सरदार जगदेव सिंह
त्रिवेणी संघ की स्थापना की पहल करने वाले सरदार जगदेव सिंह का जन्म 7 अप्रैल 1896 को हुआ था। तत्कालीन शाहाबाद और वर्तमान में रोहतास जिले के अंतर्गत आने वाले करगहर के गरभे नामक गाँव मे सरदार जी पले-बढ़े। वे केवल साक्षर थे लेकिन युवावस्था तक पहुचते-पहुचते सामाजिक भेद-भाव के खिलाफ और पिछड़े समुदायों के शिक्षा-दीक्षा के लिए सक्रिय हो चुके थे। वे एक सीमांत किसान परिवार से आते थे और ब्राह्मणवादी सामंतवादी व्यवस्था से बहुत खिन्न रहते थे। बेगारी और छुवाछुत प्रथा से बहुत दुखी रहते थे।
सुरुआति दौर में यादव महासभा और आर्यसमाज के जनेऊ आंदोलन में सक्रियता से भाग लिए पर जल्द ही इन अभियानों की ख़ामियों और सीमाओं से परिचित हो गए, उनको इनकी सीमाओं का भान हो गया और वे एक ऐसे व्यापक संगठन बनाने का सपना देखने लगे जिसके छतरी के नीचे सभी पिछड़ो-शोषितों को लाया जा सके। यही सपना त्रिवेणी संघ के परिकल्पना का आधार बना । अब सभी पिछड़े शोषित एक साथ रहकर शोषण और अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार थे।
”संगठन में ही शक्ति है” त्रिवेणी संघ का सूत्र वाक्य था …
बिहार में ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद से मुक्ति की शुरुआती लड़ाई त्रिवेणी संघ ने ही लड़ी । ब्राह्मणी विधि से अलग जयमाला और प्रतिज्ञा पत्र द्वारा शादी तथा भंडारा पद्धति से श्राद्ध-कर्म शुरू किया गया जिसमे ब्राह्मण की कोई जरूरत नहीं रहती। जयमाला एवं शपथपत्र युक्त गैर-ब्राह्मण पद्धति से उतर भारत मे पहला विवाह 1960 में सम्पन्न हुआ , जो तमिलनाडु में 1950 के आस-पास से ही शुरू हो गया था। यह ऐतिहासिक विवाह त्रिवेणी संघ के संस्थापक सरदार जगदेव सिंह के पोता एवं विक्रमगंज से सांसद रहे शिवपूजन सिंह ‘शास्त्री’ जी की बेटी के बीच हुआ । इसमें आचार्य की भूमिका बाबू जगजीवन राम ने निभाई थी।
सरदार जी युवावस्था में ही सामाजिक कार्यो में सक्रियता से भाग लेने लगे थे। ये इलाके के जाने-माने पहलवान थे और थोड़ा ओझाई भी करते थे। हुआ यह कि इनके एक भतीजे को सांप काट लिया। चुकी ये तबतक स्वयं को ओझा भी मानते थे, भगवान पर असीम श्रद्धा भी रखते थे, इन्होंने भतीजे का स्वयं झाड़-फूक शुरू किया .. लेकिन इनका सर्वप्रिय भतीजा बच न सका, उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद जिन्हीने भगवान को बहुत बुरा भला कहा, सभी तरह के देवता-पितर के पिंड को गाँव भर से उखाड़ कर फेंक दिया और सदा के लिए किसी भी तरह के पूजा पाठ को स्वयं ही नही वल्कि अपने गांव भर से बिदाई कर दिया। इस घटना का जिक्र सभी करते हैं, क्योकि तभी से उनके गांव में कोई मंदिर बनने पर रोक लग गई थी, लेकिन एक्जैक्ट कब का यह घटना है यह जानना जरूरी है। खैर, यह उनके सामाजिक जीवन के शुरू में ही यह घटना घटी प्रतीत होती है।
इस प्रकार इस अप्रत्याशित घटना से सरदार जी स्वयं और अपने सगे-संबंधियों को धर्म के आडम्बर से पूर्णतः मुक्त कर दिया था। उनके जीवन काल मे ही नही वल्कि हाल तक भी उनके गाँव मे न कोई मंदिर था न ही कोई धार्मिक उत्सव मानता था। पंडे-पुजारियों पर गाँव मे प्रवेश पर रोक थी। हाँ, सामाजिक उत्सव हमेशा होता रहता... प्रशिक्षण शिविर भी चलता था ..
