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सकट चौथ कथा

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बोलो सकट चौथ की जय | श्री गणेश देव की जय |

सकट चौथ व्रत महात्मय

यह व्रत माघ मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है। यह व्रत स्त्रियां अपने संतान की दीर्घायु और सफलता के लिये करती है। इस व्रत के प्रभाव से संतान को रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होती है तथा उनके जीवन में आने वाली सभी विघ्न –बाधायें गणेश जी दूर कर देते हैं। इस दिन स्त्रियां पूरे दिन निर्जला व्रत रखती है और शाम को गणेश पूजन तथा चंद्रमा को अर्घ्य देने पश्चात् ही जल ग्रहण करती है।

    1. सकट चौथ की व्रत कथा(काव्य)##
         (1)

सकट चौथ की कथा सुनो यह अतिशय हर्ष प्रदाता इसमें पाया जाता है माता का सुख से नाता

        (2)

प्राचीन काल में माघ मास की कृष्ण चतुर्थी आई सुत गणेश ने जिम्मेदारी सुत की पूर्ण निभाई

           (3)

माता पार्वती बोलीं स्नान हेतु जाती हूं नहीं किसी को आने देना, जल्दी ही आती हूं

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प्रिय गणेश ने पहरेदारी जमकर खूब निभाई शंकर जी आने को आतुर, उनसे हुई लड़ाई

        (5)

क्रोधित शंकर जी ने सिर ही सुत का का काट दिया था तब माता ने शोक ग्रस्त हो हाहाकार किया था

           (6)

जीवित करो पुत्र यह मेरा, तीन लोक के स्वामी बिना पुत्र के जीवन होगा क्या मेरा आगामी ?

         (7)

तुरत - फुरत हाथी का काटा शीश ,शीश को जोड़ा हुए गजानन तब गणेश जी मां ने दुख को छोड़ा

          (8)

कथा बताती है सुत अच्छे आज्ञाकारी होते भले कार्य -निर्वाह हेतु अपने प्राणों को खोते

           (9)

कथा कह रही मां के जीवन का सब सार यही है बिना पुत्र के माँ का कुछ जीवन- आधार नहीं है

        (10)

बेटा- बेटी सदा सर्वदा माँ के ही गुण गाएं माँ सदैव बेटा- बेटी को देखें हर्ष मनाएं रचयिता: रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश )मोबाइल 999 7615 451

सकट चौथ व्रत की विधि[सम्पादन]

माघ मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को सकट का व्रत किया जाता है। इस दिन संकट हरण गणपति का पूजन होता है। इस दिन विद्या, बुद्धि, वारिधि गणेश तथा चंद्रमा की पूजा की जाती है। भालचंद्र गणेश की पूजा सकट चौथ को की जाती है। प्रात:काल नित्य क्रम से निवृत होकर षोड्शोपचार विधि से गणेश जी की पूजा करें। निम्न श्लोक पढ़कर गणेश जी की वंदना करें :-

गजाननं भूत गणादि सेवितं,कपित्थ जम्बू फल चारू भक्षणम्।

उमासुतं शोक विनाशकारकम्, नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम्॥

इसके बाद भालचंद्र गणेश का ध्यान करके पुष्प अर्पित करें।

पूरे दिन मन ही मन श्री गणेश जी के नाम का जप करें। सुर्यास्त के बाद स्नान कर के स्वच्छ वस्त्र पहन लें। अब विधिपूर्वक( अपने घरेलु परम्परा के अनुसार ) गणेश जी का पूजन करें। एक कलश में जल भर कर रखें। धूप-दीप अर्पित करें। नैवेद्य के रूप में तिल तथा गुड़ के बने हुए लड्डु, ईख, गंजी(शकरकंद), अमरूद, गुड़ तथा घी अर्पित करें।

यह नैवेद्य रात्रि भर बांस के बने हुए डलिया(टोकरी) से ढ़ंककर यथावत् रख दिया जाता है। पुत्रवती स्त्रियां पुत्र की सुख समृद्धि के लिये व्रत रखती है। इस ढ़ंके हुए नैवेद्य को पुत्र ही खोलता है तथा भाई बंधुओं में बांटता है। ऐसी मान्यता है कि इससे भाई-बंधुओं में आपसी प्रेम-भावना की वृद्धि होती है। अलग-अलग राज्यों मे अलग-अलग प्रकार के तिल और गुड़ के लड्डु बनाये जाते हैं। तिल के लड्डु बनाने हेतु तिल को भूनकर ,गुड़ की चाशनी में मिलाया जाता है ,फिर तिलकूट का पहाड़ बनाया जाता है, कहीं-कहीं पर तिलकूट का बकरा भी बनाते हैं। तत्पश्चात् गणेश पूजा करके तिलकूट के बकरे की गर्दन घर का कोई बच्चा काट देता है।

