श्री श्री 1008 श्री भीमगिरीजी महाराज की संक्षिप्त जीवनी
देवनगरीसिरोही जिले के शिवगंज तहसील में संतों की धारा सवली गाँव के एक रेबारी समाज के राजाजीं एवं उनकी धर्मपत्नि कंकुबाई के पाँच पुत्र थे
उनमें से सबसे छोटे पुत्र का नाम भीमाजी था ।[सम्पादन]
भीमाजी जन्म से ईश्वर भक्ति एवं परमार्थ कार्यो मे रूचि रखते थे ।
बाल्यकाल में अपने भाईयों के साथ गाये चराते-चराते बडे हुए। सामाजिक रीतिरिवाज के अनुसार साटा घर में नहीं होने के कारण सेऊडा निवासी जोगाजी रेबारी के वहाँ सात वर्ष तक घर जवाँई रहे।
ससुराल में भेड बकरी चराने जाते उस समय जंगल में नाडी खुदाई का कार्य करते एवं रात को पाणत (गेंहू को पानी पिलाना) भी किया करते थे।
आज भी वह भीमानाडी के नाम से प्रसिध्द है ।[सम्पादन]
जंगल में जब वो भेड बकरीयाँ चराने जाते वहा । घनी छाया के नीचे बैठकर दिन भर भगवान का भजन करते और बकरिया भगवान के भरोसे चरती थी। यह शिकायत जब उनके ससुर जोगाजी के पास पहुँची तब जोगाजी अपने जवॉईं भीमाजी की परीक्षा लेने जंगल पहुँचे वहाँ जाकर देखा तो भेड बकरियाँ राम भरोसे चर रही है और भीमाजी रोटी का भात एवं पानी का दीरा पेड़ पर लटका कर पेड के नीचे भगवद् भक्ति में बैठे देख ससुर जोगाजी ने चुपके से दीरे का पानी खाली कर दिया और भात खोलकर रोटी की जगह गोबर के कण्डे (साण) बांध कर वापस पेड से लटकाकर भीमाजी को आवाज लगाई। भीमाजी ने कहा कि आप यहाँ आ जाओ ससुर जोगाजी ने भीमाजी से कहा कि मुझे भुख व प्यास लगी है तो, भीमाजी ने रोटी भात एवं पानी का दिरा लाकर जोगाजी को दिया एवं खोला तो राटी निकली फिर दिरा खोला तो उसमें भी पानी मिला। ससुर जोगाजी चुपचाप घर आये । भीमाजी के बकरिया चराते सात वर्ष बीत गये। भीमाजी अपने गाँव सवली आये। घर वालो ने कहा कि एक वर्ष और बिताते तो शादि का खर्च भी ससुराल वाले दे देते। भीमाजी फिर कमाने गये। अपनी कमाई लेकर भीमाजी वापव सेऊड आकार पूरे गाँव के रेबारियों को शामिल करके अपनी धर्मपत्नि को बहिन रूपी चुनडी ओढाकर अपने परम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आबु पर्वत की ओर प्रस्थान किया जहाँ परम वैभवशाली श्री कानगिरीजी महाराज से समागम हुआ। भीमाजी ने श्री कानगिरीजी से अपना शिष्य बनाने का आग्रह किया । श्री कानगिरीजी और भीमाजी कैदारनाथ महादेव नितोडा में आकर अपने जीवन कल्याण हेतु कानगिरीजी को गुरु मान कर भेख लेकर गुरु सेवा करते कुछ दिनों तक वहाँ रहें ।.
