You can edit almost every page by Creating an account. Otherwise, see the FAQ.

सन १७७३ का रेग्युलेटिंग ऐक्ट

EverybodyWiki Bios & Wiki से
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

सन 1773 का रेग्युलेटिंग ऐक्ट  (Regulating Act) ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की गतिविधियों से सम्बंधित पहला महत्वपूर्ण संसदीय कानून था। कम्पनी शासन के अधीन लाये गये इस ऐक्ट का उद्देश्य भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की गतिविधियों को ब्रिटिश सरकार की निगरानी में लाना था। इसके अतिरिक्त इसका उद्देश्य कंपनी की संचालन समिति में आमूल-चूल परिवर्तन करना और कंपनी के राजनीतिक अस्तित्व को स्वीकार कर उसके व्यापारिक ढाँचे को राजनीतिक कार्यों के संचालन-योग्य बनाना भी था।

किसी भी शासन प्रणाली का यह प्रमुख कार्य होता है कि वह उसके शासकों के उद्देश्यों और लक्ष्यों की पूर्ति कर सके।भारत के विशाल साम्राज्य को हथिया लेने के बाद इस पर नियंत्रण करने और शासन-संचालन के लिए अंग्रेजों ने प्रशासन की एक नई प्रणाली को स्थापित किया। ब्रिटिश कंपनी का मुख्य लक्ष्य कंपनी के मुनाफे में बढ़ोत्तरी, भारत पर अधिकार को ब्रिटेन के लिए फायदेमंद बनाना और भारत पर ब्रिटिश पकड़ को मजबूत बनाये रखना था।

इतिहास[सम्पादन]

ईस्ट इंडिया कंपनी मूलतः एक व्यापारिक कंपनी थी, जिसका ढ़ाँचा पूर्वी देशों के व्यापार के लिए बनाया गया था। इसके सर्वोच्च अधिकारी भारत से हजारों मील दूर इंग्लैंड में रहते थे, फिर भी, इसने करोड़ों लोगों के ऊपर राजनीतिक आधिपत्य जमा लिया था। इस असामान्य स्थिति के कारण ब्रिटिश सरकार के सामने अनेक समस्याएँ खड़ी हो गईं, जैसे-ईस्ट इंडिया कम्पनी और उसके साम्राज्य का ब्रिटेन में बैठे कंपनी के अधिकारी किस तरह नियंत्रित करें? भारत स्थित अधिकारियों कर्मचारियों और सैनिकों पर कैसे अंकुश लगाया जाए? किस तरह बंगाल, मद्रास और बंबई में बिखरे हुए कंपनी के अधिकार-क्षेत्रों के लिए भारत में एक ही नियंत्रण-केंद्र स्थापित किया जाए? किस प्रकार ब्रिटेन के उभरते उद्योगपतियों को लाभकारी भारतीय व्यापार और भारत की विशाल संपत्ति में हिस्सा देकर संतुष्ट किया जाए आदि। इन समस्याओं के समाधान और ब्रिटिश राज्य तथा कंपनी के अधिकारियों के पारस्परिक संबंधों के पुनर्गठन के लिए समय-समय पर अनेक अधिनियम और अध्यादेश पारित किये गये, जिनके द्वारा भारत में संवैधानिक विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ।

रेग्युलेटिंग एक्ट पारित होने के कारण[सम्पादन]

ब्रिटिश अभिजात वर्ग की ईर्ष्या[सम्पादन]

बंगाल में द्वैध शासन के अधीन कंपनी के कर्मचारियों ने बंगाल को दिल खोलकर लूटा, जिससे समस्त प्रशासन अस्त-व्यस्त हो गया और बंगाल का पूर्ण विनाश हो गया। 1772 में वारेन हेस्टिंग्स के भारत आने के पहले तक अंग्रेज व्यापारी बंगाल से लूटे हुए सोने के थैले लेकर इंग्लैंड लौटते रहे और अपनी फिजूलखर्ची से अभिजातवर्ग के मन में ईष्र्या उत्पन्न करते रहे। पिट ज्येष्ठ ने इनको अंग्रेजी नवाबों की संज्ञा दी और आशंका व्यक्त की कि इस अपार धन से कहीं वे ब्रिटिश राजनीतिक जीवन को भ्रष्ट न कर दें। एच.एच. डाडवैल ने लिखा है: न केवल भारत में कुशासन द्वारा अंग्रेजी नाम को बट्टा लगने का भय था, अपितु यह भी भय था कि इंग्लैंड में भारतीय व्यापार में लगे लोग, जिन्हें अपार धन उपलब्ध था, भ्रष्ट संसदीय प्रणाली के कारण गृह मामलों में प्रभावशाली तथा अनुचित शक्ति प्राप्त करने में सफल न हो जायें। इसलिए इंग्लैंड में यह माँग की जाने लगी थी कि कंपनी के मामलों में संसदीय हस्तक्षेप किया जाना चाहिए।