प्रथम कथा[सम्पादन]

एक साहूकार और एक साहूकारनी थे | वह धर्म पुण्य को नहीं मानते थे | इसके कारण उनके कोई बच्चा नहीं था | एक दिन साहूकारनी पडोसी के घर गयी | उस दिन सकट चौथ था, वहा पड़ोसन सकट चौथ की पूजा कर के कहानी सुना रही थी | 

साहूकारनी ने पड़ोसन से पूछा - "तुम क्या कर रही हो ?" तब पड़ोसन बोली की आज चौथ का व्रत है, इसलिए कहानी सुना रही हूँ | तब साहूकारनी बोली चौथ के व्रत करने से क्या होता है ? तब पड़ोसन बोली इसे करने से अन्न, धन, सुहाग, पुत्र सब मिलता है | तब साहूकारनी ने कहा यदि मेरा गर्भ रह जाये तो में सवा सेर तिलकुट करुँगी और चौथ का व्रत करुँगी | 

श्री गणेश भगवान की कृप्पा से साहूकारनी के गर्भ रह गया | तोह वह बोली की मेरे लड़का हो जाये, तो में ढाई सेर तिलकुट करुँगी | कुछ दिन बाद उसके लड़का हो गया, तो वह बोली की हे चौथ भगवान ! मेरे बेटे का विवाह हो जायेगा, तो सवा पांच सेर का तिलकुट करुँगी | कुछ वर्षो बाद उसके बेटे का विवाह तय हो गया और उसका बीटा विवाह करने चला गया | लेकिन उस साहूकारनी ने तिलकुट नहीं किया | इस कारण से चौथ देव क्रोधित हो गये और उन्होंने फेरो से उसके बेटे को उठाकर पीपल के पेड़ पर बिठा दिया | सभी वर  को खोजने लगे पर वो नहीं मिला, हतास हो कर सरे लोग अपने अपने घर को लोट गए | इधर जिस लड़की से साहूकारनी के लड़के का विवाह होने वाला था, वह अपनी सहेलियों के साथ गणगौर पूजने के लिए जंगल में दुब लेने गयी | 

तभी रस्ते में पीपल के पेड़ से आवाज आई - "ओ मेरी अर्धब्यहि " यह बात सुनकर जब लड़की घर आयी उसके बाद वह धीरे धीरे सुख कर कटा होने लगी | एक दिन लड़की की माँ ने कहा - "में तुम्हे अच्छा खिलाती हूँ, अच्छा पहनाती हूँ, फिर भी तू सूखती जा रही है ? ऐसा क्यों ?" तब लड़की अपनी माँ से बोली की वह जब भी दुब लेने जंगल जाती है, तो पीपल के पेड़ से एक आदमी बोलता है की ओ मेरी अर्धब्यहि | 

उसने मेहँदी लगा राखी है और सेहरा भी बांध रखा है | तब उसकी माँ ने पीपल के पेड़ के पास जा कर देखा की यह तो उसका जमाई है | तब उसकी माँ ने जमाई से कहा - यहाँ क्यों बैठा है ? मेरी बेटी तो अर्धब्यहि कर दी और अब क्या लेगा ? 

साहूकारनी का बेटा बोलै - "मेरी माँ ने चौथ का तिलकुट बोला था लेकिन नहीं किया, इस लिए चौथ माता ने नाराज हो कर यहां बैठा दिया | " 

यह सुनकर उस लड़की की माँ साहूकारनी के घर गई और उससे पूछा की तुमने सकट चौथ का कुछ बोला है क्या ? तब साहूकारनी बोली - तिलकुट बोला था | उसके बाद साहूकारनी बोली मेरा बेटा घर आजाये, तो ढाई मन का तिलकुट करुँगी | 

इससे श्री गणेश भगवन प्रसंन हो गए और उसके बेटे को फेरो में ला कर बैठा दिया | बेटे का विवाह धूम धाम से हो गया | जब साहूकारनी के बेटे बहु घर को आ गए तब साहूकारनी ने ढाई मन तिलकुट किया और बोली हे चौथ देव ! आप के आशीर्वाद से मेरे बेट बहु घर आये है, जिससे में हमेसा तिलकुट करके व्रत करुँगी | इसके बाद सरे नगर वासियो ने तिलकुट के साथ सकट व्रत करना प्रारम्भ कर दिया | 