अब भीमाजी भीमगिरीजी के नाम से जाने जाने लगे तत्पश्चात भक्ति हेतु कठिन एवं काटो भरे एकान्त वास के लिए वाण गाँव के बोणक पहाड की एक गुफा में भक्ति आरम्भ की वहाँ पर शेर चीतों का सामना करते उनको आत्मज्ञान हुआ। उनका भक्ति रूपी प्रकाश दूर दराज के गांवो तक फैलसे से लोगों का आना जाना बढता गया।
लोग बताते है कि लोगों के आने जाने से तपस्या में व्यवधान उत्पन्न होसे से श्री भीमगिरी दिन में मनुष्य शरीर से सिंह रूप धारण करते ताकि तपस्या में व्यवधान उत्पन्न न हो।
तपस्या करते तीन वर्ष बिता कर अपने घर भीक्षा हेतु वापस सवली आये।
हिंगलाज_माता_मन्दिर[१]घर से भीक्षा लेकर भीमगिरजी साधुओं की जामात के साथ सुदूर पश्चिम में बलुचिस्तान (पाकिस्तान) में प्रमुख शक्तिपीठ हिंगलाज माता[२] के दर्शनार्थ निज मंदिर में गये तो एक छोटी कन्या के रूप में हिंगलाज माँ ने उन्हें साक्षात दर्शन देकर एक कंठी दी जिसे महाराज ने आजीवन अपने पास रखी।
वहाँ से महाराज देलदर गाँव में अपने आत्म ज्ञान, सरल स्वभाव एरां ज्ञान प्रकाश से लोगों को ॐ सोम शिव हरि का गुरु ज्ञान देते हुए करीब तीन वर्ष वहाँ बिताये साधु और निर चलता भला विचार कर भूतेश्वर महादेव मंदिर भूतगाँव में आकर रहने लगे। श्री भीमगिरीजी प्रतिदिन सत्संग भजन के साथ-साथ वचन सिध्दि होने के कारण एवं उनके आशीर्वाद से कई लोगों के असाध्य रोग मिट जाते थे। एक दिन सवली से डुंगाजी प्रजापत भीमगिरीजी के चरणों में आकर कहने लगे कि मेरे गले में कण्ठ माल रोग मिटाने की कृपा कीजिये। गुरुदेव ने आशीर्वाद देते हुए कहा कि ईश्वर की चरण में जाओ ठीक हो जायेगा। गुरु देव का वचन शिरोधार्य मान कर गुरु दीक्षा ली। कुछ दिनों बाद उनकी कण्ठ माल पूरी तरह गुरु आशीर्वाद से ठीक हो गई। डुंगाजी के मन में भी ईश्वर भक्ति की भावना जगने के कारण स्वयं गुरुदेव के चरणों में समर्पित किया। अब डुंगाजी से डुंगरगिरी बनकर गुरु देव की सेवा करने लगे। भूतेश्वरजी में करीब सात वर्ष बीता कर गाँव वालो से बिदाई लेकर अपनी मातृभूमि सवली में आये। गुरुदेव के आने से गाँव में चार चान्द लग गये। घर-घर राम रोटी एवं शाम को भजन कीर्तन करने से लोगों में प्रेभ भाव व सद्भावना बढने लगी। उसी दौरान गाँव के किनारे श्री मलकेश्वर महादेव मन्दिर की नींव रखी। कैलाश नगर का एक चौधरी गुरु देव की चरण में आकर बोला मुझे शिष्य बनाओ। गुरुदेव ने उनकी पुकार सुन ली और उनको अपना शिष्य बना दिया उनका नाम पूरणगिरी रखा। पूरणगिरी का अचानक बीमारी के कारण देहावसान हो गया। उन्हें सवली में मलकेश्वर महादेव मन्दिर के पास में ही समाधी दे दी गई।
तत्पश्चात सवली गाँव के ही कुम्हार परिवार की एक महिला का मन ईश्वर भक्ति में लग गया। उनका नाम अनुदेवी था। अनुदेवी को गुरुदेव ने चमत्कार दिखाया तो अनुदेवी का मोह सांसारिक जीवन से उठ गया। अनुदेवी गुरुदेव की चरणों में जाकर गद् गद् मन से भाव विभोर होकर गुरुदेव से विनंती की। कि आप मुझे अपनी शिष्या बनी दीजिऐ । अनुदेवी को भी अपनी शिष्या बना दिया गया। अब अनुदेवी दयालगिरी के नाम से जानी जाने लगी। दयालगिरी गुरुभक्ति एवं गुरु सेवा में रात दिन बिताने लगी। भीमगिरीजी ने एक स्त्री को अपनी शिष्या बनाने पर नारित्व दोष से दूर रहने के लिए श्री मलकेश्वर महादेव सवली का मठ श्री दयालगिरीजी को सौप कर गुरुदेव फिर कैलाशनगर जाकर गाँव के किनारे एक झुपडी कानिर्माण करवाया अपने तप, तेज व अनुभव के कारण दूर दराज से अपनी मनोकामना एवं गुरु दर्शन हेतु लोगों की भीड बढने लगी। गुरुदेव ने झुपडी में राम रसोडे का पुण्य कार्य भी किया ।