स्वयं इलाके के अच्छे पहलवान तो थे ही परिवार भी संगठित था इसलिए वहाँ से भी मजबूत थे पर सामाजिक स्तर पर पिछड़े वंचित वर्ग से आने के कारण वे सामाजिक कमजोरी महसूस करते थे । अब इस कमजोरी को दूर करने के लिए वे अपने समाज को संगठित करने की दिशा में आगे बढ़े। इस प्रकार सर्वप्रथम वे जातिय संगठन में सक्रिय भूमिका निभाने लगे। अब उन्हें संगठन के शक्ति का भली भांति एहसास हो गया था। यादव महासभा के केंद्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रहे सरदार जी को बहुत पढ़े लिखे नही होने के बावजूद भी जातिय संगठन की सीमा का बहुत जल्द ही भान हो गया। अब वे जाति से जमात की संगठन बनाने की ओर बढ़े। ऐसे में अन्य जातियों के संगठनों में सक्रिय बौद्धिक नेताओ से सम्पर्क बढ़ाने लगे। इस प्रकार बहुत जल्द ही त्रिवेणी संघ ने मूर्त रूप ले लिया।
संगठनकर्ता और नेतृत्वकर्ता के नैसर्गिक गुण के मालिक सरदार जी ने समय को पहचानते हुए यह क्रांतिकारी कदम उठाया था अतः यह बहुत तेजी से आगे बढ़ा और सभी ने उत्साह पूर्वक इसका समर्थन किया। त्रिवेणी संघ का संगठन दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा। इसके बैनर तले न केवल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड वल्कि विधान सभा का चुनाव भी लड़ा गया। इससे केवल सामाजिक ध्रुवीकरण में ही मदद नही मिला वल्कि पहली बार पिछड़ो-वंचितों ने चुनावी जीत के रूप में सफलता का स्वाद चखा जिससे उनका उत्साह और आत्मसम्मान सातवें आसमान पर पहुँच गया। अब शोषक विरोधियों के कैम्प में कोहराम मच गया। तरह तरह के सडयंत्र शुरू हो गए। ऐसे में उनका सबसे कारगर अस्त्र बांटों और राज करो के तहत यह बात फैलाया जाने लगा कि त्रिवेणी संघ केवल तीन जाति का संगठन है और वो भी इन जातियों के जमींदारों और बड़े किसानों तक सीमित है। दूसरा दुष्प्रचार यह कि इसमें सत्ता के लोभी लोगो का भरमार है। तीसरा यह कि यहां अंग्रेजो के साठ-गांठ से बना है .... आदि-आदि
ऐसी स्थिति में सरदार जी समेत इसके सभी नेताओं ने अब महसूस किया कि संघ का नीति, कार्यक्रम और विचार को लिखित रूप में स्पष्ट कर देना चाहिए। ऐसे में यह कार्यभार सबसे युवा और तेजतर्रार नेता यदुनंदन प्रसाद मेहता जी को यह कार्यभार सौंपा गया जिसे उन्होंने सफलता पूर्वक निर्वहन करते हुए 1940 में "त्रिवेणी संघ का विगुल" के नाम से प्रकाशित कराया।
इस पुस्तक में त्रिवेणी संघ के बारे में जीतने भी दुष्प्रचार किए जाते थे उन सबका माकूल जबाब दे दिया गया था। साथ ही इसके नीतियों , कार्यक्रमो और उद्देश्यों पर व्यापक चर्चा किया गया। परन्तु विडम्बना यह है कि आज भी उसके बारे में बहुत सी भ्रांतियां विधमान हैं। जब कि विगुल में सभी का पर्याप्त रूप से खंडन और स्पष्टीकरण दे दिया गया है। इसका एकमात्र कारण पिछड़े-वंचितों में व्याप्त अविद्या के अलावे कुछ नही हो सकता ।
त्रिवेणी संघ के सभी संस्थापक सीमांत किसान थे और जब आंदोलन जोर पकड़ लिया और चुनाव लड़ने की बारी आई तब एके-दुके पिछड़े धनी किसान इसके तरफ आकर्षित हुए थे।जब कि तथ्य यह है कि सरदार जी सहित इसके किसी भी संस्थापक नेता ने न कभी चुनाव लड़ा और न ही कभी कोई पद लिया।
सभी पिछड़ो के लिए सिंह टाइटल को अपनाने के पीछे इसका उद्देश्य पिछड़ो के अलग-अलग जातीय पहचान को मिटाना था टाइटिल को त्यागकर एक जैसा टाइटिल अपनाने से भाईचारा का सैद्धान्तिक नींव डालने के साथ ही आत्मसम्मान और आपसी एकता बढ़ाना था।
भले ही राजनीतिक संगठन के रूप में यह ज्यादा दिन नही टिक सका पर सामाजिक संगठन के रूप में यह कभी खत्म नही हुआ । इसका असर आज भी देखा जा सकता है। सातवी दसक में जब जगदीश मास्टर और रामेश्वर अहीर ने क्रांति की नींव रखी तो इसी से शुरुआत में इंस्पिरेशन लिए .. 12 दिसम्बर 1969 को सरदार जी ने अंतिम सांस ली।
संदर्भ[सम्पादन]
- भोजपुर बिहार में नक्सलवादी आंदोलन
- जे. एन. पी. मेहता, चौधरी (2019-10-12). "त्रिवेणी संग का बिगुल". फॉरवर्ड प्रेस. https://www.forwardpress.in/2019/10/history-triveni-sangh-bihar-hindi/.
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