इंग्लैंड में कम्पनी की प्रशासनिक संरचना[सम्पादन]

इंग्लैंड में कंपनी के प्रशासन के दो मुख्य अंग थे- कोर्ट आफ प्रोप्राइटर्स तथा कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स, जो कंपनी के मामलों पर नियंत्रण रखते थे। कोर्ट आफ प्रोप्राइटर्स के वे सदस्य जो छः माह से अधिक समय तक 500 पौंड से अधिक के शेयरधारक होते थे, वोट देकर कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स का चुनाव करते थे। निदेशक का पद बहुत महत्वपूर्ण होता था और धनवान भागीदार शेयरों को एकाधिकार में लेकर निदेशक बनने का प्रयास करते थे। मतों का यह क्रय-विक्रय और इससे संबद्ध कुकर्म ब्रिटिश जनता या सरकार से छुपे हुए नहीं थे।

कम्पनी की वित्तीय स्थिति[सम्पादन]

बंगाल से दीवानी की अत्यधिक धन-वसूली की आशा में कंपनी के भागीदारों ने 1776 में लाभांश 6 प्रतिशत से बढ़ाकर 10 प्रतिशत और अगले वर्ष 12.5 प्रतिशत कर दिया। इतने अधिक लाभांश को देखकर अंग्रेजी सरकार ने संसद के अधिनियम द्वारा कंपनी को आज्ञा दी कि कंपनी दो वर्ष तक सरकार को 400,000 पौंड प्रतिवर्ष देगी और फिर यह अवधि 1772 तक बढ़ा दी। किंतु 1771-72 में बंगाल में सूखा पड़ जाने के कारण फसलें नष्ट हो गईं। हैदरअली से संभावित युद्ध और कंपनी के कर्मचारियों की धन-लोलुपता कंपनी की वित्तीय स्थिति डावांडोल हो गई। कंपनी ने पहले ब्रिटिश सरकार को दिये जानेवाले 400,000 पौंड सालाना से छूट माँगी जिससे कंपनी पर ऋण की मात्रा बढ़ने लगी। 1772 में कंपनी ने वास्तविक स्थिति को छुपाकर 12.5 प्रतिशत लाभांश जारी रखा, जबकि कंपनी पर 60 लाख पौंड ऋण था। कंपनी को घाटे से उबारने के लिए डाइरेक्टरों ने बैंक आफ इंग्लैंड से 10 लाख पौंड के ऋण के लिए आवेदन किया। इससे ब्रिटिश सरकार को कंपनी की वास्तविक स्थिति को जानने का अच्छा अवसर मिल गया।

संसदीय जाँच समिति[सम्पादन]

नवंबर 1772 में ब्रिटिश सरकार ने कंपनी की कार्यविधि की जाँच करने के लिए दो समितियों की नियुक्ति की-एक प्रवर समिति, दूसरी गुप्त समिति। इन समितियों की जाँच में कंपनी के अधिकारियों द्वारा अपने अधिकारों के दुरुपयोग के कई प्रकरण सामने आये। जाँच समिति की रिपोर्ट के आधार पर भारत में कंपनी की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए 1773 में ब्रिटिश संसद ने दो अधिनियम पारित किये-पहले ऐक्ट के अनुसार कंपनी को 4 प्रतिशत की ब्याज पर 14 लाख पौंड कुछ शर्तों पर ऋण दिया गया। दूसरा अधिनियम रेग्युलेटिंग ऐक्ट था जिसके द्वारा कंपनी के कार्य को नियमित करने के लिए एक संविधान दिया गया।

सन्दर्भ[सम्पादन]


This article "सन १७७३ का रेग्युलेटिंग ऐक्ट" is from Wikipedia. The list of its authors can be seen in its historical and/or the page Edithistory:सन १७७३ का रेग्युलेटिंग ऐक्ट.



Read or create/edit this page in another language[सम्पादन]