सन १९७७ में डी. सी. सामन्त सिरोही के जिला कलेक्टर थे तब कैलाश नगर के प्रभारी मंत्री के मुख्य आतिथी में एक बड़े समारोह का आयोजन किया गया। समारोह में अधिकारीगण एवं जनप्रतिनिधियों के साथ हजारों की संख्या में ग्रामीण उपस्थित थे । उस समय कैलाशनगर का नाम लाश था। समारोह में मौजुद जनप्रतिनिधियों ने इस अशुभ नाम के स्थान पर एक बडे नेता के नाम पर नामकरण कर दिया। नामकरण के पश्चात कुछ अधिकारी एवं जनप्रतिनिधी श्री भीमगिरीजी महाराज के दर्शनार्थ पहुँचे तो उस समय महाराज आसन पर बैठे हुये थें। महाराज ने लोगों से आने का प्रायोजन पूछा तो सभी ने बताया कि आज गांव का नामकरण कर आपके दर्शनार्थ आये हैं। महाराज ने हंसते हुए कहा कि मुझे तो कोई दूसरा नाम लिखा दिख रहा है। लोगों को महाराज के पीछे की कोरी दीवार पर बड़े अक्षरों में कैलाशनगर लिखा हुआ दिखाई दिया भविष्य में उसी नाम से यह गांव जाना जाने लगा। एक दिन भूतगांव में कुछ साधुओं ने उन्हे तंग करने की नियत से भगवा वस्त्र एवं माला पहनने का प्रायोजन पूछा। क्रोधित होकर श्री भीमगिरीजी ने राम भक्त हनुमान की भांति अपना ह्रदय चीर कर साधुओं को दिखाया तो उसमें जलती हुई ज्योति दिखाई। तब साधुओं को अपनी गलती का अहसास हुआ।
सवली गांव बाढ ग्रस्त एवं चारो तरफ कुओ से घेरा हुआ था। श्री गुरुदेव के सद्वचनों एवं आशीर्वाद से गोचर भूमि में नये गाँव की स्थापना की गई जिसका नाम सवली से शिवनगर बना। गुरुदेव के बडे भाई गजाजी के तीन बेटे थे उनके नाम क्रमश: नेतीजी, हीराजी एवं मोतीजी थे। मोतीजी एवं नेतीजी भी अपने चाचा गुरुदेव की तरह गांव में गाये चराते थे। मोतीजी किशोरावस्था में ही राम प्यारे हो गये थे। नेतीजी का भी गाये चराते-चराते ईश्वर भक्ति एवं पुण्य कार्यो में मन लगने लगा। धीरे धीरे सांसारिक जीवन से दिल उठ गया। उन्होंने गुरुदेव की चरणों में जाकर भक्ति आरम्भ की। कुछ समय पश्चात नेतीजी वापस अपने घर आकर दीक्षा ली और गुरुदेव की सेवा में जाकर तपस्या करने लगे। अब नेतीजी से श्री नवलगिरीजी के नाम से जाने जाने लगे। जब गुरुदेव का अन्त समय आया तब गुरुदेव ने अपनी समाधी की जगह अपने शिष्य नवलगिरीजी एवं गांव वालो को बताई और ॐ सोम शिव हरी का नाम जपते हुए गुरुदेव चिर समाधी में लिन हो गये। और देखते ही देखते पूरा आसमान गुलाल एवं जयकारों से गुंज उठा। श्री भीमगिरीजी अब भीमेश्वर के नाम से भी जाने जाते है। गुरुदेव की जीवन बडे बुजुर्गों से जैसी सुनी वैसी लिखी ।
सन् उन्नीस सौ नवासी, सॉवलाजी के तीर । भाद्रवा वदी अष्टमी, भीमगिरी छोड्यो शरीर ।। लोक उददारक महा महीम महात्मा की पुण्य स्मृति को शत् शत् वन्दन ।[सम्पादन]