हे सकट चौथ जिस तरह साहूकारनी को बेटे बहु से मिलवाया, वैसे हम सब को मिलवाना | इस कथा को कहने सुनने वालो का भला करना | 

बोलो सकट चौथ की जय | श्री गणेश देव की जय |

द्वितीय कथा[सम्पादन]

एक बार महादेवजी पार्वती सहित नर्मदा के तट पर गए। वहाँ एक सुंदर स्थान पर पार्वतीजी ने महादेवजी के साथ चौपड़ खेलने की इच्छा व्यक्त की। तब शिवजी ने कहा- हमारी हार-जीत का साक्षी कौन होगा? पार्वती ने तत्काल वहाँ की घास के तिनके बटोरकर एक पुतला बनाया और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करके उससे कहा- बेटा! हम चौपड़ खेलना चाहते हैं, किन्तु यहाँ हार-जीत का साक्षी कोई नहीं है। अतः खेल के अन्त में तुम हमारी हार-जीत के साक्षी होकर बताना कि हममें से कौन जीता, कौन हारा?

खेल आरंभ हुआ। दैवयोग से तीनों बार पार्वतीजी ही जीतीं। जब अंत में बालक से हार-जीत का निर्णय कराया गया तो उसने महादेवजी को विजयी बताया। परिणामतः पार्वतीजी ने क्रुद्ध होकर उसे एक पाँव से लंगड़ा होने और वहाँ के कीचड़ में पड़ा रहकर दुःख भोगने का शाप दे दिया।

बालक ने विनम्रतापूर्वक कहा- माँ! मुझसे अज्ञानवश ऐसा हो गया है। मैंने किसी कुटिलता या द्वेष के कारण ऐसा नहीं किया। मुझे क्षमा करें तथा शाप से मुक्ति का उपाय बताएँ। तब ममतारूपी माँ को उस पर दया आ गई और वे बोलीं- यहाँ नाग-कन्याएँ गणेश-पूजन करने आएँगी। उनके उपदेश से तुम गणेश व्रत करके मुझे प्राप्त करोगे। इतना कहकर वे कैलाश पर्वत चली गईं।

एक वर्ष बाद वहाँ श्रावण में नाग-कन्याएँ गणेश पूजन के लिए आईं। नाग-कन्याओं ने गणेश व्रत करके उस बालक को भी व्रत की विधि बताई। तत्पश्चात बालक ने 12 दिन तक श्रीगणेशजी का व्रत किया। तब गणेशजी ने उसे दर्शन देकर कहा- मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूँ। मनोवांछित वर माँगो। बालक बोला- भगवन! मेरे पाँव में इतनी शक्ति दे दो कि मैं कैलाश पर्वत पर अपने माता-पिता के पास पहुँच सकूं और वे मुझ पर प्रसन्न हो जाएँ।

गणेशजी ‘तथास्तु’ कहकर अंतर्धान हो गए। बालक भगवान शिव के चरणों में पहुँच गया। शिवजी ने उससे वहाँ तक पहुँचने के साधन के बारे में पूछा।

तब बालक ने सारी कथा शिवजी को सुना दी। उधर उसी दिन से अप्रसन्न होकर पार्वती शिवजी से भी विमुख हो गई थीं। तदुपरांत भगवान शंकर ने भी बालक की तरह 21 दिन पर्यन्त श्रीगणेश का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पार्वती के मन में स्वयं महादेवजी से मिलने की इच्छा जाग्रत हुई।

वे शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर आ पहुँची। वहाँ पहुँचकर पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा- भगवन! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया जिसके फलस्वरूप मैं आपके पास भागी-भागी आ गई हूँ। शिवजी ने ‘गणेश व्रत’ का इतिहास उनसे कह दिया।

तब पार्वतीजी ने अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा से 21 दिन पर्यन्त 21-21 की संख्या में दूर्वा, पुष्प तथा लड्डुओं से गणेशजी का पूजन किया। 21वें दिन कार्तिकेय स्वयं ही पार्वतीजी से आ मिले। उन्होंने भी माँ के मुख से इस व्रत का माहात्म्य सुनकर व्रत किया।

बाहरी कड़ियाँ[सम्पादन]

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