सिंहराज के समान ही नाडोल के महाराजाधिराज बने। इसने अपने चौहान साम्राज्य की शक्ति का विस्तार किया। नाडोल के शासक राव लक्ष्मण (लाखनसी) के पुत्रों में राव अनहल या अवाहेल, राव अनूप, शोभित, विग्रहपाल, आसल और अजेतसिंह थे। नाडोल में राव लक्ष्मण ने माँ की शाकम्भरी माता के रूप में ही आराधना की थी, लेकिन माँ के आशीर्वाद स्वरूप उसकी सभी आशाएं पूर्ण होने पर लक्ष्मण ने माता को आशापुरा (आशा पूरी करने वाली) संबोधित किया, जिसकी वजह से माता शाकम्भरी एक और नाम "आशापुरा” के नाम से विख्यात हुई और कालांतर में चौहान वंश के लोग माता शाकम्भरी को आशापुरा माता के नाम से कुलदेवी मानने लगे। लक्ष्मण ने घायल अवस्था में जहां पानी पिया था, उसके समीप ही उन्होंने माँ का भव्य मन्दिर बनवाया तथा उस कच्ची बावड़ी को पत्थरों से अलंकृत कर पक्की बनवा दिया। यह बावड़ी आज भी अपने महान् निर्माता की याद को जीवन्त बनाये हुए हैं। मां आशापुरा का यह महान् भक्त लक्ष्मण या लाखन चौहान राजवंश के महान् शासकों मे से एक था। उसकी वीरता, उसकी निर्भयता और उसके पराक्रम की चर्चा करते हुए चाचिगदेव सोनगरा का सुन्धा माता शिलालेख इन्हें 'शाकम्भरीन्द्र' तथा माउन्ट आबू का शिलालेख 'शाकम्भरी माणिक्य' से विभूषित करता है।

सन्दर्भ[सम्पादन]

  1. https://web.archive.org/web/20180302080126/http://godwadjyotinewspaper.blogspot.com/2015/11/blog-post_17.html
  2. https://www.jagran.com/spiritual/mukhye-dharmik-sthal-know-the-story-of-famous-ashapura-mata-temple-in-gujarat-17105458.html
  3. https://web.archive.org/web/20170705174256/http://shatabdigaurav.com/index.php/2015/12/24/godwad-nadol/


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